समाजवादी >> शिप्रा एक नदी का नाम है शिप्रा एक नदी का नाम हैअशोक भौमिक
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अशोक भौमिक का एक विचार-प्रवण उपन्यास
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मेरे साथ ऐसा बहुत कम हुआ है, जब मैंने कोई किताब हाथ में ली हो और एक बैठक में पढ़ने की बाध्यता बन आई हो। अशोक भौमिक के साथ मेरी यह बाध्यता बन आई। ‘शिप्रा’ - यह किताब मुझे अपनी पीढ़ी के उन सपनों-आकांक्षाओं के रहगुजर से लगातार साक्षात्कार कराती है... जब गुजिश्ता सदी के सातवें दशक में गांधी-नेहरू के भारत के नौजवानों की जेब में देखते देखते माओ की लाल किताब आ गई। विश्वविद्यालयों के कैंटिनों से लेकर सड़क तक यह पीढ़ी परिवर्तनकामी बहस में उलझी रही, अपनी प्रत्येक पराजय में एक अर्थपूर्ण संकेत ढूँढ़ती रही।
ऐसा अकारण नहीं हुआ था। गांधी-नेहरू के बोल-वचनों की गंध-सुगंध इतनी जल्दी उतर जाएगी- लोकतंत्र के सपने इतनी शीघ्रता से बिखर जाएँगे- इसका कतई इमकान नहीं था, मगर हुआ। शासक वर्ग के न केवल कोट-कमीज वही रहे, जहीनीयत और क़ायदे-क़ानून भी वही रहे जिस पर कथित आजाद मुल्क को चलना था। वे इन्प्रेलियिज़्म के इन्द्रधनुष से प्रभावित-प्रेरित होते रहे। इसके जादुई चाल से, आज मुक्त हो पाने का सवाल तक पैदा नहीं होता। ‘शिप्रा एक नदी का नाम है’ पढ़ते हुए मुझे 1 मई, 1942 के दिन सुभाष चन्द्र बोस के एक प्रसारण में कही बात का स्मरण हो आया कि ‘अगर साम्राज्यवादी ब्रतानिया किसी भी तरह यह युद्ध जीतती है, तो भारत की गुलामी का अंत नहीं।’ यह बात आज भी उतनी ही शिद्दत से याद की जानी चाहिए।
मगर दुनिया बदल चुकी है। विचारों के घोड़े निर्बाध दौड़ लगाते हैं। अभ्यस्त-विवश कृषक मज़दूर और मेहनतकश आम आदमी के क्षत-विक्षत स्वप्नों-आकांक्षाओं को आकार और रूपरंग देने के सोच का सहज भार नौजवानों ने उठाया है। शिप्रा थी, शिप्रा को लेखक ने नहीं गढ़ा। किसी भी पात्र को लेखक ने नहीं गढ़ा। वह अपने आप में है। ठोस है। उसकी साँसें अपनी हैं। यह अहसास हमेशा बना रहता है कि मैंने इन्हें देखा है। अपने अतीत में देखा है। आज भी कई को उसी ताने-बाने में देखता हूँ, तो ठिठक जाता हूँ।
लेखक ने सिर्फ़ यह किया कि उस दुर्घर्ष-दुर्गम दिनों को एक काव्य रूप दे दिया ताकि वह कथा अमरता को प्राप्त कर जाए। उसकी ध्वनि, उसकी गूँज प्रत्यावर्तित हो जाए, होती रहे। इसलिए और इसीलिए मैं अशोक भौमिक के लेखन के प्रति आभारी हूँ कि मुझे या हमारी पीढ़ी को एक आईना दिया।
ऐसा अकारण नहीं हुआ था। गांधी-नेहरू के बोल-वचनों की गंध-सुगंध इतनी जल्दी उतर जाएगी- लोकतंत्र के सपने इतनी शीघ्रता से बिखर जाएँगे- इसका कतई इमकान नहीं था, मगर हुआ। शासक वर्ग के न केवल कोट-कमीज वही रहे, जहीनीयत और क़ायदे-क़ानून भी वही रहे जिस पर कथित आजाद मुल्क को चलना था। वे इन्प्रेलियिज़्म के इन्द्रधनुष से प्रभावित-प्रेरित होते रहे। इसके जादुई चाल से, आज मुक्त हो पाने का सवाल तक पैदा नहीं होता। ‘शिप्रा एक नदी का नाम है’ पढ़ते हुए मुझे 1 मई, 1942 के दिन सुभाष चन्द्र बोस के एक प्रसारण में कही बात का स्मरण हो आया कि ‘अगर साम्राज्यवादी ब्रतानिया किसी भी तरह यह युद्ध जीतती है, तो भारत की गुलामी का अंत नहीं।’ यह बात आज भी उतनी ही शिद्दत से याद की जानी चाहिए।
मगर दुनिया बदल चुकी है। विचारों के घोड़े निर्बाध दौड़ लगाते हैं। अभ्यस्त-विवश कृषक मज़दूर और मेहनतकश आम आदमी के क्षत-विक्षत स्वप्नों-आकांक्षाओं को आकार और रूपरंग देने के सोच का सहज भार नौजवानों ने उठाया है। शिप्रा थी, शिप्रा को लेखक ने नहीं गढ़ा। किसी भी पात्र को लेखक ने नहीं गढ़ा। वह अपने आप में है। ठोस है। उसकी साँसें अपनी हैं। यह अहसास हमेशा बना रहता है कि मैंने इन्हें देखा है। अपने अतीत में देखा है। आज भी कई को उसी ताने-बाने में देखता हूँ, तो ठिठक जाता हूँ।
लेखक ने सिर्फ़ यह किया कि उस दुर्घर्ष-दुर्गम दिनों को एक काव्य रूप दे दिया ताकि वह कथा अमरता को प्राप्त कर जाए। उसकी ध्वनि, उसकी गूँज प्रत्यावर्तित हो जाए, होती रहे। इसलिए और इसीलिए मैं अशोक भौमिक के लेखन के प्रति आभारी हूँ कि मुझे या हमारी पीढ़ी को एक आईना दिया।
- महाप्रकाश
अशोक भौमिक
समकालीन भारतीय चित्रकला में एक जाना-पहचाना नाम।
जन्म : नागपुर 31 जुलाई, 1953
वामपंथी राजनीति से सघन रूप से जुड़े रहे।
जन संस्कृति मंच के संस्थापक सदस्यों में से एक।
प्रगतिशील कविताओं पर आधारित पोस्टरों के लिए कार्यशिविरों का आयोजन एवं आज भी इस उद्देश्य के लिए समर्पित।
देश-विदेश में एक दर्जन से ज्यादा एकल चित्र प्रदर्शनियों का आयोजन।
‘मोनालिसा हँस रही थी’ पहला उपन्यास, ‘आईस-पाईस’ कहानी-संग्रह, ‘बादल सरकार : व्यक्ति और रंगमंच’, ‘भारतीय चित्रकला : हुसैन के बहाने’ पुस्तकें प्रकाशित।
संप्रति, स्वतंत्र चित्रकारिता।
जन्म : नागपुर 31 जुलाई, 1953
वामपंथी राजनीति से सघन रूप से जुड़े रहे।
जन संस्कृति मंच के संस्थापक सदस्यों में से एक।
प्रगतिशील कविताओं पर आधारित पोस्टरों के लिए कार्यशिविरों का आयोजन एवं आज भी इस उद्देश्य के लिए समर्पित।
देश-विदेश में एक दर्जन से ज्यादा एकल चित्र प्रदर्शनियों का आयोजन।
‘मोनालिसा हँस रही थी’ पहला उपन्यास, ‘आईस-पाईस’ कहानी-संग्रह, ‘बादल सरकार : व्यक्ति और रंगमंच’, ‘भारतीय चित्रकला : हुसैन के बहाने’ पुस्तकें प्रकाशित।
संप्रति, स्वतंत्र चित्रकारिता।
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