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श्रंगार - प्रेम >> निमन्त्रण निमन्त्रणतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...
उस वक़्त, मारे अचरज के तुलसी की आँखें आसमान पर जा चढ़ेंगी और वह अपने माथे पर हत्थड़ मार कर कहेगी-'अरे, ये तो मंसूर भाई हैं।'
वैसे छत पर खड़े हों, तो वहाँ से तुलसी का घर साफ़ नज़र आता है! लेकिन, तुलसी ने उस तरफ़ देखा ही नहीं।
मैंने ही कहा, 'देख, देख, वो रही तेरी माँ...इधर ही देख रही है।'
'देखती है, तो देखने दो। उनकी बेटी सुखी तो है।'
'मामा के यहाँ इतनी तकलीफ़ सही, उसके बाद भी सुखी है?'
'प्यार मिल जाये, तो और किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं पड़ती।
'यह तू क्या कह रही है, तुलसी? तू इतनी भली कब से हो गयी?'
'क्यों, बुरी कब थी?'
'भाई को इतना प्यार करती है, वही भाई कभी रूमू के प्रेम में गिरफ़्तार थे।'
'तेरे भाई तो निहायत भलेमानस हैं। ऐसा भलामानस मैंने अपनी ज़िन्दगी में बहुत कम देखा है।'
मैंने रेलिंग पर टिक कर देखा, 'तू मुझे बेहद प्यारी लगने लगी है, तुलसी! सुन, तू भाई को ज़िन्दगी भर यूँ ही प्यार करती रहना।'
'बता, अपनी बता! तेरी क्या ख़बर है? किसी से प्यार-व्यार...?'
होटों पर ईषत रहस्यभरी मुस्कान खिला कर, गाने में अनाड़ी होने के बावजूद, मैं गा उठी, 'धीरे! धीरे! धीरे बहो! ओ जी उत्ताल हवा!'
गाना रोक कर मैंने तुलसी की ठुड्डी हिला कर कहा, 'उसके साथ...कल मेरी होगी मुलाक़ात! समझीं, सोनाभाभी!'
तुलसी छत पर टहलती रही। अपनी आँखें क्या जबरन हटायी रखी जा सकती हैं? मेरी निगाहें तुलसी के घर की तरफ़ जा पड़ी। उसके घर का आँगन, यहाँ से साफ़ नज़र आ रहा था। उसके घर के आँगन के बीचों बीच, तुलसी का पौधा! अचानक मेरी निग़ाह, तुलसी पर जा पड़ी। तुलसी मुझसे नज़र बचा कर, अपने घर के आँगन के उस पौधे को निरखती हुई, रो रही थी।
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