सदाबहार >> गोदान गोदानप्रेमचंद
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प्रेमचन्द का एक सदाबहार उपन्यास, जिसका रचनाकाल 1935-36 ई. का है...
प्रेमचंद के उपन्यासों में एक तरफ तो किसान जीवन का विशद चित्रण मिलता है, वहीं दूसरी ओर उनमें पतनशील और उदीयमान सामाजिक शक्तियों की असाधारण पहचान दिखाई देती है। किसान जीवन के साथ इन शक्तियों के द्वंद्व को भी प्रेमचंद ने सफलता से चित्रित किया है। उनके उपन्यासों में ‘गोदान’ अनेक अर्थों में सर्वथा अनूठी रचना है। इसमें मुनाफे और मेहनत की दुनिया के बीच गहराती खाईं को उन्होंने बड़ी बारीकी से चित्रित किया है। वैसे तो उनके दूसरे उपन्यासों में भी इसका चित्रण दिखाई देता है लेकिन ‘गोदान’ में आकर इसका रूप काफी सूक्ष्म और संकेतात्मक हो गया है।
‘गोदान’ में अनेक किसान पात्रों को उभार कर रखने के बदले उनका ध्यान होरी पर केंद्रित रहा है। उसके चरित्र में उन तमाम किसानों की विशेषताएं मौजूद हैं जो जमींदारों और महाजनों को धीमे-धीमे किंतु बिना रुके चलने वाली चक्की में पिसने के लिए अभिशप्त हैं। इस रचना में किसानों का शोषण काफी चालाकी भरा है जिसमें सामंतवाद और पूंजीवाद के बीच समझौता है। इस समझौते को समझने में भोला-भाला किसान असमर्थ है। इस उपन्यास में जमींदारी सत्याग्राही कांग्रेसी का चोला ओढ़े हुए है। बार-बार पढ़ने के बाद भी इस रचना की ताज़गी खत्म नहीं होती। यह इसकी महानता है।
‘गोदान’ में अनेक किसान पात्रों को उभार कर रखने के बदले उनका ध्यान होरी पर केंद्रित रहा है। उसके चरित्र में उन तमाम किसानों की विशेषताएं मौजूद हैं जो जमींदारों और महाजनों को धीमे-धीमे किंतु बिना रुके चलने वाली चक्की में पिसने के लिए अभिशप्त हैं। इस रचना में किसानों का शोषण काफी चालाकी भरा है जिसमें सामंतवाद और पूंजीवाद के बीच समझौता है। इस समझौते को समझने में भोला-भाला किसान असमर्थ है। इस उपन्यास में जमींदारी सत्याग्राही कांग्रेसी का चोला ओढ़े हुए है। बार-बार पढ़ने के बाद भी इस रचना की ताज़गी खत्म नहीं होती। यह इसकी महानता है।
1
होरीराम ने दोनों बैलों को सानी-पानी देकर अपनी स्त्री धनिया से कहा-गोबर को ऊख गोड़ने भेज देना। मैं न जाने कब लौटूँ। जरा मेरी लाठी दे दे।
धनिया के दोनों हाथ गोबर से भरे थे। उपले पाथकर आयी थी। बोली-अरे, कुछ रस-पानी तो कर लो। ऐसी जल्दी क्या है ?
होरी ने अपने झुर्रियों से भरे हुए माथे को सिकोड़कर कहा-तुझे रस-पानी की पड़ी है, मुझे यह चिन्ता है कि अबेर हो गयी तो मालिक से भेंट न होगी। असनान-पूजा करने लगेंगे, तो घंटों बैठे जीत जायगा। ‘इसी से तो कहती हूँ, कुछ जलपान कर लो। और आज न जाओगे तो कौन हरज होगा ! अभी तो परसों गए थे।’
‘तू जो बात नहीं समझती, उसमें टाँग क्यों अड़ाती है भाई ! मेरी लाठी दे दे और अपना काम देख। यह इसी मिलते-जुलते रहने का परसाद है कि अब तक जान बची हुई है, नहीं कही पता न लगता कि किधर गए। गाँव में इतने आदमी तो हैं किस पर बेदखली नहीं आयी, किस पर कुड़की नहीं आयी। जब दूसरे के पाँवों तले अपनी गर्दन दबी हुई है तो उन पाँवों को सहलाने में ही कुशल है।’
धनिया इतनी व्यवहार-कुशल न थी। उसका विचार था कि हमने ज़मींदार के खेत जोते हैं, तो वह अपना लगान ही तो लेगा। उसकी खुशामद क्यों करें, उसके तलवे क्यों सहलाएँ। यद्यपि अपने विवाहित जीवन के इन बीस बरसों में उसे अच्छी तरह अनुभव हो गया था कि चाहे कितनी ही कतर-ब्योंत करो, कितना ही पेट-तन काटो, चाहे एक-एक कौड़ी को दाँत से पकड़ो; मगर लगान बेबाक होना मुश्किल है। फिर भी वह हार न मानती थी, और इस विषय पर स्त्री-पुरुष में आये दिन संग्राम छिड़ा रहता था। उसकी छः सन्तानों में अब केवल तीन जिन्दा हैं, एक लड़का गोबर कोई सोलह साल का, और दो लड़कियाँ सोना और रूपा, बारह और आठ साल की। तीन लड़के बचपन ही में मर गए। उसका मन आज भी कहता था, अगर उनकी दवादारू होती तो वे बच जाते; पर वह एक धेले की दवा भी न मंगवा सकी थी। उसकी भी उम्र अभी क्या थी। छत्तीसवाँ ही साल तो था; पर सारे बाल पक गए थे, चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई थीं। सारी देह ढल गई थी, वह सुन्दर गेहुँआँ रंग सँवला गया था, और आँखों से भी कम सूझने लगा था। पेट की चिन्ता ही के कारण तो। कभी तो जीवन का सुख न मिला। इस चिरस्थायी जीर्णवस्था ने उसके आत्मसम्मान को उदासीनता का रूप दे दिया था। जिस गृहस्थी में पेट की रोटियाँ भी न मिलें, उसके लिए इतनी खुशामद क्यों ? इस परिस्थिति से उसका मन बराबर विद्रोह किया था, और दो-चार घुड़कियाँ खा लेने पर ही उसे यथार्थ का ज्ञान होता था। उसने परास्त होकर होरी की लाठी, मिरजई, जूते, पगड़ी और तमाखू का बटुवा लाकर सामने पटक दिए।
होरी ने उसकी ओर आँखें तेरकर कहाँ-क्या ससुराल जाना है, जो पाँचों पोसाक लायी है ? ससुराल में भी तो कोई जवान साली-सलहज नहीं बैठी है, जिसे जाकर दिखाऊँ।
होरी के गहरे साँवले, पिचके हुए चेहरे पर मुस्कराहट की मृदुता झलक पड़ी। धनिया ने लजाते हुए कहा-ऐसे ही तो बड़े सजीले जवान हो कि साली-सलहजें तुम्हें देखकर रीझ जाएँगी !
होरी ने फटी हुई मिरजई को बड़ी सावधानी से तह करके खाट पर रखते हुए कहा-तो क्या तू समझती है, मैं बूढ़ा हो गया ? अभी तो चालीस भी नहीं हुए। मर्द साठे पर पाठे होते हैं।
‘जाकर सीसे में मुँह देखो। तुम जैसे मर्द साठे पर पाठे नहीं होते। दूध-सी अंजन लगाने तक को तो मिलता नहीं, पाठे होंगे ! तुम्हारी दशा देख-देखकर तो मैं और भी सूखी जाती हूँ कि भगवान् यह बुढ़ापा कैसे कटेगा ? किसके द्वार पर भीख माँगेंगे ?
होरी की वह क्षणिक मृदुता यथार्थ की इस आँच में जैसे झुलस गई। लकड़ी सँभालता हुआ बोला-साठ तक पहुँचने की नौबत न आने पाएगी ! इसके पहले ही चल देंगे।
धनिया ने तिरस्कार किया-अच्छा रहने दो, मत असुभ मुँह से निकालो। तुमसे कोई अच्छी बात भी कहे, तो लगते हो कोसने।
होरी कन्धे पर लाठी रखकर घर से निकला, तो धनिया द्वार पर खड़ी उसे देर तक देखती रही। उसके इन निराशा-भरे शब्दों ने चोट खाए हुए हृदय में आतंकमय कम्पन-सा डाल दिया था। वह जैसे अपने नीरात्व के सम्पूर्ण तप और व्रत से अपने पति को अभय-दान दे रही थी ! उसके अंतःकरण से जैसे आशीर्वादों का ब्यूह-सा निकलकर होरी को अपने अन्दर छिपाए लेता था। विपन्नता के इस अथाह सागर में सोहाग ही वह तृण था, जिसे पकड़े हुए वह सागर को पार कर रही थी। इस असंगत शब्दों ने यथार्थ के निकट होने पर भी, मानो झटका देकर उसके हाथ से वह तिनके सा सहारा छीन लेना चाहा, बल्कि यथार्थ के निकट होने के कारण ही उनमें इतनी वेदना शक्ति आ गई थी। काना कहने से काने को जो दुःख होता है, वह क्या दो आँखों वाले आदमी को हो सकता है ?
होरी कदम बढ़ाए चला जाता था। पगडण्डी के दोनों ओर ऊख के पौधों की लहराती हुई हरियाली देखकर उसने मन में कहा-भगवान् कहीं गौं से बरखा कर दें और डांडी भी सुभीते से रहे, तो एक गाय जरूर लेगा। देशी गायें तो न दूध दें, न उनके बछुवे ही किसी काम के हों। बहुत हुआ तो तेली के कोल्हू में चले। नहीं, वह पछाई गाय लेगा। उसकी खूब सेवा करेगा। कुछ नहीं तो चार-पाँच सेर दूध होगा। गोबर दूध के लिए तरस-तरसकर रह जाता है। इस उमिर में न खाया-पिया, तो फिर कब खाएगा ? साल-भर भी दूध पी ले, तो देखने लायक हो जाय। बछुवे से भी अच्छे बैल निकलेंगे। दो सौ से कम की गोंई न होगी। फिर, गऊ से ही तो द्वार की शोभा है। सबेरे-सबेरे गऊ के दर्शन हो जाएँ तो क्या कहना !
धनिया के दोनों हाथ गोबर से भरे थे। उपले पाथकर आयी थी। बोली-अरे, कुछ रस-पानी तो कर लो। ऐसी जल्दी क्या है ?
होरी ने अपने झुर्रियों से भरे हुए माथे को सिकोड़कर कहा-तुझे रस-पानी की पड़ी है, मुझे यह चिन्ता है कि अबेर हो गयी तो मालिक से भेंट न होगी। असनान-पूजा करने लगेंगे, तो घंटों बैठे जीत जायगा। ‘इसी से तो कहती हूँ, कुछ जलपान कर लो। और आज न जाओगे तो कौन हरज होगा ! अभी तो परसों गए थे।’
‘तू जो बात नहीं समझती, उसमें टाँग क्यों अड़ाती है भाई ! मेरी लाठी दे दे और अपना काम देख। यह इसी मिलते-जुलते रहने का परसाद है कि अब तक जान बची हुई है, नहीं कही पता न लगता कि किधर गए। गाँव में इतने आदमी तो हैं किस पर बेदखली नहीं आयी, किस पर कुड़की नहीं आयी। जब दूसरे के पाँवों तले अपनी गर्दन दबी हुई है तो उन पाँवों को सहलाने में ही कुशल है।’
धनिया इतनी व्यवहार-कुशल न थी। उसका विचार था कि हमने ज़मींदार के खेत जोते हैं, तो वह अपना लगान ही तो लेगा। उसकी खुशामद क्यों करें, उसके तलवे क्यों सहलाएँ। यद्यपि अपने विवाहित जीवन के इन बीस बरसों में उसे अच्छी तरह अनुभव हो गया था कि चाहे कितनी ही कतर-ब्योंत करो, कितना ही पेट-तन काटो, चाहे एक-एक कौड़ी को दाँत से पकड़ो; मगर लगान बेबाक होना मुश्किल है। फिर भी वह हार न मानती थी, और इस विषय पर स्त्री-पुरुष में आये दिन संग्राम छिड़ा रहता था। उसकी छः सन्तानों में अब केवल तीन जिन्दा हैं, एक लड़का गोबर कोई सोलह साल का, और दो लड़कियाँ सोना और रूपा, बारह और आठ साल की। तीन लड़के बचपन ही में मर गए। उसका मन आज भी कहता था, अगर उनकी दवादारू होती तो वे बच जाते; पर वह एक धेले की दवा भी न मंगवा सकी थी। उसकी भी उम्र अभी क्या थी। छत्तीसवाँ ही साल तो था; पर सारे बाल पक गए थे, चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई थीं। सारी देह ढल गई थी, वह सुन्दर गेहुँआँ रंग सँवला गया था, और आँखों से भी कम सूझने लगा था। पेट की चिन्ता ही के कारण तो। कभी तो जीवन का सुख न मिला। इस चिरस्थायी जीर्णवस्था ने उसके आत्मसम्मान को उदासीनता का रूप दे दिया था। जिस गृहस्थी में पेट की रोटियाँ भी न मिलें, उसके लिए इतनी खुशामद क्यों ? इस परिस्थिति से उसका मन बराबर विद्रोह किया था, और दो-चार घुड़कियाँ खा लेने पर ही उसे यथार्थ का ज्ञान होता था। उसने परास्त होकर होरी की लाठी, मिरजई, जूते, पगड़ी और तमाखू का बटुवा लाकर सामने पटक दिए।
होरी ने उसकी ओर आँखें तेरकर कहाँ-क्या ससुराल जाना है, जो पाँचों पोसाक लायी है ? ससुराल में भी तो कोई जवान साली-सलहज नहीं बैठी है, जिसे जाकर दिखाऊँ।
होरी के गहरे साँवले, पिचके हुए चेहरे पर मुस्कराहट की मृदुता झलक पड़ी। धनिया ने लजाते हुए कहा-ऐसे ही तो बड़े सजीले जवान हो कि साली-सलहजें तुम्हें देखकर रीझ जाएँगी !
होरी ने फटी हुई मिरजई को बड़ी सावधानी से तह करके खाट पर रखते हुए कहा-तो क्या तू समझती है, मैं बूढ़ा हो गया ? अभी तो चालीस भी नहीं हुए। मर्द साठे पर पाठे होते हैं।
‘जाकर सीसे में मुँह देखो। तुम जैसे मर्द साठे पर पाठे नहीं होते। दूध-सी अंजन लगाने तक को तो मिलता नहीं, पाठे होंगे ! तुम्हारी दशा देख-देखकर तो मैं और भी सूखी जाती हूँ कि भगवान् यह बुढ़ापा कैसे कटेगा ? किसके द्वार पर भीख माँगेंगे ?
होरी की वह क्षणिक मृदुता यथार्थ की इस आँच में जैसे झुलस गई। लकड़ी सँभालता हुआ बोला-साठ तक पहुँचने की नौबत न आने पाएगी ! इसके पहले ही चल देंगे।
धनिया ने तिरस्कार किया-अच्छा रहने दो, मत असुभ मुँह से निकालो। तुमसे कोई अच्छी बात भी कहे, तो लगते हो कोसने।
होरी कन्धे पर लाठी रखकर घर से निकला, तो धनिया द्वार पर खड़ी उसे देर तक देखती रही। उसके इन निराशा-भरे शब्दों ने चोट खाए हुए हृदय में आतंकमय कम्पन-सा डाल दिया था। वह जैसे अपने नीरात्व के सम्पूर्ण तप और व्रत से अपने पति को अभय-दान दे रही थी ! उसके अंतःकरण से जैसे आशीर्वादों का ब्यूह-सा निकलकर होरी को अपने अन्दर छिपाए लेता था। विपन्नता के इस अथाह सागर में सोहाग ही वह तृण था, जिसे पकड़े हुए वह सागर को पार कर रही थी। इस असंगत शब्दों ने यथार्थ के निकट होने पर भी, मानो झटका देकर उसके हाथ से वह तिनके सा सहारा छीन लेना चाहा, बल्कि यथार्थ के निकट होने के कारण ही उनमें इतनी वेदना शक्ति आ गई थी। काना कहने से काने को जो दुःख होता है, वह क्या दो आँखों वाले आदमी को हो सकता है ?
होरी कदम बढ़ाए चला जाता था। पगडण्डी के दोनों ओर ऊख के पौधों की लहराती हुई हरियाली देखकर उसने मन में कहा-भगवान् कहीं गौं से बरखा कर दें और डांडी भी सुभीते से रहे, तो एक गाय जरूर लेगा। देशी गायें तो न दूध दें, न उनके बछुवे ही किसी काम के हों। बहुत हुआ तो तेली के कोल्हू में चले। नहीं, वह पछाई गाय लेगा। उसकी खूब सेवा करेगा। कुछ नहीं तो चार-पाँच सेर दूध होगा। गोबर दूध के लिए तरस-तरसकर रह जाता है। इस उमिर में न खाया-पिया, तो फिर कब खाएगा ? साल-भर भी दूध पी ले, तो देखने लायक हो जाय। बछुवे से भी अच्छे बैल निकलेंगे। दो सौ से कम की गोंई न होगी। फिर, गऊ से ही तो द्वार की शोभा है। सबेरे-सबेरे गऊ के दर्शन हो जाएँ तो क्या कहना !
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