विविध >> नयी तालीम नया परिप्रेक्ष्य नयी तालीम नया परिप्रेक्ष्यएस. व्ही. प्रभात
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गांधी जी का शिक्षा दर्शन समग्र शिक्षण है। ‘‘नयी तालीम’’ सामाजिक परिवर्तन के लिये शिक्षा है
नयी तालीम के प्रसार की आवश्यकता
तीव्र परिवर्तनों के वर्तमान दौर में, ग्रामीण क्षेत्र नवीन चुनौतियों का
सामना कर रहा है। सरकार ग्रामीण क्षेत्र को शहरी क्षेत्र के बराबर लाने के
लिये कृत संकल्प है। इसके लिए वैज्ञानिकों, इंजीनियरों, तकनीकी विशेषज्ञों
तथा परिवर्तन के अन्य कारकों को सम्मिलित रूप से प्रयास करने की आवश्यकता
है। ग्रामीण क्षेत्र की वर्तमान आवश्यकताओं पर ध्यान देने व ग्रामीण
क्षेत्र के विकास कार्यक्रमों पर दृष्टिपात करने से, यह लगता है कि आज
ग्रामीण क्षेत्र में सामाजिक सक्रियता कार्यक्रमों तथा सामाजिक नेतृत्व व
संस्थागत क्षमता को मजबूत करने की अत्यंत आवश्यकता है। यहां यह भी ध्यान
रखने की आवश्यकता है कि इस तीव्र परिवर्तन से कहीं ग्रामीण क्षेत्र का
सामाजिक ताना-बाना ही छिन्न-भिन्न न हो जाये। साथ ही ग्रामीण जनता में
विभिन्न कौशलों को विकसित करते रहने का भी सतत प्रयत्न करते रहना होगा। हो
रहे परिवर्तनों के संदर्भ में लोगों का सही दृष्टिकोण बने इसकी भी कोशिश
करनी होगी। यह सब करते हुये, यह भी ध्यान से रखने की आवश्यकता है कि इस
परिवर्तन के दौर में कहीं वह सब भी नष्ट न हो जाये जो ग्रामीण क्षेत्र में
अच्छा है। परिवर्तन की वर्तमान प्रक्रिया अत्यंत जटिल है। ग्रामीण विकास
की सबसे बड़ी चुनौती समुचित शिक्षा व उपयोगी कौशल उपलब्ध कराने की है,
रोजगार प्राप्त करने व प्राप्त रोजगार को बनाये रखने में पेशेगत कौशल या
विशेष कार्य सम्बन्धी कौशल की आवश्यकता होती है। इसी के समान महत्त्वपूर्ण
है ग्रामीण क्षेत्र में उच्च शिक्षा की उपलब्धता, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्र
के युवाओं के लिये यह बहुत ही कठिन तथा व्ययसाध्य है। इन आवश्यकताओं को
पूरा करने के लिए ग्रामीण उच्च शिक्षा के मौंकों को बढ़ाने की आवश्यकता
है। इसके अतिरिक्त, ग्रामीण युवकों को इस तरह तैयार करने की आवश्यकता है
कि वह बहुस्तरीय परिवर्तनों के अनुकूल अपने को ढाल सके तथा विकास के
कार्यक्रम में भागीदारी कर सकें।
गांधी जी का शिक्षा दर्शन समग्र शिक्षण है। ‘‘नयी तालीम’’ सामाजिक परिवर्तन के लिये शिक्षा है। इस शिक्षा का उद्देश्य सभी का शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक विकास विशेषतः समाज के पिछले वर्गों का, करके शोषणमुक्त, समानता आधारित नव समाज रचना करना है। शिक्षा का दायरा मात्र विज्ञान या अन्य विषयों के सिद्धान्त रटने व उनमें विशेषता पाने तक ही सीमित नहीं रहना चाहिये। व्यक्ति में नेतृत्व क्षमता तथा दृढ़ संकल्प शक्ति का विकास आदि ऐसे गुण हैं जिनके विकास की आशा शिक्षा से की जाती है। समग्रता की दृष्टि रखने वाली शिक्षा से ही जिम्मेदार नागरिक का विकास संभव होगा, जो समाज को नेतृत्व प्रदान कर सकेगा तथा समाज की भलाई के लिये काम कर सकेगा। इस तरह वैज्ञानिक, इंजिनियर, तकनीकी विशेषज्ञ या परिवर्तन के अन्य कारकों आदि सभी का, ग्रामीण क्षेत्र की समस्याओं को हल करने में अपनी-अपनी भूमिका का विस्तार करना होगा। इसलिये ऐसा लगता है कि ग्रामीण उच्च शिक्षा का प्रमुख व्यक्ति के व्यवहार व स्वभाव तथा रुचि जैसे वृहत्तर व्यक्तित्तव विकास से संबंधित गुणों का विकास करना होगा और यही नयी तालीम का प्रमुख तत्व है। आज आवश्यकता है गांधी जी द्वारा बोये गये नई तालीम के बीज को देशभर के ग्रामीण क्षेत्र में फैलाने की। नयी तालीम शिक्षा को सामाजिक विकास के प्रमुख साधन के रूप में उपयोग करने से ही ग्रामीण क्षेत्र का उसकी पूरी क्षमता के साथ विकास संभव हो सकेगा। राष्ट्रीय ग्रामीण संस्थान परिषद (ncri) ग्रामीण संस्थाओं के माध्यम से इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिये प्रयासरत है।
गांधी जी का शिक्षा दर्शन समग्र शिक्षण है। ‘‘नयी तालीम’’ सामाजिक परिवर्तन के लिये शिक्षा है। इस शिक्षा का उद्देश्य सभी का शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक विकास विशेषतः समाज के पिछले वर्गों का, करके शोषणमुक्त, समानता आधारित नव समाज रचना करना है। शिक्षा का दायरा मात्र विज्ञान या अन्य विषयों के सिद्धान्त रटने व उनमें विशेषता पाने तक ही सीमित नहीं रहना चाहिये। व्यक्ति में नेतृत्व क्षमता तथा दृढ़ संकल्प शक्ति का विकास आदि ऐसे गुण हैं जिनके विकास की आशा शिक्षा से की जाती है। समग्रता की दृष्टि रखने वाली शिक्षा से ही जिम्मेदार नागरिक का विकास संभव होगा, जो समाज को नेतृत्व प्रदान कर सकेगा तथा समाज की भलाई के लिये काम कर सकेगा। इस तरह वैज्ञानिक, इंजिनियर, तकनीकी विशेषज्ञ या परिवर्तन के अन्य कारकों आदि सभी का, ग्रामीण क्षेत्र की समस्याओं को हल करने में अपनी-अपनी भूमिका का विस्तार करना होगा। इसलिये ऐसा लगता है कि ग्रामीण उच्च शिक्षा का प्रमुख व्यक्ति के व्यवहार व स्वभाव तथा रुचि जैसे वृहत्तर व्यक्तित्तव विकास से संबंधित गुणों का विकास करना होगा और यही नयी तालीम का प्रमुख तत्व है। आज आवश्यकता है गांधी जी द्वारा बोये गये नई तालीम के बीज को देशभर के ग्रामीण क्षेत्र में फैलाने की। नयी तालीम शिक्षा को सामाजिक विकास के प्रमुख साधन के रूप में उपयोग करने से ही ग्रामीण क्षेत्र का उसकी पूरी क्षमता के साथ विकास संभव हो सकेगा। राष्ट्रीय ग्रामीण संस्थान परिषद (ncri) ग्रामीण संस्थाओं के माध्यम से इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिये प्रयासरत है।
नयी तालीम :
सम्पूर्ण विनाश से बचने का मार्ग
सामदोंग रिंपोछे
महात्मा गांधी ने ठीक ही कहा था कि नयी तालीम का विचार भारत के लिए उनका
अन्तिम एवं सर्वश्रेष्ठ योगदान है। गांधीजी के जीनव-पर्यन्त चले सत्य के
अन्वेषण एवं राष्ट्र के निर्माण हेतु सक्रिय प्रयोगों के माध्यम से लम्बे
समय तक विचारों के गहन मंथन के परिणामस्वरूप नयी तालीम का दर्शन एवं
प्रक्रिया का प्रादुर्भाव हुआ। जो केवल भारतवर्ष ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण
मानव समाज को एक नयी दिशा देने में सक्षम था। परन्तु दुर्भाग्यवश इस
सर्वोत्तम कल्याणकारी शिक्षा-प्रणाली का राष्ट्रीय स्तर पर भी समुचित
प्रयोग नहीं हो पाया। जिसके फलस्वरूप आजतक यह देश गांधीजी के सपनों के
अनुरूप सार्थक और सही स्वराज प्राप्त करने में असमर्थ रहा। बल्कि इसके
विपरीत आज तो आलम यह है कि शैक्षणिक, सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से भारत
पुनः पाश्चात्य साम्राज्यवाद के अधीन निरन्तर सरकता चला जा रहा है, जिससे
भारत की अस्मिता एवं? संस्कृतियों के उदय, विकास और विलोप होते रहे हैं,
जो प्रकृति का नियम है और जिसे कोई नहीं रोक सकता, परन्तु आज केवल प्राचीन
आध्यात्मिक धरोहर एवं सांस्कृतिक परम्पराएं ही नहीं, अपितु समस्त विविध
जीवन–पद्धति, अस्मिता एवं स्थानीय विधाओं का समूल नाश करके
वैश्वीकरण के नाम पर सम्पूर्ण
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प्रो.सामदोंग रिंपोछे बुद्ध-दर्शन व गांधी-दर्शन के विश्वप्रसिद्ध विद्वान हैं तथा वर्तमान में धर्मशाला (हि.प्र.) स्थित तिब्बती सरकार (निर्वासित) के प्रधानमंत्री हैं।
मानव समाज को हृदयविहीन भोगवाद के अंधेरे गर्त में ढकेला जा रहा है। जिसका लक्ष्य मनुष्य को संवेदनहीन एवं विवेकशून्य मशीन के रूप में परिवर्तन करना है। यह सह कार्य गिने-चुने शक्तिशाली राष्ट्र एवं बहुराष्ट्रीय संगठनों के माध्यम में बड़े सुनियोजित ढंग से चलाया जा रहा है। हम इसे अनभिज्ञ अथवा तटस्थ होकर देख नहीं सकते। क्योंकि यह अन्य विकल्प अथवा विविधता की सम्भावनाएं ही समाप्त करके मानवको स्थायी दास बनाने की कुचेष्टा है। इसलिए हमें अपने मूल कर्तव्य को ठीक से पहचानना होगा। आज इस पृथ्वी पर बसे हुए सभी प्राणी अच्छी परिस्थिति में नहीं है। हम अनेक प्रकार की हिंसा एवं प्रतिहिंसा के मध्य संत्रस्त हैं। युद्ध, आतंकवाद, आर्थिक असमानता एवं शोषण, पर्यावरण-प्रदूषण आदि विविध समस्याओं से हम ग्रस्त हैं। राष्ट्रगत, जातिगत, वर्णगत, सम्प्रदायगत, विचारधारागत आदि अनगिनत विभाजन एवं संघर्ष से हमें निरन्तर जूझना पड़ रहा है। ये सभी समस्याएँ मूलतः सम्यक् शिक्षा न मिलने और मिल रही आधुनिक सूचनामूलक कुशिक्षा के माध्यम से मानव-बुद्धि के कुण्ठित एवं संकीर्ण बन जाने के कारण हो रहा है। जब तक शिक्षा–प्रणाली में मूलभूत परिवर्तन न हो, तब तक वर्तमान की सभी राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का कोई स्थायी समाधान सम्भव नहीं है। सौभाग्य से हमारे पास महात्मा गांधी एवं आशादेवी जैसे उनके प्रबुद्ध अनुयायियों के चिन्तन एवं परिश्रम से नयी तालीम का दर्शन प्रणाली एवं ढांचा सुलभ है। प्रश्न मात्र इनके उपयोग एवं कार्यान्वयन का है। वर्तमान परिस्थिति और आनेवाले सौ-दो-सौ वर्षों की अवधि का सम्भावित परिस्थितियों को देखते हुए देखते हुए ऐसा लगता है कि यह नयी तालीम-प्रणाली आज पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक एवं आवश्य हो गयी है। इसलिए मैं आज इस सम्मेलन में समागत सभी महानुभावों से साग्रह अनुरोध करना चाहता हूँ कि नयी तालीम के विचारों को कैसे कार्यान्वित किया जाय, इस पर गहराई से विचार-विमर्श हो। जिससे एक नयी दिशा एवं सुनियोजित कार्यक्रम बनाया जा सके। मेरी जानकारी में यह भी है कि अनेक प्रबुध्दजन अपने स्तर से अनेक स्थानों पर नयी तालीम के क्षेत्र में उत्कृष्ट काम कर रहे हैं और मुझे यह भी विश्वास है कि ऐसे बहुत से लोग विभिन्न जगहों पर निश्चित रूप से ऐसे कार्य में संलग्न होंगे, जो मेरी जानकारी में नहीं है। ये सारे प्रयास कोई लघु प्रयास कतई नहीं हैं। परन्तु इस देश के भौगोलिक एवं जनसंख्या की दृष्टि से अत्यन्त विशाल होने के कारण ऊंट के मुंह में जीरा के समान लगते हैं। इसलिए ऐसा कुछ उपयोगी कदम उठाना आवश्यक हो गया है, जिससे सभी प्रयास और प्रयोग राष्ट्रीय स्तर पर दृष्टिगोचर हों और जनसाधारण का ध्यान आकृष्ट करने में सफल हों।
आज इस देश की अधिकांश शिक्षा-व्यवस्था राज्याश्रित अथवा पूंजीपतियों पर आश्रित है। अधिकांश राज्याश्रित शिक्षण-संस्थाएँ संसाधन एवं अनुशासन के अभाव में निष्क्रिय हैं। इसलिए गुणवत्ता से युक्त शिक्षा देने में असमर्थ हैं। इसी प्रकार पूजीपतियों पर आश्रित सभी शिक्षण-संस्थाएं व्यावसायिक रूप में सक्रिय हैं, जो गरीबों की पहुंच से बाहर हैं। उनमें सिर्फ सम्पन्न लोगों के बच्चे ही पढ़ सकते हैं। भारत की स्वाधीनता के 57 से अधिर वर्ष बीतने के पश्चात् भी ऐसे बच्चों की संख्या काफी अधिक है, जिन्होंने विद्यालय के द्वार तक नहीं देखे हैं। जो विद्यालय जाने का सामर्थ्य रखते हैं, उन्हें लॉर्ड मैकाले की परम्परा से चली आ रही अंग्रेजी शिक्षा के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त नहीं होता। कुल मिलाकर उनमें भारतीय मौलिक शिक्षा को ग्रहण करनेवाले शायद ही कोई मिले। यह बात नहीं कि भारतीय शिक्षा देनेवालों का अभाव है। परन्तु इसलिए कि सभी अभिभावकों में यह इच्छाशक्ति एवं साहस नहीं है कि अपने बच्चों को सरकारों अथवा पूंजीपतियों द्वारा निर्धारित अंग्रेजी शिक्षा को त्यागकर भारतीय शिक्षा दिलावें। जब तक जनसाधारण की इस कायरतापूर्ण मानसिकता में परिवर्तन न किया जायेगा, तबतक नयी तालीम सहित कोई भी भारतीय शिक्षण-प्रणाली इस देश में पनप नहीं सकती। ऐसी स्थिति में शिक्षा-स्वराज्य की सम्भावना लगभग क्षीण ही लगती है। आज एक बहुत बड़ा विरोधाभास हमारे सामने साक्षात् खड़ा है। एक ओर जहां आधुनिक शिक्षा रोजगार उन्मुख होने का दावा करती है तो दूसरी ओर तथाकथित शिक्षित बेरोजगारों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होती चली जा रही है। उसी प्रकार एक ओर मूल्य-शिक्षा, नैतिक शिक्षा, पर्यावरण सम्बन्धी शिक्षा आदि की चर्चा होती है तो दूसरी ओर शिक्षित जगत् में अनैतिक आचरण करनेवालों की बहुलता दृष्टिगोचर हो रही है। इन विरोधाभासों को साक्षात् देखते हुए भी उन्हें स्वीकार करने का और समाधान खोजने का साहस किसी में नहीं है। ऐसी स्थिति में मुझे लगता है कि आज के अभिभावकों को वर्तमान प्रचलित अंग्रेजी शिक्षा के इन विरोधाभासों की ओर ध्यान आकर्षित करके इसे अस्वीकार करने का और बेहतर विकल्पों की खोज एवं प्रयोग करने हेतु साहस जुटाने का समुचित प्रयत्न करना बहुत जरूरी हो गया है। शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति को स्वावलम्बी एवं सुशासित तभी बनाया जा सकता है जब शिक्षा की प्रक्रिया स्वयं स्वावलम्बी एवं सुशासित हो। इसलिए विद्यालयों को राज्याश्रित अथवा पूजीपति आश्रित न होकर श्रमाश्रित एवं स्वावलम्बी बनाया जाय। हमें इसी ओर सतत प्रयास करना होगा। यह भी नितान्त आवश्यक है कि जब तक सामाजिक संरचना एवं आदर्शों में परिवर्तन न हो तब तक शिक्षा की दिशा में भी आमूल परिवर्तन अत्यन्त दुष्कर है। इसलिए ग्राम-स्वराज्य के आन्दोलन एवं नयी तालीम के आन्दोलन दोनों को एक साथ परस्परपूरक के रूप में संचालित करना होगा। तभी हम सफलता की आशा रख सकते हैं। वैसे आज के यंत्रवत् स्वाचालित नगरवासियों के समूह में नयी तालीम का बीज बोना मरूस्थल में कृषि करने जैसा है। इसलिए हमें दूरदराज गांवों की ओर उन्मुख होना ज्यादा उचित मालूम होता है। क्योंकि आज भी इस देश में ऐसे व्यापक क्षेत्र हैं, जहां आधुनिक सभ्यता का कुप्रभाव अधिक नहीं पड़ा है। जैसे कि हिमालय के सीमान्त प्रदेशों में, मैदानी क्षेत्रों के तथाकथित आदिवासी क्षेत्रों में नयी तालीम तथा ग्राम-स्वराज्य के आन्दोलन को जीवित रख सकते हैं। उसी के साथ बौद्धिक एवं शैक्षिणक स्तर पर नयी तालीम के दर्शन और प्रक्रिया के गुण एवं प्रासंगिकता की चर्चा तथा बहस को चलाये रखना भी आवश्यक प्रतीत होता है। आजकल अन्तर्राष्ट्रीय जगत् में भी इसके प्रचार-प्रसार के लिए समय एवं वातावरण अनुकूल बनते जा रहे हैं। अतः गांवों में काम, नगरों में चर्चा और अन्तर्राष्ट्रीय जगत् में प्रसारण–तीनों एक साथ चलाना चाहिए। नयी तालीम सहित अहिंसा और शान्ति उन्मुख अनेक प्रयोगों को यथेष्ट सफलता नहीं मिल पा रही है। इसका मुख्य कारण इस कार्य में संलग्न की चित्त शुद्धता एवं साधन शुद्धता दोनों में कुछ कमी होना प्रतीत होता है। इसलिए इस महत्त्वपूर्ण कार्य में लगे हुए लोगों को चित्त शुद्धता एवं शाधन शुद्धता की ओर अधिक ध्यान देने की जरूरत है। आज इस भोगवाद के वैश्वीकरण के प्रभाव में साधन शुद्धता की प्राप्ति अत्यन्त कठिन लगती है। फिर भी हम ईमानदारी से प्रयत्न करें तो असम्भव नहीं है, ऐसी मेरी मान्यता है। अनेक प्रबुद्ध लोग मानते हैं कि आज भारतवर्ष ही एक ऐसा देश है जो हिंसा से प्रताड़ित सम्पूर्ण विनाश की ओर उन्मुख इस जगत् के अस्तित्व को बचाने के लिए दिशा और नेतृत्व प्रदान करने में सक्षम है। मैं भी उनसे सहमत हूं। इसलिए विवेकशील भारतीय नागरिकों के ऊपर एक सार्वभौम दायित्व है। जो अहिंसा और सहयोग के माध्यम से हिंसा और प्रतिस्पर्धारहित मैत्रीपूर्ण समाज की स्थापना एवं व्यवस्था हेतु दिशा-निर्देश दें। मैं इस पुनीत अवसर पर आप सबसे एवं आप लोगों के माध्यम से बुद्ध, महावीर एवं गांधी के देश के वासियों का आवाहन करता हूं कि वे अपने सार्वभौम दायित्व को समझें और उसका निर्वाह करें।
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प्रो.सामदोंग रिंपोछे बुद्ध-दर्शन व गांधी-दर्शन के विश्वप्रसिद्ध विद्वान हैं तथा वर्तमान में धर्मशाला (हि.प्र.) स्थित तिब्बती सरकार (निर्वासित) के प्रधानमंत्री हैं।
मानव समाज को हृदयविहीन भोगवाद के अंधेरे गर्त में ढकेला जा रहा है। जिसका लक्ष्य मनुष्य को संवेदनहीन एवं विवेकशून्य मशीन के रूप में परिवर्तन करना है। यह सह कार्य गिने-चुने शक्तिशाली राष्ट्र एवं बहुराष्ट्रीय संगठनों के माध्यम में बड़े सुनियोजित ढंग से चलाया जा रहा है। हम इसे अनभिज्ञ अथवा तटस्थ होकर देख नहीं सकते। क्योंकि यह अन्य विकल्प अथवा विविधता की सम्भावनाएं ही समाप्त करके मानवको स्थायी दास बनाने की कुचेष्टा है। इसलिए हमें अपने मूल कर्तव्य को ठीक से पहचानना होगा। आज इस पृथ्वी पर बसे हुए सभी प्राणी अच्छी परिस्थिति में नहीं है। हम अनेक प्रकार की हिंसा एवं प्रतिहिंसा के मध्य संत्रस्त हैं। युद्ध, आतंकवाद, आर्थिक असमानता एवं शोषण, पर्यावरण-प्रदूषण आदि विविध समस्याओं से हम ग्रस्त हैं। राष्ट्रगत, जातिगत, वर्णगत, सम्प्रदायगत, विचारधारागत आदि अनगिनत विभाजन एवं संघर्ष से हमें निरन्तर जूझना पड़ रहा है। ये सभी समस्याएँ मूलतः सम्यक् शिक्षा न मिलने और मिल रही आधुनिक सूचनामूलक कुशिक्षा के माध्यम से मानव-बुद्धि के कुण्ठित एवं संकीर्ण बन जाने के कारण हो रहा है। जब तक शिक्षा–प्रणाली में मूलभूत परिवर्तन न हो, तब तक वर्तमान की सभी राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का कोई स्थायी समाधान सम्भव नहीं है। सौभाग्य से हमारे पास महात्मा गांधी एवं आशादेवी जैसे उनके प्रबुद्ध अनुयायियों के चिन्तन एवं परिश्रम से नयी तालीम का दर्शन प्रणाली एवं ढांचा सुलभ है। प्रश्न मात्र इनके उपयोग एवं कार्यान्वयन का है। वर्तमान परिस्थिति और आनेवाले सौ-दो-सौ वर्षों की अवधि का सम्भावित परिस्थितियों को देखते हुए देखते हुए ऐसा लगता है कि यह नयी तालीम-प्रणाली आज पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक एवं आवश्य हो गयी है। इसलिए मैं आज इस सम्मेलन में समागत सभी महानुभावों से साग्रह अनुरोध करना चाहता हूँ कि नयी तालीम के विचारों को कैसे कार्यान्वित किया जाय, इस पर गहराई से विचार-विमर्श हो। जिससे एक नयी दिशा एवं सुनियोजित कार्यक्रम बनाया जा सके। मेरी जानकारी में यह भी है कि अनेक प्रबुध्दजन अपने स्तर से अनेक स्थानों पर नयी तालीम के क्षेत्र में उत्कृष्ट काम कर रहे हैं और मुझे यह भी विश्वास है कि ऐसे बहुत से लोग विभिन्न जगहों पर निश्चित रूप से ऐसे कार्य में संलग्न होंगे, जो मेरी जानकारी में नहीं है। ये सारे प्रयास कोई लघु प्रयास कतई नहीं हैं। परन्तु इस देश के भौगोलिक एवं जनसंख्या की दृष्टि से अत्यन्त विशाल होने के कारण ऊंट के मुंह में जीरा के समान लगते हैं। इसलिए ऐसा कुछ उपयोगी कदम उठाना आवश्यक हो गया है, जिससे सभी प्रयास और प्रयोग राष्ट्रीय स्तर पर दृष्टिगोचर हों और जनसाधारण का ध्यान आकृष्ट करने में सफल हों।
आज इस देश की अधिकांश शिक्षा-व्यवस्था राज्याश्रित अथवा पूंजीपतियों पर आश्रित है। अधिकांश राज्याश्रित शिक्षण-संस्थाएँ संसाधन एवं अनुशासन के अभाव में निष्क्रिय हैं। इसलिए गुणवत्ता से युक्त शिक्षा देने में असमर्थ हैं। इसी प्रकार पूजीपतियों पर आश्रित सभी शिक्षण-संस्थाएं व्यावसायिक रूप में सक्रिय हैं, जो गरीबों की पहुंच से बाहर हैं। उनमें सिर्फ सम्पन्न लोगों के बच्चे ही पढ़ सकते हैं। भारत की स्वाधीनता के 57 से अधिर वर्ष बीतने के पश्चात् भी ऐसे बच्चों की संख्या काफी अधिक है, जिन्होंने विद्यालय के द्वार तक नहीं देखे हैं। जो विद्यालय जाने का सामर्थ्य रखते हैं, उन्हें लॉर्ड मैकाले की परम्परा से चली आ रही अंग्रेजी शिक्षा के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त नहीं होता। कुल मिलाकर उनमें भारतीय मौलिक शिक्षा को ग्रहण करनेवाले शायद ही कोई मिले। यह बात नहीं कि भारतीय शिक्षा देनेवालों का अभाव है। परन्तु इसलिए कि सभी अभिभावकों में यह इच्छाशक्ति एवं साहस नहीं है कि अपने बच्चों को सरकारों अथवा पूंजीपतियों द्वारा निर्धारित अंग्रेजी शिक्षा को त्यागकर भारतीय शिक्षा दिलावें। जब तक जनसाधारण की इस कायरतापूर्ण मानसिकता में परिवर्तन न किया जायेगा, तबतक नयी तालीम सहित कोई भी भारतीय शिक्षण-प्रणाली इस देश में पनप नहीं सकती। ऐसी स्थिति में शिक्षा-स्वराज्य की सम्भावना लगभग क्षीण ही लगती है। आज एक बहुत बड़ा विरोधाभास हमारे सामने साक्षात् खड़ा है। एक ओर जहां आधुनिक शिक्षा रोजगार उन्मुख होने का दावा करती है तो दूसरी ओर तथाकथित शिक्षित बेरोजगारों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होती चली जा रही है। उसी प्रकार एक ओर मूल्य-शिक्षा, नैतिक शिक्षा, पर्यावरण सम्बन्धी शिक्षा आदि की चर्चा होती है तो दूसरी ओर शिक्षित जगत् में अनैतिक आचरण करनेवालों की बहुलता दृष्टिगोचर हो रही है। इन विरोधाभासों को साक्षात् देखते हुए भी उन्हें स्वीकार करने का और समाधान खोजने का साहस किसी में नहीं है। ऐसी स्थिति में मुझे लगता है कि आज के अभिभावकों को वर्तमान प्रचलित अंग्रेजी शिक्षा के इन विरोधाभासों की ओर ध्यान आकर्षित करके इसे अस्वीकार करने का और बेहतर विकल्पों की खोज एवं प्रयोग करने हेतु साहस जुटाने का समुचित प्रयत्न करना बहुत जरूरी हो गया है। शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति को स्वावलम्बी एवं सुशासित तभी बनाया जा सकता है जब शिक्षा की प्रक्रिया स्वयं स्वावलम्बी एवं सुशासित हो। इसलिए विद्यालयों को राज्याश्रित अथवा पूजीपति आश्रित न होकर श्रमाश्रित एवं स्वावलम्बी बनाया जाय। हमें इसी ओर सतत प्रयास करना होगा। यह भी नितान्त आवश्यक है कि जब तक सामाजिक संरचना एवं आदर्शों में परिवर्तन न हो तब तक शिक्षा की दिशा में भी आमूल परिवर्तन अत्यन्त दुष्कर है। इसलिए ग्राम-स्वराज्य के आन्दोलन एवं नयी तालीम के आन्दोलन दोनों को एक साथ परस्परपूरक के रूप में संचालित करना होगा। तभी हम सफलता की आशा रख सकते हैं। वैसे आज के यंत्रवत् स्वाचालित नगरवासियों के समूह में नयी तालीम का बीज बोना मरूस्थल में कृषि करने जैसा है। इसलिए हमें दूरदराज गांवों की ओर उन्मुख होना ज्यादा उचित मालूम होता है। क्योंकि आज भी इस देश में ऐसे व्यापक क्षेत्र हैं, जहां आधुनिक सभ्यता का कुप्रभाव अधिक नहीं पड़ा है। जैसे कि हिमालय के सीमान्त प्रदेशों में, मैदानी क्षेत्रों के तथाकथित आदिवासी क्षेत्रों में नयी तालीम तथा ग्राम-स्वराज्य के आन्दोलन को जीवित रख सकते हैं। उसी के साथ बौद्धिक एवं शैक्षिणक स्तर पर नयी तालीम के दर्शन और प्रक्रिया के गुण एवं प्रासंगिकता की चर्चा तथा बहस को चलाये रखना भी आवश्यक प्रतीत होता है। आजकल अन्तर्राष्ट्रीय जगत् में भी इसके प्रचार-प्रसार के लिए समय एवं वातावरण अनुकूल बनते जा रहे हैं। अतः गांवों में काम, नगरों में चर्चा और अन्तर्राष्ट्रीय जगत् में प्रसारण–तीनों एक साथ चलाना चाहिए। नयी तालीम सहित अहिंसा और शान्ति उन्मुख अनेक प्रयोगों को यथेष्ट सफलता नहीं मिल पा रही है। इसका मुख्य कारण इस कार्य में संलग्न की चित्त शुद्धता एवं साधन शुद्धता दोनों में कुछ कमी होना प्रतीत होता है। इसलिए इस महत्त्वपूर्ण कार्य में लगे हुए लोगों को चित्त शुद्धता एवं शाधन शुद्धता की ओर अधिक ध्यान देने की जरूरत है। आज इस भोगवाद के वैश्वीकरण के प्रभाव में साधन शुद्धता की प्राप्ति अत्यन्त कठिन लगती है। फिर भी हम ईमानदारी से प्रयत्न करें तो असम्भव नहीं है, ऐसी मेरी मान्यता है। अनेक प्रबुद्ध लोग मानते हैं कि आज भारतवर्ष ही एक ऐसा देश है जो हिंसा से प्रताड़ित सम्पूर्ण विनाश की ओर उन्मुख इस जगत् के अस्तित्व को बचाने के लिए दिशा और नेतृत्व प्रदान करने में सक्षम है। मैं भी उनसे सहमत हूं। इसलिए विवेकशील भारतीय नागरिकों के ऊपर एक सार्वभौम दायित्व है। जो अहिंसा और सहयोग के माध्यम से हिंसा और प्रतिस्पर्धारहित मैत्रीपूर्ण समाज की स्थापना एवं व्यवस्था हेतु दिशा-निर्देश दें। मैं इस पुनीत अवसर पर आप सबसे एवं आप लोगों के माध्यम से बुद्ध, महावीर एवं गांधी के देश के वासियों का आवाहन करता हूं कि वे अपने सार्वभौम दायित्व को समझें और उसका निर्वाह करें।
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