श्रंगार - प्रेम >> निमन्त्रण निमन्त्रणतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...
हमारे घर में कुसुम नामक एक तेरह वर्षीया लड़की काम करती है। वह लड़की पाँचों वक़्त नमाज़ पढ़ती है। अज़ान सुनते ही, वह सारा कामकाज़ छोड़ कर, नल की तरफ़ दौड़ जाती है। वजू करती है। बावर्चीख़ाने के एक कोने में बैठ कर, बड़ी तन्मय मुद्रा में नमाज़ पढ़ती है।
मैं उससे अकसर सवाल करती हूँ, 'यह जो तू इतना-इतना नमाज़ पढ़ती है, सुरा वगैरह जानती है?'
कुसुम भौंहें सिकोड़ कर मेरी तरफ़ देखते हुए जवाब देती है, 'जानती हूँ, क्या मतलब? ग़रीब हूँ, तो का भया, सुरा नाहीं जानूँगी? यह कईसी बात करती हैं?'
एक दिन किसी शाम के वक़्त, मैंने उससे सवाल किया, 'अच्छा, कुसुम, यह जो तू पाँचों वक़्त नमाज़ पढ़ती है यानी यह जो तू ध्यान में बैठती है, क्यों?'
कुसुम मेरे कमरे में, फर्श पर पाँव पसार कर बैठ गयी और उसने तमक कर कहा, 'ए हो, आपा, आप तो ख़ाली-खूली दुनियाबी लिखाई-पढ़ाई ही करत रहीं। आख़िरत के लिए तो कुछ भी साथ नाहीं लिया।
'आख़िरत के लिए क्या लेना पड़ता है? नमाज़?'
कुसुम के होटों पर हँसी खेल गयी, 'क्यों? बहिश्त!'
मैंने अगला सवाल किया, 'तू बहिश्त आखिर क्यों जाना चाहती है?'
'वहाँ मछली का कलेजा खावे को देता है।'
मैं मारे विस्मय के तड़ाक से उठ खड़ी हुई और ज़ोर का ठहाका लगा कर मैंने पूछा, 'मछली का कलेजा? अरे, मछली का कलेजा तो हातिरपुल बाज़ार में ही मिलता है। अगर तू कहे, तो अभी ख़रीद कर ला सकती हूँ! इसी वक़्त!'
कुसुम ज़रा भी विचलित नहीं हुई।
उसने कहा, 'दुनियाबी मछली का कलेजा तो तीता होत है, बहिश्त में मछली का जो कलेजा देत है, वह तो मिट्ठा होवेगा।'
कुसुम अपने दिल की सारी बात मुझसे कहती-सुनती रहती है।
मैंने भी एक उदास दोपहरी के वक़्त, कुसुम को आवाज़ दे कर पूछा, 'कुसुम, तू प्रेम समझती है? प्रेम?'
कुसुम लाज से लाल हो उठी, 'समझती हूँ।'
बिस्तर पर लेटे-लेटे, अपने एक पाँव पर दूसरा पाँव नचाते हुए बताया, 'मैं एक लड़के के प्यार में पड़ गयी हूँ।'
कुसुम ने फर्श पर बैठे-बैठे, मेरे पैरों की उँगलियाँ चिटखाते हुए, उसी तरह लजाई-सी मुद्रा में कहा, 'यूसुफ़ भी जुलेखा बीवी से प्रेम करता था।
मैंने लम्बी-सी उसांस फेंक कर कहा, 'लेकिन, कुसुम, उस लड़के से मेरी कभी भेंट नहीं होगी।'
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