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श्रंगार - प्रेम >> निमन्त्रण

निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :119
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


उस वक़्त मैं किसी से भी बात करने की मनःस्थिति में नहीं थी। तुलसी से भी नहीं! मेरा मन हुआ, कमरे के खिड़की-दरवाजे
बन्द करके, मैं बिस्तर पर लेटी रहूँ...बस, लेटी ही रहूँ!

मैंने तुलसी से कहा, 'अब, तू जा, मेरी तबीयत ठीक नहीं लग रही है। मैं ज़रा देर सोना चाहती हूँ।'

तुलसी चली गयी।

मेरे सीने के अन्दर प्रचण्ड हाहाकार होता रहा।

सारी रात मेरी आँखों में नींद नहीं उतरी।

मैं निरी बुद्ध लड़की! पिछले छह महीनों से ग़लत पते पर खत लिखती रही और यह उम्मीद लगाये रही कि मेरे ख़त का जवाब आयेगा। मैं तो इसी उधेड़बुन में उलझी रही कि मंसूर इतना निष्ठुर क्यों है। पिछले छह महीनों में, लगभग पचास ख़तों के बदले में, एकाध ख़त ही सही, उसने लिखा क्यों नहीं? मंसूर एक भी ख़त न लिखे, इतना तो पत्थर दिल वह नहीं है, बेकसूर मंसूर को कसूरवार ठहराना मेरी तरफ़ से बिल्कुल भी उचित नहीं हुआ।

मेरे घर में इन दिनों कैसे-कैसे तो काण्ड घट रहे हैं! इसी दौरान अचानक एक रात भाई घर नहीं लौटे। आजकल वे अकसर घर नहीं लौटते। शायद किसी यार-दोस्त के यहाँ रुक जाते हैं। उनके न आने से अब हम लोग भी परेशान नहीं होते।

लेकिन तुलसी के माँ-बाप चिन्तित हो उठे।

उसके माँ-बाप रात को क़रीब साढ़े बारह बजे मेरे घर का दरवाजा खटखटाया।

'फरहाद कहाँ है?' उसने पूछा।

'फरहाद? होगा कहीं!' हम सबने बारी-बारी से जवाब दिया।

'तुलसी सुबह-सवेरे ही, छोटे काका के यहाँ जाने को कहकर घर से निकली, अभी तक घर नहीं लौटी। खोजने गये, तो पता लगा, छोटे काका के घर ही नहीं गयी।'

मेरे अब्बू-माँ तुलसी के लिए परेशान हो उठे, लेकिन फ़रहाद को क्यों खोजा जा रहा है, इसकी वजह उनकी समझ में नहीं आयी।

पूछने पर उन लोगों ने कहा, 'परसों फ़रहाद और तुलसी को एक ही रिक्शे में, श्यामली की ओर जाते हुए देखा गया था।'

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