कविता संग्रह >> चंदनमन चंदनमनरामेश्वर काम्बोज, भावना कुँअर
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चंदनमन
हाइकु-सृजन’ वास्तव में एक गम्भीर साधना है और सार्थक
हाइकु-रचना प्रायः सभी हाइकुकारों के वश की बात नहीं। इसका एक दूसरा पक्ष
यह भी है कि गम्भीर प्रयास, अध्ययन की जिस पृष्ठभूमि की आवश्यकता है, जिस
परिश्रम की माँग है; वह आज का ‘तथाकथित स्वयंभू’ हाइकुकार
करना नहीं चाहता। वह तीखे शब्दों को पाँच-सात-पाँच वर्ण क्रम में रखकर आज
के समकालीन परिवेश में व्याप्त बुराइयों–दहेज, भ्रष्टाचार,
बलात्कार, पुलिस और सत्ता का बर्बर अत्याचार, साम्प्रदायिकता, नर-संहार
जैसे विषयों पर हाइकु लिखकर सस्ती लोकप्रियता एवं वाहवाही लूटने की
जल्दबाज़ी में है। ऐसी स्थिति में यदि हाइकु एवं सेर्न्यू का पृथक्कीकरण
स्वीकार कर लिया जाए तो कम-से-कम हाइकु का वैशिष्ट्य और आत्मा को तो कुछ
सीमा तक बचाया जा सकेगा।
–डॉ. सुधा गुप्ता
हाइकु जैसी नायाब, दुर्लभ और नाज़ुक काव्य-विधा के साथ हमारे यहाँ जैसी
मनमानी ज़बरदस्ती, दुरुपयोग, छेड़छाड़, खिलवाड़ और ना-इंसाफ़ी हो रही है,
वैसी अन्यत्र दुर्लभ है।
–डॉ. सुधा गुप्ता
हाइकु बहुत ही संश्लिष्ट कविता है; एक ही साँस में कही जाने वाली कविता।
यह साँस जैसी ही भाव-उष्मा से भरी छोटी व साँस जैसी ही मूल्यवान् होती है।
इसमें ‘कहें’ से ‘अनकहा’ ज़्यादा
होता है; जो
नहीं कहा जाता, वह पाठक को खुद हृदयंगम करना होता है। अगर आपके पास अनकहे
को कहने व समझने की क्षमता है तो आप तीन पंक्तियों में 3-4 पन्नोंवाली
कविता से ज़्यादा लुप्फ़ ले सकते हैं। हाइकु की कविता किसी सीमा में नहीं
बँधती। यह अन्तःप्रकृति और बाह्म प्रकृति के रहस्य को समझाने वाली कविता
है। इसे समझने के लिए अपने-आप को समझना होता है, खुद में डूबना होता है।
जैसे कुएँ में डुबकी लगाने वाली पानी के डोल के साथ कई बार कोई खोया हुआ
मोती, चाँदी का रुपया या सोने की मुन्दरी भी ले आता है, इसी तरह यह रसज्ञ
की क्षमता है कि हाइकु में डुबकी लगाकर उसे क्या ढूँढ़ना है!
हाइकु की अनेक पर्तें होती हैं। इसे जितनी बार आप पढ़ेंगे, इसके अर्थ उतने ही गहरे व अतलस्पर्शी होते चले जाएँगे। यह हमारे जीवन के बहुत क़रीब होता है, क्योंकि यह जीवन की घटनाओं, अनुभूत सूक्ष्म क्षणों के सत्य पर आधारित होता है। जैसा हमने देखा या अनुभव किया, उसे हम सार्थक बिम्बों से सांकेतिक और सहजग्राह्म रूप में चित्रित करते हैं। इसका वामनरूप इसकी सीमा भी है और शक्ति भी, साथ ही रचनाकर की क्षमता का मापदण्ड भी।
हाइकु की अनेक पर्तें होती हैं। इसे जितनी बार आप पढ़ेंगे, इसके अर्थ उतने ही गहरे व अतलस्पर्शी होते चले जाएँगे। यह हमारे जीवन के बहुत क़रीब होता है, क्योंकि यह जीवन की घटनाओं, अनुभूत सूक्ष्म क्षणों के सत्य पर आधारित होता है। जैसा हमने देखा या अनुभव किया, उसे हम सार्थक बिम्बों से सांकेतिक और सहजग्राह्म रूप में चित्रित करते हैं। इसका वामनरूप इसकी सीमा भी है और शक्ति भी, साथ ही रचनाकर की क्षमता का मापदण्ड भी।
–डॉ. हरदीप कौर सन्धु
बरनाला
सम्प्रतिः सिडनी (आस्ट्रेलिया)
बरनाला
सम्प्रतिः सिडनी (आस्ट्रेलिया)
1
भावना कुँअर
मासूम लता
चीर हरण पर
सुबके-रोए
सजी तितली
मिलन आकांक्षा से
लूटा हवा ने
कोमल पात
लौ सरीखी धूप में
मोम-से ढले
हिरणी आँखें
चंचलता से भरी
तुझे पुकारें
छुआ तरु ने
कसमसाई लता
लिपट गई
आज तो धूप
खोई रही ख्वाबों में
जगी ही नहीं
मुख पे तेरे
चाँदनी की ओढ़नी
चाँद की नथ
पिहू-पुकारे
विरहिणी-सी पिकी
पिया न आए
वृक्ष की लटें
सँवार रही हवा
बड़े प्यार से
रात रानी ने
खोले जब कुन्तल
बिखरा इत्र
बैठे हैं तरु
पहने हुए शाल
लता रानी का
भटका मन
गुलमोहर-वन
बन हिरन
नाचती-गाती
झूमती शाखाओं पे
खिला यौवन
खेत हैं वधू
सरसों हैं गहने
स्वर्ण के जैसे
चिड़ियाँ गाती
घटियाँ मन्दिर की
गीत सुनातीं
चाँदनी रात
जुगनुओं का साथ
हाथ में हाथ
खिड़की पर
है भोर की किरण
नृत्यांगना-सी
लेटी थी धूप
सागर तट पर
प्यास बुझाने
दुःखी हिरणी
खोजती है अपना
बिछड़ा छौना
परदेस में
जब होली मनाई
तू याद आई
नन्हा-सा बच्चा
माँ के आँचल में है
लिपटा हुआ
नन्हे हाथों से
मुझको जब छुआ
जादू-सा हुआ
रुनझुन-सी
पायल थी खनकी
गोरे पाँव में
सुबक पड़ी
कैसी थी वो निष्ठुर
विदा की घड़ी
चीर हरण पर
सुबके-रोए
सजी तितली
मिलन आकांक्षा से
लूटा हवा ने
कोमल पात
लौ सरीखी धूप में
मोम-से ढले
हिरणी आँखें
चंचलता से भरी
तुझे पुकारें
छुआ तरु ने
कसमसाई लता
लिपट गई
आज तो धूप
खोई रही ख्वाबों में
जगी ही नहीं
मुख पे तेरे
चाँदनी की ओढ़नी
चाँद की नथ
पिहू-पुकारे
विरहिणी-सी पिकी
पिया न आए
वृक्ष की लटें
सँवार रही हवा
बड़े प्यार से
रात रानी ने
खोले जब कुन्तल
बिखरा इत्र
बैठे हैं तरु
पहने हुए शाल
लता रानी का
भटका मन
गुलमोहर-वन
बन हिरन
नाचती-गाती
झूमती शाखाओं पे
खिला यौवन
खेत हैं वधू
सरसों हैं गहने
स्वर्ण के जैसे
चिड़ियाँ गाती
घटियाँ मन्दिर की
गीत सुनातीं
चाँदनी रात
जुगनुओं का साथ
हाथ में हाथ
खिड़की पर
है भोर की किरण
नृत्यांगना-सी
लेटी थी धूप
सागर तट पर
प्यास बुझाने
दुःखी हिरणी
खोजती है अपना
बिछड़ा छौना
परदेस में
जब होली मनाई
तू याद आई
नन्हा-सा बच्चा
माँ के आँचल में है
लिपटा हुआ
नन्हे हाथों से
मुझको जब छुआ
जादू-सा हुआ
रुनझुन-सी
पायल थी खनकी
गोरे पाँव में
सुबक पड़ी
कैसी थी वो निष्ठुर
विदा की घड़ी
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