कहानी संग्रह >> कश्मीरी कहानियाँ कश्मीरी कहानियाँमुहम्मद जमाँ आजुर्दा
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कश्मीरी संस्कृति एवं सभ्यता को प्रदर्शित करती चौबीस कश्मीरी कहानियों का संकलन
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कश्मीरी कहानियाँ नामक इस संकलन में चौबीस कश्मीरी कहानियाँ संकलित हैं।
सन् 1950 से अब तक लिखी गई इन कहानियों के लेखक कश्मीरी संस्कृति एवं
सभ्यता को प्रदर्शित करते हैं तथा कश्मीरी बुद्धि के संरक्षक हैं। कश्मीरी
कहानियाँ बहुत कम समय में एक लंबी यात्रा तय कर गई हैं। संकलनकर्ता के
अनुसार, “कश्मीरी कहानी से सस्ती रोमानियत कोसों दूर है। यद्यपि
संख्या की दृष्टि से कश्मीरी कहानी कुछ प्रसिद्ध भाषाओं की तुलना में न
होने के बराबर है, किन्तु आज की कश्मीरी कहानी के कथ्य, आंचलिक व्यवहार,
प्रतीकात्मकता, भाषिक परिवर्तन, बहुफलता तथा अन्य कलात्मक गुणों के आधार
पर किसी भी बड़ी भाषा की कहानी के साथ इसकी तुलना की जा सकती
है।“
संकलनकर्ता मोहम्मद जमां आजुर्दा कश्मीरी तथा उर्दू भाषा के प्रसिद्ध लेखक तथा अनुवादक हैं। कश्मीरी तथा उर्दू में इनके अब तक आठ निबंध संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ‘ऐस्से’ नामक संग्रह पर इन्हें सन् 1984 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है। यह संग्रह दिल्ली भाषा में ‘प्रतिबिम्ब’, उर्दू में ‘काँटे’ तथा अंग्रेजी में ‘थौनर्स एंड थिसिल्ज’ के नाम से अनूदित है।उर्दू आलोचना एवं शोध में इनकी पुस्तक ‘मिर्जा सलामत अली दबीर’, एक प्रंसनीय कार्य माना जाता है।
संकलनकर्ता मोहम्मद जमां आजुर्दा कश्मीरी तथा उर्दू भाषा के प्रसिद्ध लेखक तथा अनुवादक हैं। कश्मीरी तथा उर्दू में इनके अब तक आठ निबंध संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ‘ऐस्से’ नामक संग्रह पर इन्हें सन् 1984 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है। यह संग्रह दिल्ली भाषा में ‘प्रतिबिम्ब’, उर्दू में ‘काँटे’ तथा अंग्रेजी में ‘थौनर्स एंड थिसिल्ज’ के नाम से अनूदित है।उर्दू आलोचना एवं शोध में इनकी पुस्तक ‘मिर्जा सलामत अली दबीर’, एक प्रंसनीय कार्य माना जाता है।
भूमिका
विश्व साहित्य में कश्मीरी कहानियों का पदार्पण उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य
में हुआ, बीसवीं शताब्दी के आरंभ तक यह पूरी तरह विकसित हो चुकी थी। अन्य
समृद्ध भाषाओं की भाँति कश्मीरी भाषा में भी कथाओं एवं लोक-कथाओं की
परंपरा अत्यन्त प्राचीन है, किन्तु कहानी के रूप में कश्मीरी गद्य का
अस्तित्व बीसवीं शताब्दी के मध्य से माना जाता है।
इसका आरंभ साम्यवादी आंदोलन के प्रभाव से सन् 1950 के आसपास कश्मीर के कल्चरल कांग्रेस के साथ ही माना जाता है। यदि देखा जाए तो यह उर्दू के उन साहित्कारों के प्रयासों का फल है जो उस समय इस महाद्वीप में साम्यवादी आंदोलन का संचालन कर रहे थे। राष्ट्रीय सांस्कृतिक-कांग्रेस के साहित्यिक सम्मेलन में 25 फरवरी 1920 को सोमनाथ जुत्शी ने अपनी कहानी ‘येलि फुल गाश’ (जब पौ फटी) पढ़ी। उसी के आस-पास ‘कोंगपोश’ पत्र में दीनानाथ नादिम की कहानी ‘जवाबी कार्ड’ प्रकाशित हुई। यही कारण है कि अब तक यह प्रमाणित नहीं हो सका सर्वप्रथम ‘जब पौ फटी’ लिखी गई अथवा ‘जवाबी कार्ड’। इसको लेकर साहित्यकारों एवं अन्वेषकों में वाद-विवाद होता रहा है। इसके पश्चात अख़्तर मोहीउद्दीन ने कहानी लिखना शुरू किया। कहानी को अपने उत्कर्ष पर पहुँचाने में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इनकी कहानियों का प्रथम संग्रह ‘सथ संगर’ (सात शिखर) सन् 1955 में प्रकाशित हुआ। इस संग्रह को साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया। इस प्रकार आरंभिक युग में सोमनाथ जुत्शी, दीनानाथ नादिम, नूर मोहम्मद रोशन, अजीज हारुन, अख़्तर मुहीउद्दीन, अली मोहम्मद लोन, सूफी गुलाम मोहम्मद तथा उमेश कौल कहानी के इस सीमित क्षेत्र को अपनी रचनाओं से समृद्ध करते गए। इसके पश्चात इस क्षेत्र में अमीन कामिल आए।
सन् 1959 के बाद आगे इस कारवां में बन्सी निर्दोष, अवतार कृष्ण रहबर, रतनलाल, शांत, दीपक कौल, गुलाम रसूल संतोष, शंकर रैणा, हृदय भारती, अब्बास ताबिश, गुलाम नबी बाबा आदि भी सम्मिलित हो गए। इनके बाद हरिकृष्ण कौल, ताज बेगम रेजूं, शम्सउद्दीन शमीम, फारूक मसूदी, बशीर अख्तर, य़ाकूब दिलकश, मुहम्मद जमां आजुर्दा, अमीस हमदानी तथा जी.एम. आजाद आदि इनके साथ आ गए।
यह कहना आवश्यक है कि यद्यपि कश्मीरी कहानी ने अपनी यात्रा साम्यवाद से प्रभावित होकर की, परन्तु कश्मीरी स्वभाव और संस्कृति एवं सभ्यता के रख-रखाव ने जल्दी ही इस उधार के वेश को उतार फेंका और अख़्तर साहब ने इसे वास्तविक कश्मीरी लिबास पहनाने की शुरूआत की। अख़्तर और कामिल के पात्र अशिक्षित तथा पूर्णरूप से कश्मीरी थे। यह पात्र किसी भी दर्शन से संबंधित नहीं थे। इनका संबंध केवल उस जीवन से था, जो वे स्वयं जी रहे थे एवं भोग रहे थे।
इसी युग में कश्मीरी कहानीकारों ने अंग्रेज़ी तथा अन्य भाषाओं की कहानियां भी अंग्रेज़ी अनुवाद के माध्यम से पढ़ी।
इन्होंने जान लिया कि केवल साम्यवाद ही जीवन नहीं है। मनुष्य को रोटी कपड़ा और मकान मिल जाए, तो फिर उसे किस वस्तु की खोज रहती है, उत्तर होगा कि उसे इस कहानी में मिलना चाहिए। यही कारण है कि कश्मीरी कहानी, उर्दू कहानी से भी एक कदम आगे निकल गई। व्यक्ति ‘दरियाए हुंद यज़ार, (अख़्तर मुहीउद्दीन) पढ़े या ‘कोकर जंग’ (अमीन कालिम) ‘ दोअन आनन दरमियान’ ( हृदय कौल भारती) पढ़े अथवा ‘हासल छु रोतुल’ (हरिकृष्ण कौल)- यह बात सिद्ध हो चुकी है कि कश्मीरी कहानी ने अत्यंत कम समय में बहुत सारे पड़ाव तय किए हैं।
कश्मीरी कहानी ने सस्ती भावुकता नहीं अपनाई। यद्यपि संख्या की दृष्टि से कश्मीरी कहानी समृद्ध भाषाओं के समक्ष न के बराबर है। परंतु श्रेत्रीय व्यवहार, प्रतीकात्मकता, भाषागत सौंदर्य तथा पात्रों के वैभिन्य एवं अन्य कलात्मक गुणों के आधार पर आज की कश्मीरी कहानी की तुलना किसी भी समृद्ध भाषा के साथ की जा सकती है।
कहानीकारों की नई पीढ़ी भी अपने अनुभवों एवं संवेदनशीलता के अनुसार नए ढंग से इसका संचालन करते रहे, चाहे वे फारुक़ मसूदी हों या बशीर अख्तर, याकूब दिलकश हों अथवा शम्सुद्दीन शमीम। यह नया अनुमान नए जीवन का अनुभव और अनुमान है। जी.एम. आजाद तथा अनीस हमदानी के साथ कहानी के पाठकों की बहुत सी आशाएं जुड़ी थीं, पर दुःख इस बात का है कि कहानी यात्रा तो जारी है पर उनकी जीवन की यात्रा पूर्ण हो गई।
इस संग्रह में अधिक कहानियों को सम्मिलित करने का अवसर नहीं था, पर इससे इस कार्य का प्रारम्भ होगा, आगे भी ऐसे संग्रह प्रकाशित होते रहेगे। शंकर रैणा तथा अन्य और भी कुछ कहानीकारों की कहानियां इस संग्रह में प्रकाशित नहीं हो सकीं, क्योंकि बहुत प्रयत्न करने पर भी उनके स्वीकृत-पत्र हमें प्राप्त नहीं हो सके। इस संक्षिप्त-से सर्वेक्षण में कुछ नाम छूट गए होंगे या कुछ क्रम के अनुसार नहीं रहे होंगे, यह अनजाने में हो गया होगा, उद्देश्य बिल्कुल नहीं था। संग्रह में कहानियों का क्रम लेखकों के नाम के अक्षरों के आधार पर किया गया है- साहित्यिक पद अथवा आयु के आधार पर नहीं।
इसका आरंभ साम्यवादी आंदोलन के प्रभाव से सन् 1950 के आसपास कश्मीर के कल्चरल कांग्रेस के साथ ही माना जाता है। यदि देखा जाए तो यह उर्दू के उन साहित्कारों के प्रयासों का फल है जो उस समय इस महाद्वीप में साम्यवादी आंदोलन का संचालन कर रहे थे। राष्ट्रीय सांस्कृतिक-कांग्रेस के साहित्यिक सम्मेलन में 25 फरवरी 1920 को सोमनाथ जुत्शी ने अपनी कहानी ‘येलि फुल गाश’ (जब पौ फटी) पढ़ी। उसी के आस-पास ‘कोंगपोश’ पत्र में दीनानाथ नादिम की कहानी ‘जवाबी कार्ड’ प्रकाशित हुई। यही कारण है कि अब तक यह प्रमाणित नहीं हो सका सर्वप्रथम ‘जब पौ फटी’ लिखी गई अथवा ‘जवाबी कार्ड’। इसको लेकर साहित्यकारों एवं अन्वेषकों में वाद-विवाद होता रहा है। इसके पश्चात अख़्तर मोहीउद्दीन ने कहानी लिखना शुरू किया। कहानी को अपने उत्कर्ष पर पहुँचाने में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इनकी कहानियों का प्रथम संग्रह ‘सथ संगर’ (सात शिखर) सन् 1955 में प्रकाशित हुआ। इस संग्रह को साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया। इस प्रकार आरंभिक युग में सोमनाथ जुत्शी, दीनानाथ नादिम, नूर मोहम्मद रोशन, अजीज हारुन, अख़्तर मुहीउद्दीन, अली मोहम्मद लोन, सूफी गुलाम मोहम्मद तथा उमेश कौल कहानी के इस सीमित क्षेत्र को अपनी रचनाओं से समृद्ध करते गए। इसके पश्चात इस क्षेत्र में अमीन कामिल आए।
सन् 1959 के बाद आगे इस कारवां में बन्सी निर्दोष, अवतार कृष्ण रहबर, रतनलाल, शांत, दीपक कौल, गुलाम रसूल संतोष, शंकर रैणा, हृदय भारती, अब्बास ताबिश, गुलाम नबी बाबा आदि भी सम्मिलित हो गए। इनके बाद हरिकृष्ण कौल, ताज बेगम रेजूं, शम्सउद्दीन शमीम, फारूक मसूदी, बशीर अख्तर, य़ाकूब दिलकश, मुहम्मद जमां आजुर्दा, अमीस हमदानी तथा जी.एम. आजाद आदि इनके साथ आ गए।
यह कहना आवश्यक है कि यद्यपि कश्मीरी कहानी ने अपनी यात्रा साम्यवाद से प्रभावित होकर की, परन्तु कश्मीरी स्वभाव और संस्कृति एवं सभ्यता के रख-रखाव ने जल्दी ही इस उधार के वेश को उतार फेंका और अख़्तर साहब ने इसे वास्तविक कश्मीरी लिबास पहनाने की शुरूआत की। अख़्तर और कामिल के पात्र अशिक्षित तथा पूर्णरूप से कश्मीरी थे। यह पात्र किसी भी दर्शन से संबंधित नहीं थे। इनका संबंध केवल उस जीवन से था, जो वे स्वयं जी रहे थे एवं भोग रहे थे।
इसी युग में कश्मीरी कहानीकारों ने अंग्रेज़ी तथा अन्य भाषाओं की कहानियां भी अंग्रेज़ी अनुवाद के माध्यम से पढ़ी।
इन्होंने जान लिया कि केवल साम्यवाद ही जीवन नहीं है। मनुष्य को रोटी कपड़ा और मकान मिल जाए, तो फिर उसे किस वस्तु की खोज रहती है, उत्तर होगा कि उसे इस कहानी में मिलना चाहिए। यही कारण है कि कश्मीरी कहानी, उर्दू कहानी से भी एक कदम आगे निकल गई। व्यक्ति ‘दरियाए हुंद यज़ार, (अख़्तर मुहीउद्दीन) पढ़े या ‘कोकर जंग’ (अमीन कालिम) ‘ दोअन आनन दरमियान’ ( हृदय कौल भारती) पढ़े अथवा ‘हासल छु रोतुल’ (हरिकृष्ण कौल)- यह बात सिद्ध हो चुकी है कि कश्मीरी कहानी ने अत्यंत कम समय में बहुत सारे पड़ाव तय किए हैं।
कश्मीरी कहानी ने सस्ती भावुकता नहीं अपनाई। यद्यपि संख्या की दृष्टि से कश्मीरी कहानी समृद्ध भाषाओं के समक्ष न के बराबर है। परंतु श्रेत्रीय व्यवहार, प्रतीकात्मकता, भाषागत सौंदर्य तथा पात्रों के वैभिन्य एवं अन्य कलात्मक गुणों के आधार पर आज की कश्मीरी कहानी की तुलना किसी भी समृद्ध भाषा के साथ की जा सकती है।
कहानीकारों की नई पीढ़ी भी अपने अनुभवों एवं संवेदनशीलता के अनुसार नए ढंग से इसका संचालन करते रहे, चाहे वे फारुक़ मसूदी हों या बशीर अख्तर, याकूब दिलकश हों अथवा शम्सुद्दीन शमीम। यह नया अनुमान नए जीवन का अनुभव और अनुमान है। जी.एम. आजाद तथा अनीस हमदानी के साथ कहानी के पाठकों की बहुत सी आशाएं जुड़ी थीं, पर दुःख इस बात का है कि कहानी यात्रा तो जारी है पर उनकी जीवन की यात्रा पूर्ण हो गई।
इस संग्रह में अधिक कहानियों को सम्मिलित करने का अवसर नहीं था, पर इससे इस कार्य का प्रारम्भ होगा, आगे भी ऐसे संग्रह प्रकाशित होते रहेगे। शंकर रैणा तथा अन्य और भी कुछ कहानीकारों की कहानियां इस संग्रह में प्रकाशित नहीं हो सकीं, क्योंकि बहुत प्रयत्न करने पर भी उनके स्वीकृत-पत्र हमें प्राप्त नहीं हो सके। इस संक्षिप्त-से सर्वेक्षण में कुछ नाम छूट गए होंगे या कुछ क्रम के अनुसार नहीं रहे होंगे, यह अनजाने में हो गया होगा, उद्देश्य बिल्कुल नहीं था। संग्रह में कहानियों का क्रम लेखकों के नाम के अक्षरों के आधार पर किया गया है- साहित्यिक पद अथवा आयु के आधार पर नहीं।
मोहम्मद ज़मां आजुर्दा
स्तब्ध
अख़्तर मुहीउद्दीन
हे ! चूज़ा मर गया।’’ उसने कहा
‘‘मर गया तो क्या हुआ।’’ मैंने सोचा।
मगर कहा कुछ नहीं।
‘‘सुनते हो !’’ उसने फिर कहा, ‘‘चूज़ा मर गया।’’
मैंन ऊपर से नीचे तक निहारा-अच्छा-खासा, साफ-सुथरे वस्त्र, पागलपन का कोई चिह्न नहीं। सिवाय इसके कि बिखरे बाल और लाल-लाल फटी हुई आंखें बाहर को निकल रही थीं। दाहिनें हाथ में काले रंग का मरा हुआ चूज़ा लिए हुए। एक दृष्टि उसकी ओर और एक मेरी ओर डालता।
मुझसे कुछ बोला न गया। चूज़े मरते रहते हैं। किसी को चील ले जाती है, किसी को कुत्ते, और कोई अचानक ही मर जाता है। कोई घरवालों के पैरों तले दबकर भी मर जाता है। मर गया तो क्या हुआ, मरते हैं !
और जो चूज़ा उसके हाथों में था वह ऐसा भी न था जिसके मरने से कोई पागल हो जाए। काले रंग के कोमल बाल और मोटे तथा छोटे पंख, थोड़ी लंबी टांगे, पीठ पर कुछ सफेद ख़ारिश जैसा। मुझे किसी घृणास्पद वस्तु जैसा लगा पर उसका मन रखने के लिए तथा उस चूज़े की विशेषता जानने के लिए मैंने पूछा, ‘‘यह अच्छी जाति का था ?’’
‘‘गोली मारो जाति को,’’ उसने रुष्ट होकर कहा, ‘‘हमें जाति से क्या लेना-देना।’’
बात जो भी हो, पर ऐसा लगा कि चूज़ा शायद किसी विशिष्ट जाति का नहीं था। खैर, उसके बाद उसने लंबी सांस छोड़ी। कंधो को उचकाया, अजीब दृष्टि से चूज़े को देखा और कहा, ‘‘मुझे क्या मालूम !’’
वह स्पष्ट नहीं कर सका। संभवतः उसकी आंखों में आंसू भर आए थे। ‘‘रहेगा नाम उसी का।’’ मैंने उसे आश्वासन देने के लिए कहा। ‘‘किसका ?’’ उसने अजीब स्वर में पूछा। प्रश्न इस ढंग से नहीं किया कि मुझसे उसका उत्तर चाहता है। मानो वह अपने पैर के अंगूठे से पूछ रहा था, क्योंकि उसकी दृष्टि उसी ओर थी।
मैं लाचार हो गया। अपनी ओर से प्रयास में लग गया कि मुझे इस मरे चूज़े में कोई रहस्य दिखाई दे, पर दिखा कुछ नहीं। काले रंग, धूल से लथ-पथ और कमर पर ख़ारिश के कारण यह चूज़ा और भी अधिक भद्दा लग रहा था।
मुझे बात करने का अवसर मिल गया, ‘‘इसकी पीठ पर यह क्या है ?’’ उसने एक बार फिर चूज़े की पीठ पर दृष्टि डाली। जैसे कि अभी तक उसका इस ओर ध्यान ही न गया हो। उसके पश्चात उसने बाएं हाथ से उसके परों को उपर उठाया और उसके नीचे देखने लगा। मैं भी उत्सुकतापूर्वक देख रहा था। चूज़े की पूरी पीठ पर आटे जैसा कुछ लगा था, जो सूखकर पपड़ी जैसा हो गया था।
‘‘चू-चू-चू- इसी बीमारी के कारण इसकी मृत्यु हो गई।’’ उसने कहा, ‘‘ वास्तव में कोई किसी का नहीं, माता-पिता, भाई-बहन, सब झूठे है।’’
भला इतनी लम्बी-चौड़ी दार्शानिकता किसलिए !
‘‘वेटनरी वालों ने यह पाउडर इस पर लगया था।’’ उसने मेरी ओर देख कर कहा।
‘‘अरे भाई अब तो इसे फेंकना था।’’ मैंने कहा, ‘‘अब इसको टुकर-टुकर देखने से क्या होगा ?’’
‘‘हाँ ! वही करूंगा।’’ उसने विवशता से कहा जैसे
किसी प्रिय पात्र को दफनाना हो।
‘‘इसे नाली में फेंक दो, कोई कुत्ता या कौआ इसको खा लेगा।’’ मैंने कहा। ‘‘अरे ! क्या कहते हो।’’ उसने क्रोधित होकर कहा, ‘‘वास्तव में तुम भी इसी संसार के हो !’’
फिर यह इसका क्या करेगा ?
‘‘मुझे लगा था कि तुम बुद्धिमान हो, बात समझ सकोगे। खैर...’’ उसने निराश होकर कहा। मैं चुप हो गया, जैसे मैंने कोई अनुचित बात कह दी हो जिसके कारण अब लज्जित हूं।
‘‘यह हर किसी को अखरता था। किसी को भी इस पर दया नहीं आई।’’ कहते हुए वह दाहिने हाथ को आगे करते हुए चूज़े को इस प्रकार देखने लगा जैसे वह उसके मृत शरीर में प्राण डालने वाला हो।
‘‘इसने भी इक्कीस दिन तक घास के पल्ले में उष्णता का अनुभव किया होगा और न जाने कितनी आशाओं के साथ इस संसार में आया होगा।’’ संभवतः उसने यह चूज़े से कहा या फिर अपने आप से।
‘‘क्या तुमने घास के पल्ले में बैठे ऐसे फूल जैसे चूज़े को कभी देखा है ?’’ उसने मुझसे पूछा।
मैंने कहा, ‘‘हाँ। देखा है।’’
‘‘कितना निरीह होता है,’’ उसने कहा, ‘‘नवजात शिशु, चूज़ा और फूल, इन सब का स्वभाव एक जैसा होता है। इनमें भय नाम की कोई वस्तु नहीं होती। इनको लगता है कि प्रकृति इन्हीं के लिए बनाई गई है।’’
मैं सुन रहा था और वह कह रहा था, ‘‘यदि मैं अपने हाथों को जोर से उठाऊंगा तो तुम डर जाओगे, क्योंकि तुम भय से परिचित हो, तुम इस भय को कम नहीं कर सकते। इसके विपरीत यदि किसी दूध पीते बालक के गले पर छुरी भी रखोगे तो वह हंसेगा। समझे...। हा...हा...’’ वह हंसने लगा, ‘‘फूल को यह पहले से ही पता चल जाए कि उसे तोड़ लिया जाएगा तो वह भय से झड़ जाएगा।’’ वह हंस रहा था पर मैं सोच रहा था- मेरे सामने एक दृश्य घूम गया।
जर्मन दार्शनिक ‘पंज़ीन’ प्रेमिका के समान गुलाब, सोने की थाली सदाबहार फूलों से भरी, राजोओं जैसी पगड़ी बांधे, बड़ा सिर...सब हंस रहे हैं, सारे प्रसन्न हैं, आगे-पीछे, दाएं-बाएं, पक्षी-चिड़िया मैना, कौवे, चीले, बुलबुल...सब विवाहोत्सव मना रहे हैं।
‘‘उसकी लीला’’ मैंने कहा।
‘‘किसकी लीला ?’’ उसने वह शब्द मानो मेरे मुंह पर दे मारे। मैं आश्चर्य चकित रह गया।
‘‘डर गए ?’’ वह हंसा।
‘‘तुम न मूर्ख हो, न कुछ जानते हो।’’
‘‘इस चूज़े को पता नहीं चील कहाँ से झपट्टा मार कर ले आई। उसके निर्दयी पंजे इसकी छाती में घुस गए थे। किसी स्थान पर ले जाकर इसे मार देती। किन्तु भाग्य से यह उसके हाथों से छूट कर हमारे आंगन में गिर पड़ा।’’
‘‘अच्छा !’’ मैं ध्यान से सुनने लगा।
‘‘आंगन में इस पर एक तो मेरी दृष्टि पड़ी और दूसरे कुत्ते की। हम दोनों इस पर झपट पड़े। मैं भी और कुत्ता भी। मुझे दिखाई नहीं दिया। कुत्ते ने पकड़ लिया। मारना चाहा। मैंने पत्थर उठाया। कुत्ते ने डरकर उसे छोड़ दिया और भाग गया। अब मैं अकेला था। यह अपनी छोटी-छोटी और लंबी टांगो पर भाग रहा था और जोर-जोर से चीं-चीं कर रहा था। संभवतः उसे बुला रहा था जिसने उसे घास के पल्ले में गर्मी प्रदान की थी पर मैंने पकड़ लिया।’’
यह कहकर क्षण भर के लिए वह चुप हो गया। थोड़ी देर बाद खंखार कर, गला साफ किया और मुझसे कहा, ‘‘मान लो अचानक तुम्हारे सामने शेर, सांप या पचासों पागल कुत्ते पड़ जाएं और तुम्हें मारने दौड़े, तब तुम्हारी क्या स्थित होगी ?... कहो- मुझे नहीं पता। असल में किसी को पता नहीं। उसे भी पता नहीं जिसके पीछे कभी ये दौड़े होगें, क्योंकि ऐसे अवसर पर व्यक्ति अपना संतुलन खो बैठता है। व्यक्ति भागता जाता है पर पता नहीं कहां। वह क्या देखता है उसे मालूम नहीं। वह क्या कह रहा है वह भी पता नहीं। मैंने इस चूज़े को पकड़ लिया। इसका शरीर कंपकंपा रहा था। हृदय तीव्रता से धड़क रहा था। आंखे फटी हुई थीं और भय से चीं-चीं कर रहा था। संभवतः यह कह रहा था कि ‘मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है’ मैं एक चूज़ा हूं। यदि मैं मुर्गा होता तो बांग देता या अंडे देता। मैंने क्या किया ? हमरे घर में मुर्गे हैं। एक मुर्गा सुबह-शाम बांग देता है। मुर्गी कभी गाती है, कभी अंडे देती है और कभी कुड़क हो जाती है। भरा-पूरा परिवार आराम से है। एक पति की चार पत्नियां। मैंने सोचा कि यह चूज़ा वहीं ठीक रहेगा। धीरे-धीरे बड़ा हो जाएगा। मारेंगे और खाएंगे। मैंने इसको उसी के साथ छोड़ दिया ताकि अपनी जाति को देख इसका भय दूर हो जाए। एक घंटे बाद जब मैं दरबे (मुर्गीखाने) में देखने गया, पता है वहाँ क्या हुआ था ?’’
उसने मेरी ओर देखा। उसके अधरों पर एक व्यंग्य भरी मुस्कान थी। मुझे ऐसे देख रहा था जैसे वह परमात्मा हो और मैं एक पापी बंदा। क्षण भर मुझे टकटकर बांधे देखने के पश्चात बोला, ‘‘मुर्गे-मुर्गियों ने ठोंके मार-मार कर चूज़े की खाल निकाल ली थी। इसकी कमर की हड्डी दिखाई दे रही थी। खून से लथ-पथ एक कोने में सहमा हुआ बैठा था। मैंने पकड़ा। उसने भागने का प्रयास नहीं किया। हाथ में लिया, इसने कोई विरोध नहीं किया। धीरे-धीरे चीं-चीं कर रहा था। कुछ कह रहा था। संभवतः यह कि ‘अब मैं मर जाऊंगा, हो गए प्रसन्न। तुमसे कह रहा हूं। मनुष्य, कुत्ते, चील, मुर्गे- हो गए खुश। अब मैं मर जाऊंगा। बांग नहीं दूंगा। अब मैं कुछ नहीं करूंगा। वही करूंगा, जिससे सब खुश हो जाएंगे। मैं मरूंगा-...चीं-चीं- चीं।’ हाथ में लेकर कुछ खिलाने का प्रयास किया, इसने एक-दो चोंचे मारीं। शायद भूखा था या सोचा कि चलो इसका मन रख लेते हैं, क्या जाता है। कहते है ख़ुदा बेनियाज है। वेटनरी वालों ने पाउडर लगाया, मैंने गर्मी में रखा। अब यह मुझसे नहीं डरता था, और न ही अन्य किसी से- यह केवल चीं-चीं करता था, मुझे जलील कर रहा था और कह रहा था, ‘‘अरे, कुत्ते, अब खुश हो लो, मैं मर रहा हूं।’’ एक घंटे के पश्चात यह मर गया।’’ उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे। वह मरे हुए चूज़े को फिर से देखने लगा और कहा, ‘‘सुन रहे हो- आखिरकार, यह मर गया।’’
‘‘मर गया तो क्या हुआ।’’ मैंने सोचा।
मगर कहा कुछ नहीं।
‘‘सुनते हो !’’ उसने फिर कहा, ‘‘चूज़ा मर गया।’’
मैंन ऊपर से नीचे तक निहारा-अच्छा-खासा, साफ-सुथरे वस्त्र, पागलपन का कोई चिह्न नहीं। सिवाय इसके कि बिखरे बाल और लाल-लाल फटी हुई आंखें बाहर को निकल रही थीं। दाहिनें हाथ में काले रंग का मरा हुआ चूज़ा लिए हुए। एक दृष्टि उसकी ओर और एक मेरी ओर डालता।
मुझसे कुछ बोला न गया। चूज़े मरते रहते हैं। किसी को चील ले जाती है, किसी को कुत्ते, और कोई अचानक ही मर जाता है। कोई घरवालों के पैरों तले दबकर भी मर जाता है। मर गया तो क्या हुआ, मरते हैं !
और जो चूज़ा उसके हाथों में था वह ऐसा भी न था जिसके मरने से कोई पागल हो जाए। काले रंग के कोमल बाल और मोटे तथा छोटे पंख, थोड़ी लंबी टांगे, पीठ पर कुछ सफेद ख़ारिश जैसा। मुझे किसी घृणास्पद वस्तु जैसा लगा पर उसका मन रखने के लिए तथा उस चूज़े की विशेषता जानने के लिए मैंने पूछा, ‘‘यह अच्छी जाति का था ?’’
‘‘गोली मारो जाति को,’’ उसने रुष्ट होकर कहा, ‘‘हमें जाति से क्या लेना-देना।’’
बात जो भी हो, पर ऐसा लगा कि चूज़ा शायद किसी विशिष्ट जाति का नहीं था। खैर, उसके बाद उसने लंबी सांस छोड़ी। कंधो को उचकाया, अजीब दृष्टि से चूज़े को देखा और कहा, ‘‘मुझे क्या मालूम !’’
वह स्पष्ट नहीं कर सका। संभवतः उसकी आंखों में आंसू भर आए थे। ‘‘रहेगा नाम उसी का।’’ मैंने उसे आश्वासन देने के लिए कहा। ‘‘किसका ?’’ उसने अजीब स्वर में पूछा। प्रश्न इस ढंग से नहीं किया कि मुझसे उसका उत्तर चाहता है। मानो वह अपने पैर के अंगूठे से पूछ रहा था, क्योंकि उसकी दृष्टि उसी ओर थी।
मैं लाचार हो गया। अपनी ओर से प्रयास में लग गया कि मुझे इस मरे चूज़े में कोई रहस्य दिखाई दे, पर दिखा कुछ नहीं। काले रंग, धूल से लथ-पथ और कमर पर ख़ारिश के कारण यह चूज़ा और भी अधिक भद्दा लग रहा था।
मुझे बात करने का अवसर मिल गया, ‘‘इसकी पीठ पर यह क्या है ?’’ उसने एक बार फिर चूज़े की पीठ पर दृष्टि डाली। जैसे कि अभी तक उसका इस ओर ध्यान ही न गया हो। उसके पश्चात उसने बाएं हाथ से उसके परों को उपर उठाया और उसके नीचे देखने लगा। मैं भी उत्सुकतापूर्वक देख रहा था। चूज़े की पूरी पीठ पर आटे जैसा कुछ लगा था, जो सूखकर पपड़ी जैसा हो गया था।
‘‘चू-चू-चू- इसी बीमारी के कारण इसकी मृत्यु हो गई।’’ उसने कहा, ‘‘ वास्तव में कोई किसी का नहीं, माता-पिता, भाई-बहन, सब झूठे है।’’
भला इतनी लम्बी-चौड़ी दार्शानिकता किसलिए !
‘‘वेटनरी वालों ने यह पाउडर इस पर लगया था।’’ उसने मेरी ओर देख कर कहा।
‘‘अरे भाई अब तो इसे फेंकना था।’’ मैंने कहा, ‘‘अब इसको टुकर-टुकर देखने से क्या होगा ?’’
‘‘हाँ ! वही करूंगा।’’ उसने विवशता से कहा जैसे
किसी प्रिय पात्र को दफनाना हो।
‘‘इसे नाली में फेंक दो, कोई कुत्ता या कौआ इसको खा लेगा।’’ मैंने कहा। ‘‘अरे ! क्या कहते हो।’’ उसने क्रोधित होकर कहा, ‘‘वास्तव में तुम भी इसी संसार के हो !’’
फिर यह इसका क्या करेगा ?
‘‘मुझे लगा था कि तुम बुद्धिमान हो, बात समझ सकोगे। खैर...’’ उसने निराश होकर कहा। मैं चुप हो गया, जैसे मैंने कोई अनुचित बात कह दी हो जिसके कारण अब लज्जित हूं।
‘‘यह हर किसी को अखरता था। किसी को भी इस पर दया नहीं आई।’’ कहते हुए वह दाहिने हाथ को आगे करते हुए चूज़े को इस प्रकार देखने लगा जैसे वह उसके मृत शरीर में प्राण डालने वाला हो।
‘‘इसने भी इक्कीस दिन तक घास के पल्ले में उष्णता का अनुभव किया होगा और न जाने कितनी आशाओं के साथ इस संसार में आया होगा।’’ संभवतः उसने यह चूज़े से कहा या फिर अपने आप से।
‘‘क्या तुमने घास के पल्ले में बैठे ऐसे फूल जैसे चूज़े को कभी देखा है ?’’ उसने मुझसे पूछा।
मैंने कहा, ‘‘हाँ। देखा है।’’
‘‘कितना निरीह होता है,’’ उसने कहा, ‘‘नवजात शिशु, चूज़ा और फूल, इन सब का स्वभाव एक जैसा होता है। इनमें भय नाम की कोई वस्तु नहीं होती। इनको लगता है कि प्रकृति इन्हीं के लिए बनाई गई है।’’
मैं सुन रहा था और वह कह रहा था, ‘‘यदि मैं अपने हाथों को जोर से उठाऊंगा तो तुम डर जाओगे, क्योंकि तुम भय से परिचित हो, तुम इस भय को कम नहीं कर सकते। इसके विपरीत यदि किसी दूध पीते बालक के गले पर छुरी भी रखोगे तो वह हंसेगा। समझे...। हा...हा...’’ वह हंसने लगा, ‘‘फूल को यह पहले से ही पता चल जाए कि उसे तोड़ लिया जाएगा तो वह भय से झड़ जाएगा।’’ वह हंस रहा था पर मैं सोच रहा था- मेरे सामने एक दृश्य घूम गया।
जर्मन दार्शनिक ‘पंज़ीन’ प्रेमिका के समान गुलाब, सोने की थाली सदाबहार फूलों से भरी, राजोओं जैसी पगड़ी बांधे, बड़ा सिर...सब हंस रहे हैं, सारे प्रसन्न हैं, आगे-पीछे, दाएं-बाएं, पक्षी-चिड़िया मैना, कौवे, चीले, बुलबुल...सब विवाहोत्सव मना रहे हैं।
‘‘उसकी लीला’’ मैंने कहा।
‘‘किसकी लीला ?’’ उसने वह शब्द मानो मेरे मुंह पर दे मारे। मैं आश्चर्य चकित रह गया।
‘‘डर गए ?’’ वह हंसा।
‘‘तुम न मूर्ख हो, न कुछ जानते हो।’’
‘‘इस चूज़े को पता नहीं चील कहाँ से झपट्टा मार कर ले आई। उसके निर्दयी पंजे इसकी छाती में घुस गए थे। किसी स्थान पर ले जाकर इसे मार देती। किन्तु भाग्य से यह उसके हाथों से छूट कर हमारे आंगन में गिर पड़ा।’’
‘‘अच्छा !’’ मैं ध्यान से सुनने लगा।
‘‘आंगन में इस पर एक तो मेरी दृष्टि पड़ी और दूसरे कुत्ते की। हम दोनों इस पर झपट पड़े। मैं भी और कुत्ता भी। मुझे दिखाई नहीं दिया। कुत्ते ने पकड़ लिया। मारना चाहा। मैंने पत्थर उठाया। कुत्ते ने डरकर उसे छोड़ दिया और भाग गया। अब मैं अकेला था। यह अपनी छोटी-छोटी और लंबी टांगो पर भाग रहा था और जोर-जोर से चीं-चीं कर रहा था। संभवतः उसे बुला रहा था जिसने उसे घास के पल्ले में गर्मी प्रदान की थी पर मैंने पकड़ लिया।’’
यह कहकर क्षण भर के लिए वह चुप हो गया। थोड़ी देर बाद खंखार कर, गला साफ किया और मुझसे कहा, ‘‘मान लो अचानक तुम्हारे सामने शेर, सांप या पचासों पागल कुत्ते पड़ जाएं और तुम्हें मारने दौड़े, तब तुम्हारी क्या स्थित होगी ?... कहो- मुझे नहीं पता। असल में किसी को पता नहीं। उसे भी पता नहीं जिसके पीछे कभी ये दौड़े होगें, क्योंकि ऐसे अवसर पर व्यक्ति अपना संतुलन खो बैठता है। व्यक्ति भागता जाता है पर पता नहीं कहां। वह क्या देखता है उसे मालूम नहीं। वह क्या कह रहा है वह भी पता नहीं। मैंने इस चूज़े को पकड़ लिया। इसका शरीर कंपकंपा रहा था। हृदय तीव्रता से धड़क रहा था। आंखे फटी हुई थीं और भय से चीं-चीं कर रहा था। संभवतः यह कह रहा था कि ‘मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है’ मैं एक चूज़ा हूं। यदि मैं मुर्गा होता तो बांग देता या अंडे देता। मैंने क्या किया ? हमरे घर में मुर्गे हैं। एक मुर्गा सुबह-शाम बांग देता है। मुर्गी कभी गाती है, कभी अंडे देती है और कभी कुड़क हो जाती है। भरा-पूरा परिवार आराम से है। एक पति की चार पत्नियां। मैंने सोचा कि यह चूज़ा वहीं ठीक रहेगा। धीरे-धीरे बड़ा हो जाएगा। मारेंगे और खाएंगे। मैंने इसको उसी के साथ छोड़ दिया ताकि अपनी जाति को देख इसका भय दूर हो जाए। एक घंटे बाद जब मैं दरबे (मुर्गीखाने) में देखने गया, पता है वहाँ क्या हुआ था ?’’
उसने मेरी ओर देखा। उसके अधरों पर एक व्यंग्य भरी मुस्कान थी। मुझे ऐसे देख रहा था जैसे वह परमात्मा हो और मैं एक पापी बंदा। क्षण भर मुझे टकटकर बांधे देखने के पश्चात बोला, ‘‘मुर्गे-मुर्गियों ने ठोंके मार-मार कर चूज़े की खाल निकाल ली थी। इसकी कमर की हड्डी दिखाई दे रही थी। खून से लथ-पथ एक कोने में सहमा हुआ बैठा था। मैंने पकड़ा। उसने भागने का प्रयास नहीं किया। हाथ में लिया, इसने कोई विरोध नहीं किया। धीरे-धीरे चीं-चीं कर रहा था। कुछ कह रहा था। संभवतः यह कि ‘अब मैं मर जाऊंगा, हो गए प्रसन्न। तुमसे कह रहा हूं। मनुष्य, कुत्ते, चील, मुर्गे- हो गए खुश। अब मैं मर जाऊंगा। बांग नहीं दूंगा। अब मैं कुछ नहीं करूंगा। वही करूंगा, जिससे सब खुश हो जाएंगे। मैं मरूंगा-...चीं-चीं- चीं।’ हाथ में लेकर कुछ खिलाने का प्रयास किया, इसने एक-दो चोंचे मारीं। शायद भूखा था या सोचा कि चलो इसका मन रख लेते हैं, क्या जाता है। कहते है ख़ुदा बेनियाज है। वेटनरी वालों ने पाउडर लगाया, मैंने गर्मी में रखा। अब यह मुझसे नहीं डरता था, और न ही अन्य किसी से- यह केवल चीं-चीं करता था, मुझे जलील कर रहा था और कह रहा था, ‘‘अरे, कुत्ते, अब खुश हो लो, मैं मर रहा हूं।’’ एक घंटे के पश्चात यह मर गया।’’ उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे। वह मरे हुए चूज़े को फिर से देखने लगा और कहा, ‘‘सुन रहे हो- आखिरकार, यह मर गया।’’
पतझड़ की हवा
अमीन कामिल
अब किसी को पता नहीं कि वह कहाँ गया और फिर इतना अवकाश किसे है कि उसके
संबंध में जांच पड़ताल करता फिरे। बूढ़ा खूसट ! शैतान की आंत जैसी आयु !
ऊपर से बातूनी। मेरे बच्चे कभी-कभी उसे याद करते हैं। बच्चों को क्या
चाहिए, उन्हें तो उसकी बकवास सुनने में ही आनंद आता था।
जिस दिन वह हमारे घर आता पूरे दिन का सत्यानाश। कोई भी मित्र मेरे घर नहीं आ सकता था। उसे देखते ही उल्टे पांव वापस चला जाता। ऐसा कौन था जिसका उसने दिमाग न चाटा हो ! बात-बात पर कहता, ‘‘सुनो इतिहास सुनाता हूं।’’
नाम था अज़ीम बाबा, पर पीठ पीछे लोग उसे ‘बकवासी’ कहते थे। एक दिन वह हमारे घर आया। वह दिन उसका हमारे घर का अंतिम दिन था। उसी दिन वह घटना घटी, जिसका मुझे आज तक दुःख है। वास्तव में जब किसी चीज का समय होता है, तब वैसी ही परिस्थितियां हो जाती हैं। तभी से उसकी चर्चा सुनने में नहीं आई।
पतझड़ के दिन थे... आकाश में सफेद बादलों की चादर सी फैली थी। बादलों में से सूर्य धीरे-धीरे अस्त हो रहा था। मैं कार्यालय से आकर आंगन में कुड़क-मुर्गी की पूछ में झाड़ू बांध रहा था।
कहते हैं कि कुड़क मुर्गी की पूछ में झाड़ू बांधने से उसका कुड़कपन समाप्त हो जाता है। मेरे झाड़ू बांधने से मुर्गी बहुत चिल्ला रही थी। इससे भी अधिक हंगामा घर के दूसरे मुर्गे ने मचा रखा था। पता नहीं उसे क्या लग रहा था, संभावतः यह कि मैं मुर्गी को खा गया। मैं यही विचार कर रहा था कि बाहर से मेरे बच्चों का शोर सुनाई पड़ाः
‘‘अज़ीम बाबा- देखो अज़ीम बाबा आए।’’ मेरे तो प्राण ही निकल गए। झाड़ू बंधी मुर्गी को घुटनों में दबाए, मैं स्तब्ध रह गया। अज़ीम बाबा गेट पर आ गया। श्वेत बर्फ जैसी घनी दाढ़ी, भरे-भरे सेब जैसे लाल कपोल, लंबा-चौड़ा हृष्ट-पुष्ट शरीर। पता नहीं कितनी आयु थी। आज-कल किसकी इतनी आयु होती है ! कहां होती है ?
‘‘बब्बा-बब्बा ! अज़िम बुद बाबा आ दए।’’ जाना के अनुसार वह यह मेरे लिए शुभ समाचार था। ‘‘ये मेरे अज़ीम दादा है।’’ गुल्ला गर्भ से बोला। उंह –बले आए तुम-’’ जाना को गुल्ला की बात नहीं पची।
‘‘मैं तुम दोनों का दादा हूं। ’’ अज़ीम बाबा ने सिर पर हाथ फेरा। होठों ही होठों में मुस्कुराए, ‘‘सबका दादा हूं’’ उन्होंने मेरी ओर देखा। ‘‘सो तो है ही। सलाम अलैकुम’’ मैं मुर्गी छोड़कर शक्तिहीन सा उठा। मुख पर झूठी प्रसन्नता प्रकट करते हुए बोला, ‘‘आज बहुत दिनों बाद दिखाई दिए- कारण ?’’
‘‘स्वास्थ्य ठीक नहीं था।’’ उसने दाहिने हाथ से सिर को सहलाया, जिस पर समय ने अपनी छाप छोड़ रखी थी।
‘‘तुम यहां क्या कर रहे हो ?’’ उसने पहले मेरी ओर फिर कुड़क मुर्गी की ओर देखा, जो झाड़ू बांधने के कारण छटपटा रही थी।
‘‘वह क्या कहते हैं’’ मैंने शुष्कता से उत्तर दिया, कुड़क मुर्गी थी। झाड़ू बांधी है।’’
‘‘अच्छा, आज के पुरुष यहाँ तक पहुंच गए।’’ अज़ीम बाबा ने पत्थर पर बैठते हुए कहा, ‘‘कुड़क मुर्गी को झाड़ू बांधना प्राचीन काल में होता था। सुनो इतिहास सुनाता हूं।’’ उसने अपनी बकवास आरंभ की, ‘‘सुल्तान शहाबुद्दीन कश्मीर का एक महान पुत्र था, इतना वीर की काबुल, बदख्शां, गज़नी, कंधार, हरात, तिब्बत मुलतान और लाहौर विजय करते-करते दिल्ली की ओर चल पड़ा। फ़िरोज़ शाह तुगलक वहाँ का सम्राट् था।’’ अज़ीम बाबा ने अपनी पगड़ी ठीक की मानो वही सम्राट् शहाबुद्दीन हो।
इतने में ऊपर से जंगी जहाज की भाँति चील की छाया पड़ी। मुर्गे ने सावधान रहने का संकेत दिया और मुर्गी के बच्चे चीं-चीं करते हुए छाया की ओर भागे मुझे भी बात टालने का अवसर मिल गया।
‘‘चलिए अंदर बैठते हैं। मेरी पत्नी को पता नहीं, अन्यथा वह दौड़ी-दौड़ी आती’’
‘‘चलो यह भी ठीक है।’’ उसने चील पर क्रोधित दृष्टि डाली।
‘‘आप चलिए। मैं लघुशंका करके आता हूं।’’
‘‘मैं अज़ीम बाबा के छात बैथूंगी।’’ जाना ने गुल्ले को चिढ़ाया।
‘‘मैं भी बैठूंगा। मैं गोद में बैठूंगा।’’
‘‘होप्प।’’ जाना ने गुल्ले की ओर मुंह फुलाकर कहा।
‘‘तुम्हारी नाक बहती है, मेरी नहीं।’’ गुल्ले ने उसकी कमजोरी पकड़ी। ‘‘नहीं ?’’ जाना जल्दी से आस्तीन से नक साफ करने लगी, ‘‘ तुम्हाली-तुम्हाली।’’ जाना की समझ में बस इतना ही आया, ‘‘अभी मैं तेली तांद तात लूंगी।’’
हमारे पास जगह की बहुत तंगी थी। नीचे एक दलान जिसमें एक ओर रसोई और बैठने का स्थान, दूसरी मंजिल पर छोटे-छोटे दो कमरे सोने के लिए हैं। दूसरों को ऊपर बिठाते हैं पर अज़ीम बाबा प्रत्येक का दादा था। अतः मैं सीधा दालान में गया।
‘‘ अज़ीम बकवासी आ गया।’’ मैंने पत्नी से कहा,‘‘ अब सारी रात बरबाद हो जाएगी।’’
‘‘मैंने उन्हें अंदर आते देख लिया- इसी कारण समावार में पानी डालकर रखा है।’’
‘‘कहते हैं अज़ीम बकवासी’’ गुल्ले को स्वयं ही हंसी आई।
‘‘चुप।’’ मैंने गुल्ले को डांटा। ‘‘ऐसा नहीं कहते, मैं जीभ काट डालूंगा।’’
‘‘तातो जीब, तातो।’’ पत्नी ने बच्चो की ओर संकेत करते हुए कहा, ‘‘सोचे समझे बिना बकवास करते रहते हो।’’ इतने में अज़ीम बाबा के चलने की आहट सुनाई दी। हम तुरन्त चुप हो गए। मैं हुक्के में तंबाकू भरने लगा और मेरी पत्नी समावार* में फूंक मारने लगी।
अज़ीम बाबा जितना पुरुषों को बुरा लगता उतना ही महिलाओं को प्रिय। क्योंकि वह कभी-कभी स्त्रियों की वीरता की कहानियां सुनाता या फिर नारी पुरुषों को प्रभावित करने के लिए हमारे अतीत और हमारे अस्तित्व की कहानी सुनाता, जैसे कि हम उन्हें जानते ही नहीं।’’
अज़ीम बाबा जाना और गुल्ले के बीच में बैठ गए। सिर पर पगड़ी (जो पुराने ढंग से बंधी थी) उतारकर नीचे रखी और अपने श्वेत बालों पर हाथ फेरने लगे।
‘‘क्या हाल है ? ओह ! मेरी तो पुत्री पर दृष्टि ही नहीं पड़ी’’ उन्होंने हंस कर कहा।
‘‘अस्सलाम अलैकुम ! मैंने सलाम किया था पर आपने सुना नहीं।’’ उसने सलाम किया या झूठ बोला, मैंने नहीं सुना।
‘‘अज़ीम दादा’’ जाना को गोद में चढ़ने का अवसर मिल गया।
‘‘अज़ीम दादा’’ गुल्ला उनके बगल में बैठ गया।
‘‘पुत्री तुम इतनी दुर्बल क्यों हो रही हो ?’’ उसने मेरी पत्नी से कहा, ‘‘दूध मट्ठा खूब खाना चाहिए। सुनो स्त्रियां कैसी होती थीं। इतिहस सुनाता हूं।’’
‘‘सुन रही हूं।’’ मेरी पत्नी वास्तव में ध्यानपूर्वक सुनने लगी।
-------------------------------------
*सामवारः एक विशेष प्रकार का बर्तन जिसमें कश्मीरी, नमकीन चाय और क़हवा बनाते हैं।
रानी जोशी मती एक कश्मीरी महिला थी।’’ उसने कहना आरंभ किया मुझे उस कहानी या उस इतिहास में कोई रूचि नहीं थी। मैं खिड़की के बाहर एक पेड़ की शाखाएं गिनने लगा और विचारने लगा कि ईंधन महंगा हो गया है अब गुजारा कैसे होगा ? अज़ीम बाबा कह रहा था, ‘‘इतिहास सुना रहा हूं संसार में जो नारी सर्वप्रथम सिंहासन पर आसीन हुई, वह यही थी। यहाँ से निकलकर भारत पर आक्रमण किया तथा मथुरा में श्रीकृष्ण से युद्ध किया।’’
उसने उत्तेजना से इस प्रकार मुठ्ठियां बांधी, मानो वह स्वयं रानी जोशी की सहायता करने निकला हो।
‘‘उसने श्रीकृष्ण को दिखा दिया कि कश्मीरी नारी केवल कुड़क मुर्गी की पूछ ही नहीं बांधा करती, आक्रमण भी कर सकती है।’’
मेरी पत्नी ने मेरी ओर दृष्टि डाली, ‘‘सुन रहे हो।’’
मैंने हुक्के का तीव्र कश लिया, ‘‘फुर्र।’’
‘‘जयमति तहते थे ?’’ जाना ने अपनी प्रबुद्धता का परिचय दिया।
‘‘जयमति’’ गुल्ला ने चिढ़ाया, ‘‘जय शो मती।’’
मैंने बात को टालने का प्रयास किया ताकि जोशमति से छुटकारा मिले।
‘‘क्या कष्ट था तुम कह रहे कि तुम बीमार थे।’’
‘‘हाँ, मेरा पेट ठीक नहीं था। पहले साधारण भोजन किया करते थे, इस कारण शक्ति भी हुआ करती थी, अन्यथा सोचो।’’ उसने फिर बकवास आरंभ की। ‘‘हाथी को मदिरा पिलाकर उनमादी कर दिया गया, उसके पश्चात उसे एक कश्मीरी नवयुवक पर छोड़ दिया, ताकि वह उसे चीर कर रख दे। ध्यापूर्वक सुनो, इतिहास सुना रहा हूं। वह हाथी पगला गया पर नवयुवक का साहस देखो। वह नवयुवक कमर से तलवार निकालकर उस पर टूट पड़ा और हाथी का सारा नशा उतार दिया। यह एक कश्मीरी नवयुवक था। इतिहास सुना रहा हूं।’’ उसने कोई नाम बताया पर मैंने नहीं सुना। किस प्रकर मैं सब्जी वालों का सामना करूंगा। ग्यारह रूपय का ऋणी हूं। वेतन चुटकी में चट हो गया।
‘‘मैं भी हाथी तो मालूंदी।’’ जाना ने गुल्ला को अपनी वीरता दिखाई। ‘‘एत ही पटख में दिला दूंदी।’’
‘‘वह हाथी कहाँ है ?’’ गुल्ले ने जाना को चिढाया, ‘‘चूल्हे में से जो चूहा निकलता है, मैं उसी को मारूंगा। गुल्ले ने हाथ नचाकर कहा।
जिस दिन वह हमारे घर आता पूरे दिन का सत्यानाश। कोई भी मित्र मेरे घर नहीं आ सकता था। उसे देखते ही उल्टे पांव वापस चला जाता। ऐसा कौन था जिसका उसने दिमाग न चाटा हो ! बात-बात पर कहता, ‘‘सुनो इतिहास सुनाता हूं।’’
नाम था अज़ीम बाबा, पर पीठ पीछे लोग उसे ‘बकवासी’ कहते थे। एक दिन वह हमारे घर आया। वह दिन उसका हमारे घर का अंतिम दिन था। उसी दिन वह घटना घटी, जिसका मुझे आज तक दुःख है। वास्तव में जब किसी चीज का समय होता है, तब वैसी ही परिस्थितियां हो जाती हैं। तभी से उसकी चर्चा सुनने में नहीं आई।
पतझड़ के दिन थे... आकाश में सफेद बादलों की चादर सी फैली थी। बादलों में से सूर्य धीरे-धीरे अस्त हो रहा था। मैं कार्यालय से आकर आंगन में कुड़क-मुर्गी की पूछ में झाड़ू बांध रहा था।
कहते हैं कि कुड़क मुर्गी की पूछ में झाड़ू बांधने से उसका कुड़कपन समाप्त हो जाता है। मेरे झाड़ू बांधने से मुर्गी बहुत चिल्ला रही थी। इससे भी अधिक हंगामा घर के दूसरे मुर्गे ने मचा रखा था। पता नहीं उसे क्या लग रहा था, संभावतः यह कि मैं मुर्गी को खा गया। मैं यही विचार कर रहा था कि बाहर से मेरे बच्चों का शोर सुनाई पड़ाः
‘‘अज़ीम बाबा- देखो अज़ीम बाबा आए।’’ मेरे तो प्राण ही निकल गए। झाड़ू बंधी मुर्गी को घुटनों में दबाए, मैं स्तब्ध रह गया। अज़ीम बाबा गेट पर आ गया। श्वेत बर्फ जैसी घनी दाढ़ी, भरे-भरे सेब जैसे लाल कपोल, लंबा-चौड़ा हृष्ट-पुष्ट शरीर। पता नहीं कितनी आयु थी। आज-कल किसकी इतनी आयु होती है ! कहां होती है ?
‘‘बब्बा-बब्बा ! अज़िम बुद बाबा आ दए।’’ जाना के अनुसार वह यह मेरे लिए शुभ समाचार था। ‘‘ये मेरे अज़ीम दादा है।’’ गुल्ला गर्भ से बोला। उंह –बले आए तुम-’’ जाना को गुल्ला की बात नहीं पची।
‘‘मैं तुम दोनों का दादा हूं। ’’ अज़ीम बाबा ने सिर पर हाथ फेरा। होठों ही होठों में मुस्कुराए, ‘‘सबका दादा हूं’’ उन्होंने मेरी ओर देखा। ‘‘सो तो है ही। सलाम अलैकुम’’ मैं मुर्गी छोड़कर शक्तिहीन सा उठा। मुख पर झूठी प्रसन्नता प्रकट करते हुए बोला, ‘‘आज बहुत दिनों बाद दिखाई दिए- कारण ?’’
‘‘स्वास्थ्य ठीक नहीं था।’’ उसने दाहिने हाथ से सिर को सहलाया, जिस पर समय ने अपनी छाप छोड़ रखी थी।
‘‘तुम यहां क्या कर रहे हो ?’’ उसने पहले मेरी ओर फिर कुड़क मुर्गी की ओर देखा, जो झाड़ू बांधने के कारण छटपटा रही थी।
‘‘वह क्या कहते हैं’’ मैंने शुष्कता से उत्तर दिया, कुड़क मुर्गी थी। झाड़ू बांधी है।’’
‘‘अच्छा, आज के पुरुष यहाँ तक पहुंच गए।’’ अज़ीम बाबा ने पत्थर पर बैठते हुए कहा, ‘‘कुड़क मुर्गी को झाड़ू बांधना प्राचीन काल में होता था। सुनो इतिहास सुनाता हूं।’’ उसने अपनी बकवास आरंभ की, ‘‘सुल्तान शहाबुद्दीन कश्मीर का एक महान पुत्र था, इतना वीर की काबुल, बदख्शां, गज़नी, कंधार, हरात, तिब्बत मुलतान और लाहौर विजय करते-करते दिल्ली की ओर चल पड़ा। फ़िरोज़ शाह तुगलक वहाँ का सम्राट् था।’’ अज़ीम बाबा ने अपनी पगड़ी ठीक की मानो वही सम्राट् शहाबुद्दीन हो।
इतने में ऊपर से जंगी जहाज की भाँति चील की छाया पड़ी। मुर्गे ने सावधान रहने का संकेत दिया और मुर्गी के बच्चे चीं-चीं करते हुए छाया की ओर भागे मुझे भी बात टालने का अवसर मिल गया।
‘‘चलिए अंदर बैठते हैं। मेरी पत्नी को पता नहीं, अन्यथा वह दौड़ी-दौड़ी आती’’
‘‘चलो यह भी ठीक है।’’ उसने चील पर क्रोधित दृष्टि डाली।
‘‘आप चलिए। मैं लघुशंका करके आता हूं।’’
‘‘मैं अज़ीम बाबा के छात बैथूंगी।’’ जाना ने गुल्ले को चिढ़ाया।
‘‘मैं भी बैठूंगा। मैं गोद में बैठूंगा।’’
‘‘होप्प।’’ जाना ने गुल्ले की ओर मुंह फुलाकर कहा।
‘‘तुम्हारी नाक बहती है, मेरी नहीं।’’ गुल्ले ने उसकी कमजोरी पकड़ी। ‘‘नहीं ?’’ जाना जल्दी से आस्तीन से नक साफ करने लगी, ‘‘ तुम्हाली-तुम्हाली।’’ जाना की समझ में बस इतना ही आया, ‘‘अभी मैं तेली तांद तात लूंगी।’’
हमारे पास जगह की बहुत तंगी थी। नीचे एक दलान जिसमें एक ओर रसोई और बैठने का स्थान, दूसरी मंजिल पर छोटे-छोटे दो कमरे सोने के लिए हैं। दूसरों को ऊपर बिठाते हैं पर अज़ीम बाबा प्रत्येक का दादा था। अतः मैं सीधा दालान में गया।
‘‘ अज़ीम बकवासी आ गया।’’ मैंने पत्नी से कहा,‘‘ अब सारी रात बरबाद हो जाएगी।’’
‘‘मैंने उन्हें अंदर आते देख लिया- इसी कारण समावार में पानी डालकर रखा है।’’
‘‘कहते हैं अज़ीम बकवासी’’ गुल्ले को स्वयं ही हंसी आई।
‘‘चुप।’’ मैंने गुल्ले को डांटा। ‘‘ऐसा नहीं कहते, मैं जीभ काट डालूंगा।’’
‘‘तातो जीब, तातो।’’ पत्नी ने बच्चो की ओर संकेत करते हुए कहा, ‘‘सोचे समझे बिना बकवास करते रहते हो।’’ इतने में अज़ीम बाबा के चलने की आहट सुनाई दी। हम तुरन्त चुप हो गए। मैं हुक्के में तंबाकू भरने लगा और मेरी पत्नी समावार* में फूंक मारने लगी।
अज़ीम बाबा जितना पुरुषों को बुरा लगता उतना ही महिलाओं को प्रिय। क्योंकि वह कभी-कभी स्त्रियों की वीरता की कहानियां सुनाता या फिर नारी पुरुषों को प्रभावित करने के लिए हमारे अतीत और हमारे अस्तित्व की कहानी सुनाता, जैसे कि हम उन्हें जानते ही नहीं।’’
अज़ीम बाबा जाना और गुल्ले के बीच में बैठ गए। सिर पर पगड़ी (जो पुराने ढंग से बंधी थी) उतारकर नीचे रखी और अपने श्वेत बालों पर हाथ फेरने लगे।
‘‘क्या हाल है ? ओह ! मेरी तो पुत्री पर दृष्टि ही नहीं पड़ी’’ उन्होंने हंस कर कहा।
‘‘अस्सलाम अलैकुम ! मैंने सलाम किया था पर आपने सुना नहीं।’’ उसने सलाम किया या झूठ बोला, मैंने नहीं सुना।
‘‘अज़ीम दादा’’ जाना को गोद में चढ़ने का अवसर मिल गया।
‘‘अज़ीम दादा’’ गुल्ला उनके बगल में बैठ गया।
‘‘पुत्री तुम इतनी दुर्बल क्यों हो रही हो ?’’ उसने मेरी पत्नी से कहा, ‘‘दूध मट्ठा खूब खाना चाहिए। सुनो स्त्रियां कैसी होती थीं। इतिहस सुनाता हूं।’’
‘‘सुन रही हूं।’’ मेरी पत्नी वास्तव में ध्यानपूर्वक सुनने लगी।
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*सामवारः एक विशेष प्रकार का बर्तन जिसमें कश्मीरी, नमकीन चाय और क़हवा बनाते हैं।
रानी जोशी मती एक कश्मीरी महिला थी।’’ उसने कहना आरंभ किया मुझे उस कहानी या उस इतिहास में कोई रूचि नहीं थी। मैं खिड़की के बाहर एक पेड़ की शाखाएं गिनने लगा और विचारने लगा कि ईंधन महंगा हो गया है अब गुजारा कैसे होगा ? अज़ीम बाबा कह रहा था, ‘‘इतिहास सुना रहा हूं संसार में जो नारी सर्वप्रथम सिंहासन पर आसीन हुई, वह यही थी। यहाँ से निकलकर भारत पर आक्रमण किया तथा मथुरा में श्रीकृष्ण से युद्ध किया।’’
उसने उत्तेजना से इस प्रकार मुठ्ठियां बांधी, मानो वह स्वयं रानी जोशी की सहायता करने निकला हो।
‘‘उसने श्रीकृष्ण को दिखा दिया कि कश्मीरी नारी केवल कुड़क मुर्गी की पूछ ही नहीं बांधा करती, आक्रमण भी कर सकती है।’’
मेरी पत्नी ने मेरी ओर दृष्टि डाली, ‘‘सुन रहे हो।’’
मैंने हुक्के का तीव्र कश लिया, ‘‘फुर्र।’’
‘‘जयमति तहते थे ?’’ जाना ने अपनी प्रबुद्धता का परिचय दिया।
‘‘जयमति’’ गुल्ला ने चिढ़ाया, ‘‘जय शो मती।’’
मैंने बात को टालने का प्रयास किया ताकि जोशमति से छुटकारा मिले।
‘‘क्या कष्ट था तुम कह रहे कि तुम बीमार थे।’’
‘‘हाँ, मेरा पेट ठीक नहीं था। पहले साधारण भोजन किया करते थे, इस कारण शक्ति भी हुआ करती थी, अन्यथा सोचो।’’ उसने फिर बकवास आरंभ की। ‘‘हाथी को मदिरा पिलाकर उनमादी कर दिया गया, उसके पश्चात उसे एक कश्मीरी नवयुवक पर छोड़ दिया, ताकि वह उसे चीर कर रख दे। ध्यापूर्वक सुनो, इतिहास सुना रहा हूं। वह हाथी पगला गया पर नवयुवक का साहस देखो। वह नवयुवक कमर से तलवार निकालकर उस पर टूट पड़ा और हाथी का सारा नशा उतार दिया। यह एक कश्मीरी नवयुवक था। इतिहास सुना रहा हूं।’’ उसने कोई नाम बताया पर मैंने नहीं सुना। किस प्रकर मैं सब्जी वालों का सामना करूंगा। ग्यारह रूपय का ऋणी हूं। वेतन चुटकी में चट हो गया।
‘‘मैं भी हाथी तो मालूंदी।’’ जाना ने गुल्ला को अपनी वीरता दिखाई। ‘‘एत ही पटख में दिला दूंदी।’’
‘‘वह हाथी कहाँ है ?’’ गुल्ले ने जाना को चिढाया, ‘‘चूल्हे में से जो चूहा निकलता है, मैं उसी को मारूंगा। गुल्ले ने हाथ नचाकर कहा।
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लोगों की राय
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