कहानी संग्रह >> कथा भारती मलयालम कहानियाँ कथा भारती मलयालम कहानियाँओम चेरी एन. एन. पिल्लै
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केरल के विभिन्न वर्गो के जनपद का लोकाचार, संस्कृति, आहार-विचार, रहन-सहन, भावात्मक एवं पारंपरिक पहलू को उजागर करती रोचक कहानियों का संकलन
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
लगभग तीन दशाब्दों से मलयालम कहानी अत्यधिक प्रभावशाली एवं विकासोन्मुखी
रही है। विचारशील समीक्षकों के अनुसार तो यह इतनी अधिक समृद्ध एवं विकसित
हो गई है कि इसकी तुलना विश्व की किसी भी भाषा से की जा सकती है। मलयालम
कहानी राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं से अलग भी प्रकाश में
आती रहती हैं।
मलयालम कहानी का प्रस्फुटन एवं प्रगति एक दीर्घकालीन तथा सुस्थिर विकास का परिणाम है। पाश्चात्य साहित्य से सुपरिचित प्रतिभाशाली साहित्यकारों ने इस शताब्दी के पूर्व ही मलयालम कहानी का प्रारम्भ कर दिया था। पाठकों के मनोरंजन को ध्यान में रखते हुए, वाशिंग्टन इर्विंग, नाथेनील हार्थोन और एडगर एलन पो को आदर्श बना कर इन लेखकों ने ऐतिहासिक तथा सामाजिक उपन्यासों की रचना की। क्योंकि ये रचनाएं समय के रुख को देखते हुए की गई थीं, इसलिए शीघ्र ही बहुत प्रसिद्ध हो गईं।
इन कहानियों में आज के सामाजिक यथार्थ के अनुरूप कथावस्तु या घटना-संभावनाओं के प्रदर्शन की न तो लेखक को चिंता थी, न पाठक को। आज के मनुष्य-द्वेषी वातावरण में किसी को वे भले ही निर्जीव लगें, परंतु मलयालम के पूर्ववर्ती साहित्य का अनुशीलन करने या अन्य भाषाओं के कहानी साहित्य की विकासधारा को देखने पर यह स्पष्ट हो जाएगा कि इन मार्गदर्शी लेखकों का योगदान हर दृष्टि से उल्लेखनीय है। मूर्कोथ कुमारन, वेंगायिल कुंजिरामन नायनार, ओडुविल कुंजिकृष्ण मेनोन, एम.आर.के.सी., अम्बाडी नारायण पोदुवाल, के. सुकुमारन, सी.एस. गोपाल पणिक्कर, एस.रामवारियर और ई.वी. कृष्णपिल्लै उन लेखकों में से थे, जिन्होंने अपने उत्तराधिकारियों के लिए साहित्यिक आधार-भूमि तैयार की।
मलयालम कहानी का आधुनिक काल सन् 1930 से प्रारम्भ होता है।
उन दिनों केरल के युवा-साहित्यकार कार्ल मार्क्स, सिगमंड फ्रायड तथा फ्रांसीसी प्रकृतवादियों के जादू में फंस गए। विश्व-साहित्य के नवीन रूपों के परिचय तथा गहन अध्ययन ने युवा लेखकों को सामाजिक आंदोलन का अंग बन जाने की प्रेरणा दी और मानव-महत्ता एवं उन्नति के मार्ग में बाधक तत्वों का विरोध करने के लिए अपनी सृजनात्मक प्रतिभा-निवेश को प्रेरित किया। ये लेखक सृजनात्मक पृथकत्व के कुहरे से निकल कर कटु सामाजिक यथार्थ के बहुत निकट पहुंच गए। रचना-प्रक्रिया का यही पहलू साहित्य को कृमशः सच्चे जीवन के पास ले आया। जीवन के इस वास्तविक स्वरूप की पहचान ने साहित्यकार की दिशा-दृष्टि में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया। वातावरण के विरुद्ध प्रतिक्रिया उभरी और उसने उन समस्त अवरोधों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया जो लेखक की भाषा और शिल्प को संकीर्ण कर रहे थे। उसने आर्थिक विषमताओं, जागीरदारी दबाव, धार्मिक भ्रांतियों तथा राजनैतिक दबावों के माध्यम से दलित तथा कुचले हुओं की समस्याओं को अभिव्यक्ति दी।
इस विरोधी प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरूप मलयालम में एक नये युग का आरम्भ हुआ और साहित्यकारों का एक ऐसा सक्षम वर्ग प्रकट हुआ जिसने अपनी विभिन्न अनुभूतियों को भाषा की संक्षिप्तता और उच्च कलात्मकता के साथ प्रस्तुत किया। तकष़ी शिवशंकर पिल्लै, पी.केशवदेव, पोन्कुन्नम वर्की तथा वैक्कम मुहम्मद वषीर उन तूफानी समुद्री चिड़ियों में प्रमुख कहे जा सकते हैं।
स्थिति का सिंहावलोकन करने से हमें पता चलता है कि जब इन मार्गदर्शी साहित्यकारों का आगमन हुआ, उस समय समाज को इस गतिशील दिशा-दृष्टि की बहुत आवश्यकता थी। जातिवादी एवं जागीरदारी समाज-परंपराओं ने अंधविश्वासों के माध्यम से उच्च वर्ग की बड़ी सहायता की। यातना-चक्र के शिकार गरीब वर्ग को एक प्रकार के ‘ओवर-हालिंग’ की आवश्यकता थी, और यह संभव था जन-चेतना को झकझोरने से ही।
सामान्य जनता की आर्थिक एवं सामाजिक कठिनाइयों को दूर करने का उद्देश्य तब तक किसी भी राजनैतिक आंदोलन का लक्ष्य नहीं बना था। समाज-सुधारक अपने प्रयत्नों में बिखरे हुए थे और उनकी गतिविधियों ने मूलभूत कारणों को खोजने की जगह सामाजिक निरुत्साह के चिह्न पैदा कर दिए थे। ऐसी स्थिति में यह गुरुतर उत्तदायित्व साहित्यकारों के कंधों पर आ गया था।
केरल की साहित्यिक पृष्ठभूमि लेखकों के सामने प्रत्येक भूमिका के लिए उपयुक्त थी। भाषा और साहित्य में लोगों की उस समय बहुत रुचि थी, यद्यपि यह अभिरुचि केवल ‘कला कला के लिए’ तक ही सीमित थी। उन दिनों मलयालम की अनेक पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित हुईं जो विशेषतया साहित्यिक थीं।
सामान्य जन की भावना, परंपराओं के तीक्ष्ण रूपों को तकष़ी ने अपनी रचनाओं में स्थान दिया। केशवदेव ने अपने श्रमिक संघ के अनुभवों के आधार पर सामान्य जन के शोषण और दमन के विरोध में लेखनी चलाई—चुभती हुई शैली और तीखे शब्द। पोन्कुन्नम वर्की ने उस कैथोलिक समाज की कुरीतियों का डटकर विरोध किया, जिसके वे स्वयं एक सदस्य थे। लालितांबिका अंतर्जनम ने नंवूतिरि समुदाय के दोषों का निरूपण किया, जिसमें वह स्वयं जन्मी थीं। वैक्कम मुहम्मद वषीर ने अपने मुस्लिम भाइयों को अज्ञानता से ऊपर उठाने की कोशिश की और राजनैतिक दबावों की निंदा की। कारूर नीलकंठ पिल्लै ने सामान्य जनता की आकांक्षाओं को बड़ी भावुकता से शब्द-बद्ध किया। अन्य लेखकों ने भी सामाजिक दोषों के विरुद्ध इस ‘धर्मयुद्ध’ में भाग लिया।
इन लेखकों ने अपनी सृजनात्मक प्रतिभा को सामाजिक दोषों के प्रकाशन तक ही सीमित नहीं रखा, जीवन की उलझनों और मानव संबंधों की गहन संघर्ष-धाराओं पर भी लेखनी चलाई। इस दिशा में एस.के. पोट्टेकाट तथा पी.सी. कुट्टिकृष्णन के नाम उल्लेखनीय हैं।
वेट्टूर रामन नायर, ई.एम. कोवूर, नागवल्ली आर.एस.कुरुप, सरस्वती अम्मा, पोत्र्त्रिक्करा राफी तथा अन्य लेखकों ने अपनी मौलिक विधाओं से मलयालम कहानी को समृद्ध किया। इनमें से कुछ लेखक और उनकी कहानियां तो भावाभिव्यक्ति एवं शैली-वैशिष्ट्य में किसी से कम नहीं हैं। इस प्रकार जीवन के यथार्थ की पकड़ ने कहानी को साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा अधिक समर्थ बना दिया।
केरल के प्रगतिशील लेखक आंदोलन की तरह इसमें भी उत्थान और पतन की स्थितियां आईं ! लोग पहले तो लेखकों द्वारा सामाजिक उत्तरदायित्व ओढ़ने की भावना के प्रति खूब आकृष्ट हुए, पर फिर वह भाव अचानक अवहेलना, घृणा में परिवर्तित होने लगा। सामाजिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत का अभ्यास चरम सीमा तक धकेला गया। यहां तक कि लेखन कला और शिल्प तक की अवहेलना होने लगी। साथ ही, विश्व-साहित्य के आधुनिक रूप-परिवर्तनों का भी प्रभाव पड़ा। लेखक सृजनेच्छा पर किसी भी प्रकार का बंधन स्वीकारने को तैयार नहीं हुए। उनमें से कुछ तात्कालिक जड़ाव के चारों तरफ देखने की जगह उनके भीतरी स्तरों तक की खोज-बीन के लिए उत्तेजित हो गए।
वे बाह्य की अपेक्षा आंतरिक रूपों का पर्यवेक्षण करना चाहते थे। मानव मन को प्रभावित करने वाले असंतोष, अतृप्ति और बेचैनी की अभिव्यक्ति को ही उन्होंने प्राथमिकता दी। घटनाओं के कृमिक विकास-वर्णन की अपेक्षा उन्होंने चित्तवृत्ति और वातावरण के द्वारा अनुभूतियों को पाठकों तक पहुंचाना अधिक श्रेयस्कर समझा। इस नवीन भाव-प्रदर्शन के लिए उन्होंने प्राचीन रूपों और तकनीकों को अपर्याप्त पाया। उनके आदर्श अब सोमरसेट माम, स्टीनबेक तथा अन्य बड़े कहानीकार नहीं थे। वे अब जेम्स जायस, काफ्का तथा कामू की ओर मुड़ रहे थे। वे वर्जीनिया वुल्फ, मार्सेल प्राउस्ट की ओर झुके तथा अचेतन और अवचेतन की उलझनों और पेचीदगी की खोज करने के लिए चेतन-धारा की तकनीक की ओर मुड़े।
कथा-तत्व इतिश्री की ओर धकेल दिया गया। कहानी विचार-क्रम से दूर हट गई। चरित्र सामाजिक या पार्थिव न होकर वातावरण की सृष्टि होने लगा और वातावरण विक्षिप्तता के अतिरिक्त उसे और कुछ भी देने में असमर्थ रहा।
फिर भी यह रचना-धारा महत्वहीन नहीं थी। उन्होंने समकालीन वातावरण, पुरुष का बड़ी सूक्ष्मता से निरीक्षण किया। इस नवीन पीढ़ी की रचनाओं के संबंध में सामान्यतया यह आलोचना या शिकायत सुनने को मिलती है कि वे अश्लील और अस्पष्ट हैं। परंतु इसके अपवाद भी हैं।
इस पीढ़ी के महत्वपूर्ण एवं प्रतिभाशाली लेखक हैं—एम.टी.वासुदेवन नायर, टी. पद्मनाभ, के.टी.मुहम्मद, पारप्पुरत्तु, नंदनार, माधवी कुट्टी, कोविलन, एम.पी. नारायण पिल्लै, काक्कनाटन, एम.मुकुंदन, वी.के.एन., ओ.वी. विजयन, एन.पी. मुहम्मद, पुतूर उण्णिकृष्णन, मलयाट्टूर रामकृष्णन और जी. विवेकानंदन।
प्रस्तुत संग्रह के समान कोई भी संग्रह मलयालम और उर्वर कथा-साहित्य का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। निर्वाचक या संकलन का कार्य अत्यधिक दुष्कर एवं व्यक्तिपरक होता है। किसी लेखक की एक जैसी अनेक सुंदर कहानियों में से कोई एक कहानी चुनना और भी अधिक कठिन होता है। ऐसी परिस्थिति में निर्णय केवल व्यक्तिगत और परिणामतः आत्म-चेतनापरक होता है। उदाहरणार्थ, प्रारम्भिक पथ-प्रदर्शकों की मलयालम कथा-साहित्य की रचनाएं इसमें संग्रहीत नहीं की गई हैं, क्योंकि वे रचनाएं प्रासंगिक नहीं हैं। आधुनिक काल के कुछ पुराने, परंतु जो बहुत पुराने नहीं हैं, लेखकों की रचनाएं भी स्थलाभाव के कारण संकलित नहीं की जा सकी हैं। मैं आशा करता हूं कि यह संग्रह पाठकों में पर्याप्त अभिरुचि जगाएगा। वे ऐसे अन्य संग्रहों की मांग करें, जिनमें अन्य प्रतिभाशाली लेखकों की रचनाएं भी स्थान पा सकें।
मलयालम कहानी का प्रस्फुटन एवं प्रगति एक दीर्घकालीन तथा सुस्थिर विकास का परिणाम है। पाश्चात्य साहित्य से सुपरिचित प्रतिभाशाली साहित्यकारों ने इस शताब्दी के पूर्व ही मलयालम कहानी का प्रारम्भ कर दिया था। पाठकों के मनोरंजन को ध्यान में रखते हुए, वाशिंग्टन इर्विंग, नाथेनील हार्थोन और एडगर एलन पो को आदर्श बना कर इन लेखकों ने ऐतिहासिक तथा सामाजिक उपन्यासों की रचना की। क्योंकि ये रचनाएं समय के रुख को देखते हुए की गई थीं, इसलिए शीघ्र ही बहुत प्रसिद्ध हो गईं।
इन कहानियों में आज के सामाजिक यथार्थ के अनुरूप कथावस्तु या घटना-संभावनाओं के प्रदर्शन की न तो लेखक को चिंता थी, न पाठक को। आज के मनुष्य-द्वेषी वातावरण में किसी को वे भले ही निर्जीव लगें, परंतु मलयालम के पूर्ववर्ती साहित्य का अनुशीलन करने या अन्य भाषाओं के कहानी साहित्य की विकासधारा को देखने पर यह स्पष्ट हो जाएगा कि इन मार्गदर्शी लेखकों का योगदान हर दृष्टि से उल्लेखनीय है। मूर्कोथ कुमारन, वेंगायिल कुंजिरामन नायनार, ओडुविल कुंजिकृष्ण मेनोन, एम.आर.के.सी., अम्बाडी नारायण पोदुवाल, के. सुकुमारन, सी.एस. गोपाल पणिक्कर, एस.रामवारियर और ई.वी. कृष्णपिल्लै उन लेखकों में से थे, जिन्होंने अपने उत्तराधिकारियों के लिए साहित्यिक आधार-भूमि तैयार की।
मलयालम कहानी का आधुनिक काल सन् 1930 से प्रारम्भ होता है।
उन दिनों केरल के युवा-साहित्यकार कार्ल मार्क्स, सिगमंड फ्रायड तथा फ्रांसीसी प्रकृतवादियों के जादू में फंस गए। विश्व-साहित्य के नवीन रूपों के परिचय तथा गहन अध्ययन ने युवा लेखकों को सामाजिक आंदोलन का अंग बन जाने की प्रेरणा दी और मानव-महत्ता एवं उन्नति के मार्ग में बाधक तत्वों का विरोध करने के लिए अपनी सृजनात्मक प्रतिभा-निवेश को प्रेरित किया। ये लेखक सृजनात्मक पृथकत्व के कुहरे से निकल कर कटु सामाजिक यथार्थ के बहुत निकट पहुंच गए। रचना-प्रक्रिया का यही पहलू साहित्य को कृमशः सच्चे जीवन के पास ले आया। जीवन के इस वास्तविक स्वरूप की पहचान ने साहित्यकार की दिशा-दृष्टि में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया। वातावरण के विरुद्ध प्रतिक्रिया उभरी और उसने उन समस्त अवरोधों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया जो लेखक की भाषा और शिल्प को संकीर्ण कर रहे थे। उसने आर्थिक विषमताओं, जागीरदारी दबाव, धार्मिक भ्रांतियों तथा राजनैतिक दबावों के माध्यम से दलित तथा कुचले हुओं की समस्याओं को अभिव्यक्ति दी।
इस विरोधी प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरूप मलयालम में एक नये युग का आरम्भ हुआ और साहित्यकारों का एक ऐसा सक्षम वर्ग प्रकट हुआ जिसने अपनी विभिन्न अनुभूतियों को भाषा की संक्षिप्तता और उच्च कलात्मकता के साथ प्रस्तुत किया। तकष़ी शिवशंकर पिल्लै, पी.केशवदेव, पोन्कुन्नम वर्की तथा वैक्कम मुहम्मद वषीर उन तूफानी समुद्री चिड़ियों में प्रमुख कहे जा सकते हैं।
स्थिति का सिंहावलोकन करने से हमें पता चलता है कि जब इन मार्गदर्शी साहित्यकारों का आगमन हुआ, उस समय समाज को इस गतिशील दिशा-दृष्टि की बहुत आवश्यकता थी। जातिवादी एवं जागीरदारी समाज-परंपराओं ने अंधविश्वासों के माध्यम से उच्च वर्ग की बड़ी सहायता की। यातना-चक्र के शिकार गरीब वर्ग को एक प्रकार के ‘ओवर-हालिंग’ की आवश्यकता थी, और यह संभव था जन-चेतना को झकझोरने से ही।
सामान्य जनता की आर्थिक एवं सामाजिक कठिनाइयों को दूर करने का उद्देश्य तब तक किसी भी राजनैतिक आंदोलन का लक्ष्य नहीं बना था। समाज-सुधारक अपने प्रयत्नों में बिखरे हुए थे और उनकी गतिविधियों ने मूलभूत कारणों को खोजने की जगह सामाजिक निरुत्साह के चिह्न पैदा कर दिए थे। ऐसी स्थिति में यह गुरुतर उत्तदायित्व साहित्यकारों के कंधों पर आ गया था।
केरल की साहित्यिक पृष्ठभूमि लेखकों के सामने प्रत्येक भूमिका के लिए उपयुक्त थी। भाषा और साहित्य में लोगों की उस समय बहुत रुचि थी, यद्यपि यह अभिरुचि केवल ‘कला कला के लिए’ तक ही सीमित थी। उन दिनों मलयालम की अनेक पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित हुईं जो विशेषतया साहित्यिक थीं।
सामान्य जन की भावना, परंपराओं के तीक्ष्ण रूपों को तकष़ी ने अपनी रचनाओं में स्थान दिया। केशवदेव ने अपने श्रमिक संघ के अनुभवों के आधार पर सामान्य जन के शोषण और दमन के विरोध में लेखनी चलाई—चुभती हुई शैली और तीखे शब्द। पोन्कुन्नम वर्की ने उस कैथोलिक समाज की कुरीतियों का डटकर विरोध किया, जिसके वे स्वयं एक सदस्य थे। लालितांबिका अंतर्जनम ने नंवूतिरि समुदाय के दोषों का निरूपण किया, जिसमें वह स्वयं जन्मी थीं। वैक्कम मुहम्मद वषीर ने अपने मुस्लिम भाइयों को अज्ञानता से ऊपर उठाने की कोशिश की और राजनैतिक दबावों की निंदा की। कारूर नीलकंठ पिल्लै ने सामान्य जनता की आकांक्षाओं को बड़ी भावुकता से शब्द-बद्ध किया। अन्य लेखकों ने भी सामाजिक दोषों के विरुद्ध इस ‘धर्मयुद्ध’ में भाग लिया।
इन लेखकों ने अपनी सृजनात्मक प्रतिभा को सामाजिक दोषों के प्रकाशन तक ही सीमित नहीं रखा, जीवन की उलझनों और मानव संबंधों की गहन संघर्ष-धाराओं पर भी लेखनी चलाई। इस दिशा में एस.के. पोट्टेकाट तथा पी.सी. कुट्टिकृष्णन के नाम उल्लेखनीय हैं।
वेट्टूर रामन नायर, ई.एम. कोवूर, नागवल्ली आर.एस.कुरुप, सरस्वती अम्मा, पोत्र्त्रिक्करा राफी तथा अन्य लेखकों ने अपनी मौलिक विधाओं से मलयालम कहानी को समृद्ध किया। इनमें से कुछ लेखक और उनकी कहानियां तो भावाभिव्यक्ति एवं शैली-वैशिष्ट्य में किसी से कम नहीं हैं। इस प्रकार जीवन के यथार्थ की पकड़ ने कहानी को साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा अधिक समर्थ बना दिया।
केरल के प्रगतिशील लेखक आंदोलन की तरह इसमें भी उत्थान और पतन की स्थितियां आईं ! लोग पहले तो लेखकों द्वारा सामाजिक उत्तरदायित्व ओढ़ने की भावना के प्रति खूब आकृष्ट हुए, पर फिर वह भाव अचानक अवहेलना, घृणा में परिवर्तित होने लगा। सामाजिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत का अभ्यास चरम सीमा तक धकेला गया। यहां तक कि लेखन कला और शिल्प तक की अवहेलना होने लगी। साथ ही, विश्व-साहित्य के आधुनिक रूप-परिवर्तनों का भी प्रभाव पड़ा। लेखक सृजनेच्छा पर किसी भी प्रकार का बंधन स्वीकारने को तैयार नहीं हुए। उनमें से कुछ तात्कालिक जड़ाव के चारों तरफ देखने की जगह उनके भीतरी स्तरों तक की खोज-बीन के लिए उत्तेजित हो गए।
वे बाह्य की अपेक्षा आंतरिक रूपों का पर्यवेक्षण करना चाहते थे। मानव मन को प्रभावित करने वाले असंतोष, अतृप्ति और बेचैनी की अभिव्यक्ति को ही उन्होंने प्राथमिकता दी। घटनाओं के कृमिक विकास-वर्णन की अपेक्षा उन्होंने चित्तवृत्ति और वातावरण के द्वारा अनुभूतियों को पाठकों तक पहुंचाना अधिक श्रेयस्कर समझा। इस नवीन भाव-प्रदर्शन के लिए उन्होंने प्राचीन रूपों और तकनीकों को अपर्याप्त पाया। उनके आदर्श अब सोमरसेट माम, स्टीनबेक तथा अन्य बड़े कहानीकार नहीं थे। वे अब जेम्स जायस, काफ्का तथा कामू की ओर मुड़ रहे थे। वे वर्जीनिया वुल्फ, मार्सेल प्राउस्ट की ओर झुके तथा अचेतन और अवचेतन की उलझनों और पेचीदगी की खोज करने के लिए चेतन-धारा की तकनीक की ओर मुड़े।
कथा-तत्व इतिश्री की ओर धकेल दिया गया। कहानी विचार-क्रम से दूर हट गई। चरित्र सामाजिक या पार्थिव न होकर वातावरण की सृष्टि होने लगा और वातावरण विक्षिप्तता के अतिरिक्त उसे और कुछ भी देने में असमर्थ रहा।
फिर भी यह रचना-धारा महत्वहीन नहीं थी। उन्होंने समकालीन वातावरण, पुरुष का बड़ी सूक्ष्मता से निरीक्षण किया। इस नवीन पीढ़ी की रचनाओं के संबंध में सामान्यतया यह आलोचना या शिकायत सुनने को मिलती है कि वे अश्लील और अस्पष्ट हैं। परंतु इसके अपवाद भी हैं।
इस पीढ़ी के महत्वपूर्ण एवं प्रतिभाशाली लेखक हैं—एम.टी.वासुदेवन नायर, टी. पद्मनाभ, के.टी.मुहम्मद, पारप्पुरत्तु, नंदनार, माधवी कुट्टी, कोविलन, एम.पी. नारायण पिल्लै, काक्कनाटन, एम.मुकुंदन, वी.के.एन., ओ.वी. विजयन, एन.पी. मुहम्मद, पुतूर उण्णिकृष्णन, मलयाट्टूर रामकृष्णन और जी. विवेकानंदन।
प्रस्तुत संग्रह के समान कोई भी संग्रह मलयालम और उर्वर कथा-साहित्य का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। निर्वाचक या संकलन का कार्य अत्यधिक दुष्कर एवं व्यक्तिपरक होता है। किसी लेखक की एक जैसी अनेक सुंदर कहानियों में से कोई एक कहानी चुनना और भी अधिक कठिन होता है। ऐसी परिस्थिति में निर्णय केवल व्यक्तिगत और परिणामतः आत्म-चेतनापरक होता है। उदाहरणार्थ, प्रारम्भिक पथ-प्रदर्शकों की मलयालम कथा-साहित्य की रचनाएं इसमें संग्रहीत नहीं की गई हैं, क्योंकि वे रचनाएं प्रासंगिक नहीं हैं। आधुनिक काल के कुछ पुराने, परंतु जो बहुत पुराने नहीं हैं, लेखकों की रचनाएं भी स्थलाभाव के कारण संकलित नहीं की जा सकी हैं। मैं आशा करता हूं कि यह संग्रह पाठकों में पर्याप्त अभिरुचि जगाएगा। वे ऐसे अन्य संग्रहों की मांग करें, जिनमें अन्य प्रतिभाशाली लेखकों की रचनाएं भी स्थान पा सकें।
भावी पति
भावी पति को धनी, सुंदर, विद्वान और यशस्वी होना चाहिए। सरोजनी भी ऐसा ही
सोचती थी। घर में अपने विवाह की बात चलने पर उसने सर्वगुणसंपन्न पति की एक
सुंदर मूर्ति मन में अंकित कर ली।
विद्यालय में सभी सखियों के बीच वार्तालाप का मुख्य विषय यही होता था कि भावी पति को कैसा होना चाहिए।
पद्माक्षी एक वकील को पति के रूप में देखती है, तो नलिनी एक पुलिस इंस्पेक्टर को पति बनाना चाहती है। अपनी बात की पुष्टि के लिए वह इंस्पेक्टर के गौरव और सम्मान का वर्णन बढ़ा-चढ़ा कर करती है। लीलावती एक जज को अपने पति का स्थान देना चाहती है। जज के गुणों का वर्णन करते समय उसकी भाव-भंगिमा बिलकुल जज की पत्नी की सी बन जाती है। अपने-अपने भावी पतियों के विषय में चर्चा करते समय वे कभी-कभी लड़ बैठती थीं, क्योंकि कोई भी अपने होने वाले पति को दूसरी के भावी पति से हीन देखना नहीं चाहती। इस प्रकार लड़कियों की विभिन्न रुचियां और कल्पनाएं अधिक से अधिक स्पष्ट हो जाती हैं।
सखियों के बीच प्रतिवाद करते हुए नलिनी ने कहा, ‘‘पुलिस-इंस्पेक्टर को देखते ही सब कांपने लगते हैं।’’
उत्तर में लीलावती कहती है, ‘‘तुम तो जानती ही हो कि जज अपराधी को फांसी की सजा तक दे सकता है।’’
पद्माक्षी बीच में बोल पड़ती है, ‘‘वकील की अनुपस्थिति में इंस्पेक्टर और जज क्या कर सकते हैं ?’’
अंत में सरोजनी कहती है, ‘‘मेरे पति सुसंपन्न, विद्वान और सुंदर होंगे। उनके आगे सब कुत्ते औऱ कीड़े के समान लगेंगे। मेरे पति का सब लोग आदर-सत्कार करेंगे ?’’
इस संबंध में सब सखियों का मत एक ही था कि भावी पति सुंदर हो।
सब सखियों में सबसे पहले नलिनी की शादी की ही चर्चा चली। उसने सब सखियों से यह बात छिपा कर रखी। विवाह निश्चित हो जाने पर उसने पढ़ाई छोड़ दी। उसके पढ़ाई छोड़ने का कारण जानने के लिए उत्सुक सखियों को उसके विवाह का समाचार मिला। पता चला कि उसका भावी पति किसी कारखाने में तीस रुपये महीना पाने वाला एक मुनीम है। सुंदर न होने पर भी बहुत बदसूरत नहीं है।
विवाह के अवसर पर लीलावती, सरोजनी, पद्माक्षी आदि सभी सखियां आईं। वे सोचती थीं कि मनचाहा पति न मिलने पर नलिनी शायद दुखी होगी, किन्तु सबने उसे प्रफुल्ल-वदन पाया। तब उन्होंने सोचा—उसकी बातें केवल मजाक थीं।
लीलावती उनसे पूछ ही बैठी, ‘‘बेचारे, मुनीम की पत्नी बनना क्या तुम्हें पसंद है ?’’
नलिनी ने उत्तर दिया, ‘‘अपनी पसंद कौन देखता है ? फिर भी जैसा पति मिल रहा है, उसे प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करना मैं उचित समझती हूं।’’
पद्माक्षी ने नलिनी से कहा, ‘‘तुमको पुलिस-इंस्पेक्टर मिल सकता था, तब तुम मुनीम के साथ विवाह क्यों कर रही हो ?’’
थोड़ा सा दुखी होते हुए नलिनी ने कहा, ‘‘यह सब विधि का विधान है। हम सोचते कुछ हैं, किंतु होता कुछ और ही है।’’
विधि के विधान की बात सुन कर सरोजनी को क्रोध आ गया। उसने कहा, ‘‘विधि को क्यों कोसती हो ? हम जो सोचती हैं, वही करने की शक्ति भी रखती हैं। बस, प्रतीक्षा करने का धैर्य होना चाहिए। तुम देखना, ‘‘हमारी शादी हमारी इच्छा के अनुरूप होगी।’’
नलिनी दृढ़ स्वर में बोली, ‘‘मैं अपनी परिस्थिति में इस विवाह से पूर्ण रूप से संतुष्ट होने की कोशिश करूंगी।’’
इसके बाद उन सबका विवाद समाप्त हो गया और सखियों की मंगल कामनाओं के साथ नलिनी का विवाह सम्पन्न हो गया। विवाह के पश्चात् सब सखियां अपने-अपने घर चली गईं।
विद्यालय में सभी सखियों के बीच वार्तालाप का मुख्य विषय यही होता था कि भावी पति को कैसा होना चाहिए।
पद्माक्षी एक वकील को पति के रूप में देखती है, तो नलिनी एक पुलिस इंस्पेक्टर को पति बनाना चाहती है। अपनी बात की पुष्टि के लिए वह इंस्पेक्टर के गौरव और सम्मान का वर्णन बढ़ा-चढ़ा कर करती है। लीलावती एक जज को अपने पति का स्थान देना चाहती है। जज के गुणों का वर्णन करते समय उसकी भाव-भंगिमा बिलकुल जज की पत्नी की सी बन जाती है। अपने-अपने भावी पतियों के विषय में चर्चा करते समय वे कभी-कभी लड़ बैठती थीं, क्योंकि कोई भी अपने होने वाले पति को दूसरी के भावी पति से हीन देखना नहीं चाहती। इस प्रकार लड़कियों की विभिन्न रुचियां और कल्पनाएं अधिक से अधिक स्पष्ट हो जाती हैं।
सखियों के बीच प्रतिवाद करते हुए नलिनी ने कहा, ‘‘पुलिस-इंस्पेक्टर को देखते ही सब कांपने लगते हैं।’’
उत्तर में लीलावती कहती है, ‘‘तुम तो जानती ही हो कि जज अपराधी को फांसी की सजा तक दे सकता है।’’
पद्माक्षी बीच में बोल पड़ती है, ‘‘वकील की अनुपस्थिति में इंस्पेक्टर और जज क्या कर सकते हैं ?’’
अंत में सरोजनी कहती है, ‘‘मेरे पति सुसंपन्न, विद्वान और सुंदर होंगे। उनके आगे सब कुत्ते औऱ कीड़े के समान लगेंगे। मेरे पति का सब लोग आदर-सत्कार करेंगे ?’’
इस संबंध में सब सखियों का मत एक ही था कि भावी पति सुंदर हो।
सब सखियों में सबसे पहले नलिनी की शादी की ही चर्चा चली। उसने सब सखियों से यह बात छिपा कर रखी। विवाह निश्चित हो जाने पर उसने पढ़ाई छोड़ दी। उसके पढ़ाई छोड़ने का कारण जानने के लिए उत्सुक सखियों को उसके विवाह का समाचार मिला। पता चला कि उसका भावी पति किसी कारखाने में तीस रुपये महीना पाने वाला एक मुनीम है। सुंदर न होने पर भी बहुत बदसूरत नहीं है।
विवाह के अवसर पर लीलावती, सरोजनी, पद्माक्षी आदि सभी सखियां आईं। वे सोचती थीं कि मनचाहा पति न मिलने पर नलिनी शायद दुखी होगी, किन्तु सबने उसे प्रफुल्ल-वदन पाया। तब उन्होंने सोचा—उसकी बातें केवल मजाक थीं।
लीलावती उनसे पूछ ही बैठी, ‘‘बेचारे, मुनीम की पत्नी बनना क्या तुम्हें पसंद है ?’’
नलिनी ने उत्तर दिया, ‘‘अपनी पसंद कौन देखता है ? फिर भी जैसा पति मिल रहा है, उसे प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करना मैं उचित समझती हूं।’’
पद्माक्षी ने नलिनी से कहा, ‘‘तुमको पुलिस-इंस्पेक्टर मिल सकता था, तब तुम मुनीम के साथ विवाह क्यों कर रही हो ?’’
थोड़ा सा दुखी होते हुए नलिनी ने कहा, ‘‘यह सब विधि का विधान है। हम सोचते कुछ हैं, किंतु होता कुछ और ही है।’’
विधि के विधान की बात सुन कर सरोजनी को क्रोध आ गया। उसने कहा, ‘‘विधि को क्यों कोसती हो ? हम जो सोचती हैं, वही करने की शक्ति भी रखती हैं। बस, प्रतीक्षा करने का धैर्य होना चाहिए। तुम देखना, ‘‘हमारी शादी हमारी इच्छा के अनुरूप होगी।’’
नलिनी दृढ़ स्वर में बोली, ‘‘मैं अपनी परिस्थिति में इस विवाह से पूर्ण रूप से संतुष्ट होने की कोशिश करूंगी।’’
इसके बाद उन सबका विवाद समाप्त हो गया और सखियों की मंगल कामनाओं के साथ नलिनी का विवाह सम्पन्न हो गया। विवाह के पश्चात् सब सखियां अपने-अपने घर चली गईं।
2
नलिनी के विवाह के पश्चात् भी सरोजनी, पद्माक्षी, लीलावती आदि एक साथ
स्कूल जाती रहीं और भावी पति को लेकर विवाद करती रहीं। उन्होंने नलिनी की
तरह जाल में न फंसने का निश्चय किया और उसकी तरह अक्षम न बनने की
प्रतिज्ञा की। इन सब में पद्माक्षी बुद्धि से काम लेने वाली लड़की थी।
उसने कहा, ‘‘अपनी परिस्थिति के अनुसार नलिनी ने उचित
ही किया है। यह आवश्यक नहीं कि बड़ी-बड़ी प्रतिज्ञाएं पूरी हो ही
जाएं।’’
पद्माक्षी की बात से सरोजनी को क्रोध आ गया। वह प्रतिवाद करती हुई बोली, ‘‘पद्माक्षी, कैसी व्यर्थ की बातें कर रही हो ! हमारे पास कमी किस बात की है—न शिक्षा की, न सौंदर्य की।’’
लीलावती भी सरोजनी के विचार से पूर्ण सहमत थी। उसने कहा, ‘‘हमारी शिक्षा और सौंदर्य को देखते हुए हमारी अभिलाषा मामूली सी है।’’
पद्माक्षी ने उसकी बात पर व्यंग्य करते हुए कहा, ‘‘बहिनो ! अब शिक्षा और सौंदर्य को कौन पूछता है ? अकेले धन से ही सारे व्यापार चलते हैं। इसी कारण सब धन के पीछे दौड़ते हैं। धन के आगे सब कुछ व्यर्थ है। हमसे बढ़ कर शिक्षित और सौंदर्यशालिनी लड़कियां अविवाहित बैठी हैं।’’
सरोजिनी पद्माक्षी पर अपना क्रोध उतारती हुई बोली, ‘‘तू बहुत धनी है, इसी से धन का पक्ष लेती है। धन के कारण तुझे घमण्ड हो गया है। उसे तू अपने ही पास रख। हम गरीब हैं तो क्या ! हमारी भी अभिलाषाएं हैं। अपनी अभिलाषा के अनुसार यदि हमें पति न प्राप्त हुए तो हम अविवाहित ही रहेंगी।’’
पद्माक्षी ने फिर कुछ नहीं कहा।
सरोजिनी ने प्रतिज्ञा की कि ‘यदि वकील ने मेरे गले में वरमाला न पहनाई तो मैं अन्य किसी का वरण नहीं करूंगी।’
कभी-कभी सरोजिनी अपने भावी पति के विषय में दिवा-स्वप्न देखकर आनंद अनुभव करती और उसके साथ भ्रमण की कल्पना करके सोचती कि सब लोग हम लोगों का आदर सत्कार करेंगे। यह स्वप्न में देखती वकील पति के पास बहुत से लोग अपनी समस्याएं लेकर आते हैं। कभी-कभी पति की अनुपस्थिति में मुझे भी अपना निर्णय देने का सुयोग्य अवसर प्राप्त होगा। जज, इंसपेक्टर आदि मेरे पति के सामने सिर झुकाएंगे। स्त्रियां मेरे पति को देख कर ईर्ष्या करेंगी, किंतु उन तक पहुंचने में असमर्थ रहेंगी। उनका प्यार मुझ तक ही सीमित रहेगा।
सरोजिनी के खिलाफ कोई सखी कुछ न कहती। सरोजिनी सोचती, ‘मेरी शादी होने दो तब देखना यह सब मेरे सामने सिर झुकाएंगी।’’
एक वर्ष बीत गया। तीनों मैट्रिक पास हो गईं। सभी की कालेज में पढ़ने की इच्छा थी। किंतु सरोजनी और लीलावती की आर्थिक स्थिति कालेज में भर्ती होने के योग्य नहीं थी।
सरोजिनी का पिता एक साधारण किसान था। कठिन परिश्रम करके वह परिवार का संचालन कर रहा था। सरोजिनी को मैट्रिक पास कराने में भी उसे काफी कष्ट उठाना पड़ा था। अब तो सरोजनी के दो भाई भी हाई स्कूल में पहुंच गए हैं। सरोजिनी को कालेज और दोनों भाइयों को अंग्रेजी स्कूल में भर्ती कराने का आर्थिक भार उठा सकने में किसान पिता सर्वथा असमर्थ था। यदि वह उसे कालेज भेजता है तो भूखों मरना पड़ेगा।
सरोजिनी के माता-पिता सोचते—लड़की मैट्रिक पास हो गई, अब अधिक पढ़ाने से क्या फायदा ? अब उसका विवाह कर देना ही ठीक होगा। शिक्षित, सुंदर पुत्री को वकील पति मिलेगा, ऐसा पिता का विचार था और धूम-धाम से कन्या का विवाह संपन्न करने की आकांक्षा भी थी। सरोजनी की मां कहती, ‘‘बड़प्पन की बात छोड़ दो। अपनी परिस्थिति के अनुसार एक सामान्य वर से कन्या का विवाह सम्पन्न कर देना ही ठोक होगा।’’ सरोजिनी माता के विचारों से सहमत न होकर अप्रत्यक्ष रूप से विरोध करती थी। वह कहती, ‘‘आह...मां की इच्छा के अनुसार मैं....।’’
पद्माक्षी के पिता धनाढ्य व्यक्ति हैं। वह अपनी कन्या को उच्च शिक्षा दिलाने की सामर्थ्य रखते हैं, फिर भी उन्होंने पद्माक्षी के लिए वर खोजना आरम्भ कर दिया। अपने प्रयत्न में उन्हें शीघ्र ही सफलता भी मिल गई। एक सुंदर इंजीनियर नवयुवक को उन्होंने पद्माक्षी के लिए चुना। वह ओजस्वी नवयुवक पद्माक्षी को देखने आया। उसने अपने व्यवहार से सबका मन मोह लिया। उसी दिन सरोजिनी और लीलावती भी पद्माक्षी से मिलने आई थीं। सबने एक मत से उस नवयुवक को पद्माक्षी के अनुरूप वर स्वीकार किया लीलावती को भी वह पसंद आया। उसने सरोजिनी का मत जानना चाहा, किंतु सरोजिनी ‘हूं’ कह कर रह गई।
लीलावती ने कहा, ‘पद्माक्षी एक वकील को अपना पति बनाना चाहती थी। किंतु इंजीनियर के रूप में उसे वकील से अच्छा वर मिल गया। वह सौभाग्यवती है।’’
सरोजिनी ने कहा, ‘‘इसमें भाग्य की क्या बात ? हमें इससे भी सुयोग्य वर प्राप्त होगा।’’
दोनों ने पद्माक्षी से विदा ली।
घर पहुंचकर सरोजिनी ने पद्माक्षी के वर का महत्व स्वीकार करते हुए सोचा—वह वास्तव में कोमल प्रकृति और परिपक्व बुद्धि का बड़ा अफसर है, परंतु प्रत्यक्ष रूप में वह उसे पसंद न कर सकी। उसने सोचा मेरा पति इससे भी योग्य और सुन्दर होगा। उसके सामने इन सबका कोई महत्व नहीं। वह अपने स्वप्न देवता के साथ दिन व्यतीत करने लगी। कभी वह देखती कि कोई सुंदर नवयुवक उसे प्रेम से देख रहा है। उसे अपनी ओर आकर्षित देखकर जब वह उसके पास पहुंचने के लिए आगे बढ़ती है तब वह दूर जाकर विलुप्त हो जाता है। स्वप्न में वह पुकार उठती है, तभी उसकी आंखें खुल जाती हैं और जिंदगी का कठोर सत्य उसे सहमा देता है। परंतु वह निराश नहीं हुई। उसने आंखें बन्द कर लीं। उसी क्षण फिर अपने अराध्यदेव को उसने कुछ दूर पर देखा। वह फिर धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ने लगी।
पद्माक्षी का विवाह धूम-धाम से संपन्न हो गया। ससुराल जाते वक्त वह सरोजिनी के घर के सामने से निकली। उस समय सरोजिनी दरवाजे पर खड़ी थी। पद्माक्षी अपने पति के पीछे-पीछे कलहंसगामिनी के समान चल रही थी। यह दृश्य सरोजिनी को असह्य था। पद्माक्षी ने सजोरिनी के पास जाकर उससे विदा मांगी और उसकी शादी की खबर तथा पत्र-व्यवहार की अकांक्षा व्यक्त की।
‘‘हूं !’’ सरोजिनी ने उत्तर दिया। पद्माक्षी प्रसन्नतापूर्वक चली गई।
सरोजिनी की आंखों से आंसू की दो बूंदें ढुलक पड़ीं।
पद्माक्षी की बात से सरोजनी को क्रोध आ गया। वह प्रतिवाद करती हुई बोली, ‘‘पद्माक्षी, कैसी व्यर्थ की बातें कर रही हो ! हमारे पास कमी किस बात की है—न शिक्षा की, न सौंदर्य की।’’
लीलावती भी सरोजनी के विचार से पूर्ण सहमत थी। उसने कहा, ‘‘हमारी शिक्षा और सौंदर्य को देखते हुए हमारी अभिलाषा मामूली सी है।’’
पद्माक्षी ने उसकी बात पर व्यंग्य करते हुए कहा, ‘‘बहिनो ! अब शिक्षा और सौंदर्य को कौन पूछता है ? अकेले धन से ही सारे व्यापार चलते हैं। इसी कारण सब धन के पीछे दौड़ते हैं। धन के आगे सब कुछ व्यर्थ है। हमसे बढ़ कर शिक्षित और सौंदर्यशालिनी लड़कियां अविवाहित बैठी हैं।’’
सरोजिनी पद्माक्षी पर अपना क्रोध उतारती हुई बोली, ‘‘तू बहुत धनी है, इसी से धन का पक्ष लेती है। धन के कारण तुझे घमण्ड हो गया है। उसे तू अपने ही पास रख। हम गरीब हैं तो क्या ! हमारी भी अभिलाषाएं हैं। अपनी अभिलाषा के अनुसार यदि हमें पति न प्राप्त हुए तो हम अविवाहित ही रहेंगी।’’
पद्माक्षी ने फिर कुछ नहीं कहा।
सरोजिनी ने प्रतिज्ञा की कि ‘यदि वकील ने मेरे गले में वरमाला न पहनाई तो मैं अन्य किसी का वरण नहीं करूंगी।’
कभी-कभी सरोजिनी अपने भावी पति के विषय में दिवा-स्वप्न देखकर आनंद अनुभव करती और उसके साथ भ्रमण की कल्पना करके सोचती कि सब लोग हम लोगों का आदर सत्कार करेंगे। यह स्वप्न में देखती वकील पति के पास बहुत से लोग अपनी समस्याएं लेकर आते हैं। कभी-कभी पति की अनुपस्थिति में मुझे भी अपना निर्णय देने का सुयोग्य अवसर प्राप्त होगा। जज, इंसपेक्टर आदि मेरे पति के सामने सिर झुकाएंगे। स्त्रियां मेरे पति को देख कर ईर्ष्या करेंगी, किंतु उन तक पहुंचने में असमर्थ रहेंगी। उनका प्यार मुझ तक ही सीमित रहेगा।
सरोजिनी के खिलाफ कोई सखी कुछ न कहती। सरोजिनी सोचती, ‘मेरी शादी होने दो तब देखना यह सब मेरे सामने सिर झुकाएंगी।’’
एक वर्ष बीत गया। तीनों मैट्रिक पास हो गईं। सभी की कालेज में पढ़ने की इच्छा थी। किंतु सरोजनी और लीलावती की आर्थिक स्थिति कालेज में भर्ती होने के योग्य नहीं थी।
सरोजिनी का पिता एक साधारण किसान था। कठिन परिश्रम करके वह परिवार का संचालन कर रहा था। सरोजिनी को मैट्रिक पास कराने में भी उसे काफी कष्ट उठाना पड़ा था। अब तो सरोजनी के दो भाई भी हाई स्कूल में पहुंच गए हैं। सरोजिनी को कालेज और दोनों भाइयों को अंग्रेजी स्कूल में भर्ती कराने का आर्थिक भार उठा सकने में किसान पिता सर्वथा असमर्थ था। यदि वह उसे कालेज भेजता है तो भूखों मरना पड़ेगा।
सरोजिनी के माता-पिता सोचते—लड़की मैट्रिक पास हो गई, अब अधिक पढ़ाने से क्या फायदा ? अब उसका विवाह कर देना ही ठीक होगा। शिक्षित, सुंदर पुत्री को वकील पति मिलेगा, ऐसा पिता का विचार था और धूम-धाम से कन्या का विवाह संपन्न करने की आकांक्षा भी थी। सरोजनी की मां कहती, ‘‘बड़प्पन की बात छोड़ दो। अपनी परिस्थिति के अनुसार एक सामान्य वर से कन्या का विवाह सम्पन्न कर देना ही ठोक होगा।’’ सरोजिनी माता के विचारों से सहमत न होकर अप्रत्यक्ष रूप से विरोध करती थी। वह कहती, ‘‘आह...मां की इच्छा के अनुसार मैं....।’’
पद्माक्षी के पिता धनाढ्य व्यक्ति हैं। वह अपनी कन्या को उच्च शिक्षा दिलाने की सामर्थ्य रखते हैं, फिर भी उन्होंने पद्माक्षी के लिए वर खोजना आरम्भ कर दिया। अपने प्रयत्न में उन्हें शीघ्र ही सफलता भी मिल गई। एक सुंदर इंजीनियर नवयुवक को उन्होंने पद्माक्षी के लिए चुना। वह ओजस्वी नवयुवक पद्माक्षी को देखने आया। उसने अपने व्यवहार से सबका मन मोह लिया। उसी दिन सरोजिनी और लीलावती भी पद्माक्षी से मिलने आई थीं। सबने एक मत से उस नवयुवक को पद्माक्षी के अनुरूप वर स्वीकार किया लीलावती को भी वह पसंद आया। उसने सरोजिनी का मत जानना चाहा, किंतु सरोजिनी ‘हूं’ कह कर रह गई।
लीलावती ने कहा, ‘पद्माक्षी एक वकील को अपना पति बनाना चाहती थी। किंतु इंजीनियर के रूप में उसे वकील से अच्छा वर मिल गया। वह सौभाग्यवती है।’’
सरोजिनी ने कहा, ‘‘इसमें भाग्य की क्या बात ? हमें इससे भी सुयोग्य वर प्राप्त होगा।’’
दोनों ने पद्माक्षी से विदा ली।
घर पहुंचकर सरोजिनी ने पद्माक्षी के वर का महत्व स्वीकार करते हुए सोचा—वह वास्तव में कोमल प्रकृति और परिपक्व बुद्धि का बड़ा अफसर है, परंतु प्रत्यक्ष रूप में वह उसे पसंद न कर सकी। उसने सोचा मेरा पति इससे भी योग्य और सुन्दर होगा। उसके सामने इन सबका कोई महत्व नहीं। वह अपने स्वप्न देवता के साथ दिन व्यतीत करने लगी। कभी वह देखती कि कोई सुंदर नवयुवक उसे प्रेम से देख रहा है। उसे अपनी ओर आकर्षित देखकर जब वह उसके पास पहुंचने के लिए आगे बढ़ती है तब वह दूर जाकर विलुप्त हो जाता है। स्वप्न में वह पुकार उठती है, तभी उसकी आंखें खुल जाती हैं और जिंदगी का कठोर सत्य उसे सहमा देता है। परंतु वह निराश नहीं हुई। उसने आंखें बन्द कर लीं। उसी क्षण फिर अपने अराध्यदेव को उसने कुछ दूर पर देखा। वह फिर धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ने लगी।
पद्माक्षी का विवाह धूम-धाम से संपन्न हो गया। ससुराल जाते वक्त वह सरोजिनी के घर के सामने से निकली। उस समय सरोजिनी दरवाजे पर खड़ी थी। पद्माक्षी अपने पति के पीछे-पीछे कलहंसगामिनी के समान चल रही थी। यह दृश्य सरोजिनी को असह्य था। पद्माक्षी ने सजोरिनी के पास जाकर उससे विदा मांगी और उसकी शादी की खबर तथा पत्र-व्यवहार की अकांक्षा व्यक्त की।
‘‘हूं !’’ सरोजिनी ने उत्तर दिया। पद्माक्षी प्रसन्नतापूर्वक चली गई।
सरोजिनी की आंखों से आंसू की दो बूंदें ढुलक पड़ीं।
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