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श्रंगार - प्रेम >> निमन्त्रण

निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :119
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...



संन्यासी मामा, श्यामली में टिन की छादन वाले छोटे-से एकमंजिला घर में रहते थे। भाई और तुलसी, उनके यहाँ ही रहने लगे हैं। भाई नौकरी खोज रहे हैं। एम. ए. का इम्तहान सामने हैं, लेकिन, सुना है, वे इम्तहान नहीं देंगे। यह ख़बर कोई अब्बू को भी दे गया। घर में अब्बू, माँ के सामने खूब-खूब गुस्सा करते रहे।

'तुम्हारे भाई ने उसे अपने घर में पनाह क्यों दी? हिन्दू लड़की से उसने ब्याह किया, सुना है, हिन्दू ही रहेगी वह लड़की समाज-बिरादरी में, मैं क्या मुँह दिखाऊँगा?'

सुबह यूनिवर्सिटी जाते हुए रास्ते में अब्बू ने दरयाफ़्त किया, 'तुम लोगों की क्लास-क्लास हो रही है?'

'हाँ, हो रही है।'

'तुम मेरी एकमात्र आसरा-भरोसा हो, बिटिया! तुम मेरा मान रखना। बेटा तो चौपट हो गया। तुम ऐसा कोई काम मत करना, जिसे लोग बुरा कहें।'

नाश्ते की टेबिल से उठ कर, अब्बू मेरे क़रीब आये और मेरा माथा अपने सीने में दुबका कर, मेरी पीठ पर हाथ फेरने लगे।

'खूब भली बनी रहना, समझीं? सीधे यूनिवर्सिटी जाया करो, क्लास ख़त्म करके, बिना दाएँ-बाएँ देखे, सीधे घर लौटा करो। कहीं और मत जाना, फ़िजूल कहीं अड्डेबाज़ी मत करना। लक्ष्मी बेटी बन कर रहना। फरहाद ने तो मेरे मुँह पर कालिक पोत दी। तुम पढ़-लिख कर, महान बनना। मैं कहूँगा, मेरी एक ही सन्तान है। वह मेरी बेटी भी है और बेटा भी है।'

मैं दो-दो किताब-कॉपियाँ अपनी छाती में दुबकाये खड़ी थी। अब्बू का लाड़-दुलार पा कर, मेरी आँखें भर आयीं। असल में, लाड़-प्यार की बेहद तरसी हुई...बेहद कंगाल हूँ। कोई अगर ज़रा प्यार से मुझसे बोले, मेरी आँखें नम हो उठती हैं! जिसके हल्के-से स्नेह का स्पर्श पा कर, मैं आवेग से काँपने लगती हूँ।

अब्बू के हाथ, अपनी दोनों हथेलियों में कस कर, मैं मन-ही-मन बुदबुदा उठी, 'तुम मुझे प्यार करते हो, यह बात मैं कभी समझ नहीं पायी, अब्बू। मैं सोचती थी, तुम बेहद निष्ठुर इन्सान हो। भाई को तुमने लाड़-प्यार और प्रश्रय दे कर बड़ा किया, क्योंकि वे तुम्हारे खानदान के चिराग़ थे। हम तो पराये घर चली जातीं, इसलिए तुमने सोचा कि इन लड़कियों को लाड़-प्यार दे कर क्या फ़ायदा? लेकिन, सिर्फ़ मैं ही क्यों, भाई, सेतु, सेवा, सभी तुम्हारी सन्तान हैं। पता नहीं, क्यों तो हमारे बीच इतनी दूरी आ गयी है।'

अब्बू ने लम्बी उसाँस छोड़ी।

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