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अकथ कहानी प्रेम की

पुरुषोत्तम अग्रवाल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :456
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8067
आईएसबीएन :9788126718337

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अकथ कहानी प्रेम की criticism...

 

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अकथ कहानी प्रेम की यह बहु-प्रतीक्षित पुस्तक सवाल करती है कि चौदहवीं-पन्द्रहवीं सदी के यूरोप को आधुनिकता की ओर बढ़ता हुआ और तमाम गैर-यूरोपीय समाजों को मध्यकालीनता में ही ठिठके हुए बताने का औचित्य क्या है ? जैसी सामाजिक-आर्थिक प्रक्रियाओं को यूरोप में आधुनिकता के उदय का श्रेय दिया जाता है, वैसी ही प्रक्रियाएँ दुनिया के अन्य समाजों में चल रही थीं या नहीं? इन जिज्ञासाओं का समाधान व्यापक अध्ययन और गहरी अन्तर्दृष्टि के आधार पर करते हुए पुरुषोत्तम अग्रवाल बताते हैं कि भारत ही नहीं, चीन और मध्य एशिया में भी जिस समय को ‘मध्यकाल’ कह दिया जाता है, वह इन समाजों की अपनी देशज आधुनिकता के आरम्भ का समय है। इसी क्रम में वे व्यापारियों और दस्तकारों द्वारा रचे गए भक्ति-लोकवृत्त (पब्लिक स्फीयर) की अवधारणा प्रस्तुत करते हैं।

यह पुस्तक सप्रमाण बताती है कि साम्राज्यवाद के जरिए बाकी समाजों में पहुँची यूरोपीय आधुनिकता ने उन समाजों की ‘जड़ता को तोड़नेवाली प्रगतिशील’ भूमिका नहीं, बल्कि देशज आधुनिकता को अवरुद्ध करने की भूमिका निभाई थी। इस अवरोध के कारण, भारत समेत तमाम गैर-यूरोपीय समाजों में जो सांस्कृतिक संवेदना-विच्छेद उत्पन्न हो गया है, उसे दूर किए बिना न तो अतीत को ठीक से समझा जा सकता है, न ही भविष्य की संभावनाओं और चुनौतियों को। देशभाषा स्रोतों से संवाद किए बिना भारतीय इतिहास को समझना असम्भव है। बीसवीं सदी में गढ़ी गई रामानन्द की संस्कृत निर्मिति के इतिहास को मौलिक शोध के आधार पर, जासूसी कहानी की सी रोमांचकता के साथ प्रस्तुत करते हुए, वे बताते हैं कि ‘साजिश’ और ‘बुद्धूपन’ जैसे बीज-शब्दों (!) के सहारे किसी परम्परा को नहीं समझा जा सकता।

अकाट्य प्रमाणों के साथ वे यह भी कहते हैं कि कबीर और अन्य सन्तों को ‘हाशिए की आवाज’ देशज आधुनिकता और भक्ति के लोकवृत्त ने नहीं, औपनिवेशिक आधुनिकता ने बनाया है। कबीर की कविता और उनके समय के बारे में पुरुषोत्तम अग्रवाल की धारणाएँ प्रचलित मान्यताओं से काफी अलग हैं, क्योंकि उन्होंने उन लोगों की आवाज सुनने की कोशिश की है, ‘जो न संस्कृत या फारसी बोलते हैं, न अंग्रेजी’। किताब जोर देकर माँग करती है कि कबीर को प्राथमिक रूप से समाज-सुधारक या धर्मगुरु के रूप में नहीं, कवि के रूप में पढ़ा जाना चाहिए। वे कबीर की काव्य-संवेदना और काव्य-विधियों का मार्मिक विश्लेषण तो करते ही हैं, काव्योक्त और शास्त्रोक्त भक्ति की अभूतपूर्व अवधारणाएँ प्रस्तुत कर, भक्ति-संवेदना के इतिहास पर पुनर्विचार की दिशा भी देते हैं। पुरुषोत्तम याद दिलाते हैं कि ‘नारी-निन्दक’ कबीर अपने राम से प्रेम के क्षणों में अनिवार्यतः नारी का रूप धारण करते हैं।

कवि की इस ‘मजबूरी’ का मार्मिक, विचारोत्तेजक विश्लेषण करते हुए उनका कहना है कि यह आज के पाठक पर है कि वह सम्बन्ध किससे बनाए - नारी-निन्दा के संस्कार से, या नारी रूप धारती कवि-संवेदना से ! कबीर को धर्मगुरु कहने की समीक्षा करते हुए वे ‘धर्मेतर अध्यात्म’ की विचारोत्तेजक धारणा प्रस्तुत करते हैं। ‘अकथ कहानी प्रेम की’ कहनेवाली यह पुस्तक कबीर और भक्ति-संवेदना के अध्ययन की ही नहीं, देशज आधुनिकता के इतिहास-लेखन की भी दिशा निश्चय ही बदल देगी।

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