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जीवनी/आत्मकथा >> पोतराज

पोतराज

पार्थ पोलके

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :220
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8160
आईएसबीएन :9788183614719

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मूल मराठी भाषा में लिखित चर्चित आत्मकथा का हिन्दी अनुवाद

Potraj by Parth Polke

‘मेरा बाप पोतराज था। पोतराज कमर में रंग-बिरंगे खंडों के चीथड़े तथा कपड़े पहनते हैं। पोतराज की उस पोशाक को आभरान कहते हैं। आभरान मुझे यहाँ की व्यवस्था द्वारा पोतराज को दिए हुए राजवस्त्र लगते हैं। हाँ, ऐसे राजवस्त्र जो जिन्दगी को चीथड़े-चीथड़े कर डालते हैं।

आभरान पहन कर अपने बदन को कोड़ों से फटकारता हुआ मेरा बाप - आबा- हमारे लिए घर-घर भीख माँगता रहा। सारी जिन्दगी उसने पोतराज के रूप में खटते-घसीटते बिताई। आखिर उसी में मरा। मरना सबको है; लेकिन यहाँ की व्यवस्था ने न जाने कितने लोगों को बिना सहमते-संकोचते, बड़े आराम से बलि चढ़ाया है। मेरे आबा उन्हीं में से एक हैं।

पोतराज के जिस आभरान को उतारना आबा के लिए सम्भव नहीं हुआ, मैंने उसे उतारा। उसकी होली जलाते हुए भी मेरा मन भीतर ही भीतर आबा और बाई की यादों से बेचैन रहा।

मैं उपेक्षा तथा गरीबी की लपटों की आँच सहने वाला अनेकों में से एक हूँ। व्यवस्था द्वारा दी गई वेदना का साक्षी हूँ। भुक्तभोगी हूँ। ये वेदनाएँ मुझ जैसे अनेकों की अनेक पीढ़ियों को चुभती रही हैं। मैं दुखों और वेदनाओं को कुरेदते हुए जीना नहीं चाहता; लेकिन एक प्रश्न अवश्य पूछना चाहता हूँ कि यह सारा दुख-दर्द हमें ही क्यों भोगना पड़ता है।’ ‘पोतराज’ में उपस्थित लेखक पार्थ पोलके के ये शब्द सहसा हृदय को विचलित कर देते हैं।

मूल मराठी भाषा में लिखित चर्चित आत्मकथा का यह हिन्दी अनुवाद पाठकों को निश्चित रूप से एक नवीन सामाजिक दृष्टि प्रदान करेगा। सघन संवेदना, समानता के तीखे प्रश्न, अभाव के असमाप्त अरण्य और अदम्य जिजीविषा - ये तत्त्व इस रचना को महत्त्वपूर्ण बनाते हैं।


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