जीवनी/आत्मकथा >> एक जिन्दगी काफी नहीं एक जिन्दगी काफी नहींकुलदीप नैयर
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अंग्रेजी में छपी कुलदीप नैयर की आत्मकथा ‘वियांड द लाइंस’ का हिन्दी अनुवाद
कुलदीप नैयर की आत्मकथा ‘वियांड द लाइंस’ अंग्रेजी में छपी उसके फौरन बाद हिंदी में राजकमल प्रकाशन से उसका हिंदी अनुवाद-एक जिंदगी काफी नहीं, आजादी से आज तक के भारत की अंदरुनी कहानी के नाम से आया है। कुलदीप नैयर भारत के सबसे प्रतिष्ठित पत्रकारों में से एक हैं। नैयर ने कैरियर की शुरुआत एक उर्दू दैनिक से की लेकिन उनको प्रतिष्ठा प्रेस इंफोर्मेशन ब्यूरो की सरकारी नौकरी के बाद ही मिली। वो उस वक्त के गृह मंत्री गोविन्द वल्लभ पंत के सूचना अधिकारी बने फिर लाल बहादुर शास्त्री के साथ जुडे। अपनी आत्मकथा में नैयर ने इस बात को माना है कि न्यूज एजेंसी यूएनआई ज्वाइन करने के बाद भी वो अनौपचारिक रुप से लाल बहादुर शास्त्री को उनकी छवि मजबूत करने के बारे में सलाह देते रहते थे। जवाहर लाल नेहरू की मौत के बाद जब पूरा देश शोक में डूबा था उसी वक्त कुलदीप नैयर ने यूएनआई की टिकर में एक खबर लगाई-पूर्व वित्त मंत्री मोरार जी देसाई प्रधानमंत्री पद की दौड में उतरने वाले पहले शख्स हैं। बगैर पोर्टफोलियो के मंत्री लाल बहादुर शास्त्री भी प्रधानमंत्री पद के दूसरे उम्मीदवार माने जा रहे हैं, हालांकि वो अनिच्छुक बताए जा रहे हैं। नैयर के मुताबिक उनकी इस खबर से मोरारजी देसाई को काफी नुकसान हुआ और वो उस वक्त प्रधानमंत्री नहीं बन पाए। नैयर का दावा है कि वीपी सिंह के जनता दल के नेता के चुनाव के वक्त जो हाई वोल्टेज ट्रामा हुआ उसकी स्क्रिप्ट उन्होंने लिखी थी। बाद में वी पी सिंह ने उन्हें ब्रिटेन का उच्चायुक्त नियुक्त कर इसका इनाम भी दिया। कुलदीप नैयर की आत्मकथा इस मायने में थोडी अहम है कि उसमें आजाद भारत की राजनीति का इतिहास है थोडा प्रामाणिक लेकिन बहुधा सुनी सुनाई बातों पर। कुलदीप नैयर स्कूप के लिए जाने जाते रहे हैं लेकिन उनके स्कूप ज्यादातर राजनीतिक गॉसिप ही रहे हैं। इन तमाम बातों के बाद भी उनकी आत्मकथा से आजादी के बाद के दौर की राजनीति के संकेत तो मिलते ही हैं।
यह किताब उस दिन से शुरु होती है जब 1940 में "पाकिस्तान प्रस्ताव" पास किया गया था। तब मैं स्कूल का छात्र मात्र था, लेकिन लाहौर के उस अधिवेशन में मौजूद था जहाँ यह ऐतिहासिक घटना घटी थी। यह किताब इस तरह की बहुत-सी घटनाओं की अन्दरूनी जानकारी दे सकती है, जो किसी और तरीके से सामने नहीं आ सकता है - बँटवारे से लेकर मनमोहन सिंह की सरकार तक।
अगर मुझे जिन्दगी का कोई अहम मोड़ चुनना हो तो मैं इमरजेंसी के दौरान अपनी हिरासत को एक मोड़ के रूप में देखना चाहूँगा, जब मेरी निर्दोषता को हमले का शिकार होना पड़ा था। यही वह समय था जब मुझे व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और मानवाधिकारों के हनन का अहसास होना शुरु हुआ। साथ ही, व्यवस्था में मेरी आस्था को भी गहरा झटका लगा था।
पाकिस्तान और बांग्लादेश में बहुत-से लोगों के साथ मेरे व्यक्तिगत सम्बन्ध हैं और मुझे इन सम्बन्धों पर गर्व है। मेरा विश्वास है कि किसी दिन दक्षिण एशिया के सभी देश यूरोपीय संघ की तरह अपना एक साझा संघ बनाएँगे। इससे उनकी अलग अलग पहचान पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
मैं पूरी ईमानदारी से कह सकता हूँ कि नाकामयाबियाँ मुझे उस रास्ते पर चलने से रोक नहीं पाई हैं जिसे मैं सही मानता रहा हूँ और लड़ने लायक मानता रहा हूँ।
जिन्दगी एक लगातार बहती अन्तहीन नदी की तरह है, बाधाओं का सामना करती हुई, उन्हें परे धकेलती हुई, और कभी-कभी ऐसा न कर पाते हुए भी।
यह बता पाना बस से बाहर है कि पिछले आठ दशकों से कौन सी चीज आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती रही है- नियति या संकल्प? या ये दोनों ही? आखिर तमाशा जारी रहना चाहिए। मैं इस मामले में महान उर्दू शायर ग़ालिब से पूरी तरह सहमत हूँ - शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक।
-भूमिका से
यह किताब उस दिन से शुरु होती है जब 1940 में "पाकिस्तान प्रस्ताव" पास किया गया था। तब मैं स्कूल का छात्र मात्र था, लेकिन लाहौर के उस अधिवेशन में मौजूद था जहाँ यह ऐतिहासिक घटना घटी थी। यह किताब इस तरह की बहुत-सी घटनाओं की अन्दरूनी जानकारी दे सकती है, जो किसी और तरीके से सामने नहीं आ सकता है - बँटवारे से लेकर मनमोहन सिंह की सरकार तक।
अगर मुझे जिन्दगी का कोई अहम मोड़ चुनना हो तो मैं इमरजेंसी के दौरान अपनी हिरासत को एक मोड़ के रूप में देखना चाहूँगा, जब मेरी निर्दोषता को हमले का शिकार होना पड़ा था। यही वह समय था जब मुझे व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और मानवाधिकारों के हनन का अहसास होना शुरु हुआ। साथ ही, व्यवस्था में मेरी आस्था को भी गहरा झटका लगा था।
पाकिस्तान और बांग्लादेश में बहुत-से लोगों के साथ मेरे व्यक्तिगत सम्बन्ध हैं और मुझे इन सम्बन्धों पर गर्व है। मेरा विश्वास है कि किसी दिन दक्षिण एशिया के सभी देश यूरोपीय संघ की तरह अपना एक साझा संघ बनाएँगे। इससे उनकी अलग अलग पहचान पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
मैं पूरी ईमानदारी से कह सकता हूँ कि नाकामयाबियाँ मुझे उस रास्ते पर चलने से रोक नहीं पाई हैं जिसे मैं सही मानता रहा हूँ और लड़ने लायक मानता रहा हूँ।
जिन्दगी एक लगातार बहती अन्तहीन नदी की तरह है, बाधाओं का सामना करती हुई, उन्हें परे धकेलती हुई, और कभी-कभी ऐसा न कर पाते हुए भी।
यह बता पाना बस से बाहर है कि पिछले आठ दशकों से कौन सी चीज आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती रही है- नियति या संकल्प? या ये दोनों ही? आखिर तमाशा जारी रहना चाहिए। मैं इस मामले में महान उर्दू शायर ग़ालिब से पूरी तरह सहमत हूँ - शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक।
-भूमिका से
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