सामाजिक >> पीले कागज की उजली इबारत पीले कागज की उजली इबारतकैलाश बनवासी
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सामाजिक जीवन को उजागर करती कैलाश बनवासी की संवेदनशील कहानियों का संग्रह
छत्तीसगढ़ी धान के कटोरे की विपन्नता और इस्पात नगरी के औद्योगिक ताप के बीच मध्यवर्ग का संघर्ष और समाज-जीवन की विसंगतियाँ गहरी स्थानिकता और संवेदनशीलता के साथ कैलाश बनवासी की कहानियों में व्यक्त हुई हैं। मुक्तिबोध ने जिस रचनाकार वर्ग को जड़ीभूत सौंदर्याभिरुचि के विरुद्ध संघर्षचेता कहा था, बनवासी सच्चे अर्थों में उसके प्रतिनिधि हैं।
-चंद्रकांत देवताले
लगभग तीन दशकों से सुने जा रहे इस शोर को, कि कहानी विधा अपने अंतिम छोर पर आकर समाप्त हो गई या कहानियों की दुनिया उजड़ चुकी , उसमें संभव सर्वश्रेष्ठ गुज़र चुका, को झुठलाते हुए हमारे समय में कहानी का जिस तरह पुनर्जन्म हुआ है,
वह हमारी भाषा में गठित इस दौर की विलक्षण घटना है। सिर्फ़ पुनर्जन्म नहीं, बल्कि उसका अद्वितीय उत्कर्ष। कहानी पारंपरिक शिल्प और नई जमीन तोड़ते हुए एक दुस्साहसिक तरीके से अज्ञात, अनाविष्कृत अनुभव क्षेत्रों में जा रही है और मौजूदा विसंगतियों और विकृतियों की प्रश्नांकित करते हुए मनहूस नींदों को भंग करने का जरूरी काम कर रही है। पिछले दशक मे हिंदी के जिन कथाकारों ने कहानी को फिर से जीवंत और सारवान बनाया है, उनमें युवा कहानीकार कैलाश बनवासी का नाम निर्विवाद रूप से अग्रणी है।
कैलाश बनवासी अपनी कहानियों में राजनीतिक आपाधापी, मूल्यों के क्षरण, सर्वग्रासी बाज़ार और हमारे सामाजिक जीवन में भीतर तक व्याप्त भ्रष्टाचार, कपट और पाखंड को निशाना बनाते हैं। लेकिन ये कहानियाँ महत्त्वपूर्ण हैं तो इस कारण कि इनमें सर्वदा तकलीफ़ और त्रासदी के संदर्भों को मनुष्य की न्याय-कामना के सातत्य में रखा गया है, न कि महज ऐसी विषय-वस्तु की तरह जिसके इर्द-गिर्द भाषा का जाल बुना जाता है। ‘सर्वनिषेधवाद’, जिसे हमारे वक्त में व्यापक सहमति प्राप्त है, से हरचंद बचते हुए न वे जीवन के प्रति लगाव और आस्था छोड़ते हैं, न मनुष्य के विवेक और विचारशीलता में अटूट भरोसा। इसका उदाहरण है उनकी बहुचर्चित मार्मिक कहानी ‘बाजार में रामधन’, जिसमें रामधन बाजार में जाकर भी उसके तंत्र और तर्कों का शिकार नहीं होता, अपने बैलों की फरोख्त किये बिना वापस लौट आता है। वे पूरी तरह सचेत हैं कि कहानी सिर्फ़ घटित का एक शुष्क बयान नहीं होती है और उसे एक बहुआयामी अर्थवत्ता हासिल होती है भाषा के भीतर की उस दूसरी भाषा से जो शब्दों की अन्तर्ध्वनियों और उनके बीच का खामोशियों से बनती है। लेकिन वे सचेत रूप से भाषिक करतब और भव्य शिल्प के उस आकर्षक लेकिन आत्मघाती रास्ते पर जाने से इंकार करते हैं जहाँ शिल्प को ही कथ्य बना लिया जाता है और किसी तरह के विचार या विश्लेषण से परहेज बरता जाता है। इन कहानियों में, जो पिछले संग्रहों के बाद उनके रुझानों के और पुष्ट और परिपक्व होने का प्रमाण देती हैं, वाचा का लुत्फ नहीं, तमाम जीवनरोधी स्थितियों का एक परीक्षण और अपने समय के मर्मज्ञ पर्यवेक्षण हैं।
कैलाश बनवासी अपनी कहानियों में राजनीतिक आपाधापी, मूल्यों के क्षरण, सर्वग्रासी बाज़ार और हमारे सामाजिक जीवन में भीतर तक व्याप्त भ्रष्टाचार, कपट और पाखंड को निशाना बनाते हैं। लेकिन ये कहानियाँ महत्त्वपूर्ण हैं तो इस कारण कि इनमें सर्वदा तकलीफ़ और त्रासदी के संदर्भों को मनुष्य की न्याय-कामना के सातत्य में रखा गया है, न कि महज ऐसी विषय-वस्तु की तरह जिसके इर्द-गिर्द भाषा का जाल बुना जाता है। ‘सर्वनिषेधवाद’, जिसे हमारे वक्त में व्यापक सहमति प्राप्त है, से हरचंद बचते हुए न वे जीवन के प्रति लगाव और आस्था छोड़ते हैं, न मनुष्य के विवेक और विचारशीलता में अटूट भरोसा। इसका उदाहरण है उनकी बहुचर्चित मार्मिक कहानी ‘बाजार में रामधन’, जिसमें रामधन बाजार में जाकर भी उसके तंत्र और तर्कों का शिकार नहीं होता, अपने बैलों की फरोख्त किये बिना वापस लौट आता है। वे पूरी तरह सचेत हैं कि कहानी सिर्फ़ घटित का एक शुष्क बयान नहीं होती है और उसे एक बहुआयामी अर्थवत्ता हासिल होती है भाषा के भीतर की उस दूसरी भाषा से जो शब्दों की अन्तर्ध्वनियों और उनके बीच का खामोशियों से बनती है। लेकिन वे सचेत रूप से भाषिक करतब और भव्य शिल्प के उस आकर्षक लेकिन आत्मघाती रास्ते पर जाने से इंकार करते हैं जहाँ शिल्प को ही कथ्य बना लिया जाता है और किसी तरह के विचार या विश्लेषण से परहेज बरता जाता है। इन कहानियों में, जो पिछले संग्रहों के बाद उनके रुझानों के और पुष्ट और परिपक्व होने का प्रमाण देती हैं, वाचा का लुत्फ नहीं, तमाम जीवनरोधी स्थितियों का एक परीक्षण और अपने समय के मर्मज्ञ पर्यवेक्षण हैं।
-योगेन्द्र आहूजा
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