संस्मरण >> इस उस मोड़ पर इस उस मोड़ परचन्द्रकला त्रिपाठी
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‘इस उस मोड़ पर’ कथा-डायरी के सारे चरित्र काल्पनिक न होकर वास्तविक जीवन से लिए गए हैं
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘बया’ के एक अंक में कहानी के रूप में इस पुस्तक का एक अंश पढ़कर मैं लेखिका को पत्र द्वारा बधाई भेजने से स्वयं को नहीं रोक पाया था। दरअसल, स्त्री-विमर्श के इस मुखर-युग में परिवार द्वारा उपेक्षिता हिरउती का अपने आत्मसम्मान को बचा कर रखने का मौन संघर्ष मन को कहीं गहरे छू गया था।
‘इस उस मोड़ पर’ कथा-डायरी के सारे चरित्र काल्पनिक न होकर वास्तविक जीवन से लिए गए हैं जो यथार्थ की भूमि पर स्थित होकर अपने सुख-दुःख, आशा-निराशा, हताशा-संघर्ष और जय-पराजय की विश्वसनीयता के साथ पाठक के लिए इतने आत्मीय हो जाते हैं कि वह उनके प्रतिरूप अपने जीवन-संदर्भों में खोजने को विवश हो जाता है।
परिवार से जुड़े आत्मीय चरित्रों को विश्लेषित कर पाना अपने-आप में एक बड़ी चुनौती का काम होता है। गोपन के उद्घाटन में विश्वास की सीमा लाँघ जाने का संकोच, निजी पूर्वग्रह, संबोधित जीवित व्यक्तियों की आसन्न प्रतिक्रिया, अप्रिय सत्य-कथन, दिवंगत चरित्रों के प्रति आदरभाव - ये कुछ ऐसे कारक होते हैं जो लेखक के लिए मानसिक अवरोध पैदा कर देते हैं। लेखिका ने एक रचनाकार के रूप में जिस तटस्थता से अपनी स्मृति में रचे-बसे इन चरित्रों की पुनर्प्रस्तुति की है वह उन्हें सिद्धहस्त कथाकार के साथ-साथ एक प्रखर समाजशास्त्री की भूमिका में अवस्थित कर देता है। संस्मरण लेखन में ऐसी पारदर्शिता और वास्तुपरकता आजकल विरल होती जा रही है।
खुले विचारों वाले बाउजी के अनुशासन प्रियता और कट्टर आदर्शवाद, अम्मा की कलात्मक अभिरुचि और वैष्णवी करुणा, नाना की समृद्धि, कंजूसी और धार्मिक कट्टरता, जिजिया मौसी के जीवन में चार दिन की चाँदनी के बाद स्थायी अमावस्या, हिरउती का आत्महंता अहं, किशोरवय प्यारी सहेली दुलारी की वर्गीय चेतना, बीना जीजी और जीजा ‘रसिक जी’ के जीवन में द्वितीया प्रसंग, बबली और फटीचर दुर्वासा पत्रकार शिवदत्त की त्रासदी, अपनी शुरुआती गृहस्थी की कठिनाइयों के शालीन संकेत, संयुक्त पारिवारिक जीवन के सुख-दुःख और उसकी विडम्बना, बीते युग की सामाजिक समरसता तथा ऐसे न जाने कितने मार्मिक प्रसंग हैं जो गहरी संवेदना और भाषा की चित्रात्मकता के साथ पाठक को अपने सम्मोहन में बाँध देते हैँ।
परिवार के दायरे से बाहर निकल कर व्यापक समाज के अन्तर्जातीय सम्बन्धों की पड़ताल करते हुए लेखिका ने जिस खूबसूरती के साथ शमा बाजी के प्रति अपने सम्मोहन को व्यक्त किया है और उस प्राप्य के लिए आभार प्रकट किया है वह जितना मार्मिक है उतना ही बेधक भी।
ननिहाल के कट्टर पौरोहित्य की भयानक शुद्धता में पगे पुओं से लेकर बारावफात के विविधवर्णी हलुओं तक की यह यात्रा मात्र व्यंजन-यात्रा न होकर एक अनोखी वैचारिक यात्रा भी रही है। जिंदगी को उसकी स्थूलता से अलग करने की दृष्टि देने और चीजों को सूक्ष्मता में देखने की ललक जगाने की सामर्थ्य ऐसी ही रचनाओं में होती है और शायद ऐसी ही रचनाएँ पाठकों को लेखक की अन्य रचनाओं के पाठ के लिए प्रेरित करती हैं।
आशा है ‘इस उस मोड़ पर’ पढ़ने के बाद आप भी मुझसे सहमत होंगे।
‘इस उस मोड़ पर’ कथा-डायरी के सारे चरित्र काल्पनिक न होकर वास्तविक जीवन से लिए गए हैं जो यथार्थ की भूमि पर स्थित होकर अपने सुख-दुःख, आशा-निराशा, हताशा-संघर्ष और जय-पराजय की विश्वसनीयता के साथ पाठक के लिए इतने आत्मीय हो जाते हैं कि वह उनके प्रतिरूप अपने जीवन-संदर्भों में खोजने को विवश हो जाता है।
परिवार से जुड़े आत्मीय चरित्रों को विश्लेषित कर पाना अपने-आप में एक बड़ी चुनौती का काम होता है। गोपन के उद्घाटन में विश्वास की सीमा लाँघ जाने का संकोच, निजी पूर्वग्रह, संबोधित जीवित व्यक्तियों की आसन्न प्रतिक्रिया, अप्रिय सत्य-कथन, दिवंगत चरित्रों के प्रति आदरभाव - ये कुछ ऐसे कारक होते हैं जो लेखक के लिए मानसिक अवरोध पैदा कर देते हैं। लेखिका ने एक रचनाकार के रूप में जिस तटस्थता से अपनी स्मृति में रचे-बसे इन चरित्रों की पुनर्प्रस्तुति की है वह उन्हें सिद्धहस्त कथाकार के साथ-साथ एक प्रखर समाजशास्त्री की भूमिका में अवस्थित कर देता है। संस्मरण लेखन में ऐसी पारदर्शिता और वास्तुपरकता आजकल विरल होती जा रही है।
खुले विचारों वाले बाउजी के अनुशासन प्रियता और कट्टर आदर्शवाद, अम्मा की कलात्मक अभिरुचि और वैष्णवी करुणा, नाना की समृद्धि, कंजूसी और धार्मिक कट्टरता, जिजिया मौसी के जीवन में चार दिन की चाँदनी के बाद स्थायी अमावस्या, हिरउती का आत्महंता अहं, किशोरवय प्यारी सहेली दुलारी की वर्गीय चेतना, बीना जीजी और जीजा ‘रसिक जी’ के जीवन में द्वितीया प्रसंग, बबली और फटीचर दुर्वासा पत्रकार शिवदत्त की त्रासदी, अपनी शुरुआती गृहस्थी की कठिनाइयों के शालीन संकेत, संयुक्त पारिवारिक जीवन के सुख-दुःख और उसकी विडम्बना, बीते युग की सामाजिक समरसता तथा ऐसे न जाने कितने मार्मिक प्रसंग हैं जो गहरी संवेदना और भाषा की चित्रात्मकता के साथ पाठक को अपने सम्मोहन में बाँध देते हैँ।
परिवार के दायरे से बाहर निकल कर व्यापक समाज के अन्तर्जातीय सम्बन्धों की पड़ताल करते हुए लेखिका ने जिस खूबसूरती के साथ शमा बाजी के प्रति अपने सम्मोहन को व्यक्त किया है और उस प्राप्य के लिए आभार प्रकट किया है वह जितना मार्मिक है उतना ही बेधक भी।
ननिहाल के कट्टर पौरोहित्य की भयानक शुद्धता में पगे पुओं से लेकर बारावफात के विविधवर्णी हलुओं तक की यह यात्रा मात्र व्यंजन-यात्रा न होकर एक अनोखी वैचारिक यात्रा भी रही है। जिंदगी को उसकी स्थूलता से अलग करने की दृष्टि देने और चीजों को सूक्ष्मता में देखने की ललक जगाने की सामर्थ्य ऐसी ही रचनाओं में होती है और शायद ऐसी ही रचनाएँ पाठकों को लेखक की अन्य रचनाओं के पाठ के लिए प्रेरित करती हैं।
आशा है ‘इस उस मोड़ पर’ पढ़ने के बाद आप भी मुझसे सहमत होंगे।
- शेखर जोशी
पूरी संवेदनाशीलता और सादगी के साथ स्मृतियों के साथ स्मृतियों को अविस्मरणीय बना देने की कला भी इस डायरी में है और पिछली पीढ़ी की स्त्रियोम के जूझने, सँवारने वाले जीवट और साहस का दस्तावेज भी। बहुत रोचक और पठनीय।
- अल्पना मिश्र
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