उपन्यास >> मत्स्यगन्धा मत्स्यगन्धानरेन्द्र कोहली
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नरेन्द्र कोहली का नवीनतम उपन्यास
Matsyagandha - Narendra Kohli
सत्यवती के मुँह से जैसे अनायास ही निकल गया, ‘‘मैं निषाद-कन्या ही हूँ तपस्वी! मत्स्य-गन्धा हूँ। मेरे शरीर से मत्स्य की गन्ध आती है।’’
तपस्वी खुलकर हँस पड़ा और उसने जैसे स्वतःचालित ढंग से सत्यवती की बाँह पकड़ कर उसे उठाया, ‘‘मछलियों के बीच रह कर, मत्स्य-गन्धा हो गयी हो; पर हो तुम काम-ध्वज की मीन! मेरे साथ आओ। इस कमल-वन में विहार करो और तुम पद्म-गन्धा हो जाओगी।’’
दोनों द्वीप पर आये और बिना किसी योजना के अनायास ही एक दूसरे की इच्छाओं को समझते चले गये। तपस्वी इस समय तनिक भी आत्मलीन नहीं था। उसका रोम-रोम सत्यवती की ओर उन्मुख ही नहीं था, लोलुप याचक के समान एकाग्र हुआ उसकी ओर निहार रहा था... सत्यवती को लग रहा था, जैसे वह मत्स्य-गन्धा नहीं, मत्स्य-कन्या है। यह सरोवर ही उसका आवास है। चारों ओर खिले कमल उसके सहचर हैं।... वे दोनों दो तितलियों के समान आगे-पीछे उड़ रहे थे, जो कभी किसी फूल की पंखुड़ी पर जा बैठती, कभी किसी अधखिली कली पर...
उन्हें पता ही नहीं चला कि वे कब, कहाँ और कितनी देर तैरे। कितनी देर फूलों में रहे। कितने कमल उन्होंने तोड़े। कितने कमलों से तपस्वी ने सत्यवती का श्रृंगार किया।... सत्यवती के केशों में कमल के फूल गुँथे थे, उसके गले में कमलों के हार झूम रहे थे, इतने कि उसका वक्ष कमलमय हो गया था। उसकी कलाइयों में कमल-वलय थे, उसकी कटि में कमल की करधनी थी, उसके पैरों में कमल की पैंजनियाँ थी और वह स्वयं कमल-सरोवर बनी हुई तपस्वी की भुजाओं की कगारों में इठला रही थी। तपस्वी उसे बार-बार प्यार कर रहा था, ‘‘मेरी पद्म-गन्धा, मेरी पद्म-गन्धा...।’’
तपस्वी खुलकर हँस पड़ा और उसने जैसे स्वतःचालित ढंग से सत्यवती की बाँह पकड़ कर उसे उठाया, ‘‘मछलियों के बीच रह कर, मत्स्य-गन्धा हो गयी हो; पर हो तुम काम-ध्वज की मीन! मेरे साथ आओ। इस कमल-वन में विहार करो और तुम पद्म-गन्धा हो जाओगी।’’
दोनों द्वीप पर आये और बिना किसी योजना के अनायास ही एक दूसरे की इच्छाओं को समझते चले गये। तपस्वी इस समय तनिक भी आत्मलीन नहीं था। उसका रोम-रोम सत्यवती की ओर उन्मुख ही नहीं था, लोलुप याचक के समान एकाग्र हुआ उसकी ओर निहार रहा था... सत्यवती को लग रहा था, जैसे वह मत्स्य-गन्धा नहीं, मत्स्य-कन्या है। यह सरोवर ही उसका आवास है। चारों ओर खिले कमल उसके सहचर हैं।... वे दोनों दो तितलियों के समान आगे-पीछे उड़ रहे थे, जो कभी किसी फूल की पंखुड़ी पर जा बैठती, कभी किसी अधखिली कली पर...
उन्हें पता ही नहीं चला कि वे कब, कहाँ और कितनी देर तैरे। कितनी देर फूलों में रहे। कितने कमल उन्होंने तोड़े। कितने कमलों से तपस्वी ने सत्यवती का श्रृंगार किया।... सत्यवती के केशों में कमल के फूल गुँथे थे, उसके गले में कमलों के हार झूम रहे थे, इतने कि उसका वक्ष कमलमय हो गया था। उसकी कलाइयों में कमल-वलय थे, उसकी कटि में कमल की करधनी थी, उसके पैरों में कमल की पैंजनियाँ थी और वह स्वयं कमल-सरोवर बनी हुई तपस्वी की भुजाओं की कगारों में इठला रही थी। तपस्वी उसे बार-बार प्यार कर रहा था, ‘‘मेरी पद्म-गन्धा, मेरी पद्म-गन्धा...।’’
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