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श्री पराशर संहिता

जे. बी. चैरिटेबल ट्रस्ट

प्रकाशक : श्रीमती स्वीटी गोम्बर प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :521
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8274
आईएसबीएन :81-903043-5-6

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श्री पराशर संहिता

Shree Parashar Sanhita - A Hindi Book - by J B Charitable

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 


श्रीराम जय हनुमान
श्रीपराशरसंहिता

 

श्री आंजनेयचरितम्

प्रथमपटलः

 

मन्त्रोपदेशलक्षणम्


श्रीजानकीपतिं रामं भ्रातृभिर्लक्ष्यणादिभः।
सहिंत परम वन्दे रत्नसिंहासने स्थितम्।। 1

 

1.    श्रीलक्ष्मणादि भाइयों के साथ रत्न सिंहासन पर विराजित श्रीजानकीपति राम को प्रणाम करता हूँ।


एकदा सुखमासीनं पराशरमहामुनिम्
            मैत्रेयः परिपप्रच्छ तपोनिधिमकल्मषम्।। २

 

२. एक बार सुखासन में विराजमान निष्पाप तपोमूर्ति पराशर महामुनि से मैत्रेय ने पूछा।


भगवन्योगिनां श्रेष्ठ! पराशर महामते। किंचिद्विज्ञातुकामोडस्मि तन्ममानुग्रंह कुरु।।3

 

3. हे भगवन् योगियों में श्रेष्ठ महामति पराशर! मैं कुछ जानना चाहता हूँ, अतः आप मुझ पर कृपा करें।


प्राप्तं कलियुंग घोरं मोहमायासमाकुलम् अधर्मानृतसंयुक्तं दारिद्र्यव्याधिपीड़ितम्।।4


4. मोहमाया से आच्छन्न अधर्म, असत्य से युक्त दारिद्र्य व्याधि से पीड़ित घोर कलियुग आ चुका है।


तस्मिन् कलियुगे घोरे किं सेव्यं शिवमिच्छताम्। पूर्वकर्मविपाकेन ये नराः दुःखभागिनः।।5

 

5. उस घोर कलियुग में पूर्वजन्म के कर्मवश जो मनुष्य दुःखी हैं, वह अपने कल्याण करने हेतु क्या उपाय करें।

 

तेषां दुःखाभिभूतानां किं कर्तव्यं कृपालुभिः
दस्युप्रायास्सदा भूपास्साधवो विपदान्विताः।।6

 

6.    उन दुःख संतप्तों के लिये दयालुओं को क्या करना चाहिये। राजा जन दस्युकर्म में प्रवृत्त हुये हैं और साधुजन विपत्तियों से घिरे हैं।

 

पीड़िताः कलिदारिद्रयाद्व्याधिभिश्चापरे जनाः
किं पथ्यं किं प्रजत्तव्यं सद्यों विजयकारकम्।।7


7.    कलियुग के दारिद्र्य एवं व्याधियों से लोग पीड़ित हैं। इनसे छुटकारा पाने का क्या उपाय है। किसका जप करें जिनसे दुःखों पर विजय प्राप्त हो।

 

संसारतारकं किं वा भोगस्वर्गापवर्गदम्
कस्मादुत्तीर्यते पारः सद्य आपत्समुद्रतः।।8


8.    संसार से तारने वाला कौन है। कौन लौकिक भोग, स्वर्ग एवं मोक्ष देने वाला है। किस उपास से तुरन्त दुःख सागर को पार कर सकते हैं।

 

किमत्र बहुनोक्तेन सद्यस्सकलसिद्धदम्
शिष्यं मां कृपया वीक्ष्य वद सारं कृपानिधे! 9

 

9.    हे कृपानिधि! कौन सा लघु उपाय है जिससे सभी सिद्धियाँ तुरन्त प्राप्त हो जाये। कृपया मुझे शिष्य समझकर बताये।

 

एतत्पृष्टं त्वंया विद्धि लोकानामुपकारकम् घोरं कलियुग सर्वमधर्मानृतसंकुलम्।।10

 

10.    संसार के उपकार के लिये आपने यह पूछा है। यह घोर कलियुग अधर्म और असत्य से संपृक्त हो गया है।

 

वेदशास्त्रपुराणौधसारभूतार्थसंग्रहम् सर्वसिद्धिकरं वक्ष्ये श्रृणु त्वं सुमना भव।।11

 

11.    समस्त वेद एवं शास्त्र-पुराण का सारतत्त्व मैं आपको कहता हूँ। आप मनोयोग से सुनें।

 

तीर्थयात्राप्रसंगेन सरयूतीरमागतम्
मां तीक्ष्य कृपया साक्षाद्वसिष्ठोऽस्मत्पितामहः।। 12

उपादिदेश विद्यां में सद्यस्सिद्धिविधायिनीम् 13


12,13 तीर्थयात्रा प्रसंग से सरयू से सरयू तट पर आये हुये हमारे पितामह वशिष्ठ ने मुझे देखकर कृपापूर्वक सद्यः सिद्धि प्रदान करने वाली विद्या का उपदेश मुझे दिया।

 

शैववैष्णवशाक्तार्कगाणपत्येन्दुसंभवाः न शीध्रं सिद्धिदाः प्रोक्ताश्चिरकालफलप्रदाः।14

 

14.    शैव, वैष्णव, शाक्त, सूर्य, गाणपत्य एवं चन्दविद्या शीघ्र फल प्रदान करने वाली नहीं कहीं गयी हैं। इनका फल बहुत दिनों बाद प्राप्त होता है।

 

लक्ष्मीनारायणी विद्या भवानीशंकरात्मिका सीताराममहाविद्या पंचवक्त्रहनूमतः।। 15

 

15.    लक्ष्मी नारायणी विद्या, भवानी शंकरात्मिका विद्या, सीताराम महाविद्या पञ्चमुखी हनुमदविद्या चतुर्थी विद्या कही गयी है।

 

विद्या चतुर्था संप्रोक्ता नसिंहानष्टुभाभिदा ब्रह्मास्वविद्या षष्ठीस्यादष्टार्णामारुतेः परा।। 16

 

16.     नृसिंह–अनुष्टुभविद्या, षष्ठी ब्रह्मास्त्र विद्या, अष्टार्णा मारुति विद्या परा विद्या है।

 

साम्राज्यलक्ष्मीस्त्वपरा दक्षिणाकालिका परा चिंतामणिमहाविद्या द्वादशी परिकीर्तिता 17


17.    अपरा विद्या साम्राज्यलक्ष्मी विद्या एंव महागणपति विद्या है। महागौरीनाम्नी विद्या, कालिकाविद्या द्वादर्शी विद्या कही गयी है।

 

एता द्वादश विद्या स्युः मन्त्रसाम्राज्यईरिताः एतास्वपि महाविद्याश्शीघ्रसिद्धिप्रदाः श्रृणु।। 18

 

18.     ये द्वादशविद्या मन्त्र साम्राज्य कहे गये हैं। इनमें महाविद्या शीघ्र सिद्धि प्रदान करने वाली है।

 

दक्षिणाकालिका विद्या पुरश्चरणतःपरम् अनाचारेणौकरात्रों सिद्धिदा चिरसाधनात्।।19



19.     दक्षिणा कालिका विद्या पुरश्चरण के पश्चात् अनाचार से एक रात्रि में चिरसाधना से सिद्धि देने वाली है।

अष्टाख्या मारुतेः प्रोक्ता ततोऽष्यचिरसिद्धिदा पंचाशदक्षराण्यत्रानुलोमप्रतिलोमतः।।20

 

20.     पचास अक्षरों के अनुलोम प्रति-लोम से अष्टमी मारुतिविद्या शीघ्र सिद्धि देने वाली है।

 

विशिष्य मालया जप्या गुरु संतोष्य यत्नतः गृहीत्वा गुरुसान्निध्यादबगला परमेश्वरी। 21

 

21.     विशेषमाला के द्वारा गुरू को यत्न से संतुष्ट करके बगला परमेश्वरी विद्या गुरु की सन्निधि से ग्रहण करके

 

प्रजप्य सिद्धिदा प्रोक्ता विद्या ब्रह्मास्त्रसंज्ञिका
अनुष्टुबाख्यां नृहरेस्ततोऽप्यचिरसिद्धिदा।22

 

22.     ब्रहास्वविद्या की सिद्धि जप से प्राप्त होती है। नृसिंह अनुष्टुभ विद्या शीघ्र सिद्धि देने वाली है।

 

ततोऽपि पंचवक्त्रस्य मारुतेर्जगदीशितुः विद्या सिद्धिकरी शीघ्रं गुर्वनुग्रहतो मुने! 23

 

23.     हे मुनि! गुरुकृपा से पञ्चमुखी हनुमद् विद्या सभी विद्याओं से शीघ्र सिद्धि देने वाली है।

 

चुलुकोदकवत्पीतास्सागरास्सप्तयोगिना
अगस्त्येन पुरा जप्ल्वा विद्यामेनां हनूमतः।।24

 

24.     प्राचीन काल में इसी हनुमद् विद्या का जप करके महायोगी अगस्त्य ने अँजलिजल के समान सातों समुद्र को पी लिया था।

 

पार्थस्य जयसामर्थ्य–भीमस्यारिनिबर्हणम् अस्या एव प्रभावेन सत्यं संत्य वदाम्यहम्।। 25

 

25.    यह सत्य कहता हूँ–अर्जुन का विजय सामर्थ्य, भीम का शत्रु मर्दन इसी विद्या का प्रभाव है।

 

श्रीरामानुग्रहादेनां विद्यां प्राप्त विभीषणः
अचलां श्रियमासाद्य लंकाराज्ये वसत्यसौ।26

 

26    . श्रीराम की कृपा से इस विद्या को प्राप्त करके विभीषण ने अचल श्री को प्राप्त कर लंका राज्य में वास करते हैं।

 

अनया सदृशी विद्या नास्ति नास्तीति में मतिः प्रवृत्त्यर्थ न प्रशंसा क्रियते सत्यमेव हि।।27

 

27.    इस विद्या के सदृश अन्य कोई विद्या मेरे मत में नहीं है। इसकी यह प्रशंसा नहीं अपितु सत्य ही है।

 

विजयों बहु सम्मानं राजवश्यमनुत्तमम् स्त्रीवश्यं जनवश्यं च महालक्ष्मीरचंचला। 28

 

28.    इस विद्या से विजय, अत्यधिक सम्मान राजा की अनुकूलता, स्त्री आनुकूल्य जनानुकूल्य तथा स्थिर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।

 

धर्मार्थकाममोक्षाश्च निवृत्तिः सकलापदाम् शत्रूणामपि सर्वेषां निग्रहानुग्रहास्सताम्।।29

 

29.    यह विद्या धर्म-अर्थ काम-मोक्ष प्रदान करने वाली सभी संकटों को दूर करने वाली एवं शत्रु तथा मित्रों में समान भाव पैदा करने वाली है।

 

वाक्सिद्धिः पुत्रसंपत्तिर्भोगा अष्टविधा अपि
यद्यदिष्टतंम लोके तत्सिध्यति न संशयः।।30

 

30. वाक्सिद्धि पुत्रसंपत्ति आठों प्रकार का भोग एवं संसार के सभी इच्छित वस्तुओं को प्रदान करने वाली है। इसमें संशय नहीं है।

 

गुरुसंतोषतस्सिद्धिः शीघ्रमेव भविष्यति एकाक्षरप्रदातारं यों गुरुं नाभिमन्यते।।31
स श्वयोनिशंत गत्वा चंडालत्वमवाप्नुयात्
गुरुं हुंकृत्य तुं कृत्य उल्लंघ्याज्ञां गुरोरपि।।32

 

31, 32. गुरु को संतुष्ट करने से यह विद्या शीघ्र सिद्धि देने वाली होती है। एक अक्षर प्रदान करने वाले को भी जो गुरु नहीं मानता है। निरादर वचन से गुरु की आज्ञा का उल्लंघन करता है, वह कुत्ते की सौ यौनि में जाकर चाण्डालत्व को प्राप्त करता है।

 

अरण्ये निर्जले देशे भवति ब्रह्मराक्षसः
दरिद्रो गुरुशुश्रूषां वत्सरत्रयमाचरन्
विद्यां लब्घ्वा महासिद्धिमवान्नोति न संशयः।।33

 

33. जलरहति अरण्य में वह ब्रह्मराक्षस बनता है। जो दरिद्र तीन वर्ष तक गुरु की सेवा करता है, वह इस विद्या को प्राप्त कर निःसंदेह सिद्धि को प्राप्त करता है।

 

यत्किचिद्धनवांश्चापि वस्त्रालंकरणादिभिः कलत्रं प्रीणयित्वा तं संतोष्य श्रीगुरुं विभुम् गुरुत्वासिद्धिमाप्नोति नान्यथा व्रतकोटिभः।। 34

 

34. यथाशक्ति धनधान्य वस्त्रालंकरणादि से परिवार को प्रसन्न करके गुरु को संतुष्ट करता है। वह उसके सिद्धि को प्राप्त करता है, जिसकी सिद्धि करोड़ों व्रत से नहीं होती है।

 

गुरुवाक्येन मन्त्राणां पुरश्चर्यादिनापि च
संतोषः जायते तस्मादित्याह भगवान्शिवः।। 35

 

35. भगवान् शंकर ने कहा है–गुरु के वचन से मन्त्र-पुरश्चरणादि से सन्तोष प्राप्त होता है।

 

मन्त्रोंपदेशसमये प्रांदजलिश्शिष्यकों मुने! स्वामिन्! गुरो! महाप्राज्ञ! यावज्जीवं महाविभो।। 36

 

36. हे मुनि! मन्त्रोपदेश के समय शिष्य अंजलिबद्ध होकर गुरु को स्वामी! गुरु महाप्राज्ञ महाविभु! जब तक मैं जीवित रहूँ–

 

भवच्चरणकैंकर्य करोम्याज्ञां कुरु में
इति स्वभाषयोच्यार्य प्रदान गुरुदक्षिणाण्।। 37

 

37. आपके चरणों की सेवा करुँ ऐसी आज्ञा प्रदान करें। ऐसे वचन का उच्चारण करके गुरुदक्षिणा प्रदान करें।

 

विद्यासिद्धिमवाप्नोति नान्यथा व्रतकोटिभिः
मन्त्रोपदेशकाले तु–गुरुरिष्टप्रदं मनुम्।। 38

 

38. मन्त्रों के उपदेश काल में गुरु को अभीष्ट प्रदान करने वाला मानता है, वह विद्या सिद्धि को प्राप्त करता है। जो अन्य कोटि व्रतादि से प्राप्य नहीं है।

 

अष्टोत्तरशंत चैवाप्यष्टाविंशतिमेव वा
जप्त्वा शिष्यस्य शिरिस हस्तं निक्षिप्य दक्षिणम्।। 39

 

39. 108 या 28 बार जप करके शिष्य के शिर पर दाहिना हाथ रखकर–

 

दक्षिणे कर्णमूले तू मूलमंत्रं वदेन्मुने!
वीर्यशिध्द्धयै च मन्त्रस्य जपं कुर्याच्च देशिकः।। 40

 

40. हे मुनि! दाहिने कान से मूलमन्त्र का उच्चारण करें। मन्त्र में पराक्रम का आधान करने हेतु गुरु मन्त्र का जप करें।


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