कविता संग्रह >> बरहा बरहासुदर्शन प्रियदर्शिनी
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जीवन की विसंगतियों को उजागर करती संवेदनशील कविताएँ...
Barha - A Hindi Book - by Sudarshan Priyadarshini
कमोवेश हर जीवन में विसंगतियाँ अपनी डेरा डालती हैं। कोई हारता है और कोई उन्हें जीवन की चुनौतियाँ मानकर डटा रहता है। मैंने चुनैतियों के समक्ष घुटने न टेक कर उन्हें स्वीकारा है और जूझने की कोशिश की है। बैल की तरह सींग उतारे हैं उन विसंगतियों के उदर में...। टूट-फूट बहुत होती है- अपनी भी और आत्मा की भी- फिर भी मुँह नहीं मोड़ा है। ऐसे में मेरी कविता हाथ पकड़ कर, उन घावों को सहला देती है। कहीं ममता जैसा साया बनकर उन्हें बचा लेती है तो कहीं मित्र बन कर कन्धा देती है। कविता उन तूफानों से बचाती है जो ऊपर से नहीं अन्दर में गुजरते हैं।
विदेश की बंजर जमीन पर बार-बार सपने घायल हुए हैं। हर बार बाज की तरह झपट्टा मारकर कोई छीन ले गया है- अन्दर की सारी साख, सुख और संवेदना...। इस धरती पर जहाँ एक खुलेपन की अपेक्षा की जाती है- वहीं बिल्कुल उल्टी गंगा की तरह बह रही है हमारी संस्कृति। हमारा भारतीय समाज और व्यक्ति समय में थम गये हैं। जिस चौथे दशक में भारतीय अपनी परम्पराओं की ताजगी लेकर आये, वे वही जमे रह गये बर्फ की तरह। उनकी पौराणिक धारणायें बिना प्रगतिशीलता लिये अभी भी अपना सारा कूड़ा-करकट समेटे उन संकीर्ण गलियारों में घूम रही हैं- दिशाहीन।
ये कवितायें उन्हीं विसंगतियों के अलग-अलग रूप हैं जो बाहरी भी है और अन्दरूनी भी। यूँ लिख पाना वह भी बिना खाद-पानी के...आसान नहीं होता उसी तरह ठीक वातावरण के बिना- विसंगतियाँ भी पनप नहीं पाती।
कोई भी कवि या लेखक कभी पूरा नहीं होता। जो अक़्स वह अपनी आँखों में देखता है- वह कूची से उतर नहीं पाता। कैनवस पर वैसा-का-वैसा...। ऐसा ही यह अधूरा प्रयास है।
विदेश की बंजर जमीन पर बार-बार सपने घायल हुए हैं। हर बार बाज की तरह झपट्टा मारकर कोई छीन ले गया है- अन्दर की सारी साख, सुख और संवेदना...। इस धरती पर जहाँ एक खुलेपन की अपेक्षा की जाती है- वहीं बिल्कुल उल्टी गंगा की तरह बह रही है हमारी संस्कृति। हमारा भारतीय समाज और व्यक्ति समय में थम गये हैं। जिस चौथे दशक में भारतीय अपनी परम्पराओं की ताजगी लेकर आये, वे वही जमे रह गये बर्फ की तरह। उनकी पौराणिक धारणायें बिना प्रगतिशीलता लिये अभी भी अपना सारा कूड़ा-करकट समेटे उन संकीर्ण गलियारों में घूम रही हैं- दिशाहीन।
ये कवितायें उन्हीं विसंगतियों के अलग-अलग रूप हैं जो बाहरी भी है और अन्दरूनी भी। यूँ लिख पाना वह भी बिना खाद-पानी के...आसान नहीं होता उसी तरह ठीक वातावरण के बिना- विसंगतियाँ भी पनप नहीं पाती।
कोई भी कवि या लेखक कभी पूरा नहीं होता। जो अक़्स वह अपनी आँखों में देखता है- वह कूची से उतर नहीं पाता। कैनवस पर वैसा-का-वैसा...। ऐसा ही यह अधूरा प्रयास है।
सुदर्शन प्रियदर्शिनी
अनन्त
उस दिन
अपने अन्दर के
ब्रह्माण्ड में
झाँका कितनी
भीड़ थी रिश्तों की,
नातों की
दौड़ थी, भाग थी
हाथ-पाँव
चल रहे थे...
एक पूरी दुनिया
इस ब्रह्माण्ड में
समायी हुई थी
पर एक कोने
में मैंने देखा
मैं अपना ही
हाथ थामे
अनन्त को निहारते
अकेले खड़ी हूँ।
अपने अन्दर के
ब्रह्माण्ड में
झाँका कितनी
भीड़ थी रिश्तों की,
नातों की
दौड़ थी, भाग थी
हाथ-पाँव
चल रहे थे...
एक पूरी दुनिया
इस ब्रह्माण्ड में
समायी हुई थी
पर एक कोने
में मैंने देखा
मैं अपना ही
हाथ थामे
अनन्त को निहारते
अकेले खड़ी हूँ।
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