सामाजिक >> नीम बाबा नीम बाबारहबान अली राकेश
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‘मैला आँचल’ के रूप में ख्यात मिथिला की ताजा महक से पूर्ण रहबान अली राकेश की कहानियाँ
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
रहबान अली राकेश जिस अंचल से आते हैं, मिथिला का यह अंचल ‘मैला आँचल’ के रूप में ख्यात है। रेणु के बाद इस क्षेत्र से निरंतर कई कथाकार रचनारत रहे हैं और अमूमन उन सब की कहानियों में वहाँ की माटी-पानी-हवा की जो खुशबू मिलती है, उसकी ताजा महक इस संग्रह की कहानियों में भी मिलती है। रहमान अली राकेश की कहानियों की जो खास विशेषता है, वह ये है कि उन्होंने मुस्लिम और दूसरे निम्नवर्गीय समाज की ज्वलंत सच्चाइयों को बेझिझक-बेनकाब सामने लाने का प्रशंसनीय प्रयास किया है।
इन कहानियों में यथार्थ का वह खुरदुरापन और स्वाभाविकता कायम है जो अमूमन यहाँ के जनजीवन में आज भी मिलता है। यहाँ कलात्मक रचाव कम, लोकजीवन से जुड़ाव ज्यादा है।
बिहार के इस इलाके में ‘दहशतगर्द’ के मौलवी साहब जैसी स्थिति के खतरे से आशंकित लोगों की संख्या कम नहीं है। मगर ‘जोसेफ...’ के शिकार होकर भी इमाम साहब जैसे लोगों ने अपनी सहयोग भावना और दयानतदारी नहीं छोड़ी है। यह दीगर बात कि ‘बासगीत’ वाली सामंती धारणा नए-नए रूप धरकर सामने आ रही है। लेकिन कहानीकार नाउम्मीद नहीं है, उन्होंने उम्मीद की लौ युवा और श्रमजीवी वर्गों के बीच ही जलते दिखलाई है। तभी तो संघर्ष में उनका यकीन कायम है।
इस संग्रह में ‘चेथरियापीर’, ‘सनपगला’, ‘प्लास्टिक की पन्नी’ ‘कबरी गाय’ आदि ऐसी पठनीय और यादगार कहानियाँ हैं जो अरसे तक पाठकों की स्मृति में टिकी रहेंगी। ध्वस्त होते सामंती टीले की परत-दर-परत उघाड़ने वाली लम्बी कहानी ‘बासगीत’ न सिर्फ़ इस संग्रह की विशिष्ट कहानी है, बल्कि बिहार के ग्रामीण मुस्लिम समाज की सीढ़ीदार सामाजिक-संरचना को प्याज के छिलके की तरह एक-एक कर खोलने वाली इस दौर की अलहदा कहानी है।
निश्चय ही ये कहानियाँ व्यापक पाठकों के बीच सराही जाएँगी।
इन कहानियों में यथार्थ का वह खुरदुरापन और स्वाभाविकता कायम है जो अमूमन यहाँ के जनजीवन में आज भी मिलता है। यहाँ कलात्मक रचाव कम, लोकजीवन से जुड़ाव ज्यादा है।
बिहार के इस इलाके में ‘दहशतगर्द’ के मौलवी साहब जैसी स्थिति के खतरे से आशंकित लोगों की संख्या कम नहीं है। मगर ‘जोसेफ...’ के शिकार होकर भी इमाम साहब जैसे लोगों ने अपनी सहयोग भावना और दयानतदारी नहीं छोड़ी है। यह दीगर बात कि ‘बासगीत’ वाली सामंती धारणा नए-नए रूप धरकर सामने आ रही है। लेकिन कहानीकार नाउम्मीद नहीं है, उन्होंने उम्मीद की लौ युवा और श्रमजीवी वर्गों के बीच ही जलते दिखलाई है। तभी तो संघर्ष में उनका यकीन कायम है।
इस संग्रह में ‘चेथरियापीर’, ‘सनपगला’, ‘प्लास्टिक की पन्नी’ ‘कबरी गाय’ आदि ऐसी पठनीय और यादगार कहानियाँ हैं जो अरसे तक पाठकों की स्मृति में टिकी रहेंगी। ध्वस्त होते सामंती टीले की परत-दर-परत उघाड़ने वाली लम्बी कहानी ‘बासगीत’ न सिर्फ़ इस संग्रह की विशिष्ट कहानी है, बल्कि बिहार के ग्रामीण मुस्लिम समाज की सीढ़ीदार सामाजिक-संरचना को प्याज के छिलके की तरह एक-एक कर खोलने वाली इस दौर की अलहदा कहानी है।
निश्चय ही ये कहानियाँ व्यापक पाठकों के बीच सराही जाएँगी।
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