सामाजिक >> नमक स्वादानुसार नमक स्वादानुसारआशा प्रभात
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बात की बात
‘नमक स्वादानुसार’ मेरी पहली किताब है। इसकी कहानियाँ जहन में उसी तरह आई हैं, जिस तरह देह को बुखार आता है। ये पन्नों पर जैसे-जैसे उतरती गईं, बुखार भी उतरता रहा। ये कहानियाँ ‘बस हो गयी’ हैं, और अब आपके सामने हैं। इसमें से एक-एक कहानी को मैंने सालों-साल, अपने दिमाग़ के एक कोने में, तंदूर पर चढ़ाकर, धीमी आँच पर बड़ी तबियत से पकाया है क्योंकि मैं कहानियों के मामले में निहायती-लालची इंसान हूँ।
ये कहानियाँ मुझे उत्साहित भी करती हैं और नर्वस भी। उत्साहित इसलिए, क्योंकि एक क़िताब के रूप में ढलकर ये कहानियाँ वैसे ही ‘मुक़म्मल’ हो जाएँगी, जैसे अंडों से निकलकर चूजे ‘मुक़म्मल’ हो जाते हैं। इन कहानियों के पास पंख तो थे, लेकिन परवाज़ को बुलंद होने के लिए नीले शामियाने की ज़रूरत हुआ करती है।
नर्वस इसलिए कह लीजिए क्योंकि आज की तारीख़ में। ‘लिटरेचर’ और ‘इंटरटेनमेंट’ है के बीच का फ़र्क बस धागे भर का रह गया है। अब अगर ये कहूँ कि मैं लोगों को प्रतिक्रिया से परे हूँ तो मेरी बात में एक चुटकी झूठ झाँकता मिलेगा।
इस क़िताब के लिए मुझे कुछ ख़ास लोगों का शुक्रिया भी अदा करना है, जिनके बगैर ये क़िताब, ‘क़िताब’ की शक़्ल नहीं ले पाती। शुभांगी ने हमेशा मेरी कल्पना में और मुझमें, गाहे-बगाहे, चटकीले रंग भरे हैं। अगर मेरी कहानियाँ पढ़ कर उसे ख़ुशी होती थी, तो मैं समझ लेता था कि मेरी कलम को, उसकी नीली पीठ पर, हौले से शाबाशी महसूस हुई होगी। संजू दादा हमेशा मेरी लिखावट के लिए बहुत बड़ी ताकत रहे हैं। वो जब भी कहते थे कि ‘निखिल मेरा फ़ेवरेट ऑथर है’, तो मेरी छाती गुब्बारे-सी फूल जाती थी।
मेरे अज़ीज़ दोस्त वैभव, सुमित, पुष्पेंद्र, आदर्श, मृदुल और मनुज ने बिना नागा किए, लगभग मेरी सारी कहानियाँ पढ़कर उन पर नुक्ताचीनी को है और मेरा हौसला बढ़ाया है। सुमन दा को भी शुक्रिया कहना चाहता हूँ क्योंकि अगर मैं उनसे नहीं मिला होता तो शायद कहानियों, नांटक और फ़िल्मों को उस नज़रिए तड़प और बारीकी से नहीं देख पता जैसे आज देखता हूँ।
माँ, पापा और दीदी का शुक्रिया ! क्योंकि मैं जो भी हूँ, मेरे एक-एक ज़र्रे के होने-न-होने की बहुत बड़ी वजह वही हैं।
आख़िर में आप सभी का शुक्रिया, जो इस क़िताब को अपने घर तक ले आए। उम्मीद करता हूँ कि यह क़िताब आपकी ज़िन्दगी में, कुछ देर को ही सही, सोंधा-सा छौंका ज़रूर लगा देगी। कुछ कम-ज़्यादा हो जाए तो, नमक स्वादानुसार आप ख़ुद ही मिला लीजिएगा।
(आख़िर में अपनी तरफ़ से एक छोटा-सा डिस्क्लेमर भी कहता चलूँ। इस संकलन के सभी पत्र और घटनाएँ काल्पनिक हैं। इसमें से एक कहानी, सुहागरात- ‘उर्फ़ प्रोफेसर’ नाम की फिल्म से हल्की-फुल्की प्रभावित कही जा सकती है, और टोपाज़ का आइडिया सुमित सक्सेना की शॉर्ट फिल्म ‘गुड्डू’ से उपजा है।)
निखिल सचान
‘नमक स्वादानुसार’ मेरी पहली किताब है। इसकी कहानियाँ जहन में उसी तरह आई हैं, जिस तरह देह को बुखार आता है। ये पन्नों पर जैसे-जैसे उतरती गईं, बुखार भी उतरता रहा। ये कहानियाँ ‘बस हो गयी’ हैं, और अब आपके सामने हैं। इसमें से एक-एक कहानी को मैंने सालों-साल, अपने दिमाग़ के एक कोने में, तंदूर पर चढ़ाकर, धीमी आँच पर बड़ी तबियत से पकाया है क्योंकि मैं कहानियों के मामले में निहायती-लालची इंसान हूँ।
ये कहानियाँ मुझे उत्साहित भी करती हैं और नर्वस भी। उत्साहित इसलिए, क्योंकि एक क़िताब के रूप में ढलकर ये कहानियाँ वैसे ही ‘मुक़म्मल’ हो जाएँगी, जैसे अंडों से निकलकर चूजे ‘मुक़म्मल’ हो जाते हैं। इन कहानियों के पास पंख तो थे, लेकिन परवाज़ को बुलंद होने के लिए नीले शामियाने की ज़रूरत हुआ करती है।
नर्वस इसलिए कह लीजिए क्योंकि आज की तारीख़ में। ‘लिटरेचर’ और ‘इंटरटेनमेंट’ है के बीच का फ़र्क बस धागे भर का रह गया है। अब अगर ये कहूँ कि मैं लोगों को प्रतिक्रिया से परे हूँ तो मेरी बात में एक चुटकी झूठ झाँकता मिलेगा।
इस क़िताब के लिए मुझे कुछ ख़ास लोगों का शुक्रिया भी अदा करना है, जिनके बगैर ये क़िताब, ‘क़िताब’ की शक़्ल नहीं ले पाती। शुभांगी ने हमेशा मेरी कल्पना में और मुझमें, गाहे-बगाहे, चटकीले रंग भरे हैं। अगर मेरी कहानियाँ पढ़ कर उसे ख़ुशी होती थी, तो मैं समझ लेता था कि मेरी कलम को, उसकी नीली पीठ पर, हौले से शाबाशी महसूस हुई होगी। संजू दादा हमेशा मेरी लिखावट के लिए बहुत बड़ी ताकत रहे हैं। वो जब भी कहते थे कि ‘निखिल मेरा फ़ेवरेट ऑथर है’, तो मेरी छाती गुब्बारे-सी फूल जाती थी।
मेरे अज़ीज़ दोस्त वैभव, सुमित, पुष्पेंद्र, आदर्श, मृदुल और मनुज ने बिना नागा किए, लगभग मेरी सारी कहानियाँ पढ़कर उन पर नुक्ताचीनी को है और मेरा हौसला बढ़ाया है। सुमन दा को भी शुक्रिया कहना चाहता हूँ क्योंकि अगर मैं उनसे नहीं मिला होता तो शायद कहानियों, नांटक और फ़िल्मों को उस नज़रिए तड़प और बारीकी से नहीं देख पता जैसे आज देखता हूँ।
माँ, पापा और दीदी का शुक्रिया ! क्योंकि मैं जो भी हूँ, मेरे एक-एक ज़र्रे के होने-न-होने की बहुत बड़ी वजह वही हैं।
आख़िर में आप सभी का शुक्रिया, जो इस क़िताब को अपने घर तक ले आए। उम्मीद करता हूँ कि यह क़िताब आपकी ज़िन्दगी में, कुछ देर को ही सही, सोंधा-सा छौंका ज़रूर लगा देगी। कुछ कम-ज़्यादा हो जाए तो, नमक स्वादानुसार आप ख़ुद ही मिला लीजिएगा।
(आख़िर में अपनी तरफ़ से एक छोटा-सा डिस्क्लेमर भी कहता चलूँ। इस संकलन के सभी पत्र और घटनाएँ काल्पनिक हैं। इसमें से एक कहानी, सुहागरात- ‘उर्फ़ प्रोफेसर’ नाम की फिल्म से हल्की-फुल्की प्रभावित कही जा सकती है, और टोपाज़ का आइडिया सुमित सक्सेना की शॉर्ट फिल्म ‘गुड्डू’ से उपजा है।)
निखिल सचान
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