उपन्यास >> एक ब्रेक के बाद (सजिल्द) एक ब्रेक के बाद (सजिल्द)अलका सरावगी
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अलका सरावगी का यह नया उपन्यास कॉरपोरेट इंडिया की तमाम मान्यताओं, विडम्बनाओं और धोखों से गुजरता है।
उम्र के जिस मुकाम पर लोग रिटायर होकर चुक जाते हैं, के. वी. शंकर अय्यर के पास नौकरियाँ चक्कर लगा रही हैं। के.वी. मानते हैं कि इंडिया के इकोनॉमिक ‘बूम’ में देश की एक अरब जनता के पास खुशहाली के सपने हैं। दुनिया का शासन अब सरकारों के हाथ नहीं, कॉरपोरेट कम्पनियों के हाथों में है।
मल्टीनेशनल कम्पनी का एक्जीक्यूटिव गुरुचरण राय के.वी. की बातों को बिना काटे सुनता रहता है। वह बीच-बीच में पहाड़ों पर क्या करने जाता है, इसकी कोई भनक के.वी. को नहीं है। अन्ततः वह कम्पनी के काम से मध्यप्रदेश के किसी सुदूर प्रान्त में जाकर लापता हो जाता है। एक ब्रेक के बाद, जिसमें वह एक आई-गई ख़बर हो गया है, के. वी. को मिलती हैं उसकी डायरियाँ, जिसमें लिखी बातों का कोई तुक उन्हें नजर नहीं आता।
उपन्यास के तीसरे पात्र भट्ट की नियति एक नौकरी से दूसरी नौकरी तक शहर-शहर भटकने की है। कॉरपोरेट दुनिया के थपेड़े खाते-खाते वह बीच में गुरुचरण उर्फ गुरु के साथ पहाड़-पहाड़ घूमता है। स्त्रियों के साथ सम्बन्धों में गुरु क्या खोजता है या उसका क्या सपना है, यह जाने बगैर गुरु के साथ भट्ट यायावरी करता जीवन के कई सत्यों से टकराता रहता है।
अलका सरावगी का यह नया उपन्यास कॉरपोरेट इंडिया की तमाम मान्यताओं, विडम्बनाओं और धोखों से गुजरता है। इस दुनिया के बाजू में कहीं वह पुराना ‘पोंगापंथी’ और पिछड़ा भारत है, जहाँ तीस करोड़ लोग सड़क के कुत्तों जैसी जिन्दगी जीते हैं। कॉरपोरेट इंडिया अपने लुभावने सपनों में खोया यह मान लेता है कि ‘ट्रिकल डाउन इफेक्ट’ से नीचेवालों को देर-सबेर फायदा होना ही है।
गुरुचरण का कॉरपोरेट जगत का चोला छोड़कर सिर्फ गुरु बनकर जीने का निर्णय तथाकथित विकास की अन्धी दौड़ का मौन प्रतिरोध है। गुरु के रूप में भी उसकी मृत्यु एक तरह से औपन्यासिक आत्महत्या मानी जा सकती है। जिस तरह की संवेदनात्मक दुनिया बनाने का उसका सपना है, उसकी कब्र पर कॉरपोरेट इंडिया उग आया है, जिसमें भट्ट जैसे लोगों के नये सपने और नई सफलताएँ हैं।
मल्टीनेशनल कम्पनी का एक्जीक्यूटिव गुरुचरण राय के.वी. की बातों को बिना काटे सुनता रहता है। वह बीच-बीच में पहाड़ों पर क्या करने जाता है, इसकी कोई भनक के.वी. को नहीं है। अन्ततः वह कम्पनी के काम से मध्यप्रदेश के किसी सुदूर प्रान्त में जाकर लापता हो जाता है। एक ब्रेक के बाद, जिसमें वह एक आई-गई ख़बर हो गया है, के. वी. को मिलती हैं उसकी डायरियाँ, जिसमें लिखी बातों का कोई तुक उन्हें नजर नहीं आता।
उपन्यास के तीसरे पात्र भट्ट की नियति एक नौकरी से दूसरी नौकरी तक शहर-शहर भटकने की है। कॉरपोरेट दुनिया के थपेड़े खाते-खाते वह बीच में गुरुचरण उर्फ गुरु के साथ पहाड़-पहाड़ घूमता है। स्त्रियों के साथ सम्बन्धों में गुरु क्या खोजता है या उसका क्या सपना है, यह जाने बगैर गुरु के साथ भट्ट यायावरी करता जीवन के कई सत्यों से टकराता रहता है।
अलका सरावगी का यह नया उपन्यास कॉरपोरेट इंडिया की तमाम मान्यताओं, विडम्बनाओं और धोखों से गुजरता है। इस दुनिया के बाजू में कहीं वह पुराना ‘पोंगापंथी’ और पिछड़ा भारत है, जहाँ तीस करोड़ लोग सड़क के कुत्तों जैसी जिन्दगी जीते हैं। कॉरपोरेट इंडिया अपने लुभावने सपनों में खोया यह मान लेता है कि ‘ट्रिकल डाउन इफेक्ट’ से नीचेवालों को देर-सबेर फायदा होना ही है।
गुरुचरण का कॉरपोरेट जगत का चोला छोड़कर सिर्फ गुरु बनकर जीने का निर्णय तथाकथित विकास की अन्धी दौड़ का मौन प्रतिरोध है। गुरु के रूप में भी उसकी मृत्यु एक तरह से औपन्यासिक आत्महत्या मानी जा सकती है। जिस तरह की संवेदनात्मक दुनिया बनाने का उसका सपना है, उसकी कब्र पर कॉरपोरेट इंडिया उग आया है, जिसमें भट्ट जैसे लोगों के नये सपने और नई सफलताएँ हैं।
एक ब्रेक के बाद
षष्टिपूर्ति, तृप्ति और के.वी.
के.वी. शंकर अय्यर भी कुछ दिन पहले पूरे साठ साल के हो गए। उनके जन्मदिन
की सुबह चार पंडित के समवेत मंत्रोच्चार के साथ हवन करते हुए घर के
पिछवाड़े में हुई, जहाँ उगते सूरज का हल्का नारंगी अक्स के.वी. की शैम्पेन
से अलसाई आँखों पर पड़ रहा था। अब यार-दोस्त ऐसे मौके पर जमा भी न हों, तो
फिर उनका होना न होना क्या ? रात बारह बजते ही पूरा घर दोस्तों की भीड़ से
छोटा पड़ गया था।
के.वी. ने पंडितों के उच्चारण की शुद्धता पर प्रसन्न होते हुए पत्नी की ओर देखा। षष्टपूर्ति पर पत्नी के साथ फिर से विवाह की पूरी रस्म नादस्वरम् की गूँज के बीच बाकायदा फेरे लेकर की थी जिसे बीस साल बाद अस्सी पूरा होने पर फिर से दोहराने की उन्हें पूरी उम्मीद थी। पत्नी की आँखों में जमाने की तृप्ति देख के.वी. की खुशी बढ़ गई। जीवन में तीन चीजों के खटराग से उन्हें चिढ़ है—अशुद्ध संस्कृत, बेसुरा गाना और असंतुष्ट औरतें।
हवन से उठकर के.वी. अपने पूजाघर के आसन पर जा बैठे। रोज की तरह कपालेश्वर शिव, गुरु और पिता को लाइन से प्रणाम कर उन्होंने अपने दाहिने हाथ की अंगुली से बाईं हथेली पर लिखा-60 और अपनी हथेली को एक टक देखते रहे मानो वह साठ साल का अंक उन्होने अपने लेटर-पैट के पन्ने पर अपनी उस ‘ड्यू पौंट’ की महंगी कलम से लिखा हो, जो उन्हें मालूम था कि आज उन्हें दफ्तर में बॉस भेंट करने वाला था।
श्री के.वी. शंकर अय्यर का चेहरा दमदमा रहा था। लोग साठ तक आते-आते ‘सठिया’ जाते हैं, पर के.वी. उस नस्ल के हैं जिसके लिए कहावत बनी है-‘साठा में पाठा’। हो सकता है कि उनकी पत्नी इस बात से सहमत न हों, पर वह उनकी पत्नी ही जानती हैं। पूरे शहर के किसी दफ्तर में ऊपर से नीचे तक एक भी ऐसा शख्स नहीं होगा जो उनकी तकदीर से रश्क न करता हो। जिस उम्र में लोग रिटायर होकर जीने का कोई ठौर या नया तरीका खोजने में बुझते चले जाते हैं, उम्र के उसी मुकाम पर के.वी. शहर में सबसे ज़्यादा पैसा पाने वाले ‘मार्केटिंग कन्सल्टेन्ट’ हैं। उनके आस-पास नौकरियाँ चक्कर लगाती हैं बजाय इसके कि वे नौकरी के लिए किसी के चक्कर काटें। पहली नौकरी से आज तक ताउम्र ऐसा नहीं हुआ कि एक नौकरी छोडऩे और दूसरी नौकरी पकडने के बीच के.वी. एक दिन बेरोजगार रहे हों। क्या मजाल कि उनके अंग्रेजी के लहजे से कोई पकड़ से कि उनका जन्म आज के चेन्नई और उन दिनों के मद्रास से सौ मील दूर एक गाँव में हुआ था। या कि तेरह साल की उम्र में जब वे बड़े भाई के पास एक शर्ट और वेष्टि लेकर दिल्ली आए थे, तब वे अंग्रेजी के सिर्फ अक्षर पहचानते थे। यही वह दिल्ली थी जिसमें दक्षिण का नेता कामराज नेहरू बाद प्रधानमंत्री बनते-बनते इसलिए रह गया था क्योंकि वह अंग्रेजी नहीं जानता था। के.वी. जीवन में नाकाम होने का कोई सुराग नहीं छोड़ना चाहते थे।
के.वी. शंकर अय्यर कोई काले फ्रेम का मोटा चश्मा नहीं लगाते। यह बताना इसलिए जरूरी है कि प्रायः लोग उनसे मिलने के पहले अपनी कल्पना में उन्हें ऐसा चश्मा जरूर पहना देते हैं। प्रतिभाशाली तमिल ब्राह्मण की यह छवि उनमें किस बड़े वैज्ञानिक लेखक अफसर या मंत्री के कारण बनी है, यह तो ठीक-ठीक पता नहीं। पर के.वी. उस कवि को अपनी चश्में रहित पैनी आँखों और मोटे होंठो वाली खुली मुस्कान से तोड़ देते हैं। उनकी जुबान की धार हर किसी को काट सकती है। चोट खाए हुए लोगों ने दिल्ली की उनकी नौकरी के दौरान उनके खास दोस्त रंगनाथ को साथ जोड़कर ‘साउथ इंडियन फॉक्सेज’ यानी ‘दक्षिण भारतीय लोमडियों’ का खिताब उन्हें पीठ पीछे दे रखा था।
के.वी. यह बात बताते हुए हमेशा जोरदार ठहाका लगाते हैं। दरअसल उन्हें अपने बारे में की गई हर तरह की चर्चा पसन्द है। वे लोगों की बातचीत के विषय रहना चाहते हैं। अभी उन्होंने पाँच महीने पहले अपना ‘कन्सल्टेशन’ यानी सलाहकार का काम छोड़कर एक नई नौकरी पकड़ी है। कोई उनसे अगर पूछता है कि चार फर्मों में सलाहकार बनकर वे जितना कमा रहे थे, उससे क्या ज्यादा कमाई यह नौकरी उन्हें देगी, तो के.वी. शंकर अय्यर एक क्षण के लिए अपनी पैनी आँखें झुका लेते हैं। फिर वे पूछने वाले की आँखों में गहराई से एकटक देखते हैं मानों उसे तौल रहे हों।
आपको यह जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अपना बॉस खुद होने की आजादी उन्होंने इसलिए छोड़ी है कि पहले एक पुराने बॉस चोरड़िया ने उन्हें फोन करके कहा—‘दोस्त, तुम्हारे बिना एकदम अकेला हूँ। आज की दुनिया में बेटे कभी बाप के साथी नहीं होते। नई फैक्टरी लगाने में तुम्हारे बिना कोई मजा नहीं।’’
बेशक के.वी. एक सफल मैनेजर हैं, पर किसी को इस बारे में शक क्यों हो कि वे एक सच्चे इन्सान भी हैं। चोरड़िया ने उन्हें कभी अपना नौकर माना था ? कभी नहीं। वरना इस देश में चपरासी से लेकर मैनेजर तक हर आदमी बॉस का गुलाम होता है। आपने वह कहानी सुनी है जब एक उद्योगपति ने अपने सूट-बूट पहने मैनेजर को हाथ हिलाकर दिखाते हुए इंदिरा गाँधी से कहा था—‘‘ये सब हमारे नौकर हैं।’’
के.वी. के पास इस तरह के किस्सों की भरमार है। बतरस का आनंद जैसा उनके पास है वैसा और कहाँ ? बशर्ते कि उनके व्यंग्य की धार आपकी तरफ न हो। वरना तो वह आपको दो टुकड़े में काटकर रख सकती है। के.वी. की यह खासियत है कि वे अपनी प्रतिभा के फायदे और नुकसान दोनों जानते हैं। ‘‘हम मार्केटिंग के आदमियों का एक पाँव इधर, तो दूसरा पाँव नारद मुनि की तरह कहीं और रहता है। नारद मुनि की तरह हम कहीं टिकते नहीं और उन्हीं की तरह थोड़ी-सी बात इधर की उधर और उधर की इधर तो हो ही जाती है’’—के.वी. ठहाका लगाकार बताते हैं।
बहरहाल, के.वी चार फर्मों में सलाहकार के अपने काम को छोड़कर—जो उनकी फितरत के बिलकुल माकूल था—अगर चोरड़िया के पास लौट आए हैं, तो सिर्फ इसलिए कि उसने उन्हें हमेशा बराबरी का दर्जा दिया था। बराबरी यानी कि बाकी सबसे ऊपर। ब्राह्मण यो भी चारों वर्णों में सबसे ऊपर रहता आया है। अगर के.वी. ने अपने जनेऊ को उतारकर खूँटी पर हमेशा के लिए टाँग दिया है, तो इसका अर्थ है यह तो नहीं कि कि सबसे ऊपर रहने वालों के बराबर रहने की इच्छा भी उन्होंने जनेऊ के साथ ताक पर रख दी है। कोई यदि कहे कि ऊपरवालों को ही इक्कीसवीं सदी में इंडिया की उन्नति की सारी क्रीम खाने को मिल रही है, तो के.वी. अंग्रेजी के ‘ट्रिकल-डाऊन इफेक्ट’ का भारतीय अनुवाद करके तुरन्त कहते हैं—अरे पानी तो पहाड़ से नीचे ही बहता है। गंगा क्या एकदम नीचे उतरकर समुद्र तक नहीं आती ?
के.वी के चोरड़िया को पुनः पकड़ने के पीछे एक बहुत मोटा सालाना तनख्वाह का पैकेज है, ऐसा कहने वाले कहते हैं। लेकिन जानने वाले यह जानते हैं कि यह कोई खास बात नहीं है। के.वी. क्या नहीं जानते कि पिछले दो सालों में इंडिया में टॉप इक्जीक्यूटिव की तनख्वाह सालाना चार करोड़ तक पहुँच गई है। एक करोड़ पाने वाले तो सैकड़ों की तादाद में मिल जाएँगे। के.वे. खुद कहते हैं अब नौकरी की दुनिया खरीददारों की मार्केट नहीं है, बेचनेवाले की मार्केट है। जो बीस हजार की नौकरी छोड़ता है, वह जानता है कि पच्चीस हजार की नौकरी उसके लिए तैयार है। किसी जूनियर को कोई डाँट-वाँट लगानी हो, तो तैयार रहना पड़ता है कि शाम को घर जाते समय आपको नौकरी छोड़ने का नोटिस पकड़ाता हुआ जाएगा।
के.वी. इस बात को कहते हुए कुछ सोच में पड़ जाते हैं। शायद बदले हुए समय के तकाजे से उन्हे अपनी जुबान की धार का इस्तेमाल करने में कटौती करनी पड़ रही है। खासकर तबसे जबकि एक फर्म के एच.आर. डिपार्टमेन्टयानी ह्यूमन रिसोर्सेज के प्रमुख ने उन्हें सूचना दी कि पिछले साल कम्पनी ने चार महत्त्वपूर्ण योग्य आदमियों को खो दिया, जिनके बदले कम्पनी को उनसे डेढ़ गुनी तनख्वाह पर पाँच आदमी रखने पड़े। ‘एक्जीट’ यानी छोड़कर जाते हुए आखिरी इंटरव्यू में उनमें से तीन अपने जने की वजह के.वी. को ठहराया और चौथा अपना मुँह सिलकर रह गया था। तब से के.वी. ने यह समझ लिया कि इंडिया की ‘इकोनॉमिक बूम’ या आर्थिक उछाल के साथ- साथ इंडिया में धीरज और सहनशीलता के गुण डूब गए। अब साफगोई का जमाना भी गया कि आप किसी जुङते हुए सच को बेझिझक कह डाले वरना तो चार साल पहले चोरड़िया को छोड़ते समय के.वी. ने उसे साफ-साफ कह दिया था—तुम्हारा बेटा है, इसलिए उछल रहा है। विदेश में भी पैसे फूँक कर डिग्री क्या ले ली, अपने को तीसमारखाँ समझ रहा है। वह भी कोई हावर्ज से नहीं किसी सेकेंट-ग्रेज यूनिवर्सिटी से। तुम क्या नहीं जानते कि उसमें एक चपरासी की नौकरी करने की भी काबिलियत नहीं है !
के.वी. चोरड़िया से जो भी तनख्वाह के ‘पैकेज’ का ‘ऑफर’ आया हो, प्रमाण यही कहते हैं कि उन्होंने अपना अच्छा-भला चलता हुआ काम चोरड़िया के अकेलेपन को दूर करने के लिए किया है। यदि ऐसा नहीं होता, तो क्या वे ‘रिलायंस’ जैसी कम्पनी का ‘ऑफर’ यह कहकर ठुकरा देते कि वे ‘जॉब’ मार्केट में बिकाऊ नहीं है ? कौन नहीं जानता कि ऐसी कम्पनियों की ऊँची पोस्ट पर बैठे अफसरों के लिए अब प्राइवेट हवाई जहाज होते हैं, दूर-दराज किसी सुनसान द्वीप छुट्टियाँ बिताने के लिए प्राइवेट ‘शिप’ या ‘यॉट’ होते हैं उनके फार्म-हाऊस में उनके घोड़े पलते हैं। और यह सब नहीं होता, तो इन सब चीजों के सपने होते हैं। जमाना ‘ये दिल माँगे मोर’ का है। बस्तर के गाँव में अपनी झोंपुड़ी में बैठकर आदिवासी टी.वी पर वाशिंग मशीन में कपड़े धुलते देख रहा है और डबल-डोर फ्रिज में जाने कब से रखी ताजी लौकी और टमाटर की गाथा सुन रहा है। इस देश की एक अरब जनता अब एक साथ सपने देख रही है—फर्क यही है कि किसी के सपने छोटे तो किसी के ज्यादा बड़े सपने।
यदि के.वी. ने चोरड़िया के एक भावुक वाक्य के लिए अपने सपनों में कटौती कर ली, तो यह मानना पड़ेगा कि आज भी दुनिया बदली नहीं है। भले ही ‘नौकरी डॉटकॉम’ या ‘जॉब डॉटकॉम’ आपको उन कारणों की लंबी सूची पकड़ा रहे हैं जिनके कारण आपको पुरानी नौकरी बदल लेनी चाहिए—
क्या आप अपने काम से ऊब गए हैं ?
क्या आपको लगता है कि आपकी तनख्वाह योग्यता से कम है ?
क्या आपको काम में कोई चुनौती नहीं मिल रही है ?
क्या आपका बॉस आपका अपमान करता है ?
क्या आपसे गधाखटनी करवागर शोषण किया जा रहा है ?
के.वी. को इस बात का गहरा अहसास है कि उन्होंने जीवन में अहसासों को सही महत्त्व दिया है। उनके पिता की मृत्यु पर जब पुरोहित ने उन्हें अपने पिता का अंतिम संस्कार करने से इसलिए रोक दिया था कि उनकी पत्नी न तमिल हैं और न ब्राह्मण, दुनिया जानती है कि के.वी. ने क्या किया। उन्होंने पुरोहित से इस कदर जिरह की थी कि वह कुछ बोलने लायक नहीं रहा। क्या आप मुझे अपने पति का पुत्र मानने से इनकार करते हैं ? क्या आप यह प्रमाणित कर सकते हैं कि उन्होंने मुझे जन्म नहीं दिया ? क्या आप उस ईश्वर से भी बड़े हैं जिसने मुझे उनका पुत्र बनने का निर्णय किया था ? वगैरह, वगैरह।
के.वी. ने पंडितों के उच्चारण की शुद्धता पर प्रसन्न होते हुए पत्नी की ओर देखा। षष्टपूर्ति पर पत्नी के साथ फिर से विवाह की पूरी रस्म नादस्वरम् की गूँज के बीच बाकायदा फेरे लेकर की थी जिसे बीस साल बाद अस्सी पूरा होने पर फिर से दोहराने की उन्हें पूरी उम्मीद थी। पत्नी की आँखों में जमाने की तृप्ति देख के.वी. की खुशी बढ़ गई। जीवन में तीन चीजों के खटराग से उन्हें चिढ़ है—अशुद्ध संस्कृत, बेसुरा गाना और असंतुष्ट औरतें।
हवन से उठकर के.वी. अपने पूजाघर के आसन पर जा बैठे। रोज की तरह कपालेश्वर शिव, गुरु और पिता को लाइन से प्रणाम कर उन्होंने अपने दाहिने हाथ की अंगुली से बाईं हथेली पर लिखा-60 और अपनी हथेली को एक टक देखते रहे मानो वह साठ साल का अंक उन्होने अपने लेटर-पैट के पन्ने पर अपनी उस ‘ड्यू पौंट’ की महंगी कलम से लिखा हो, जो उन्हें मालूम था कि आज उन्हें दफ्तर में बॉस भेंट करने वाला था।
श्री के.वी. शंकर अय्यर का चेहरा दमदमा रहा था। लोग साठ तक आते-आते ‘सठिया’ जाते हैं, पर के.वी. उस नस्ल के हैं जिसके लिए कहावत बनी है-‘साठा में पाठा’। हो सकता है कि उनकी पत्नी इस बात से सहमत न हों, पर वह उनकी पत्नी ही जानती हैं। पूरे शहर के किसी दफ्तर में ऊपर से नीचे तक एक भी ऐसा शख्स नहीं होगा जो उनकी तकदीर से रश्क न करता हो। जिस उम्र में लोग रिटायर होकर जीने का कोई ठौर या नया तरीका खोजने में बुझते चले जाते हैं, उम्र के उसी मुकाम पर के.वी. शहर में सबसे ज़्यादा पैसा पाने वाले ‘मार्केटिंग कन्सल्टेन्ट’ हैं। उनके आस-पास नौकरियाँ चक्कर लगाती हैं बजाय इसके कि वे नौकरी के लिए किसी के चक्कर काटें। पहली नौकरी से आज तक ताउम्र ऐसा नहीं हुआ कि एक नौकरी छोडऩे और दूसरी नौकरी पकडने के बीच के.वी. एक दिन बेरोजगार रहे हों। क्या मजाल कि उनके अंग्रेजी के लहजे से कोई पकड़ से कि उनका जन्म आज के चेन्नई और उन दिनों के मद्रास से सौ मील दूर एक गाँव में हुआ था। या कि तेरह साल की उम्र में जब वे बड़े भाई के पास एक शर्ट और वेष्टि लेकर दिल्ली आए थे, तब वे अंग्रेजी के सिर्फ अक्षर पहचानते थे। यही वह दिल्ली थी जिसमें दक्षिण का नेता कामराज नेहरू बाद प्रधानमंत्री बनते-बनते इसलिए रह गया था क्योंकि वह अंग्रेजी नहीं जानता था। के.वी. जीवन में नाकाम होने का कोई सुराग नहीं छोड़ना चाहते थे।
के.वी. शंकर अय्यर कोई काले फ्रेम का मोटा चश्मा नहीं लगाते। यह बताना इसलिए जरूरी है कि प्रायः लोग उनसे मिलने के पहले अपनी कल्पना में उन्हें ऐसा चश्मा जरूर पहना देते हैं। प्रतिभाशाली तमिल ब्राह्मण की यह छवि उनमें किस बड़े वैज्ञानिक लेखक अफसर या मंत्री के कारण बनी है, यह तो ठीक-ठीक पता नहीं। पर के.वी. उस कवि को अपनी चश्में रहित पैनी आँखों और मोटे होंठो वाली खुली मुस्कान से तोड़ देते हैं। उनकी जुबान की धार हर किसी को काट सकती है। चोट खाए हुए लोगों ने दिल्ली की उनकी नौकरी के दौरान उनके खास दोस्त रंगनाथ को साथ जोड़कर ‘साउथ इंडियन फॉक्सेज’ यानी ‘दक्षिण भारतीय लोमडियों’ का खिताब उन्हें पीठ पीछे दे रखा था।
के.वी. यह बात बताते हुए हमेशा जोरदार ठहाका लगाते हैं। दरअसल उन्हें अपने बारे में की गई हर तरह की चर्चा पसन्द है। वे लोगों की बातचीत के विषय रहना चाहते हैं। अभी उन्होंने पाँच महीने पहले अपना ‘कन्सल्टेशन’ यानी सलाहकार का काम छोड़कर एक नई नौकरी पकड़ी है। कोई उनसे अगर पूछता है कि चार फर्मों में सलाहकार बनकर वे जितना कमा रहे थे, उससे क्या ज्यादा कमाई यह नौकरी उन्हें देगी, तो के.वी. शंकर अय्यर एक क्षण के लिए अपनी पैनी आँखें झुका लेते हैं। फिर वे पूछने वाले की आँखों में गहराई से एकटक देखते हैं मानों उसे तौल रहे हों।
आपको यह जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अपना बॉस खुद होने की आजादी उन्होंने इसलिए छोड़ी है कि पहले एक पुराने बॉस चोरड़िया ने उन्हें फोन करके कहा—‘दोस्त, तुम्हारे बिना एकदम अकेला हूँ। आज की दुनिया में बेटे कभी बाप के साथी नहीं होते। नई फैक्टरी लगाने में तुम्हारे बिना कोई मजा नहीं।’’
बेशक के.वी. एक सफल मैनेजर हैं, पर किसी को इस बारे में शक क्यों हो कि वे एक सच्चे इन्सान भी हैं। चोरड़िया ने उन्हें कभी अपना नौकर माना था ? कभी नहीं। वरना इस देश में चपरासी से लेकर मैनेजर तक हर आदमी बॉस का गुलाम होता है। आपने वह कहानी सुनी है जब एक उद्योगपति ने अपने सूट-बूट पहने मैनेजर को हाथ हिलाकर दिखाते हुए इंदिरा गाँधी से कहा था—‘‘ये सब हमारे नौकर हैं।’’
के.वी. के पास इस तरह के किस्सों की भरमार है। बतरस का आनंद जैसा उनके पास है वैसा और कहाँ ? बशर्ते कि उनके व्यंग्य की धार आपकी तरफ न हो। वरना तो वह आपको दो टुकड़े में काटकर रख सकती है। के.वी. की यह खासियत है कि वे अपनी प्रतिभा के फायदे और नुकसान दोनों जानते हैं। ‘‘हम मार्केटिंग के आदमियों का एक पाँव इधर, तो दूसरा पाँव नारद मुनि की तरह कहीं और रहता है। नारद मुनि की तरह हम कहीं टिकते नहीं और उन्हीं की तरह थोड़ी-सी बात इधर की उधर और उधर की इधर तो हो ही जाती है’’—के.वी. ठहाका लगाकार बताते हैं।
बहरहाल, के.वी चार फर्मों में सलाहकार के अपने काम को छोड़कर—जो उनकी फितरत के बिलकुल माकूल था—अगर चोरड़िया के पास लौट आए हैं, तो सिर्फ इसलिए कि उसने उन्हें हमेशा बराबरी का दर्जा दिया था। बराबरी यानी कि बाकी सबसे ऊपर। ब्राह्मण यो भी चारों वर्णों में सबसे ऊपर रहता आया है। अगर के.वी. ने अपने जनेऊ को उतारकर खूँटी पर हमेशा के लिए टाँग दिया है, तो इसका अर्थ है यह तो नहीं कि कि सबसे ऊपर रहने वालों के बराबर रहने की इच्छा भी उन्होंने जनेऊ के साथ ताक पर रख दी है। कोई यदि कहे कि ऊपरवालों को ही इक्कीसवीं सदी में इंडिया की उन्नति की सारी क्रीम खाने को मिल रही है, तो के.वी. अंग्रेजी के ‘ट्रिकल-डाऊन इफेक्ट’ का भारतीय अनुवाद करके तुरन्त कहते हैं—अरे पानी तो पहाड़ से नीचे ही बहता है। गंगा क्या एकदम नीचे उतरकर समुद्र तक नहीं आती ?
के.वी के चोरड़िया को पुनः पकड़ने के पीछे एक बहुत मोटा सालाना तनख्वाह का पैकेज है, ऐसा कहने वाले कहते हैं। लेकिन जानने वाले यह जानते हैं कि यह कोई खास बात नहीं है। के.वी. क्या नहीं जानते कि पिछले दो सालों में इंडिया में टॉप इक्जीक्यूटिव की तनख्वाह सालाना चार करोड़ तक पहुँच गई है। एक करोड़ पाने वाले तो सैकड़ों की तादाद में मिल जाएँगे। के.वे. खुद कहते हैं अब नौकरी की दुनिया खरीददारों की मार्केट नहीं है, बेचनेवाले की मार्केट है। जो बीस हजार की नौकरी छोड़ता है, वह जानता है कि पच्चीस हजार की नौकरी उसके लिए तैयार है। किसी जूनियर को कोई डाँट-वाँट लगानी हो, तो तैयार रहना पड़ता है कि शाम को घर जाते समय आपको नौकरी छोड़ने का नोटिस पकड़ाता हुआ जाएगा।
के.वी. इस बात को कहते हुए कुछ सोच में पड़ जाते हैं। शायद बदले हुए समय के तकाजे से उन्हे अपनी जुबान की धार का इस्तेमाल करने में कटौती करनी पड़ रही है। खासकर तबसे जबकि एक फर्म के एच.आर. डिपार्टमेन्टयानी ह्यूमन रिसोर्सेज के प्रमुख ने उन्हें सूचना दी कि पिछले साल कम्पनी ने चार महत्त्वपूर्ण योग्य आदमियों को खो दिया, जिनके बदले कम्पनी को उनसे डेढ़ गुनी तनख्वाह पर पाँच आदमी रखने पड़े। ‘एक्जीट’ यानी छोड़कर जाते हुए आखिरी इंटरव्यू में उनमें से तीन अपने जने की वजह के.वी. को ठहराया और चौथा अपना मुँह सिलकर रह गया था। तब से के.वी. ने यह समझ लिया कि इंडिया की ‘इकोनॉमिक बूम’ या आर्थिक उछाल के साथ- साथ इंडिया में धीरज और सहनशीलता के गुण डूब गए। अब साफगोई का जमाना भी गया कि आप किसी जुङते हुए सच को बेझिझक कह डाले वरना तो चार साल पहले चोरड़िया को छोड़ते समय के.वी. ने उसे साफ-साफ कह दिया था—तुम्हारा बेटा है, इसलिए उछल रहा है। विदेश में भी पैसे फूँक कर डिग्री क्या ले ली, अपने को तीसमारखाँ समझ रहा है। वह भी कोई हावर्ज से नहीं किसी सेकेंट-ग्रेज यूनिवर्सिटी से। तुम क्या नहीं जानते कि उसमें एक चपरासी की नौकरी करने की भी काबिलियत नहीं है !
के.वी. चोरड़िया से जो भी तनख्वाह के ‘पैकेज’ का ‘ऑफर’ आया हो, प्रमाण यही कहते हैं कि उन्होंने अपना अच्छा-भला चलता हुआ काम चोरड़िया के अकेलेपन को दूर करने के लिए किया है। यदि ऐसा नहीं होता, तो क्या वे ‘रिलायंस’ जैसी कम्पनी का ‘ऑफर’ यह कहकर ठुकरा देते कि वे ‘जॉब’ मार्केट में बिकाऊ नहीं है ? कौन नहीं जानता कि ऐसी कम्पनियों की ऊँची पोस्ट पर बैठे अफसरों के लिए अब प्राइवेट हवाई जहाज होते हैं, दूर-दराज किसी सुनसान द्वीप छुट्टियाँ बिताने के लिए प्राइवेट ‘शिप’ या ‘यॉट’ होते हैं उनके फार्म-हाऊस में उनके घोड़े पलते हैं। और यह सब नहीं होता, तो इन सब चीजों के सपने होते हैं। जमाना ‘ये दिल माँगे मोर’ का है। बस्तर के गाँव में अपनी झोंपुड़ी में बैठकर आदिवासी टी.वी पर वाशिंग मशीन में कपड़े धुलते देख रहा है और डबल-डोर फ्रिज में जाने कब से रखी ताजी लौकी और टमाटर की गाथा सुन रहा है। इस देश की एक अरब जनता अब एक साथ सपने देख रही है—फर्क यही है कि किसी के सपने छोटे तो किसी के ज्यादा बड़े सपने।
यदि के.वी. ने चोरड़िया के एक भावुक वाक्य के लिए अपने सपनों में कटौती कर ली, तो यह मानना पड़ेगा कि आज भी दुनिया बदली नहीं है। भले ही ‘नौकरी डॉटकॉम’ या ‘जॉब डॉटकॉम’ आपको उन कारणों की लंबी सूची पकड़ा रहे हैं जिनके कारण आपको पुरानी नौकरी बदल लेनी चाहिए—
क्या आप अपने काम से ऊब गए हैं ?
क्या आपको लगता है कि आपकी तनख्वाह योग्यता से कम है ?
क्या आपको काम में कोई चुनौती नहीं मिल रही है ?
क्या आपका बॉस आपका अपमान करता है ?
क्या आपसे गधाखटनी करवागर शोषण किया जा रहा है ?
के.वी. को इस बात का गहरा अहसास है कि उन्होंने जीवन में अहसासों को सही महत्त्व दिया है। उनके पिता की मृत्यु पर जब पुरोहित ने उन्हें अपने पिता का अंतिम संस्कार करने से इसलिए रोक दिया था कि उनकी पत्नी न तमिल हैं और न ब्राह्मण, दुनिया जानती है कि के.वी. ने क्या किया। उन्होंने पुरोहित से इस कदर जिरह की थी कि वह कुछ बोलने लायक नहीं रहा। क्या आप मुझे अपने पति का पुत्र मानने से इनकार करते हैं ? क्या आप यह प्रमाणित कर सकते हैं कि उन्होंने मुझे जन्म नहीं दिया ? क्या आप उस ईश्वर से भी बड़े हैं जिसने मुझे उनका पुत्र बनने का निर्णय किया था ? वगैरह, वगैरह।
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