विविध उपन्यास >> थके पाँव थके पाँवभगवतीचरण वर्मा
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सामाजिकता, बौद्धिकता और भावनात्मक दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण उपन्यास....
भगवतीचरण वर्मा हिन्दी जगत के जाने माने विख्यात उपन्यासकार हैं। आपके
सभी उपन्यासों में एक विविधता है। हास्य व्यंग्य, समाज, मनोविज्ञान और
दर्शन सभी विषयों पर उपन्यास लिखे हैं। कवि और कथाकार होने के कारण
वर्माजी के उपन्यासों में भावनात्मक और बौद्धिकता का सामंजस्य मिलता है।
वर्माजी के उपन्यासों को पढ़ते समय यह सदा ध्यान रखना चाहिये कि वे मूलतः
एक छायावादी और प्रगतिवादी कवि हैं और उनके कथा साहित्य में कविता की
भावना की प्रधानता बौद्धिक यथार्थ से कभी अलग नहीं होती। उपन्यासों के अब
तक परम्परागत शिथिल और बने-बनाये रूप-विन्यास और कथन शैली की नयी शक्ति और
सम्पन्नता ही नहीं वरन कथावस्तु का नया विस्तार भी मिला।
थके पाँव
1
लड़खड़ाते हुए पैर।...वह चल रहा है क्योंकि उसे चलना पड़ रहा है; लेकिन
जैसे पैर चलना ही नहीं चाहते। जीवन में गति होती है, उस गति की प्रेरणा,
भावना की तीव्रता से मिला करती है, लेकिन जैसे उसके अन्दरवाली समस्त भावना
कुंठित हो गई है और एक अजीब तरह की गतिहीनता भर गई है उसके अन्दर, जो उसके
पैरों को आगे बढ़ने से रोकती है। लेकिन उसे आगे बढ़ना ही है...दफ्तर से वह
चला है, उसे अपने घर पहुंचना है और उसका घर अब नज़दीक आ गया है, सड़क से
वह गली में मुड़ गया है, जिस गली में उसका घर है। यही सौ-दो सौ कदम पर
उसका घर है। लेकिन जैसे उसके कदम जवाब देने लगे हों। वह अस्वस्थ नहीं है,
उसके पैरों में किसी तरह का रोग नहीं है। फिर भी अजीब तरह की संज्ञाहीनता
उसके समस्त अस्तित्व में व्याप्त हो गई है। वह चल रहा है क्योंकि उसे चलना
पड़ रहा है, और उसके पैर लड़खड़ा रहे हैं क्योंकि वह थक गया है, बुरी तरह
से थक गया है।
उसके पैरों में जो जूते हैं, वे जगह-जगह से फटने लगे हैं। कई दिनों से वह नए जूते खरीदने की सोच रहा है, लेकिन अभी तक वह जूते खरीद नहीं पाया। ऐसी बात नहीं कि जूते खरीदने के लिए उसके पास पैसे न रहे हों, क्योंकि पैसों का अभाव होते हुए भी उसे बेतहाशा खर्च करना पड़ रहा है और किसी तरह उसे पैसे जुटाने पड़ते हैं। उसने नए जूते नहीं खरीदे, क्योंकि इन दिनों उस पर एक भयानक विवशता से भरा आलस्य छाया रहा है। जूते अभी तक काम दे रहें हैं और शायद अभी कई दिनों तक काम देते रहेंगे। कुँवार मास की जलती दोपहर में वह मोज़े भी पहने हुए हैं। यद्यपि उन मोज़ों में अनगिनत छेद हैं। जूतों पर मोज़े पहनना यह उसकी बहुत पुरानी आदत है, घर से बाहर जाते हुए वह ठीक उसी तरह मोज़े पहन लेता है, जिस तरह वह अपने अन्य कपड़े पहनता है।
मोज़ों के ऊपर वह पतलून पहने है। पतलून की क्रीज़ मिट चुकी है और वह मैला भी होने लगा है। नीचे, जहाँ से पतलून मुड़ता है, वहाँ वह हर दूसरे दिन फटता है और फिर से सिया जाता है। यही क्रम पिछले दो महीनों से चल रहा है। उसके ऊपर कोट है, बन्द गले का। जिसके नीचे कमीज़ है या नहीं है, इसका पता नहीं चल पाता। कोट दो महीने पहले बना है...वह अभी सही-सलामत है। और उसके सिर पर कोट के कपड़े की ही किश्तीदार टोपी है।
उसके सारे शरीर में एक प्रकार की जड़ता भर गई है, उसकी थकावट अकेले उसके पैरों में ही नहीं है, वह उसके सारे बदन में व्याप्त है, वह थकावट शरीर की नहीं है वह उसके पैरों की थकावट है।
लड़खड़ाते पैरों से वह चल रहा है, जैसे उसकी सारी ताकत छिन रही है। उसकी बड़ी-बड़ी मूँछे झुकी हुई हैं और वे अजीब तरह से बदरंग दिख रही हैं। आधी सफेद और आधी काली; झुर्रियों से भरे चेहरे की असुन्दरता को ढकने में वे असमर्थ हैं। उसके सिर के बाल भी तो आधे सफेद और आधे काले हैं। अभी कुछ साल पहले तक वे पूरी तरह से काले थे, लेकिन एकाएक उसके बाल पकने आरम्भ हुए, और उसे लगा कि वे बड़ी तेज़ी के साथ पक रहे हैं। वह अनुभव करने लगा है कि वह बूढ़ा हो गया है।
वह बूढ़ा हो गया है...कुल पचास साल में, तन और मन से। वैसे वह अस्वस्थ नहीं है, नियमित आहार और नियमित जीवन। फिर भी वह अनुभव कर रहा है कि उसकी जीवन-शक्ति तेज़ी के साथ घट रही है। उसकी आँखों की चमक जाती रही है। इन दिनों वे कुछ बुझी-सी दिखती हैं। उसका रंग जो किसी समय गोरा कहा जा सकता था, अब मटमैला-सा पड़ने लगा है। उसकी गणना, उसकी युवावस्था में सुन्दर पुरुषों में होती थी, लेकिन अपनी शारीरिक सुन्दरता अब वह खो चुका है और अपने स्वास्थ्य, अपनी सुन्दरता के प्रति उसका मोह न जाने कब और क्यों गायब हो गया है।
वह लड़खड़ाते पैरों से अपने घर की ओर बढ़ रहा है जो अब उसे दिखाई दे रहा है। वह दो मील का रास्ता तय किए हुए आ रहा है। कुछ कदम और चलने हैं उसे। जैसे-जैसे उसका घर पास आता जाता है उसके पैरों की शिथिलता और बढ़ती जाती है और उसके कदम भी और धीमे पड़ते जाते हैं। उसे डर लगने लगता है कि कहीं वह रास्ते में ही न गिर पड़े। वह अपनी चाल तेज़ करना चाहता है, लेकिन उसी समय उसे एक दूसरा भय जकड़ लेता है। उस भय का रूप वह स्पष्ट रूप से नहीं देख पाता, उसे वह केवल अनुभव ही कर रहा है। वह भय उसके समस्त अस्तित्व को घेरे हुए है और उसका समस्त अस्तित्व उस घर में केन्द्रित है जहाँ वह जा रहा है। उसका मन नहीं होता घर लौटने को...लेकिन वह विवश है। वह भागना चाहता है, लेकिन उसके सामने कोई ऐसी जगह नहीं जहाँ वह भागकर जा सके। वह घर उसका है...अपने से कहीं कोई भाग सका है।
उसके पैर लड़खड़ा रहे हैं लेकिन वह चलता जा रहा है क्योंकि उसे अपने घर पहुँचना है। गली के बीचोबीच दाहिनी ओर जो एक पुराना-सा दुमंज़िला मकान है, वही उसका घर है। वह उसका निजी घर है। करीब बीस वर्ष पहले उसने उसे खरीदा था। मकान बड़ा नहीं है, पर छोटा भी नहीं है। नीचे गली से लगा हुआ एक बड़ा कमरा है जो बैठक के काम आता है...उस बैठक के सामने एक दालाननुमा बरामदा है। उसके बाद एक बड़ा आँगन है...और आँगन के बाद फिर दालाननुमा बरामदा जिससे मिले हुए सबसे पीछे की ओर दो कमरे जो रसोई और भंडार के काम में आते हैं। आँगन में दाईं ओर बाथरूम आदि हैं। दुमंज़िला भी कुछ इसी तरह बना हुआ है।
घर के अन्दर जानेवाला द्वार भीतर से बन्द है। दोपहर का समय है। सब लोग आराम कर रहे होंगे। बैठक में तीन दरवाज़े हैं गली से मिले हुए...और उनसे मिला हुआ एक चौड़ा-सा चबूतरा है। बीचवाले दरवाज़े में बाहर से ताला बन्द है जिसकी कुंजी उसकी जेब में है। और वह अब अपने घर के सामने पहुँच जाता है। घर का दरवाज़ा भीतर से बन्द है। बैठक की चाबी उसके पास है और वह घर में किसी से मिलना नहीं चाहता...वह किसी से बात नहीं करना चाहता है। वह चुपचाप लेट जाना चाहता है और अपने को अनन्त निद्रा की गोद में खो देना चाहता है। वह लड़खड़ाते पैरों से चबूतरे के ऊपर चढ़ता है और अपनी बैठक का दरवाजा खोलता है। बैठक के अन्दर पहुँचकर वह उसे अन्दर से बन्द कर लेता है। चारों ओर से बन्द वह बैठक का कमरा, कितना अँधेरा है। एक तरह की घबराहट होने लगती है उसे, लेकिन वह द्वार नहीं खोलता है।
बैठक में एक पुरानी दरी बिछी हुई है जो उसने दस साल पहले नीलामी में खरीदी थी और जो बीच-बीच से फटने लगी थी। बाईं ओर दीवार से मिला हुआ एक तख्त पड़ा था जिस पर उसकी नाप का एक मोटा-सा गद्दा था और एक मैली-सी चादर उस पर बिछी हुई थी। सामने दो आरामकुर्सियाँ पड़ी थी।
तख्त के सामने पड़ी हुई आरामकुर्सी पर वह एक तरह से गिर पड़ा। आँखें बन्द किए हुए देर तक संज्ञाहीन-सा उसी हालत में पड़ा रहा, और इस बीच उसकी चेतना उसके अन्दर करवटें बदलती रही। धीरे-धीरे उसकी संज्ञाहीनता दूर हुई। उसने अपने सिर को, एक झटका दिया और वह बैठ गया। उसने अपना जूता खोला, उसने अपने मोज़े उतारे जिनकी बदबू उस बैठक में भर गई थी। अपना कोट उतारकर उसने सामनेवाली खूँटी पर टाँग दिया था...और वह तख्त पर लेट गया। लेकिन लेटने पर उसे ऐसा लगा कि उसकी नींद गायब हो गई...एक उलझन, एक बेचैनी ने उसके अन्दरवाली निष्क्रियता का स्थान ले लिया है।
वह विवश है, बुरी तरह से विवश है। उसके जीवन की धारा बदल गई है। एक बहुत बड़ा मोड़ आया है उसके जीवन में। लेकिन इस सबका अन्त क्या होगा? और फिर प्रश्न यह भी उठता है कि हरेक चीज़ का अन्त सिवा विनाश के होता क्या है? फल क्या होगा? कोई नहीं जानता; फिर भी फल की कल्पना हरेक आदमी करता है, फल के आधार पर वह अपना जीवन ढालता है। अपने कर्मों को रूप देता है।
कल जो बीत चुका...उसने आज को रूप दिया और वह कल जो आनेवाला है हम उसकी कल्पना करके ही आज का रूप देते हैं।
उसे आनेवाले कल का रूप देना है। उस कल का रूप जो अब तक वह देता रहा, वह आज अचानक पूरी तौर से मिट गया है। उसे मिटाकर ही वह घर लौटा है। लेकिन उसे अपने ‘आज’ के रूप को बदलना होगा जिससे आनेवाले कल का दूसरा रूप वह ढाल सके। और यह ‘आज’ का रूप? वह बीते हुए कल की ही तो उपज है। उस बीते हुए कल की न जाने कितनी धाराएँ हैं, उन धाराओं में एक हम चुन लिया करते हैं। आज के जीवन में बाकी सब धाराएँ समय के मरुस्थल में लोप हो जाती हैं।
बीते हुए ‘कल’ के रूप को फिर से देखना पड़ेगा, उसी से ‘आज’ का नया रूप निकालना पड़ेगा...वह सोच रहा है। इसे सोचने-विचारने में जैसे उसका दिमाग जा रहा है लेकिन वह सोचना-विचारना...इसे वह स्थगित नहीं कर सकता। रोग उपचार से ही दूर होता है धीरे-धीरे, उपचार कष्टप्रद भी होता है। कड़वी दवा का घूँट पिए बिना स्वास्थ्य-लाभ नहीं किया जा सकता। यह साधारण रोग नहीं है...यहाँ तो शिल्प-चिकित्सालय का सवाल है। दिमाग फटने-सा लगेगा, आँखें निकल-सी आएँगी; लेकिन यही इलाज है। किया क्या जाए?
वह अपने को संयत कर रहा है...आज जो कुछ हुआ है उसे वह भूल जाना चाहता है। कल जो कुछ हुआ वह अपने को उस पर ही केन्द्रित कर रहा है। वह थक गया है...बुरी तरह थक गया है। लेकिन उसे चलते रहना है। जिस रास्ते को उसने अपनाया था वह सहसा रुक गया...फिर पीछे मुड़कर उसे दूसरा मार्ग ढूँढ़ना है। चलना तो उसे होगा ही, मन कितना भी भारी हो, पैरों में कितनी भी थकावट हो।
उसके पैरों में जो जूते हैं, वे जगह-जगह से फटने लगे हैं। कई दिनों से वह नए जूते खरीदने की सोच रहा है, लेकिन अभी तक वह जूते खरीद नहीं पाया। ऐसी बात नहीं कि जूते खरीदने के लिए उसके पास पैसे न रहे हों, क्योंकि पैसों का अभाव होते हुए भी उसे बेतहाशा खर्च करना पड़ रहा है और किसी तरह उसे पैसे जुटाने पड़ते हैं। उसने नए जूते नहीं खरीदे, क्योंकि इन दिनों उस पर एक भयानक विवशता से भरा आलस्य छाया रहा है। जूते अभी तक काम दे रहें हैं और शायद अभी कई दिनों तक काम देते रहेंगे। कुँवार मास की जलती दोपहर में वह मोज़े भी पहने हुए हैं। यद्यपि उन मोज़ों में अनगिनत छेद हैं। जूतों पर मोज़े पहनना यह उसकी बहुत पुरानी आदत है, घर से बाहर जाते हुए वह ठीक उसी तरह मोज़े पहन लेता है, जिस तरह वह अपने अन्य कपड़े पहनता है।
मोज़ों के ऊपर वह पतलून पहने है। पतलून की क्रीज़ मिट चुकी है और वह मैला भी होने लगा है। नीचे, जहाँ से पतलून मुड़ता है, वहाँ वह हर दूसरे दिन फटता है और फिर से सिया जाता है। यही क्रम पिछले दो महीनों से चल रहा है। उसके ऊपर कोट है, बन्द गले का। जिसके नीचे कमीज़ है या नहीं है, इसका पता नहीं चल पाता। कोट दो महीने पहले बना है...वह अभी सही-सलामत है। और उसके सिर पर कोट के कपड़े की ही किश्तीदार टोपी है।
उसके सारे शरीर में एक प्रकार की जड़ता भर गई है, उसकी थकावट अकेले उसके पैरों में ही नहीं है, वह उसके सारे बदन में व्याप्त है, वह थकावट शरीर की नहीं है वह उसके पैरों की थकावट है।
लड़खड़ाते पैरों से वह चल रहा है, जैसे उसकी सारी ताकत छिन रही है। उसकी बड़ी-बड़ी मूँछे झुकी हुई हैं और वे अजीब तरह से बदरंग दिख रही हैं। आधी सफेद और आधी काली; झुर्रियों से भरे चेहरे की असुन्दरता को ढकने में वे असमर्थ हैं। उसके सिर के बाल भी तो आधे सफेद और आधे काले हैं। अभी कुछ साल पहले तक वे पूरी तरह से काले थे, लेकिन एकाएक उसके बाल पकने आरम्भ हुए, और उसे लगा कि वे बड़ी तेज़ी के साथ पक रहे हैं। वह अनुभव करने लगा है कि वह बूढ़ा हो गया है।
वह बूढ़ा हो गया है...कुल पचास साल में, तन और मन से। वैसे वह अस्वस्थ नहीं है, नियमित आहार और नियमित जीवन। फिर भी वह अनुभव कर रहा है कि उसकी जीवन-शक्ति तेज़ी के साथ घट रही है। उसकी आँखों की चमक जाती रही है। इन दिनों वे कुछ बुझी-सी दिखती हैं। उसका रंग जो किसी समय गोरा कहा जा सकता था, अब मटमैला-सा पड़ने लगा है। उसकी गणना, उसकी युवावस्था में सुन्दर पुरुषों में होती थी, लेकिन अपनी शारीरिक सुन्दरता अब वह खो चुका है और अपने स्वास्थ्य, अपनी सुन्दरता के प्रति उसका मोह न जाने कब और क्यों गायब हो गया है।
वह लड़खड़ाते पैरों से अपने घर की ओर बढ़ रहा है जो अब उसे दिखाई दे रहा है। वह दो मील का रास्ता तय किए हुए आ रहा है। कुछ कदम और चलने हैं उसे। जैसे-जैसे उसका घर पास आता जाता है उसके पैरों की शिथिलता और बढ़ती जाती है और उसके कदम भी और धीमे पड़ते जाते हैं। उसे डर लगने लगता है कि कहीं वह रास्ते में ही न गिर पड़े। वह अपनी चाल तेज़ करना चाहता है, लेकिन उसी समय उसे एक दूसरा भय जकड़ लेता है। उस भय का रूप वह स्पष्ट रूप से नहीं देख पाता, उसे वह केवल अनुभव ही कर रहा है। वह भय उसके समस्त अस्तित्व को घेरे हुए है और उसका समस्त अस्तित्व उस घर में केन्द्रित है जहाँ वह जा रहा है। उसका मन नहीं होता घर लौटने को...लेकिन वह विवश है। वह भागना चाहता है, लेकिन उसके सामने कोई ऐसी जगह नहीं जहाँ वह भागकर जा सके। वह घर उसका है...अपने से कहीं कोई भाग सका है।
उसके पैर लड़खड़ा रहे हैं लेकिन वह चलता जा रहा है क्योंकि उसे अपने घर पहुँचना है। गली के बीचोबीच दाहिनी ओर जो एक पुराना-सा दुमंज़िला मकान है, वही उसका घर है। वह उसका निजी घर है। करीब बीस वर्ष पहले उसने उसे खरीदा था। मकान बड़ा नहीं है, पर छोटा भी नहीं है। नीचे गली से लगा हुआ एक बड़ा कमरा है जो बैठक के काम आता है...उस बैठक के सामने एक दालाननुमा बरामदा है। उसके बाद एक बड़ा आँगन है...और आँगन के बाद फिर दालाननुमा बरामदा जिससे मिले हुए सबसे पीछे की ओर दो कमरे जो रसोई और भंडार के काम में आते हैं। आँगन में दाईं ओर बाथरूम आदि हैं। दुमंज़िला भी कुछ इसी तरह बना हुआ है।
घर के अन्दर जानेवाला द्वार भीतर से बन्द है। दोपहर का समय है। सब लोग आराम कर रहे होंगे। बैठक में तीन दरवाज़े हैं गली से मिले हुए...और उनसे मिला हुआ एक चौड़ा-सा चबूतरा है। बीचवाले दरवाज़े में बाहर से ताला बन्द है जिसकी कुंजी उसकी जेब में है। और वह अब अपने घर के सामने पहुँच जाता है। घर का दरवाज़ा भीतर से बन्द है। बैठक की चाबी उसके पास है और वह घर में किसी से मिलना नहीं चाहता...वह किसी से बात नहीं करना चाहता है। वह चुपचाप लेट जाना चाहता है और अपने को अनन्त निद्रा की गोद में खो देना चाहता है। वह लड़खड़ाते पैरों से चबूतरे के ऊपर चढ़ता है और अपनी बैठक का दरवाजा खोलता है। बैठक के अन्दर पहुँचकर वह उसे अन्दर से बन्द कर लेता है। चारों ओर से बन्द वह बैठक का कमरा, कितना अँधेरा है। एक तरह की घबराहट होने लगती है उसे, लेकिन वह द्वार नहीं खोलता है।
बैठक में एक पुरानी दरी बिछी हुई है जो उसने दस साल पहले नीलामी में खरीदी थी और जो बीच-बीच से फटने लगी थी। बाईं ओर दीवार से मिला हुआ एक तख्त पड़ा था जिस पर उसकी नाप का एक मोटा-सा गद्दा था और एक मैली-सी चादर उस पर बिछी हुई थी। सामने दो आरामकुर्सियाँ पड़ी थी।
तख्त के सामने पड़ी हुई आरामकुर्सी पर वह एक तरह से गिर पड़ा। आँखें बन्द किए हुए देर तक संज्ञाहीन-सा उसी हालत में पड़ा रहा, और इस बीच उसकी चेतना उसके अन्दर करवटें बदलती रही। धीरे-धीरे उसकी संज्ञाहीनता दूर हुई। उसने अपने सिर को, एक झटका दिया और वह बैठ गया। उसने अपना जूता खोला, उसने अपने मोज़े उतारे जिनकी बदबू उस बैठक में भर गई थी। अपना कोट उतारकर उसने सामनेवाली खूँटी पर टाँग दिया था...और वह तख्त पर लेट गया। लेकिन लेटने पर उसे ऐसा लगा कि उसकी नींद गायब हो गई...एक उलझन, एक बेचैनी ने उसके अन्दरवाली निष्क्रियता का स्थान ले लिया है।
वह विवश है, बुरी तरह से विवश है। उसके जीवन की धारा बदल गई है। एक बहुत बड़ा मोड़ आया है उसके जीवन में। लेकिन इस सबका अन्त क्या होगा? और फिर प्रश्न यह भी उठता है कि हरेक चीज़ का अन्त सिवा विनाश के होता क्या है? फल क्या होगा? कोई नहीं जानता; फिर भी फल की कल्पना हरेक आदमी करता है, फल के आधार पर वह अपना जीवन ढालता है। अपने कर्मों को रूप देता है।
कल जो बीत चुका...उसने आज को रूप दिया और वह कल जो आनेवाला है हम उसकी कल्पना करके ही आज का रूप देते हैं।
उसे आनेवाले कल का रूप देना है। उस कल का रूप जो अब तक वह देता रहा, वह आज अचानक पूरी तौर से मिट गया है। उसे मिटाकर ही वह घर लौटा है। लेकिन उसे अपने ‘आज’ के रूप को बदलना होगा जिससे आनेवाले कल का दूसरा रूप वह ढाल सके। और यह ‘आज’ का रूप? वह बीते हुए कल की ही तो उपज है। उस बीते हुए कल की न जाने कितनी धाराएँ हैं, उन धाराओं में एक हम चुन लिया करते हैं। आज के जीवन में बाकी सब धाराएँ समय के मरुस्थल में लोप हो जाती हैं।
बीते हुए ‘कल’ के रूप को फिर से देखना पड़ेगा, उसी से ‘आज’ का नया रूप निकालना पड़ेगा...वह सोच रहा है। इसे सोचने-विचारने में जैसे उसका दिमाग जा रहा है लेकिन वह सोचना-विचारना...इसे वह स्थगित नहीं कर सकता। रोग उपचार से ही दूर होता है धीरे-धीरे, उपचार कष्टप्रद भी होता है। कड़वी दवा का घूँट पिए बिना स्वास्थ्य-लाभ नहीं किया जा सकता। यह साधारण रोग नहीं है...यहाँ तो शिल्प-चिकित्सालय का सवाल है। दिमाग फटने-सा लगेगा, आँखें निकल-सी आएँगी; लेकिन यही इलाज है। किया क्या जाए?
वह अपने को संयत कर रहा है...आज जो कुछ हुआ है उसे वह भूल जाना चाहता है। कल जो कुछ हुआ वह अपने को उस पर ही केन्द्रित कर रहा है। वह थक गया है...बुरी तरह थक गया है। लेकिन उसे चलते रहना है। जिस रास्ते को उसने अपनाया था वह सहसा रुक गया...फिर पीछे मुड़कर उसे दूसरा मार्ग ढूँढ़ना है। चलना तो उसे होगा ही, मन कितना भी भारी हो, पैरों में कितनी भी थकावट हो।
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