सदाबहार >> गबन गबनप्रेमचंद
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प्रेमचन्द का एक सदाबहार उपन्यास, नये सजिल्द संस्करण में...
‘निर्मला’ के बाद ‘गबन’ प्रेमचंद का दूसरा यथार्थवादी उपन्यास है। कहना चाहिए कि यह उसके विकास की अगली कड़ी है। यह उपन्यास जीवन की असलियत की छानबीन अधिक गहराई से करता है, भ्रम को तोड़ता है। नए रास्ते तलाशने के लिए पाठक को नई प्रेरणा देता है। इस उपन्यास में प्रेमचंद ने पहली नारी समस्या को व्यापक भारतीय परिप्रेक्ष्य में रखकर देखा है और उसे तत्कालीन स्वाधीनता आंदोलन से जोड़कर देखा है। सामाजिक जीवन और कथा-साहित्य के लिए यह एक नई दिशा की ओर संकेत करता है।
1
बरसात के दिन हैं, सावन का महीना। आकाश में सुनहरी घटाएँ छायी हुई हैं। रह-रहकर रिमझिम वर्षा होने लगती है। अभी तीसरा पहर है; पर ऐसा मालूम हो रहा है, शाम हो गयी। आमों के बाग में झूला पड़ा हुआ है। लड़कियाँ भी झूल रही हैं और उनकी माताएँ भी। दो-चार झूल रही हैं, दो-चार झुला रही हैं। कोई कजली गाने लगती है, कोई बारहमासा। इस ऋतु में महिलाओं की बाल-स्मृतियाँ भी जाग उठती हैं। ये फुहारें मानों चिन्ताओं को हृदय से धो डालती हैं। मानों मुरझाये हुए मन को भी हरा कर देती हैं। सबके दिल उमंगों से भरे हुए हैं। धानी साड़ियों ने प्रकृति की हरियाली से नाता जोड़ा है।
इसी समय एक बिसाती आकर झूले के पास खड़ा हो गया। उसे देखते ही झूला बन्द हो गया। छोटी-बड़ी सबों ने आकर घेर लिया। बिसाती ने अपना सन्दूक खोला और चमकती-दमकती चीज़ें निकालकर देखने लगा। कच्चे मोतियों के गहने थे, कच्चे लैस और गोटे, रंगीन मोज़े, खूबसूरत गुड़ियाँ और गुड़ियों के गहने, बच्चों के लट्टू और झुनझुने। किसी ने कोई चीज़ ली, किसी ने कोई चीज़। एक बड़ी-बड़ी आँखोंवाली बालिका ने वह चीज़ पसन्द की, जो उन चमकती हुई चीज़ों में सबसे सुन्दर थी। वह फ़िरोज़ी रंग का एक चन्द्रहार था। माँ से बोली-अम्मा, मैं यह हार लूँगी। माँ ने बिसाती से पूछा- बाबा, यह हार कितने का है ?
बिसाती ने हार को रूमाल से पोंछते हुए कहा- ख़रीद तो बीस आने की है, मालकिन जो चाहें दे दें।
माता ने कहा- यह तो बड़ा महँगा है। चार दिन में इसकी चमक-दमक जाती रहेगी।
बिसाती ने मार्मिक भाव से सिर हिलाकर कहा- बहूजी, चार दिन में तो बिटिया को असली चन्द्रहार मिल जायेगा !
माता के हृदय पर इन सहृदयता से भरे हुए शब्दों ने चोट की। हार ले लिया गया।
बालिका के आनन्द की सीमा न थी। शायद हीरों के हार से भी उसे इतना आनन्द न होता। उसे पहनकर वह सारे गाँव में नाचती फिरी। उसके पास जो बाल-सम्पत्ति थी, उसमें सबसे मूल्यवान्, सबसे प्रिय यही बिल्लौर का हार था। लड़की का नाम जालपा था, माता का मानकी।
इसी समय एक बिसाती आकर झूले के पास खड़ा हो गया। उसे देखते ही झूला बन्द हो गया। छोटी-बड़ी सबों ने आकर घेर लिया। बिसाती ने अपना सन्दूक खोला और चमकती-दमकती चीज़ें निकालकर देखने लगा। कच्चे मोतियों के गहने थे, कच्चे लैस और गोटे, रंगीन मोज़े, खूबसूरत गुड़ियाँ और गुड़ियों के गहने, बच्चों के लट्टू और झुनझुने। किसी ने कोई चीज़ ली, किसी ने कोई चीज़। एक बड़ी-बड़ी आँखोंवाली बालिका ने वह चीज़ पसन्द की, जो उन चमकती हुई चीज़ों में सबसे सुन्दर थी। वह फ़िरोज़ी रंग का एक चन्द्रहार था। माँ से बोली-अम्मा, मैं यह हार लूँगी। माँ ने बिसाती से पूछा- बाबा, यह हार कितने का है ?
बिसाती ने हार को रूमाल से पोंछते हुए कहा- ख़रीद तो बीस आने की है, मालकिन जो चाहें दे दें।
माता ने कहा- यह तो बड़ा महँगा है। चार दिन में इसकी चमक-दमक जाती रहेगी।
बिसाती ने मार्मिक भाव से सिर हिलाकर कहा- बहूजी, चार दिन में तो बिटिया को असली चन्द्रहार मिल जायेगा !
माता के हृदय पर इन सहृदयता से भरे हुए शब्दों ने चोट की। हार ले लिया गया।
बालिका के आनन्द की सीमा न थी। शायद हीरों के हार से भी उसे इतना आनन्द न होता। उसे पहनकर वह सारे गाँव में नाचती फिरी। उसके पास जो बाल-सम्पत्ति थी, उसमें सबसे मूल्यवान्, सबसे प्रिय यही बिल्लौर का हार था। लड़की का नाम जालपा था, माता का मानकी।
2
महाशय दीनदयाल प्रयाग के एक छोटे से गाँव में रहते थे। वह किसान न थे; पर खेती करते थे। वह ज़मीनदार न थे; पर ज़मीनदारी करते थे। थानेदार न थे; पर थानेदारी करते थे। वह थे ज़मींदार के मुख़्तार। गाँव पर उन्हीं की धाक थी। उनके पास चार चपरासी थे, एक घोड़ा, कई गायें-भैंसें। वेतन कुल पाँच रुपये पाते थे, यह कौन जानता है। जालपा उन्हीं की लड़की थी। पहले उसके तीन भाई और थे; पर इस समय वह अकेली थी। उससे कोई पूछता-तेरे भाई क्या हुए, तो वह बड़ी सरलता से कहती-‘बड़ी दूर खेलने गये हैं।’ कहते हैं, मुख़्तार साहब ने एक ग़रीब आदमी को इतना पिटवाया था कि वह मर गया था। उसके तीन वर्ष के अन्दर तीनों लड़के जाते रहे। तब से बेचारे बहुत सँभलकर चलते थे। फूँक-फूँककर पाँव रखते; दूध के जले थे, छाछ भी फूँक-फूँककर पीते थे। माता और पिता के जीवन में और क्या अवलम्ब !
दीनदयाल जब कभी प्रयाग जाते, तो जालपा के लिए कोई-न-कोई आभूषण ज़रूर लाते। उनकी व्यावहारिक बुद्धि में यह विचार ही न आता था कि जालपा किसी और चीज़ से अधिक प्रसन्न हो सकती है। गुड़ियाँ और खिलौने वह व्यर्थ समझते थे; इसलिए जालपा आभूषणों से ही खेलती थी। यही उसके खिलौने थे। वह बिल्लौर का हार, जो उसने बिसाती से लिया था, अब उसका सबसे प्यारा खिलौना था। असली हार की अभिलाषा अभी उसके मन में उदय ही नहीं हुई थी। गाँव में कोई उत्सव होता, या कोई त्योहार पड़ता, तो वह उसी हार को पहनती। कोई दूसरा गहना उसकी आँखों में जँचता ही न था।
एक दिन दीनदयाल लौटे, तो मानकी के लिए एक चन्द्रहार लाये। मानकी को यह साध बहुत दिनों से थी। यह हार पाकर वह मुग्ध हो गयी।
जालपा को अब अपना हार अच्छा न लगता, पिता से बोली- बाबूजी, मुझे भी ऐसा ही हार ला दीजिए।
दीनदयाल ने मुस्कराकर कहा- ला दूँगा, बेटी। ‘‘कब ला दीजियेगा ?’’ ‘‘बहुत जल्द।’’ बाप के शब्दों से जालपा का मन न भरा। उसने माता से जाकर कहा- अम्माजी मुझे भी अपना-सा हार बनवा दो।
माँ- वह तो बहुत रुपयों में बनेगा बेटी। जालपा- तुमने अपने लिए बनवाया है, मेरे लिए क्यों नहीं बनवातीं ? माँ ने मुसकराकर कहा- तेरे लिए तेरी ससुराल से आयेगा। यह हार छः सौ में बना था। इतने रुपये जमा कर लेना, दीनदयाल के लिए आसान न था। ऐसे कौन बड़े ओहदेदार थे। बरसों में कहीं यह हार बनने की नौबत आयी थी। जीवन में फिर कभी इतने रुपये आयेंगे, इसमें उन्हें सन्देह था।
दीनदयाल जब कभी प्रयाग जाते, तो जालपा के लिए कोई-न-कोई आभूषण ज़रूर लाते। उनकी व्यावहारिक बुद्धि में यह विचार ही न आता था कि जालपा किसी और चीज़ से अधिक प्रसन्न हो सकती है। गुड़ियाँ और खिलौने वह व्यर्थ समझते थे; इसलिए जालपा आभूषणों से ही खेलती थी। यही उसके खिलौने थे। वह बिल्लौर का हार, जो उसने बिसाती से लिया था, अब उसका सबसे प्यारा खिलौना था। असली हार की अभिलाषा अभी उसके मन में उदय ही नहीं हुई थी। गाँव में कोई उत्सव होता, या कोई त्योहार पड़ता, तो वह उसी हार को पहनती। कोई दूसरा गहना उसकी आँखों में जँचता ही न था।
एक दिन दीनदयाल लौटे, तो मानकी के लिए एक चन्द्रहार लाये। मानकी को यह साध बहुत दिनों से थी। यह हार पाकर वह मुग्ध हो गयी।
जालपा को अब अपना हार अच्छा न लगता, पिता से बोली- बाबूजी, मुझे भी ऐसा ही हार ला दीजिए।
दीनदयाल ने मुस्कराकर कहा- ला दूँगा, बेटी। ‘‘कब ला दीजियेगा ?’’ ‘‘बहुत जल्द।’’ बाप के शब्दों से जालपा का मन न भरा। उसने माता से जाकर कहा- अम्माजी मुझे भी अपना-सा हार बनवा दो।
माँ- वह तो बहुत रुपयों में बनेगा बेटी। जालपा- तुमने अपने लिए बनवाया है, मेरे लिए क्यों नहीं बनवातीं ? माँ ने मुसकराकर कहा- तेरे लिए तेरी ससुराल से आयेगा। यह हार छः सौ में बना था। इतने रुपये जमा कर लेना, दीनदयाल के लिए आसान न था। ऐसे कौन बड़े ओहदेदार थे। बरसों में कहीं यह हार बनने की नौबत आयी थी। जीवन में फिर कभी इतने रुपये आयेंगे, इसमें उन्हें सन्देह था।
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