लेख-निबंध >> ये रिश्ते क्या हैं ये रिश्ते क्या हैंजे. कृष्णमूर्ति
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ये रिश्ते क्या हैं पुस्तक जे. कृष्णमूर्ति द्वारा विभिन्न स्थानों पर दी गयी वार्ताओं का एवं उनके द्वारा रचित लेखों का प्रासंगिक संकलन है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘ये रिश्ते क्या हैं’ पुस्तक जे. कृष्णमूर्ति द्वारा विभिन्न
स्थानों पर दी गयी वार्ताओं का एवं उनके द्वारा रचित लेखों का प्रासंगिक
संकलन है।
हमारा हर उस शख्स से, हर उस शै से क्या रिश्ता है जो हमारे जीवन में है? क्या हमारे रिश्तों में ये द्वंद्व कभी ख़त्म न होंगे? तमाम तरह की स्मृतियों व अपेक्षाओं पर आधारित ये संबंध कितने आधे-अधूरे से हैं, और वर्तमान की जीवंतता से प्रायः अपरिचित, छवियों व पूर्वाग्रहों में कैद इन्हीं रिश्तों में हम सुकून तलाशते हैं। आखिर सही रिश्ता, सम्यक संबंध है क्या?
कृष्णमूर्ति कहते हैं, ‘जब आप खुद को ही नहीं जानते, तो प्रेम व संबंध को कैसे जान पाएंगें?
‘हम रूढ़ियों के दास हैं। भले ही हम खुद को आधुनिक समझ बैठें, मान लें कि बहुत स्वतंत्र हो गये हैं, परंतु गहरे में देखें तो हैं हम रूढ़िवादी ही। इसमें कोई संशय नहीं है क्योंकि छवि-रचना के खेल को आपने स्वीकार किया है और परस्पर संबंधों को इन्हीं के आधार पर स्थापित करते हैं। यह बात उतनी ही पुरातन है जितनी कि ये पहाड़ियां। यह हमारी एक रीति बन गई है। हम इसे अपनाते हैं, इसी में जीते हैं, और इसी से एक दूसरे को यातनाएं देते हैं। तो क्या इस रीति को रोका जा सकता है?’
हमारा हर उस शख्स से, हर उस शै से क्या रिश्ता है जो हमारे जीवन में है? क्या हमारे रिश्तों में ये द्वंद्व कभी ख़त्म न होंगे? तमाम तरह की स्मृतियों व अपेक्षाओं पर आधारित ये संबंध कितने आधे-अधूरे से हैं, और वर्तमान की जीवंतता से प्रायः अपरिचित, छवियों व पूर्वाग्रहों में कैद इन्हीं रिश्तों में हम सुकून तलाशते हैं। आखिर सही रिश्ता, सम्यक संबंध है क्या?
कृष्णमूर्ति कहते हैं, ‘जब आप खुद को ही नहीं जानते, तो प्रेम व संबंध को कैसे जान पाएंगें?
‘हम रूढ़ियों के दास हैं। भले ही हम खुद को आधुनिक समझ बैठें, मान लें कि बहुत स्वतंत्र हो गये हैं, परंतु गहरे में देखें तो हैं हम रूढ़िवादी ही। इसमें कोई संशय नहीं है क्योंकि छवि-रचना के खेल को आपने स्वीकार किया है और परस्पर संबंधों को इन्हीं के आधार पर स्थापित करते हैं। यह बात उतनी ही पुरातन है जितनी कि ये पहाड़ियां। यह हमारी एक रीति बन गई है। हम इसे अपनाते हैं, इसी में जीते हैं, और इसी से एक दूसरे को यातनाएं देते हैं। तो क्या इस रीति को रोका जा सकता है?’
संबंधों की जटिलता
अधिकतर लोगों के लिए, दूसरों के साथ उनके संबंध किसी आवश्यकता या किसी
निर्भरता पर टिके होते हैं–वह निर्भरता चाहे आर्थिक हो अथवा
मनोवैज्ञानिक। यह निर्भरता भय पैदा करती है, हममें मालिकाना एहसास को जन्म
देती है जिसके रहते मनमुटाव, संदेह और कुंठा भी चले आते हैं। आर्थिक
निर्भरता को तो शायद किसी विधान या किसी समुचित संगठन से दूर
किया
जा सके, परंतु मैं विशेष रूप से किसी दूसरे पर आश्रित कर देने वाली उस
मनोवैज्ञानिक निर्भरता का ज़िक्र कर रहा हूं जो व्यक्तिगत तुष्टि, सुख
इत्यादि की लालसा से उपजती है। मालिकाना रिश्ते में हम स्वयं को भरा-पूरा,
सृजनशील और सक्रिय महसूस करते हैं। हमें लगता है हमारे अपने अस्तित्व की
छोटी-सी लौ को कोई दूसरा बड़ा कर रहा है। कहीं हम उस पूर्णता के स्रोत को
खो न बैठें, इसलिए हमें दूसरे के बिछड़ जाने का भय लगा रहता है, और तब
मालिकाना भय उठ खड़े होते हैं अपनी तमाम समस्याओं के साथ। इस प्रकार
मनोवैज्ञानिक निर्भरता वाले संबंध में चेतन व अचेतन भय तथा संदेह अवश्य
बने रहते हैं और वह भी अक्सर सुहावने-लुभावने शब्दों में लुके-छिपे। इस भय
का असर हमें सुरक्षा और समृद्धि की तलाश में यहां-वहां भटकाने लगता है। या
फिर हम किसी धारणा व आदर्श की खोल में खुद को बंद कर लेते हैं अथवा किसी न
किसी तरह की संतुष्टि की खोज में लग जाते हैं।
हालांकि हम दूसरों पर निर्भर हैं, परंतु स्वावलंबी व अखंडित होने की इच्छा हमसें बराबर कायम रहती है। संबंध की जटिल समस्या यह है कि बिना निर्भर हुए, बिना मनमुटाव तथा द्वंद्व के प्रेम कैसे किया जाये, स्वयं को अपने ही खोल में बंद कर लेने की, द्वंद्व के उस कारण से स्वयं को अलग हटा लेने की इच्छा पर कैसे काबू पाया जाये। यदि हम अपने सुख के लिए किसी अन्य व्यक्ति पर, समाज पर या परिवेश पर निर्भर करते हैं तो हमारे लिए वे आवश्यकता बन जाते हैं, हम उसमें जकड़े जाते हैं और उनमें किये जाने वाले किसी भी बदलाव का उग्र विरोध करते हैं, क्योंकि अपनी मनोवैज्ञानिक सुरक्षा व सुविधा के लिए हम उन पर निर्भर रहने लगते हैं। बौद्धिक रूप से यद्यपि हम ऐसा महसूस करते हैं कि यह जीवन रवानी है, तबदीली है और बदलावों की मांग बरकरार रखता है, फिर भी भावनात्मक या भावुक तौर पर हम स्थापित व सुविधाजनक मूल्यों से ही चिपके रहते हैं। अतः परिवर्तन व स्थायित्व की इच्छा के बीच एक अविराम संग्राम छिड़ा रहता है। क्या इस द्वंद्व पर पूर्ण विराम लगा पाना संभव है?
जीवन संबंधित हुए बिना चल ही नहीं सकता, परंतु प्रेम को वैयक्तित बना कर और स्वामित्व का जामा पहनाकर हमने संबंध को उस पर आधारित कर दिया है और इस प्रकार इसे यातनापूर्ण तथा भीषण बना डाला है। क्या यह हो सकता है कि हम प्रेम भी करें और मालिक भी न बनें? इसका सही उत्तर आपको किसी पलायन, किसी आदर्श या किसी विश्वास में नहीं मिल पायेगा बल्कि निर्भरता और स्वामित्व की वजहों को समझ लेने से मिलेगा। हम यदि स्वयं के व दूसरे के बीच संबंध की समस्या को गहराई तक समझ सकें तो ही शायद समाज के साथ अपने संबंध की समस्याओं को समझ पायेंगे, उनका हल ढूँढ़ सकेंगे, क्योंकि समाज कुछ और नहीं बल्कि हमारा ही तो विस्तार है। वह परिवेश जिसे हम समाज कहते हैं, पिछली पीढ़ियों द्वारा रचा हुआ है और इसी को हम अंगीकार कर लेते हैं क्योंकि ऐसा करना हमें अपने लोभ, स्वामित्वभाव तथा भ्रांति को बनाये रखने में सहायक होता है। परंतु इस भ्रांति के चलते एकता व शांति संभव नहीं। ज़बरन तथा कानूनी तौर पर लादी गयी आर्थिक एकता कभी युद्ध का अंत नहीं कर सकती। जब तक हम शक्ति के साथ व्यक्ति के संबंध को समझ नहीं लेते तब तक हम एक शांतिपूर्ण समाज की रचना नहीं कर सकते। चूंकि हमारा संबंध स्वामित्व से लदे प्रेम पर आधारित रहता है अतः हमें स्वयं में ही सजग होना होगा–इसकी पैदाइश के बारे में, इसके कारणों के बारे में और इसकी गतिविधियों के बारे में। अपनी उग्रता, अपने भय और अपनी प्रतिक्रियाओं सहित उपजे इस मालिकपने की प्रक्रिया के प्रति गहराई से सजग होने पर एक ऐसी समझ का आगमन होता है जो समग्र है, संपूर्ण है। केवल यही समझ विचार को निर्भरता वस्वामित्वभाव से मुक्त करती है। यह हमारा अंतस् ही है जहां संबंध में समन्वय के सौंदर्य को पाया जा सकता है, न कि किसी दूसरे व्यक्ति में या परिवेश में।
संबंधों में मनमुटाव का कारण हम स्वयं हैं, यह हमारा ही अहं है जो संयुक्त लालसाओं का केंद्र है। हम यदि यह बात स्पष्ट रूप से समझ लें कि बुनियादी बात यह नहीं है कि दूसरा कैसे बर्ताव करता है, बल्कि महत्त्वपूर्ण यह है कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति किस तरह बरत रहा है, क्या प्रतिक्रिया कर रहा है। इस प्रतिक्रिया व क्रिया को यदि आधारभूत रूप से, गहरे में समझ लिया जाये तो संबंधों में एक गहरा व आमूल बदलाव आ सकेगा। दूसरे के साथ अपने संबंधों में केवल भौतिक समस्या ही नहीं रहती बल्कि सभी स्तरों पर विचार तथा भावना की समस्या भी रहती है। अतः हम दूसरे के साथ एकलयता में केवल तभी हो सकते हैं जब हम अपने अंतस् में समग्र रूप से समन्वित हों। संबंधों के चलते जो महत्त्वपूर्ण बात मन में रखनी है वह यह है कि ज़िम्मेदार दूसरा नहीं बल्कि हम हैं। पर इसका अर्थ यह न मान बैठें कि हम स्वयं को अलग-थलग कर लें, बल्कि गहराई से यह समझें कि हममें द्वंद्व व दुख के कारण क्या हैं। जब तक अपने मानसिक स्वास्थ्य के लिये हम बौद्धिक या भावनात्मक रूप से किसी दूसरे पर निर्भर रहेंगे, तब तक यह निर्भरता अपरिहार्य रूप से भय ही पैदा करती रहेगी और इस भय से दुख ही उपजता रहेगा।
संबंधों की जटिलता को समझने के लिये विचारपूर्ण धैर्य व गंभीरता का होना आवश्यक है। संबंध स्व-उद्घाटन की, अपने ही मन की परतें खोलने की एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें हम अपने दुख के छिपे हुए कारणों पर से परदा हटा पाते हैं। अपने मन की परतों को खोलकर देख पाना केवल संबंधों के चलते ही संभव है।
संबंधों पर विशेष बल मैं इसलिए दे रहा हूं क्योंकि इनकी जटिलता को गहराई तक भली-भाँति जानकर ही हम एक समझ बना पाते हैं–एक ऐसी समझ जो तर्क तथा भावुकता के पार जाने में सक्षम है। हम यदि अपनी समझ को केवल भावना पर आश्रित रखते हैं तब उसमें कोई गहराई नहीं रहती, बल्कि केवल एक सतही भावुकता रह जाती है जो शीघ्र ही भाप की तरह उड़ जाती है और प्रेम तो खैर रहता ही नहीं। कर्म में समग्रता सिर्फ उस सही समझ के चलते ही आ सकती है। यह समझ व्यक्तिगत नहीं होती, इसे नष्ट नहीं किया जा सकता। यह अब समय के शासनाधीन नहीं रह जाती। अगर हम अपने लालची स्वार्थों और संबंधों से जुड़ी रोज़मर्रा की समस्याओं के माध्यम से यह समझ हासिल नहीं कर पाते और चेतना के किन्हीं दूसरे आयामों में इस समझ और प्रेम को ढूंढ़ते हैं, तब यह तो अज्ञान और भ्रम में जीने वाली बात हो गई।
लोभ की प्रक्रिया को पूरी तरह समझे बिना दयालुता व उदारता को उपजाना तो नासमझी तथा क्रूरता को कायम रखता है। संबंधों को समग्र रूप से समझे बिना करुणा व क्षमा से अपने आप को संवारना स्वयं में विसंगति पैदा करना, सूक्ष्म अहंकार के नाना रूपों में लिप्त हो जाना और खुद को किसी खोल में बंद कर लेना है। लालसा को पूरी तरह समझ लेने में ही करुणा व क्षमा की मौजूदगी है। आरोपित, साधे हुए सद्गुण कभी सद्गुण नहीं होते। तो समझ के लिये ज़रूरी है एक ऐसी सतत व सतर्क सजगता तथा ऐसा परिश्रम, ऐसी तपस्या जिसमें लचीलापन हो। एक विशेष सिखलाई द्वारा स्थापित कर लिये गये नियंत्रण के तो अपने खतरे हैं ही, क्योंकि वह एकतरफा व अधूरा होगा और इसीलिए इसमें कोई गहराई नहीं होगी। अभिरुचि अपने साथ सहज, स्वाभाविक एकाग्रता लाती है जिसमें समझ फलती-फूलती है। यह अभिरुचि दिन-प्रतिदिन के जीवन के कृत्यों व प्रतिक्रियाओं का अवलोकन करते रहने से, उनके बारे में सवाल उठाने से जागती है।
जीवन को तथा इसके द्वंद्वों व दुखों की जटिल समस्या को पूरी तरह बूझने के लिए हमें समग्र समझ को वजूद में लाना होगा। यह केवल तभी हो सकता है जब हम इस तृषणा-लालसा की प्रक्रिया को गहराई तक समझ लें जिसने आज हमारे जीवन की पूरी बागडोर थाम रखी है।
प्रश्न : स्व-उद्घाटन से, अपने मन की परतें खोलकर रखने वाली बात से आपका अभिप्राय इन्हें स्वयं देखने से है या दूसरों को दिखाने से है?
कृष्णमूर्ति : हम प्रायः स्वयं को दूसरों के समक्ष खोल देते हैं, परंतु महत्त्वपूर्ण क्या है–आप जैसे हैं वैसा स्वयं को देखना या अपने आप को दूसरों के समक्ष ज़ाहिर करना? मैं यह समझाने की कोशिश करता रहा हूं कि यदि हम यह ‘स्वयं को जस-का-तस देखना’ होने दें, तो सारे संबंध दर्पण की भांति कार्य करने लगते हैं जिनमें हम यह स्पष्ट देख पाते हैं कि हममें क्या कुटिल है और क्या ऋजु, सीधा-साफ है। यह हमें पैनी नज़र से देख पाने के लिए आवश्यक फोकस प्रदान करता है। परंतु जैसा मैंने बताया कि यदि हमने पूर्वाग्रहों, अभिमतों तथा विश्वासों की पट्टी आंखों पर बांध रखी है तो संबंध कितने भी मर्मस्पर्शी क्यों न हों, हम उन्हें स्पष्ट रूप से, बिना किसी पक्षपात के नहीं देख पाते। तब हमारे संबंध स्व-उद्घाटन का, स्वयं को देखने-समझने का तरीका नहीं बन पाते।
सबसे पहले ध्यान देने वाली बात यह देख पाना है : सही-सही देखने-समझने से हमें रोकता कौन है? हम देख-समझ इसलिए नहीं पाते क्योंकि स्वयं के बारे में अपनी राय, अपने भय, आदर्श, विश्वास, उन्मीदें, परंपराएं–ये सब परदे बन जाते हैं। इन विकृतियों का कारण जाने बिना, हम करते क्या हैं, कि हमने जो देखा-समझा है उसे बदल डालने या उसे थामे रखने में लग जाते हैं, एवं यह बात और अधिक विरोध-प्रतिरोध को, और अधिक दुख को जन्म देती है। हमारा प्रमुख सरोकार जो देखा-समझा गया है उसे बदलने या स्वीकार कर लेने से नहीं बल्कि इससे होना चाहिए कि हम उन अनेकानेक कारणों के प्रति सजग हो जायें जिन्होंने इस विकृति को पैदा किया है। कुछ लोग कह सकते हैं कि सजग होने के लिए उनके पास समय नहीं है, वे अत्यधिक व्यस्त हैं, आदि-आदि, परंतु यह मामला समय का कम और अभिरुचि का अधिक है। तब, वे चाहे जिस भी कार्य में व्यस्त रहें, उनमें सजगता की शुरुआत हो ही जायेगी। तत्काल परिणाम की मांग तो संपूर्ण समझ की संभावना ही ख़त्म कर देगी।
हालांकि हम दूसरों पर निर्भर हैं, परंतु स्वावलंबी व अखंडित होने की इच्छा हमसें बराबर कायम रहती है। संबंध की जटिल समस्या यह है कि बिना निर्भर हुए, बिना मनमुटाव तथा द्वंद्व के प्रेम कैसे किया जाये, स्वयं को अपने ही खोल में बंद कर लेने की, द्वंद्व के उस कारण से स्वयं को अलग हटा लेने की इच्छा पर कैसे काबू पाया जाये। यदि हम अपने सुख के लिए किसी अन्य व्यक्ति पर, समाज पर या परिवेश पर निर्भर करते हैं तो हमारे लिए वे आवश्यकता बन जाते हैं, हम उसमें जकड़े जाते हैं और उनमें किये जाने वाले किसी भी बदलाव का उग्र विरोध करते हैं, क्योंकि अपनी मनोवैज्ञानिक सुरक्षा व सुविधा के लिए हम उन पर निर्भर रहने लगते हैं। बौद्धिक रूप से यद्यपि हम ऐसा महसूस करते हैं कि यह जीवन रवानी है, तबदीली है और बदलावों की मांग बरकरार रखता है, फिर भी भावनात्मक या भावुक तौर पर हम स्थापित व सुविधाजनक मूल्यों से ही चिपके रहते हैं। अतः परिवर्तन व स्थायित्व की इच्छा के बीच एक अविराम संग्राम छिड़ा रहता है। क्या इस द्वंद्व पर पूर्ण विराम लगा पाना संभव है?
जीवन संबंधित हुए बिना चल ही नहीं सकता, परंतु प्रेम को वैयक्तित बना कर और स्वामित्व का जामा पहनाकर हमने संबंध को उस पर आधारित कर दिया है और इस प्रकार इसे यातनापूर्ण तथा भीषण बना डाला है। क्या यह हो सकता है कि हम प्रेम भी करें और मालिक भी न बनें? इसका सही उत्तर आपको किसी पलायन, किसी आदर्श या किसी विश्वास में नहीं मिल पायेगा बल्कि निर्भरता और स्वामित्व की वजहों को समझ लेने से मिलेगा। हम यदि स्वयं के व दूसरे के बीच संबंध की समस्या को गहराई तक समझ सकें तो ही शायद समाज के साथ अपने संबंध की समस्याओं को समझ पायेंगे, उनका हल ढूँढ़ सकेंगे, क्योंकि समाज कुछ और नहीं बल्कि हमारा ही तो विस्तार है। वह परिवेश जिसे हम समाज कहते हैं, पिछली पीढ़ियों द्वारा रचा हुआ है और इसी को हम अंगीकार कर लेते हैं क्योंकि ऐसा करना हमें अपने लोभ, स्वामित्वभाव तथा भ्रांति को बनाये रखने में सहायक होता है। परंतु इस भ्रांति के चलते एकता व शांति संभव नहीं। ज़बरन तथा कानूनी तौर पर लादी गयी आर्थिक एकता कभी युद्ध का अंत नहीं कर सकती। जब तक हम शक्ति के साथ व्यक्ति के संबंध को समझ नहीं लेते तब तक हम एक शांतिपूर्ण समाज की रचना नहीं कर सकते। चूंकि हमारा संबंध स्वामित्व से लदे प्रेम पर आधारित रहता है अतः हमें स्वयं में ही सजग होना होगा–इसकी पैदाइश के बारे में, इसके कारणों के बारे में और इसकी गतिविधियों के बारे में। अपनी उग्रता, अपने भय और अपनी प्रतिक्रियाओं सहित उपजे इस मालिकपने की प्रक्रिया के प्रति गहराई से सजग होने पर एक ऐसी समझ का आगमन होता है जो समग्र है, संपूर्ण है। केवल यही समझ विचार को निर्भरता वस्वामित्वभाव से मुक्त करती है। यह हमारा अंतस् ही है जहां संबंध में समन्वय के सौंदर्य को पाया जा सकता है, न कि किसी दूसरे व्यक्ति में या परिवेश में।
संबंधों में मनमुटाव का कारण हम स्वयं हैं, यह हमारा ही अहं है जो संयुक्त लालसाओं का केंद्र है। हम यदि यह बात स्पष्ट रूप से समझ लें कि बुनियादी बात यह नहीं है कि दूसरा कैसे बर्ताव करता है, बल्कि महत्त्वपूर्ण यह है कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति किस तरह बरत रहा है, क्या प्रतिक्रिया कर रहा है। इस प्रतिक्रिया व क्रिया को यदि आधारभूत रूप से, गहरे में समझ लिया जाये तो संबंधों में एक गहरा व आमूल बदलाव आ सकेगा। दूसरे के साथ अपने संबंधों में केवल भौतिक समस्या ही नहीं रहती बल्कि सभी स्तरों पर विचार तथा भावना की समस्या भी रहती है। अतः हम दूसरे के साथ एकलयता में केवल तभी हो सकते हैं जब हम अपने अंतस् में समग्र रूप से समन्वित हों। संबंधों के चलते जो महत्त्वपूर्ण बात मन में रखनी है वह यह है कि ज़िम्मेदार दूसरा नहीं बल्कि हम हैं। पर इसका अर्थ यह न मान बैठें कि हम स्वयं को अलग-थलग कर लें, बल्कि गहराई से यह समझें कि हममें द्वंद्व व दुख के कारण क्या हैं। जब तक अपने मानसिक स्वास्थ्य के लिये हम बौद्धिक या भावनात्मक रूप से किसी दूसरे पर निर्भर रहेंगे, तब तक यह निर्भरता अपरिहार्य रूप से भय ही पैदा करती रहेगी और इस भय से दुख ही उपजता रहेगा।
संबंधों की जटिलता को समझने के लिये विचारपूर्ण धैर्य व गंभीरता का होना आवश्यक है। संबंध स्व-उद्घाटन की, अपने ही मन की परतें खोलने की एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें हम अपने दुख के छिपे हुए कारणों पर से परदा हटा पाते हैं। अपने मन की परतों को खोलकर देख पाना केवल संबंधों के चलते ही संभव है।
संबंधों पर विशेष बल मैं इसलिए दे रहा हूं क्योंकि इनकी जटिलता को गहराई तक भली-भाँति जानकर ही हम एक समझ बना पाते हैं–एक ऐसी समझ जो तर्क तथा भावुकता के पार जाने में सक्षम है। हम यदि अपनी समझ को केवल भावना पर आश्रित रखते हैं तब उसमें कोई गहराई नहीं रहती, बल्कि केवल एक सतही भावुकता रह जाती है जो शीघ्र ही भाप की तरह उड़ जाती है और प्रेम तो खैर रहता ही नहीं। कर्म में समग्रता सिर्फ उस सही समझ के चलते ही आ सकती है। यह समझ व्यक्तिगत नहीं होती, इसे नष्ट नहीं किया जा सकता। यह अब समय के शासनाधीन नहीं रह जाती। अगर हम अपने लालची स्वार्थों और संबंधों से जुड़ी रोज़मर्रा की समस्याओं के माध्यम से यह समझ हासिल नहीं कर पाते और चेतना के किन्हीं दूसरे आयामों में इस समझ और प्रेम को ढूंढ़ते हैं, तब यह तो अज्ञान और भ्रम में जीने वाली बात हो गई।
लोभ की प्रक्रिया को पूरी तरह समझे बिना दयालुता व उदारता को उपजाना तो नासमझी तथा क्रूरता को कायम रखता है। संबंधों को समग्र रूप से समझे बिना करुणा व क्षमा से अपने आप को संवारना स्वयं में विसंगति पैदा करना, सूक्ष्म अहंकार के नाना रूपों में लिप्त हो जाना और खुद को किसी खोल में बंद कर लेना है। लालसा को पूरी तरह समझ लेने में ही करुणा व क्षमा की मौजूदगी है। आरोपित, साधे हुए सद्गुण कभी सद्गुण नहीं होते। तो समझ के लिये ज़रूरी है एक ऐसी सतत व सतर्क सजगता तथा ऐसा परिश्रम, ऐसी तपस्या जिसमें लचीलापन हो। एक विशेष सिखलाई द्वारा स्थापित कर लिये गये नियंत्रण के तो अपने खतरे हैं ही, क्योंकि वह एकतरफा व अधूरा होगा और इसीलिए इसमें कोई गहराई नहीं होगी। अभिरुचि अपने साथ सहज, स्वाभाविक एकाग्रता लाती है जिसमें समझ फलती-फूलती है। यह अभिरुचि दिन-प्रतिदिन के जीवन के कृत्यों व प्रतिक्रियाओं का अवलोकन करते रहने से, उनके बारे में सवाल उठाने से जागती है।
जीवन को तथा इसके द्वंद्वों व दुखों की जटिल समस्या को पूरी तरह बूझने के लिए हमें समग्र समझ को वजूद में लाना होगा। यह केवल तभी हो सकता है जब हम इस तृषणा-लालसा की प्रक्रिया को गहराई तक समझ लें जिसने आज हमारे जीवन की पूरी बागडोर थाम रखी है।
प्रश्न : स्व-उद्घाटन से, अपने मन की परतें खोलकर रखने वाली बात से आपका अभिप्राय इन्हें स्वयं देखने से है या दूसरों को दिखाने से है?
कृष्णमूर्ति : हम प्रायः स्वयं को दूसरों के समक्ष खोल देते हैं, परंतु महत्त्वपूर्ण क्या है–आप जैसे हैं वैसा स्वयं को देखना या अपने आप को दूसरों के समक्ष ज़ाहिर करना? मैं यह समझाने की कोशिश करता रहा हूं कि यदि हम यह ‘स्वयं को जस-का-तस देखना’ होने दें, तो सारे संबंध दर्पण की भांति कार्य करने लगते हैं जिनमें हम यह स्पष्ट देख पाते हैं कि हममें क्या कुटिल है और क्या ऋजु, सीधा-साफ है। यह हमें पैनी नज़र से देख पाने के लिए आवश्यक फोकस प्रदान करता है। परंतु जैसा मैंने बताया कि यदि हमने पूर्वाग्रहों, अभिमतों तथा विश्वासों की पट्टी आंखों पर बांध रखी है तो संबंध कितने भी मर्मस्पर्शी क्यों न हों, हम उन्हें स्पष्ट रूप से, बिना किसी पक्षपात के नहीं देख पाते। तब हमारे संबंध स्व-उद्घाटन का, स्वयं को देखने-समझने का तरीका नहीं बन पाते।
सबसे पहले ध्यान देने वाली बात यह देख पाना है : सही-सही देखने-समझने से हमें रोकता कौन है? हम देख-समझ इसलिए नहीं पाते क्योंकि स्वयं के बारे में अपनी राय, अपने भय, आदर्श, विश्वास, उन्मीदें, परंपराएं–ये सब परदे बन जाते हैं। इन विकृतियों का कारण जाने बिना, हम करते क्या हैं, कि हमने जो देखा-समझा है उसे बदल डालने या उसे थामे रखने में लग जाते हैं, एवं यह बात और अधिक विरोध-प्रतिरोध को, और अधिक दुख को जन्म देती है। हमारा प्रमुख सरोकार जो देखा-समझा गया है उसे बदलने या स्वीकार कर लेने से नहीं बल्कि इससे होना चाहिए कि हम उन अनेकानेक कारणों के प्रति सजग हो जायें जिन्होंने इस विकृति को पैदा किया है। कुछ लोग कह सकते हैं कि सजग होने के लिए उनके पास समय नहीं है, वे अत्यधिक व्यस्त हैं, आदि-आदि, परंतु यह मामला समय का कम और अभिरुचि का अधिक है। तब, वे चाहे जिस भी कार्य में व्यस्त रहें, उनमें सजगता की शुरुआत हो ही जायेगी। तत्काल परिणाम की मांग तो संपूर्ण समझ की संभावना ही ख़त्म कर देगी।
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