उपन्यास >> उखड़े हुए लोग उखड़े हुए लोगराजेन्द्र यादव
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राजेन्द्र यादव का एक राजनीतिक उपन्यास...
Ukhare Huye Log - A Hindi Book by Rajendra Yadav
स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज की त्रासदी को यह उपन्यास दो स्तरों पर उद्घाटित करता है - पूँजीवादी शोषण और मध्यवर्गीय भटकाव। आकस्मिक नहीं कि सूरज सरीखे संघर्षशील युवा पत्रकार के साहस और प्रेरणा के बावजूद उपन्यास के केन्द्रीय चरित्र - शरद और जया जिस भयावह यथार्थ से दूर भागते हैं, उनका कोई गन्तव्य नहीं। न वे शोषक से जुड़ पा रहे हैं, न शोषित से।
छठे दशक के पूर्वाद्ध में राजेन्द्र यादव की इस कथाकृति को पहला राजनीतिक उपन्यास कहा गया था और अनेक लेखकों एवं पत्र-पत्रिकाओं ने इसके बारे में लिखा था। मसलन, श्रीकांत वर्मा ने कलकत्ता से प्रकाशित ‘सुप्रभात’ में टिप्पणी करते हुए कहा कि ‘‘शासन का पूँजी से समझौता है, गरीब मजदूरों पर गोलियाँ चलाकर कृत्रिम आँसू बहाने वाली राष्ट्रीय पूँजी की अहिंसा है। इन सबको लेकर लेखक ने एक मनोरंजक और जीवंत उपन्यास की रचना की (और) पूँजीवाद संस्कृति की विकृतियों की अनेक झाँकिया दिखाई हैं,’’ अथवा ‘आलोचना’ में लिखा गया कि ‘‘‘उखड़े हुए लोग’ में जिन लोगों का चित्रण किया गया है, वे एक ओर रूढ़ियों के कठोर पाश से व्याकुल हैं तथा दूसरी और पूँजीवाद अर्थव्यवस्था में निरन्तर लुटते रहने के कारण जम पाने में कठिनाई का अनुभव कर रहे हैं। इस दुतरफा संघर्ष में रत उखड़े हुए चेतन मध्यवर्गीय जीवन का एक पहलू प्रस्तुत उपन्यास में प्रकट हुआ है। बौद्धिक विचारणा की दृष्टि से यह उपन्यास पर्याप्त स्पष्ट और खरा है।’’ या फिर चंद्रगुप्त विद्यालंकार की यह टिप्पणी कि सम्पूर्ण उपन्यास में एक ऐसी प्रभावशाली तीव्रता विद्यमान है, जो पाठक के हृदय में किसी न किसी प्रकार की प्रतिक्रिया उत्पन्न किए बिना नहीं रहेगी और इसमें अनुभूति की एक ऐसी गहराई है जो हिन्दी के बहुत कम उपन्यासों में मिलेगी। कहना न होगा कि इस उपन्यास में लेखक ने ‘‘जहाँ एक ओर कथानक के प्रवाह, घटनाचक्र की निरंतर और स्वाभाविक गति तथा स्वच्छ और अबाध नाटकीयता को निभाया है, वहीं दूसरी ओर उसने जीवन से प्राप्त सत्यों और अनुभूतियों को सुंदर शिल्प और शैली में यथार्थ ढंग से अंकित भी किया है।’’
छठे दशक के पूर्वाद्ध में राजेन्द्र यादव की इस कथाकृति को पहला राजनीतिक उपन्यास कहा गया था और अनेक लेखकों एवं पत्र-पत्रिकाओं ने इसके बारे में लिखा था। मसलन, श्रीकांत वर्मा ने कलकत्ता से प्रकाशित ‘सुप्रभात’ में टिप्पणी करते हुए कहा कि ‘‘शासन का पूँजी से समझौता है, गरीब मजदूरों पर गोलियाँ चलाकर कृत्रिम आँसू बहाने वाली राष्ट्रीय पूँजी की अहिंसा है। इन सबको लेकर लेखक ने एक मनोरंजक और जीवंत उपन्यास की रचना की (और) पूँजीवाद संस्कृति की विकृतियों की अनेक झाँकिया दिखाई हैं,’’ अथवा ‘आलोचना’ में लिखा गया कि ‘‘‘उखड़े हुए लोग’ में जिन लोगों का चित्रण किया गया है, वे एक ओर रूढ़ियों के कठोर पाश से व्याकुल हैं तथा दूसरी और पूँजीवाद अर्थव्यवस्था में निरन्तर लुटते रहने के कारण जम पाने में कठिनाई का अनुभव कर रहे हैं। इस दुतरफा संघर्ष में रत उखड़े हुए चेतन मध्यवर्गीय जीवन का एक पहलू प्रस्तुत उपन्यास में प्रकट हुआ है। बौद्धिक विचारणा की दृष्टि से यह उपन्यास पर्याप्त स्पष्ट और खरा है।’’ या फिर चंद्रगुप्त विद्यालंकार की यह टिप्पणी कि सम्पूर्ण उपन्यास में एक ऐसी प्रभावशाली तीव्रता विद्यमान है, जो पाठक के हृदय में किसी न किसी प्रकार की प्रतिक्रिया उत्पन्न किए बिना नहीं रहेगी और इसमें अनुभूति की एक ऐसी गहराई है जो हिन्दी के बहुत कम उपन्यासों में मिलेगी। कहना न होगा कि इस उपन्यास में लेखक ने ‘‘जहाँ एक ओर कथानक के प्रवाह, घटनाचक्र की निरंतर और स्वाभाविक गति तथा स्वच्छ और अबाध नाटकीयता को निभाया है, वहीं दूसरी ओर उसने जीवन से प्राप्त सत्यों और अनुभूतियों को सुंदर शिल्प और शैली में यथार्थ ढंग से अंकित भी किया है।’’
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