विविध >> बापू की कारावास कहानी बापू की कारावास कहानीसुशीला नैयर
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आगाखां महल में 21 मास
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
1
प्रारंभिक
मुझे बापूजी के प्रथम दर्शन सन् 1920 के बाद हुए थे। असहयोग-आंदोलन शुरू
हो चुका था और बापूजी दौरे पर गुजरात गये थे। मेरे पिताजी, मैं जब चंद
महीने की थी, गुजर गये थे। बड़े भाई (प्यारेलालजी) एम.ए. में असहयोग करके
बापू के पास साबरमती आश्रम में चले गये थे। मैं उस समय बहुत छोटी थी और
अपनी माताजी तथा दूसरे भाई के साथ गुजरात के एक देहात में रहती थी। मुझे
याद है कि एक दिन मैं रास्ते पर खेल रही थी कि वहां से कुछ लोगों को
इकट्ठे जाते देखा। उनमें हमारी माता समान बड़ी, चचेरी बहन थीं, गांव की एक
विधवा, जिन्हें सब लोग ‘फूफी’ कहते थे। मैंने उनसे
पूछा,
‘‘आप कहां जाती हैं?’’ वे कहने
लगीं,
‘‘महात्मा गांधी के दर्शन
करने।’’ महात्मा गांधी
का अर्थ उस समय मेरे लिए था मेरे बड़े भाई। मैं भी उनके साथ चल दी। वे लोग
तांगे में जानेवाले थे, मगर तांगा नहीं मिला। सो मैं उनके साथ पांच मील
पैदल चली। शायद कुछ समय के लिए किसी ने गोद में उठा लिया था।
गुजरात पहुंचे तो भीड़ का पार न था। किसी ने मुझे ऊंचा उठा कर बताया कि वह महात्मा गांधीजी हैं, मगर मैं उन्हें देख भी न पाई। उनके साथी एक जगह बैठे नाश्ता कर रहे थे। दूर से उनके दर्शन करके हम लोग वापिस आ गये। मेरे भाई उनमें नहीं थे। न भाई मिले, न महात्मा गांधी के दर्शन हुए। इससे निराशा होती, इतनी समझ अभी नहीं आई थी। खुशी-खुशी शाम को लौटे। उसके कुछ महीने या साल भर बाद हम लोग अपने चाचा के पास रोहतक गये हुए थे। वहां महात्माजी आए। भाई भी उनके साथ थे। महात्माजी स्त्रियों की सभा में भाषण करेंगे, यह सुनकर मेरी माताजी वहां गईं। उन दिनों हमारे घर में पर्दा था। पुरुषों की सभा में स्त्रियां जांय, यह चाचाजी को पसंद न था। मगर स्त्रियों की सभा में उन्होंने जाने दिया। मां की उंगली पकड़े, भीड़ को चीरते हुए हम महात्माजी के पास पहुंचे। स्त्रियों की सभा में इतना सोर था कि महात्माजी भाषण नहीं कर सके थे। सो वे फंड इकट्ठा कर रहे थे। माताजी ने प्रणाम किया और कहा, ‘‘मैं प्यारेलाल की माता हूं। आपसे मिलना चाहती हूं।’’ उन्होंने उन्हें लाहौर में मिलने को कहा।
कुछ दिन बाद हम लोग उनसे मिलने लाहौर गये। स्व. चौधरी रामभज दत्त की कोठी पर बापू का डेरा था। माताजी गई थीं बापूजी से अपना लड़का वापस मांगने; किंतु माताजी ने आकर बताया कि उनके सामने जाकर मुंह से कुछ और ही निकल गया और वे बोलीं, ‘‘आप मेरे लड़के को अधिक-से-अधिक पांच साल तक भले अपने पास रखिये, पीछे मेरे पास भेज दीजिए। मेरे पति के देहांत के बाद यही मेरे घर का दीया है।’’
बापूजी ने क्या उत्तर दिया सो मुझे पता नहीं। मुझे माताजी बाहर छोड़ गईं थीं, इधर-उधर खेलकर थकने पर मैं चुपचाप बापूजी के कमरे में घुस गई। मेरे पांवों में जूते थे। भाई मुझे भगा देना चाहते थे मगर बापूजी ने रोका और जूते निकालकर आने की आज्ञा दी। आई तो उन्होंने मुझे अपनी गोद में बिठा लिया। वे मां से कह रहे थे कि तुम भी अपने लड़के के पास क्यों नहीं आ जातीं? मां ने कहा, ‘‘घर-बार छोड़कर कैसे आ सकती हूं?’’
बापू ने हँसते-हँसते मगर करुण स्वर में उत्तर दिया, ‘‘मेरा भी घर था।’’ फिर मेरे सिर पर हाथ रखकर कहने लगे, ‘‘यह लड़की मुझे दे दो।’’ मां बोलीं, ‘‘यह तो मुझसे न हो सकेगा।’’ फिर बापू मेरे मिल के कपड़े की हंसी उड़ाने लगे। बोले, ‘‘देखो न इस छोटी-सी लड़की को भी विदेशी कपड़ा पहनाया है! क्या बात है?’’ मां बचाव करने लगीं, ‘‘नहीं, स्वदेशी है।’’ उससे बापू को संतोष होने वाला नहीं था। मैं यह संवाद सुन रही थी। उस समय खद्दर की मीमांसा मेरी समझ से बाहर थी, मगर न पहनने योग्य कपड़ा पहना है, यह समझकर मुझे अंदर-ही-अंदर बड़ी शरम-सी लग रही थी। मुझे उस समय यह स्वप्न में भी कल्पना न थी कि एक दिन बापू के निकटतम संपर्क में आने और सेवा करने का मुझे सौभाग्य मिलेगा।
जब मैं बारह साल की हुई तो मौट्रिक की पढ़ाई के लिए माताजी के साथ लाहौर चली आई। स्कूल में भर्ती हुए बिना मैट्रिक पास करके मैं कॉलेज में इंटर (साइंस) में दाखिल हो गई। भाई ने कई बार चाहा कि मुझे अपने साथ साबरमती आश्रम ले जायं; लेकिन माताजी राजी न होती थीं। उन्हें डर था कि लड़का तो गया, वह लड़की को भी अपने रास्ते लगाकर उसकी समझ उलटी कर देगा और अपनी तरह बेघरबार की बना देगा। वे कहती थीं, ‘‘लड़का तो भिखारी हुआ, किंतु लड़की भी भिखारिन बने, यह मुझसे सहन न होगा।’’
किंतु प्रारब्ध के आगे किसी की नहीं चलती। 1929 की गरमी की छुट्टियों में हम दिल्ली गये हुए थे। भाई वहां आये और फिर मुझे अपने साथ ले जाने की अपनी पुरानी बात चलाई। इस बार माताजी मान गईं। उस समय से लेकर मैं कभी-कभी गरमी की छुट्टियों में भाई के पास आश्रम में चली जाया करती थी।
लेडी हार्डिंग कॉलेज से डॉक्टरी का इम्तहान पास करके मैं शिशुपालन और प्रसूति विषयक विशेष शिक्षा के लिए कलकत्ते चली गई। इत्तिफाक से बापूजी उस समय बंगाल के नजरबंदियों को छुड़ाने के लिए कलकत्ते आये। श्री शरत बोस के यहां वुडबर्न स्ट्रीट पर उनको ठहराया गया था। वहां कांग्रेस महासमिति (ए.आई.सी.सी.) की बैठक भी थी। बापू को रक्तचाप बढ़ने की शिकायत तो रहती ही थी, ए.आई.सी.सी. की बैठक में उन्हें बहुत थकान लगी। उसी रोज वर्धा वापस जा रहे थे। सामान वगैरा स्टेशन पर जा चुका था। बापूजी बैठक से बाहर आये। गद्दी पर बैठे फल के रस का गिलास हाथ में लिया, इतने में उन्हें चक्कर-सा आ गया। मैंने तुरंत डॉ. विद्यानचंद्र राय वगैरा को बुलाया। मैंने मां से सुना था कि लहू का दबाव बढ़ने पर भी मेरे पिताजी बाहर चले गये थे। रास्ते में उनकी नस फूट गई थी और वे चल बसे थे। सो मैं समझी कि बापूजी इतने थके हैं, जरूर लहू का दबाव बढ़ा होगा। उन्हें आज सफर नहीं करना चाहिए। डॉ. विधानचंद्र राय ने देखा तो सचमुच लहू का दबाव बहुत बढ़ा था। सो उस दिन बापूजी का जाना रुक गया। कुछ दिनों बाद जाने का समय आया तब भी उन्हें अकेले सफर करने की इजाजत देने की उनकी हिम्मत न हुई। मैं वहां भाई और महादेवभाई से मिलने जाया करती थी। आखिर यह तय हुआ कि मैं उनके साथ देखभाल के लिए डॉक्टर की हैसियत से जाऊ और डॉ. विधान को सूचित करती रहूं। चुनांचे मैं एक महीने की छुट्टी लेकर उनके साथ सेवाग्राम गई। वहां से बापू को जुहू ले जाना पड़ा। मेरी छुट्टी खत्म हो गई थी। और मांगी। पीछे वापस जाने की बात छोड़कर वहीं रह गई।
बापू राजकोट-सत्याग्रह के समय राजकोट जाते समय मुझे निजी डॉक्टर की उपाधि देकर अपने साथ राजकोट ले गये। मैंने इसमें अपना परम सौभाग्य समझा। मगर साथ ही झेंप भी लगती थी–कॉलेज से अभी निकली एक लड़की और महात्मा गांधी की डॉक्टर! अखबार वाले खबर पूछने आते तो मुझे उनसे बात करते नहीं बनता था, मगर डॉ. विधान राय, गिल्डर और डॉ. जीवराज मेहता अपनी उदारता और व्यवहार से मेरी झेंप दूर कर देते थे। बाद में विचार करते हुए बापूजी को लगा कि उनका डॉक्टर तो केवल ईश्वर ही हो सकता है। डॉक्टरी सेवा का वे उपयोग कर लेते थे; किंतु अपना डॉक्टर बनाकर ही किसी को अपने साथ रखना वे अपने जीवन-सिद्धांत के विरुद्ध मानते थे। उन्होंने कहा, ‘‘मेरा डॉक्टर तो केवल भगवान ही है, तू तो मेरी लड़की है। लड़की के पास डॉक्टरी ज्ञान है तो वह उसके द्वारा अपने बाप की सेवा भी करेगी, किंतु मैं तेरे डॉक्टरी ज्ञान का उपयोग गरीबों की सेवा के लिए ही करना चाहूंगा।’’ पर यह तो आध्यात्मिक बात थी। जहां तक बाह्य संबंध था, उसमें भी परिवर्तन न हुआ और जनता और जगत के लिए मैं उनकी निजी डॉक्टर ही रही। इसका एक बड़ा विचित्र परिणाम आगे जाकर आया।
मैं एम.डी.की परीक्षा के लिए फिर दिल्ली चली गई। अपने पुराने लेडी हार्डिंग कॉलेज में काम ले लिया और साथ-साथ कुछ अनुसंधान का कार्य किया और एम.डी. की परीक्षा पूरी की। मई मास (1942) में यह काम पूरा हुआ, लेकिन मेरी नौकरी की मुद्दत तो अगस्त के मध्य में पूरी होती थी। मेरा इरादा था कि मैं बंबई में होने वाली ए.आई.सी.सी. की बैठक पूरी होने के बाद सेवाग्राम जाऊँगी; किंतु 4 या 6 अगस्त को अकस्मात् एक मित्र के साथ, जो सरकारी नौकरी में थे, मेरी मुलाकात हो गई। वे पूछने लगे, ‘‘क्या तुम ए. आई. सी. सी. की बैठक में जाने वाली हो?’’ ‘‘मैंने कहा मैं तो बैठक पूरी होने के बाद सेवाग्राम जाऊँगी।’’ वे मुँह चढ़ाकर बोले, ‘‘तब वहाँ क्या होगा?’’ मुझे खटका लगा; किंतु बहुत पूछने पर भी उन्होंने और कुछ न बताया। बंबई की ए. आई. सी. सी. की बैठक में ‘भारत छोड़ो’ का प्रस्ताव आने वाला था। अफवाह गरम थी कि परिणाम में बापू और कांग्रेस के सब बड़े-बडे नेता तुरंत गिरफ्तार कर लिये जायंगे। मैं सीधी अपने प्रिंसिपल के पास आई और बोली, ‘‘आप मुझे अभी गरमी की लंबी छुट्टी दे देंगी तो मुझे अच्छा लगेगा। कुछ गड़बड़ होने से पहले मैं बंबई पहुंच जाना चाहती हूं।’’
मेडिकल कॉलेज में गरमी की छुट्टी बारी-बारी से मिलती है, कुछ को शुरू में और कुछ को आखिर में। उन्होंने सहानुभूति के साथ कहा, ‘‘हां, जरूर हो आओ।’’ फिर फौरन ही उन्होंने छुट्टी की अर्जी का फार्म मेरे पास भेज दिया और कहलवाया, ‘‘आज ही दरख्वास्त लिखकर भेज दो।’’
यह हुई पांच अगस्त की बात। 7 अगस्त को मैं दिल्ली से बंबई को रवाना हो गई।
गुजरात पहुंचे तो भीड़ का पार न था। किसी ने मुझे ऊंचा उठा कर बताया कि वह महात्मा गांधीजी हैं, मगर मैं उन्हें देख भी न पाई। उनके साथी एक जगह बैठे नाश्ता कर रहे थे। दूर से उनके दर्शन करके हम लोग वापिस आ गये। मेरे भाई उनमें नहीं थे। न भाई मिले, न महात्मा गांधी के दर्शन हुए। इससे निराशा होती, इतनी समझ अभी नहीं आई थी। खुशी-खुशी शाम को लौटे। उसके कुछ महीने या साल भर बाद हम लोग अपने चाचा के पास रोहतक गये हुए थे। वहां महात्माजी आए। भाई भी उनके साथ थे। महात्माजी स्त्रियों की सभा में भाषण करेंगे, यह सुनकर मेरी माताजी वहां गईं। उन दिनों हमारे घर में पर्दा था। पुरुषों की सभा में स्त्रियां जांय, यह चाचाजी को पसंद न था। मगर स्त्रियों की सभा में उन्होंने जाने दिया। मां की उंगली पकड़े, भीड़ को चीरते हुए हम महात्माजी के पास पहुंचे। स्त्रियों की सभा में इतना सोर था कि महात्माजी भाषण नहीं कर सके थे। सो वे फंड इकट्ठा कर रहे थे। माताजी ने प्रणाम किया और कहा, ‘‘मैं प्यारेलाल की माता हूं। आपसे मिलना चाहती हूं।’’ उन्होंने उन्हें लाहौर में मिलने को कहा।
कुछ दिन बाद हम लोग उनसे मिलने लाहौर गये। स्व. चौधरी रामभज दत्त की कोठी पर बापू का डेरा था। माताजी गई थीं बापूजी से अपना लड़का वापस मांगने; किंतु माताजी ने आकर बताया कि उनके सामने जाकर मुंह से कुछ और ही निकल गया और वे बोलीं, ‘‘आप मेरे लड़के को अधिक-से-अधिक पांच साल तक भले अपने पास रखिये, पीछे मेरे पास भेज दीजिए। मेरे पति के देहांत के बाद यही मेरे घर का दीया है।’’
बापूजी ने क्या उत्तर दिया सो मुझे पता नहीं। मुझे माताजी बाहर छोड़ गईं थीं, इधर-उधर खेलकर थकने पर मैं चुपचाप बापूजी के कमरे में घुस गई। मेरे पांवों में जूते थे। भाई मुझे भगा देना चाहते थे मगर बापूजी ने रोका और जूते निकालकर आने की आज्ञा दी। आई तो उन्होंने मुझे अपनी गोद में बिठा लिया। वे मां से कह रहे थे कि तुम भी अपने लड़के के पास क्यों नहीं आ जातीं? मां ने कहा, ‘‘घर-बार छोड़कर कैसे आ सकती हूं?’’
बापू ने हँसते-हँसते मगर करुण स्वर में उत्तर दिया, ‘‘मेरा भी घर था।’’ फिर मेरे सिर पर हाथ रखकर कहने लगे, ‘‘यह लड़की मुझे दे दो।’’ मां बोलीं, ‘‘यह तो मुझसे न हो सकेगा।’’ फिर बापू मेरे मिल के कपड़े की हंसी उड़ाने लगे। बोले, ‘‘देखो न इस छोटी-सी लड़की को भी विदेशी कपड़ा पहनाया है! क्या बात है?’’ मां बचाव करने लगीं, ‘‘नहीं, स्वदेशी है।’’ उससे बापू को संतोष होने वाला नहीं था। मैं यह संवाद सुन रही थी। उस समय खद्दर की मीमांसा मेरी समझ से बाहर थी, मगर न पहनने योग्य कपड़ा पहना है, यह समझकर मुझे अंदर-ही-अंदर बड़ी शरम-सी लग रही थी। मुझे उस समय यह स्वप्न में भी कल्पना न थी कि एक दिन बापू के निकटतम संपर्क में आने और सेवा करने का मुझे सौभाग्य मिलेगा।
जब मैं बारह साल की हुई तो मौट्रिक की पढ़ाई के लिए माताजी के साथ लाहौर चली आई। स्कूल में भर्ती हुए बिना मैट्रिक पास करके मैं कॉलेज में इंटर (साइंस) में दाखिल हो गई। भाई ने कई बार चाहा कि मुझे अपने साथ साबरमती आश्रम ले जायं; लेकिन माताजी राजी न होती थीं। उन्हें डर था कि लड़का तो गया, वह लड़की को भी अपने रास्ते लगाकर उसकी समझ उलटी कर देगा और अपनी तरह बेघरबार की बना देगा। वे कहती थीं, ‘‘लड़का तो भिखारी हुआ, किंतु लड़की भी भिखारिन बने, यह मुझसे सहन न होगा।’’
किंतु प्रारब्ध के आगे किसी की नहीं चलती। 1929 की गरमी की छुट्टियों में हम दिल्ली गये हुए थे। भाई वहां आये और फिर मुझे अपने साथ ले जाने की अपनी पुरानी बात चलाई। इस बार माताजी मान गईं। उस समय से लेकर मैं कभी-कभी गरमी की छुट्टियों में भाई के पास आश्रम में चली जाया करती थी।
लेडी हार्डिंग कॉलेज से डॉक्टरी का इम्तहान पास करके मैं शिशुपालन और प्रसूति विषयक विशेष शिक्षा के लिए कलकत्ते चली गई। इत्तिफाक से बापूजी उस समय बंगाल के नजरबंदियों को छुड़ाने के लिए कलकत्ते आये। श्री शरत बोस के यहां वुडबर्न स्ट्रीट पर उनको ठहराया गया था। वहां कांग्रेस महासमिति (ए.आई.सी.सी.) की बैठक भी थी। बापू को रक्तचाप बढ़ने की शिकायत तो रहती ही थी, ए.आई.सी.सी. की बैठक में उन्हें बहुत थकान लगी। उसी रोज वर्धा वापस जा रहे थे। सामान वगैरा स्टेशन पर जा चुका था। बापूजी बैठक से बाहर आये। गद्दी पर बैठे फल के रस का गिलास हाथ में लिया, इतने में उन्हें चक्कर-सा आ गया। मैंने तुरंत डॉ. विद्यानचंद्र राय वगैरा को बुलाया। मैंने मां से सुना था कि लहू का दबाव बढ़ने पर भी मेरे पिताजी बाहर चले गये थे। रास्ते में उनकी नस फूट गई थी और वे चल बसे थे। सो मैं समझी कि बापूजी इतने थके हैं, जरूर लहू का दबाव बढ़ा होगा। उन्हें आज सफर नहीं करना चाहिए। डॉ. विधानचंद्र राय ने देखा तो सचमुच लहू का दबाव बहुत बढ़ा था। सो उस दिन बापूजी का जाना रुक गया। कुछ दिनों बाद जाने का समय आया तब भी उन्हें अकेले सफर करने की इजाजत देने की उनकी हिम्मत न हुई। मैं वहां भाई और महादेवभाई से मिलने जाया करती थी। आखिर यह तय हुआ कि मैं उनके साथ देखभाल के लिए डॉक्टर की हैसियत से जाऊ और डॉ. विधान को सूचित करती रहूं। चुनांचे मैं एक महीने की छुट्टी लेकर उनके साथ सेवाग्राम गई। वहां से बापू को जुहू ले जाना पड़ा। मेरी छुट्टी खत्म हो गई थी। और मांगी। पीछे वापस जाने की बात छोड़कर वहीं रह गई।
बापू राजकोट-सत्याग्रह के समय राजकोट जाते समय मुझे निजी डॉक्टर की उपाधि देकर अपने साथ राजकोट ले गये। मैंने इसमें अपना परम सौभाग्य समझा। मगर साथ ही झेंप भी लगती थी–कॉलेज से अभी निकली एक लड़की और महात्मा गांधी की डॉक्टर! अखबार वाले खबर पूछने आते तो मुझे उनसे बात करते नहीं बनता था, मगर डॉ. विधान राय, गिल्डर और डॉ. जीवराज मेहता अपनी उदारता और व्यवहार से मेरी झेंप दूर कर देते थे। बाद में विचार करते हुए बापूजी को लगा कि उनका डॉक्टर तो केवल ईश्वर ही हो सकता है। डॉक्टरी सेवा का वे उपयोग कर लेते थे; किंतु अपना डॉक्टर बनाकर ही किसी को अपने साथ रखना वे अपने जीवन-सिद्धांत के विरुद्ध मानते थे। उन्होंने कहा, ‘‘मेरा डॉक्टर तो केवल भगवान ही है, तू तो मेरी लड़की है। लड़की के पास डॉक्टरी ज्ञान है तो वह उसके द्वारा अपने बाप की सेवा भी करेगी, किंतु मैं तेरे डॉक्टरी ज्ञान का उपयोग गरीबों की सेवा के लिए ही करना चाहूंगा।’’ पर यह तो आध्यात्मिक बात थी। जहां तक बाह्य संबंध था, उसमें भी परिवर्तन न हुआ और जनता और जगत के लिए मैं उनकी निजी डॉक्टर ही रही। इसका एक बड़ा विचित्र परिणाम आगे जाकर आया।
मैं एम.डी.की परीक्षा के लिए फिर दिल्ली चली गई। अपने पुराने लेडी हार्डिंग कॉलेज में काम ले लिया और साथ-साथ कुछ अनुसंधान का कार्य किया और एम.डी. की परीक्षा पूरी की। मई मास (1942) में यह काम पूरा हुआ, लेकिन मेरी नौकरी की मुद्दत तो अगस्त के मध्य में पूरी होती थी। मेरा इरादा था कि मैं बंबई में होने वाली ए.आई.सी.सी. की बैठक पूरी होने के बाद सेवाग्राम जाऊँगी; किंतु 4 या 6 अगस्त को अकस्मात् एक मित्र के साथ, जो सरकारी नौकरी में थे, मेरी मुलाकात हो गई। वे पूछने लगे, ‘‘क्या तुम ए. आई. सी. सी. की बैठक में जाने वाली हो?’’ ‘‘मैंने कहा मैं तो बैठक पूरी होने के बाद सेवाग्राम जाऊँगी।’’ वे मुँह चढ़ाकर बोले, ‘‘तब वहाँ क्या होगा?’’ मुझे खटका लगा; किंतु बहुत पूछने पर भी उन्होंने और कुछ न बताया। बंबई की ए. आई. सी. सी. की बैठक में ‘भारत छोड़ो’ का प्रस्ताव आने वाला था। अफवाह गरम थी कि परिणाम में बापू और कांग्रेस के सब बड़े-बडे नेता तुरंत गिरफ्तार कर लिये जायंगे। मैं सीधी अपने प्रिंसिपल के पास आई और बोली, ‘‘आप मुझे अभी गरमी की लंबी छुट्टी दे देंगी तो मुझे अच्छा लगेगा। कुछ गड़बड़ होने से पहले मैं बंबई पहुंच जाना चाहती हूं।’’
मेडिकल कॉलेज में गरमी की छुट्टी बारी-बारी से मिलती है, कुछ को शुरू में और कुछ को आखिर में। उन्होंने सहानुभूति के साथ कहा, ‘‘हां, जरूर हो आओ।’’ फिर फौरन ही उन्होंने छुट्टी की अर्जी का फार्म मेरे पास भेज दिया और कहलवाया, ‘‘आज ही दरख्वास्त लिखकर भेज दो।’’
यह हुई पांच अगस्त की बात। 7 अगस्त को मैं दिल्ली से बंबई को रवाना हो गई।
2
भारत छोड़ो’ प्रस्ताव
बिड़ला-हाउस, बंबई
8 अगस्त 1942
8 अगस्त 1942
8 अगस्त को शाम के करीब 5 बजे बांबे सेंटल पर गाड़ी से उतरी तो स्टेशन पर
मुझे लिवाने के लिए कोई आया नहीं था। मैंने सोचा, बिड़ला-हाउस टेलीफोन
करके किसी को बुला लूं। पब्लिक टेलीफोन का उपयोग करना मैं जानती नहीं थी,
इसलिए पूछताछ दफ्तर के बाबू से पूछकर वहां के टेलीफोन का इस्तेमाल करने के
लिए भीतर गई। नंबर देख ही रही थी कि इतने में पुलिस और मिलिट्री के कोई
दस-बारह अफसर टेलीफोन करने आये। मुझे उन सबके चेहरे तने हुए लगे। मन में
आशंका हुई, कहीं गिरफ्तारियां शुरू तो नहीं हो गईं!
टेलीफोन पर मुझे कोई जवाब नहीं मिला। मैं स्टेशन से बाहर आई। दो ही टैक्सी खड़ी थी। टैक्सीवालों ने किराये पर तंग करना शुरू किया। आखिर एक शरीफ आदमी ने स्टेशन के बाहर जाकर मीटर के हिसाब से टैक्सी ला दी। मैंने उनसे पूछा, ‘‘बापू को पकड़ा तो नहीं है न?’’ उन्होंने जवाब दिया, ‘‘नहीं, अभी तो शांति है।’’
बिड़ला-हाउस पहुंची तो भाई (प्यारेलालजी), बापू, महादेवभाई, सब कांग्रेस महासमिति की बैठक में थे। अम्तुस्सलामबहन,1 प्रभावतीबहन2 और बा घर
------------
1. आश्रम की एक मुसलमान बहन, जो बरसों गांधीजी के साथ रहीं और उनकी मृत्यु के बाद हिंदू-मुस्लिम-एकता और खादी के कार्य में लगी हैं।
2. बिहार के चम्पारन-सत्याग्रह में गांधीजी के पुराने साथी और बिहार के सुप्रसिद्ध नेता श्री ब्रजकिशोर बाबू की लड़की और समाजवादी नेता श्री जयप्रकाश नारायण की पत्नी, जिन्हें बाल्यावस्था से ही उनके पिता ने गांधीजी को सौंप दिया था और जो आश्रम में उनके साथ रहती थीं।
टेलीफोन पर मुझे कोई जवाब नहीं मिला। मैं स्टेशन से बाहर आई। दो ही टैक्सी खड़ी थी। टैक्सीवालों ने किराये पर तंग करना शुरू किया। आखिर एक शरीफ आदमी ने स्टेशन के बाहर जाकर मीटर के हिसाब से टैक्सी ला दी। मैंने उनसे पूछा, ‘‘बापू को पकड़ा तो नहीं है न?’’ उन्होंने जवाब दिया, ‘‘नहीं, अभी तो शांति है।’’
बिड़ला-हाउस पहुंची तो भाई (प्यारेलालजी), बापू, महादेवभाई, सब कांग्रेस महासमिति की बैठक में थे। अम्तुस्सलामबहन,1 प्रभावतीबहन2 और बा घर
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1. आश्रम की एक मुसलमान बहन, जो बरसों गांधीजी के साथ रहीं और उनकी मृत्यु के बाद हिंदू-मुस्लिम-एकता और खादी के कार्य में लगी हैं।
2. बिहार के चम्पारन-सत्याग्रह में गांधीजी के पुराने साथी और बिहार के सुप्रसिद्ध नेता श्री ब्रजकिशोर बाबू की लड़की और समाजवादी नेता श्री जयप्रकाश नारायण की पत्नी, जिन्हें बाल्यावस्था से ही उनके पिता ने गांधीजी को सौंप दिया था और जो आश्रम में उनके साथ रहती थीं।
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लोगों की राय
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