रहस्य-रोमांच >> चोरों की बारात चोरों की बारातसुरेन्द्र मोहन पाठक
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मैं अकेला सोया और आधी रात को लाश के साथ जागा। परदेश में मैं कत्ल के केस का पेराइम सस्पैक्ट...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मेरी नींद खुली।
मेरी आंखों की पुतलियां मशीनी अंदाज से लगभग अंधेरे कमरे में दायें बायें फिरीं, मस्तिष्क सक्रिय होने लगा और मैं सोचने लगा।
नींद क्यों खुली ?
खामखाह तो न खुली ! कोई वजह बराबर थी !
क्या !
रात की उस घड़ी नींद से तभी जागे यूअर्स टूली को कोई वजह न सूझी।
किस घड़ी ?
मैंने टेबल लैम्प के साथ जुड़ी डिजीटल क्लॉक पर निगाह डाली।
एक बजने को था।
मुझे उम्मीद है कि खाकसार को आप भूले नहीं होंगे। लेकिन अगर इत्तफाकन ऐसा हो गया हो तो मैं आपको अपनी याद फिर दिला देता हूं। बंदे को सुधीर कोहली कहते हैं। बंदा दिल्ली का मशहूर-या बदनाम, बदनाम भी होंगे तो क्या नाम न होगा वाली कैफियत वाला-प्राइवेट डिटेक्टिव है और रिजक का मारा इस वक्त नेपाल में अपने क्लांयट की हुक्मबरदारी कर रहा है। हितौरा नाम के जिस नेपाली नगर में उस वक्त मेरी हाजिरी थी वो भारत के आखिरी पड़ाव रक्सौल और नेपाल की राजधानी काठमाण्डू के लगभग बीच में, काठमाण्डू से कोई सत्तर किलोमीटर के फासले पर स्थित है। मेरा वहां हाजिरी अपने क्लांयट को – सुपुर्दुगी के लिये उसके हुक्म के मुताबिक मैं हितौरा में मौजूद था।
कभी मेरा पसंदीदा स्लोगन होता था कि पीडी के धंधे में मैं अपनी किस्म का एक ही था क्योंकि ये धंधा हिन्दोस्तान में अभी ढंग से जाना पहचाना नहीं जाता था। बहरहाल अब वो बात नहीं रही थी, अब ईंट उखाड़े पीड़ी नुमायां होता था, घर घर गली गली पीडी पाये जाने लगे थे, नतीजतन कम्पीटीशन इतना हो गया था कि रिजक की खातिर मुझे मौजूदा केस कबूल करना पड़ा था कि मुझे अपने शहर से ही नहीं, अपने मुल्क से भी दर बदर भटका रहा था।
मैं उठ कर बैठा, बैड से किनारा करने के इरादे से मैंने पांव नीचे लटकाये तो वो फर्श पर जाकर न टिके। कहीं टिके तो बराबर लेकिन फर्श तक पहुंचने से पहले ही टिके। मैंने दोनों पैरों को हरकत दी तो मुझे तलुवों पर हरारत सी महसूस हुई।
मैं हकबकाया।
मेरे पैर किसी के जिस्म पर टिके थे।
कोई मेरे बैड के करीब फर्श पर लुढ़का पड़ा था और उसका बेहिस जिस्म उस घड़ी मेरे पैरों के नीचे था।
मैंने पैरों पर दबाव डाल कर उसे हिलाने डुलाने की कोशिश की।
कोई हरकत नुमायां न हुई।
कोई बेहोश पड़ा था।
या लाश में तब्दील हो चुका था।
दूसरे खयाल ने मुझे और हकबका दिया।
बेहोश था या बेजान, अब लाख रुपये का सवाल ये था कि वो बंद कमरे में भीतर कैसे पहुंचा ?
क्यों पहुंचा ?
सलामत रहता तो क्या करता ?
क्या ऐसा कुछ करता कि उसकी जगह मैं फर्श पर निर्जीव पड़ा होता ?
क्या बड़ी बात थी !
जब वो मेरी जानकारी में आये बिना भीतर दाखिला पा सकता था तो भीतर कोई भी करतब कर सकता था।
मैंने हाथ बढ़ा कर साइड टेबल पर पड़े लैम्प का स्विच आन किया तो कमरा कदरन रौशन हुआ।
और मुझे उस शख्स की सूरत दिखाई दी।
वो पेट के बल यूं फर्श पर पड़ा था कि उसकी गर्दन घूम गयी थी और एक गाल फर्श पर टिक गया था। उस स्थिति में मैं उसका प्रोफाइल ही देख सकता था जिससे मैं इतना ही जान पाया कि वो एक अधेड़ावस्था की ओर अग्रसर व्यक्ति था और कम से कम नेपाली नहीं था।
कौन था ?
कैसे मुझे अपनी आमद की भनक भी मिलने दिये बिना भीतर दाखिल हो पाया था ?
क्या चाहता था ?
जो चाहता था उसको हासिल कर पाने से पहले मर कैसे गया ?
अब मुझे क्या करना चाहिये था ?
कई क्षण मैंने उस आखिरी सवाल पर गौर किया।
सबसे पहले इसी बात की तसदीक करनी चाहिये थी-फिर मेरी अक्ल ने जवाब दिया – कि वो जिंदा था कि मर गया था !
मैंने झुक कर गर्दन के करीब उसकी शाहरग को छुआ।
कोई हरकत नहीं।
वो शख्स यकीनन मरा पड़ा था।
अब क्या करना चाहिये था ?
लाश को बाल्कनी में ले जाकर बाहर फेंक देना चाहिये था।
उस होटल में मैं ग्राउंड से पांच मंजिल ऊपर था।
नानसेंस !
मैं टेलीफोन के पास पहुंचा, उसका रिसीवर उठा कर कान से लगाया और फ्रंट डैस्क को काल लगाई।
तत्काल उत्तर मिला।
लेकिन ऐन तभी दरवाजे पर आहट हुई।
मैंने फोन वापिस क्रेडल पर रख दिया, टेबल लैम्प का स्विच आफ कर दिया और लपक कर दरवाजे पर पहुंचा। मैं दरवाजे के एक पहलू में दीवार के साथ सट कर खड़ा हो गया।
कमरे में घुप्प अंधेरा होने की जगह मद्धम सी रौशनी तब भी थी जो कि बाल्कनी के दरवाजे और उसके साथ जुड़ी विशाल खिड़की पर पड़े पर्दों में से छन कर बाहर से आ रही थी। उस मद्धम रौशनी में मुझे दरवाजे की मूठ घूमती साफ दिखाई दी।
भीतर दाखिल होने को आमादा कोई दरवाजे के बाहर मौजूद था।
मैं पहलू बदल कर दरवाजे के सामने खड़ा हुआ, मैंने मूठ को थामा और एक झटके से उसे घुमा कर दरवाजा खोला।
बाहर एक हकबकाई सी युवती खड़ी थी।
एक निगाह में मुझे जो दिखाई दिया वो ये था कि वो कोई तीसेक साल की सुथरे नयननक्श, गोरी रंगत और फैशनेबल ढंग से कटे बालों वाली खासी खूबसूरत युवती थी जो सफेद जींस और वी नैक वाली काली स्कीवी पहने थी।
मेरी आंखों की पुतलियां मशीनी अंदाज से लगभग अंधेरे कमरे में दायें बायें फिरीं, मस्तिष्क सक्रिय होने लगा और मैं सोचने लगा।
नींद क्यों खुली ?
खामखाह तो न खुली ! कोई वजह बराबर थी !
क्या !
रात की उस घड़ी नींद से तभी जागे यूअर्स टूली को कोई वजह न सूझी।
किस घड़ी ?
मैंने टेबल लैम्प के साथ जुड़ी डिजीटल क्लॉक पर निगाह डाली।
एक बजने को था।
मुझे उम्मीद है कि खाकसार को आप भूले नहीं होंगे। लेकिन अगर इत्तफाकन ऐसा हो गया हो तो मैं आपको अपनी याद फिर दिला देता हूं। बंदे को सुधीर कोहली कहते हैं। बंदा दिल्ली का मशहूर-या बदनाम, बदनाम भी होंगे तो क्या नाम न होगा वाली कैफियत वाला-प्राइवेट डिटेक्टिव है और रिजक का मारा इस वक्त नेपाल में अपने क्लांयट की हुक्मबरदारी कर रहा है। हितौरा नाम के जिस नेपाली नगर में उस वक्त मेरी हाजिरी थी वो भारत के आखिरी पड़ाव रक्सौल और नेपाल की राजधानी काठमाण्डू के लगभग बीच में, काठमाण्डू से कोई सत्तर किलोमीटर के फासले पर स्थित है। मेरा वहां हाजिरी अपने क्लांयट को – सुपुर्दुगी के लिये उसके हुक्म के मुताबिक मैं हितौरा में मौजूद था।
कभी मेरा पसंदीदा स्लोगन होता था कि पीडी के धंधे में मैं अपनी किस्म का एक ही था क्योंकि ये धंधा हिन्दोस्तान में अभी ढंग से जाना पहचाना नहीं जाता था। बहरहाल अब वो बात नहीं रही थी, अब ईंट उखाड़े पीड़ी नुमायां होता था, घर घर गली गली पीडी पाये जाने लगे थे, नतीजतन कम्पीटीशन इतना हो गया था कि रिजक की खातिर मुझे मौजूदा केस कबूल करना पड़ा था कि मुझे अपने शहर से ही नहीं, अपने मुल्क से भी दर बदर भटका रहा था।
मैं उठ कर बैठा, बैड से किनारा करने के इरादे से मैंने पांव नीचे लटकाये तो वो फर्श पर जाकर न टिके। कहीं टिके तो बराबर लेकिन फर्श तक पहुंचने से पहले ही टिके। मैंने दोनों पैरों को हरकत दी तो मुझे तलुवों पर हरारत सी महसूस हुई।
मैं हकबकाया।
मेरे पैर किसी के जिस्म पर टिके थे।
कोई मेरे बैड के करीब फर्श पर लुढ़का पड़ा था और उसका बेहिस जिस्म उस घड़ी मेरे पैरों के नीचे था।
मैंने पैरों पर दबाव डाल कर उसे हिलाने डुलाने की कोशिश की।
कोई हरकत नुमायां न हुई।
कोई बेहोश पड़ा था।
या लाश में तब्दील हो चुका था।
दूसरे खयाल ने मुझे और हकबका दिया।
बेहोश था या बेजान, अब लाख रुपये का सवाल ये था कि वो बंद कमरे में भीतर कैसे पहुंचा ?
क्यों पहुंचा ?
सलामत रहता तो क्या करता ?
क्या ऐसा कुछ करता कि उसकी जगह मैं फर्श पर निर्जीव पड़ा होता ?
क्या बड़ी बात थी !
जब वो मेरी जानकारी में आये बिना भीतर दाखिला पा सकता था तो भीतर कोई भी करतब कर सकता था।
मैंने हाथ बढ़ा कर साइड टेबल पर पड़े लैम्प का स्विच आन किया तो कमरा कदरन रौशन हुआ।
और मुझे उस शख्स की सूरत दिखाई दी।
वो पेट के बल यूं फर्श पर पड़ा था कि उसकी गर्दन घूम गयी थी और एक गाल फर्श पर टिक गया था। उस स्थिति में मैं उसका प्रोफाइल ही देख सकता था जिससे मैं इतना ही जान पाया कि वो एक अधेड़ावस्था की ओर अग्रसर व्यक्ति था और कम से कम नेपाली नहीं था।
कौन था ?
कैसे मुझे अपनी आमद की भनक भी मिलने दिये बिना भीतर दाखिल हो पाया था ?
क्या चाहता था ?
जो चाहता था उसको हासिल कर पाने से पहले मर कैसे गया ?
अब मुझे क्या करना चाहिये था ?
कई क्षण मैंने उस आखिरी सवाल पर गौर किया।
सबसे पहले इसी बात की तसदीक करनी चाहिये थी-फिर मेरी अक्ल ने जवाब दिया – कि वो जिंदा था कि मर गया था !
मैंने झुक कर गर्दन के करीब उसकी शाहरग को छुआ।
कोई हरकत नहीं।
वो शख्स यकीनन मरा पड़ा था।
अब क्या करना चाहिये था ?
लाश को बाल्कनी में ले जाकर बाहर फेंक देना चाहिये था।
उस होटल में मैं ग्राउंड से पांच मंजिल ऊपर था।
नानसेंस !
मैं टेलीफोन के पास पहुंचा, उसका रिसीवर उठा कर कान से लगाया और फ्रंट डैस्क को काल लगाई।
तत्काल उत्तर मिला।
लेकिन ऐन तभी दरवाजे पर आहट हुई।
मैंने फोन वापिस क्रेडल पर रख दिया, टेबल लैम्प का स्विच आफ कर दिया और लपक कर दरवाजे पर पहुंचा। मैं दरवाजे के एक पहलू में दीवार के साथ सट कर खड़ा हो गया।
कमरे में घुप्प अंधेरा होने की जगह मद्धम सी रौशनी तब भी थी जो कि बाल्कनी के दरवाजे और उसके साथ जुड़ी विशाल खिड़की पर पड़े पर्दों में से छन कर बाहर से आ रही थी। उस मद्धम रौशनी में मुझे दरवाजे की मूठ घूमती साफ दिखाई दी।
भीतर दाखिल होने को आमादा कोई दरवाजे के बाहर मौजूद था।
मैं पहलू बदल कर दरवाजे के सामने खड़ा हुआ, मैंने मूठ को थामा और एक झटके से उसे घुमा कर दरवाजा खोला।
बाहर एक हकबकाई सी युवती खड़ी थी।
एक निगाह में मुझे जो दिखाई दिया वो ये था कि वो कोई तीसेक साल की सुथरे नयननक्श, गोरी रंगत और फैशनेबल ढंग से कटे बालों वाली खासी खूबसूरत युवती थी जो सफेद जींस और वी नैक वाली काली स्कीवी पहने थी।
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