आधुनिक >> नागराज की दुनिया नागराज की दुनियाआर. के. नारायण
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‘नागराज की दुनिया’ भी मालगुडी की ही पृष्ठभूमि में रचा एक अनूठा उपन्यास है।...
Nagraj Ki Duniya - A Hindi Book - by R. K. Narayan
आर. के. नारायण शायद ऐसे पहले भारतीय अंग्रेजी लेखक हैं जिनके लेखन ने न केवल भारतीय बल्कि विदेशी पाठकों में भी अपनी जगह बनाई। उन्होंने अपने उपन्यासों और कहानियों के लिए न केवल रोचक विषयों को चुना, बल्कि उन्हें अपने चुटीले संवादों से इतना चटपटा भी बना दिया कि जिसने भी उन्हें एक बार पढ़ा उसमें नारायण की रचनाओं को पढ़ने की प्यास और बढ़ गई। नारायण ने अपनी कल्पनाओं में मालगुड़ी नाम का एक शहर बसाया और फिर उसके इर्द-गिर्द अनेकों कहानियां बुन डालीं।
‘नागराज की दुनिया’ भी मालगुडी की ही पृष्ठभूमि में रचा एक अनूठा उपन्यास है। नागराज का अपनी पत्नी के साथ खूब मज़े से जीवन कट रहा है। उनके पास रहने को एक बड़ा-सा घर है और करने को सिर्फ मनपसंद काम। बरामदे में बैठकर सड़क की रौनक देखना, पत्नी के साथ गप-शप करते हुए कॉफी पीना और अपनी किताब की योजना बनाना नागराज की दिनचर्या के हिस्से हैं पर उसकी शांत ज़िदगी में तब उथल-पुथल मच जाती है जब उसका भतीजा टिम वहाँ रहने आ जाता है...
सुख-चैन का जीवन बिता रहे नागराज के साथ उसका भतीजा आकर रहने लगता है और फिर शुरू होता है उसके जीवन में उठा-पटक का सिलसिला। भतीजे टिम की रहस्यमयी हरकतें नागराज और उसकी पत्नी की समझ से परे हैं। इसी कड़ी में एक-एक कर अनेक दिलचस्प घटनाएं घटती हैं जो पाठकों को दिल खोलकर हंसने पर मजबूर कर देती हैं और उपन्यास को अपने चरम तक पहुंचाती है।
‘नागराज की दुनिया’ भी मालगुडी की ही पृष्ठभूमि में रचा एक अनूठा उपन्यास है। नागराज का अपनी पत्नी के साथ खूब मज़े से जीवन कट रहा है। उनके पास रहने को एक बड़ा-सा घर है और करने को सिर्फ मनपसंद काम। बरामदे में बैठकर सड़क की रौनक देखना, पत्नी के साथ गप-शप करते हुए कॉफी पीना और अपनी किताब की योजना बनाना नागराज की दिनचर्या के हिस्से हैं पर उसकी शांत ज़िदगी में तब उथल-पुथल मच जाती है जब उसका भतीजा टिम वहाँ रहने आ जाता है...
सुख-चैन का जीवन बिता रहे नागराज के साथ उसका भतीजा आकर रहने लगता है और फिर शुरू होता है उसके जीवन में उठा-पटक का सिलसिला। भतीजे टिम की रहस्यमयी हरकतें नागराज और उसकी पत्नी की समझ से परे हैं। इसी कड़ी में एक-एक कर अनेक दिलचस्प घटनाएं घटती हैं जो पाठकों को दिल खोलकर हंसने पर मजबूर कर देती हैं और उपन्यास को अपने चरम तक पहुंचाती है।
नागराज की दुनिया
1
नागराज के मन में इस विचार ने घर कर लिया था कि उसके जीवन का एक विशिष्ट लक्ष्य है। यदि कोई पूछता कि वह लक्ष्य क्या है तो वह इस तरह इधर-उधर देखने लग जाता मानो उसने प्रश्न सुना ही नहीं हो। सच पूछो तो उस लक्ष्य की कोई स्पष्ट रूपरेखा उसके मन में नहीं थी, बस यह लगता रहता था कि उसे उसके लिए प्रयत्नशील होना है। हॉल की घड़ी के छः बजा देने के बाद वह बिस्तर पर पड़ा नहीं रह सकता था, यद्यपि उसकी पत्नी, जो उससे पहले उठ जाती थी, कहती : ‘‘इतनी जल्दी क्या है? तुम भी और लोगों की तरह सात बजे तक क्यों नहीं सोते? इतनी जल्दी तो तुम्हारे सिवा और कोई नहीं उठता...’’ और वह उठ कर ठंडे पानी से नहाने और कपड़े धोने के लिए पिछवाड़े के आँगन में चली जाती। जब नागराज को लगता कि पिछवाड़े से नहाने-धोने की आवाज़ आनी बंद हो गई है और अब पत्नी कॉफी बनाने के लिए रसोईघर में या देव-स्तुति के लिए पूजाघर में चली गई होगी और अब उसे जल्दी उठने के लिए टोकेगी नहीं तो वह भी जल्दी से उठ कर स्नानादि के लिए पिछवाड़े चला जाता।
सुबह कॉफी पीने के बाद वह टहलता हुआ अपने मित्र व फोटोग्राफर जयराज को, जो अपनी दुकान के सामने बेंच पर सोता था, जगाने के लिए चल देता। वह सोते हुए जयराज की बेंच के किनारे पर बैठ कर ट्रूथ प्रिंटिंग प्रेस द्वारा प्रकाशित प्रातःकालीन एकपृष्ठीय समाचार पत्र (जिसमें पिछले दिन के अखबारों और रेडियो पर प्रसारित समाचारों का संक्षिप्त विवरण होता था) पर नज़र डाल लेता। अखबार वाला लड़का इसके दस पैसे रोज़ लेता था और पैसे जयराज देता था, पर इसे सर्वप्रथम पढ़ने का अवसर प्राप्त होता था नागराज को, जो अखबारवाले लड़के के साथ ही साथ वहाँ पहुँचता था। नागराज चार मिनट में उस अखबारवाले लड़के के साथ ही साथ वहाँ पहुँचता था। नागराज चार मिनट में उस अखबार को पढ़ डालता और उसमें से अपनी दैनिक गपशप के लिए विषय चुन लेता। जयराज के आँखें खोलते ही वह शुरू हो जाता : ‘‘मंत्री महोदय बर्म्यूडा जा रहे हैं।’’
‘‘कौन से मंत्री महोदय?’’
‘‘कोई से तो जा ही रहे हैं, मंत्रियों की कमी है क्या...?’’
‘‘किसलिए जा रहे हैं?’’
‘‘पता नहीं। मैं कैसे जान सकता हूँ? कोई उद्देश्य नहीं बताया गया है। प्रिंटर से पूछूँगा। दस पैसे में केवल एक पन्ना उपलब्ध होता है और उसका भी एक पृष्ठ पूरा विज्ञापनों से भरा रहता है।’’
‘‘और विज्ञापन भी कैसे ! एकदम बकवास ! अपने इस कस्बे में है ही क्या? कल-कारखाने हैं? कोई महत्त्वपूर्ण व्यापार-वाणिज्य है? महत्त्वपूर्ण व्यक्ति रहते हैं? विज्ञापन करने के लिए है क्या?’’
‘‘देखो, इतना बुरा भी नहीं है। मैं तुमसे सहमत नहीं हूँ,’’ नागराज ने कहा, ‘‘हमारी अपनी दुकानें हैं, अपने लोग हैं और अगर विज्ञापनों के माध्यम से जनता के सामने एक बेहतर स्थिति की झलक रखी जाए तो धीरे-धीरे नगर विकास की ओर बढ़ सकता है। कम से कम इस अखबार से हमें दुकानों, शादियों, खाली मकानों, मौतों आदि की जानकारी तो होती है।’’
‘‘पर वह सब ही पृष्ठ में ठुँसा रहता है,’’ जयराज ने व्यंग्य से कहा, ‘‘अगर ट्रूथ प्रिंटिंग वाला मेरा मित्र नहीं होता और उसे मेरे सहयोग की इतनी ज़रूरत नहीं होती तो मैं यह अखबार बंद कर देता।’’
‘‘कोई बात नहीं, संक्षिप्त होने के कारण यह हमारे समय की बचत तो करता ही है, साथ ही इसमें उपलब्ध सूचना मेरे काम के लिए उपयोगी होती है।’’
नागराज की काम वाली बात को अनसुनी करके जयराज उठ खड़ा हुआ और बोला, ‘‘यहीं इन्तज़ार करना। मैं जल्दी से घर जाकर नहा आता हूँ। मैं दुकान को बिना रखवाली के नहीं छोड़ सकता। आजकल लोग ताला तोड़ने के लिए तैयार रहते हैं,’’ और उसने दुकान की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘अन्दर दुर्लभ और कीमती चीज़ें हैं। मेरे कैमरे और दूसरे सामान पर इधर से निकलने वाले हर बदमाश की गिद्ध-दृष्टि लगी रहती है।’’
‘‘पर तुम्हें हमेशा दूसरे का विदेशी कैमरा उधार लेने की क्या ज़रूरत है?’’
‘‘वह तो बाहर जाता हूँ, तब लेता हूं। अंदर रखा हुआ कैमरा तो मेरा खुद का है। सबसे अच्छा लेन्स है उसका। उसका लक्ष्य चाहे कोई लाश हो या कोई दूल्हा हो, उसके लिए दोनों बराबर हैं। क्या तुमने कभी इस बात पर गौर किया है कि कैमरे का लेन्स कितना निष्पक्ष होता है?’’
‘‘आहा ! आपके विचारों की गहराई...’’
‘‘बहुत कम लोग इस बात को समझ पाते हैं। वे सोचते हैं कि मैं एक साधारण फोटोग्राफर हूँ। वे यह नहीं जानते कि कैमरे के पीछे बैठे हुए व्यक्ति को एक विचारक भी होना चाहिए, वरना वह एक लेन्स साफ करने वाला मात्र रह जाएगा।’’
‘‘सच कहते हो। अपनी पुस्तक में भी मैं इस बात पर ज़ोर डालना चाहता हूँ।’’
जयराज ने जान-बूझ कर उस पुस्तक के बारे में नहीं पूछा वरना उसे वहाँ बैठ कर, देवर्षि नारद पर नागराज जो पुस्तक लिखना चाहता था उसकी योजना के बारे में लंबा-चौड़ा, शब्दाडम्बरपूर्ण भाषण सुनना पड़ता। जब पहली बार नागराज ने इसके बारे में बात की थी तो जयराज यह पूछने की गलती कर बैठा था : ‘‘नारद ही क्यों?’’ और नागराज ने देवर्षि नारद (कहते हैं उन्हें शाप था कि यदि वे रोज़ाना कम से कम एक अफवाह नहीं फैलाएँगे तो उनका सिर फट जाएगा) पर बोलना शुरू कर दिया था। देवर्षि इस सृष्टि के समस्त ऊपर और नीचे वाले चौदह भुवनों में बेरोक-टोक भ्रमण कर सकते थे और इधर की बातें उधर तथा उधर की इधर बता कर प्रायः न केवल देवताओं व दानवों के बीच बल्कि देवों-देवों में और दानवों-दानवों में पारस्परिक झगड़े भी करवा देते थे। ये झगड़े तथा इनके फलस्वरूप होने वाला विनाश अंततः सृष्टि-चक्र के अनुकूल ही होता था, यानी बुरे तत्त्व स्वयं ही अपना नाश कर बैठते थे। यह था नागराज की भावी शोध-पुस्तक का विषय। कई बार नागराज की पुस्तक सम्बन्धी बातों में उलझ कर जयराज अपने ग्राहकों की उपेक्षा कर बैठता था, अतः अब वह इस मामले में सतर्क हो गया था। अब ज्यों ही नागराज इस विषय पर पहुँचने लगता, वह किसी न किसी बहाने उसे टालने की कोशिश करता था। इस समय भी वह वहाँ से उठ गया किंतु दुकान खोलने के लिए शीघ्र लौट आया।
नागराज भी अपनी जगह से उठ गया और इधर-इधर टहलते हुए आस-पास की दुकानों को देखता रहा। दुकानें खोलने का समय हुआ ही था और दुकानदार अपनी-अपनी दुकानों के शटर उठा कर फल और सब्जियाँ जगह पर सजा रहे थे नागराज को खेतों की उपज इन फल-सब्जियों को देख कर एक विचित्र से आनन्द की अनुभूति होती थी। उन छोटी-छोटी दुकानों के बीच के संकीर्ण रास्ते से निकलते हुए उसने सोचा : ‘‘बंदगोभी का वह ढेर कितना सुंदर लग रहा है...और वे हरे और जामुनी रंग के चमकते हुए बैंगन...सब कितने आकर्षक हैं, मानो बगीचे में फूल खिले हुए हों! कितने खेद की बात है कि इन्हें काट कर पका दिया जाता है और जब पका कर थाली में परोसा जाता है तो इनकी कैसी हालत हो जाती है–तेलयुक्त व क्षत-विक्षत! अपनी पत्नी से यह बात नहीं कही जा सकती। वह समझेगी कि उसकी बनाई हुई सब्ज़ी की तौहीन हो रही है।...एक गृहस्थ व्यक्ति को हमेशा सावधान रहने की आवश्यकता है। अपने दाम्पत्य जीवन को सुचारू रूप से चलाना एक तनी हुई रस्सी पर चलने से कम नहीं है। आजकल तो वह बहुत जल्दी नाराज़ भी होने लगी है।’’...बाज़ार में नागराज को सब जानते थे। इधर-उधर से दुकानदार उसे बुला भी रहे थे। पर इस समय उसकी कुछ भी खरीदने की इच्छा नहीं थी। ‘‘इस समय नहीं,’’ वह बोला, ‘‘अभी मेरे पास पैसे नहीं हैं।’’
‘‘पैसे बाद में आ जाएँगे। आप तो हमारे लिए बैंक की तरह हो...!’’ पर वह दुकानदारों की इन बातों पर हँसता हुआ टहलता रहा। बीच में एक जगह करेले देखकर उसके मन में आया भी कि क्यों न करेले ले लें। ‘‘इस करेले की शक्ल बिल्कुल...किसकी जैसी है?’’ वह उपमा सोचने की कोशिश करता रहा, किंतु याद नहीं आई। बाद में उसे ध्यान आया कि इस करेले की शक्ल मगर के बच्चे जैसी थी, जिसकी पीठ पर इसी तरह की बनावट होती है। ‘‘प्रकृति की रचना भी कैसी अद्भुत होती है!’’ उसने सोचा, ‘‘कोई भी दो सब्ज़ियाँ एक-सी नहीं होतीं। और कुछ सब्ज़ियों की शक्ल तो करेले से भी ज़्यादा विकृत होती है। प्रकृति के परिहास!’’
वह घर की ओर चल दिया। दिमाग में कहीं कुछ परेशानी-सी महसूस हो रही थी। आखिर वह क्या थी? उसे कैसे दूर करे?...ईश्वर की कृपा से आर्थिक कष्ट उसे नहीं था। और फिर वह लालची भी नहीं था। सम्पत्ति के बँटवारे के बाद भी बैंक में पिता के छोड़े रुपयों में से उसे एक हज़ार रुपये मिल रहे थे। अच्छा हुआ पिता ने अपने जीवन-काल में ही यह सब तय कर दिया था, वरना उसका बड़ा भाई काफी झगड़ालू स्वभाव का था। पिता की मृत्यु के बाद वह सम्पत्ति के लिए झगड़ा करने से बाज़ नहीं आता। नागराज अपने हिस्से से पूर्णतः सन्तुष्ट था। यदि उसे ज्यादा पैसे की ज़रूरत पड़ती तो वह अपने मकान का एक हिस्सा किराए पर उठा सकता था। उन दिनों चल रही आवास-समस्या को देखते हुए कोई भी किराएदार उसके घर के एक हिस्से का किराया तीन सौ रुपये मासिक आसानी से दे देता। और घर इतना बड़ा था कि मकान-मालिक और किराएदार दोनों बड़े आराम से रह सकते थे। पर उसने ऐसा नहीं किया था। वह चाहता था कि उसकी बूढ़ी माँ आज़ादी से पूरे मकान में इधर से उधर घूमे और उसकी पत्नी भी इच्छानुसार स्वतन्त्रता से बोले–चाले, बहस करे, चिल्लाए और उसे ऐसा करने में किसी किराएदार के देखने-सुनने का डर न हो। आखिर यह सब करना उसका अधिकार था, और अगर उसकी सारी बातें सुनने का उसका मन नहीं होता तो वह पोल (प्रवेशद्वार वाला बरामदा या चबूतरा) पर जाकर बैठ सकता था।
घर पहुँचने पर द्वार खटखटाने के स्थान पर उसने दरवाज़े पर ही अपने सैंडल उतारे और पोल पर पहुँच कर बरामदे के खंभे का सहारा लेकर बैठ गया। उसकी ग्रेनाइट की बनी ठण्डी, चिकनी सतह का स्पर्श उसे अति प्रिय था और वहाँ बैठ कर कबीर मार्ग की गतिविधियों को देखते रहना भी।
अगले एक-दो घंटे तक वह वहाँ से हिलने वाला नहीं था। इस प्रकार उस स्थान पर बैठे हुए उसे लगता था कि वह अपने जीवन से पूर्ण सन्तुष्ट है–उसे जीवन से और कुछ नहीं चाहिए। उस मार्ग से निकलने वालों के आने-जाने का सही समय तक उसे मालूम होता था।
वह जानता था कि पन्द्रह मिनट के अन्दर ‘बातूनी बाबू’ उधर आ निकलेंगे। उनका उस पंक्ति में पहला मकान था। वे उस पूरे मार्ग में सबसे व्यस्त आदमी थे। वे अपने-आपको पत्रकार बताते थे और सारे दिन साइकिल पर बैठ कर नगर में चक्कर लगाते रहते थे। नागराज सोचता रहता था कि आखिर वे करते क्या हैं। ‘‘कुछ भी करें, अपने को क्या!’’ वह सोचता, ‘‘उनके पिता ने उनके लिए बड़ा-सा मकान और काफी रुपया-पैसा छोड़ा है। आदमी खुशनसीब है। शादी की नहीं, वरना मेरी तरह गृहस्थी से बँध जाता। नहीं, नहीं, मुझे ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए। ऐसा कह कर मैं बेचारी अपनी पत्नी के साथ अन्याय कर रहा हूँ जिसे कभी एक दिन का भी आराम नहीं मिला और जो स्वेच्छा से हमेशा मेरी और मेरी माँ की सेवा करती रहती है, हालाँकि कभी-कभी वह मुझ पर या मेरी माँ पर (विशेषकर माँ पर) झल्ला भी उठती है, लेकिन फिर शांत हो जाती है...।’’
फिर उसके विचार उसके निकटतम पड़ोसी शंभु की ओर मुड़ गए जो बातूनी बाबू के विपरीत बाहर बहुत कम दिखाई देता था। अपनी गली की ओर खुलने वाली खिड़की के सामने कैनवस की मुड़ने वाली कुर्सी लगाए सारे दिन बैठा (जब तक प्रकाश रहता) पुस्तक पढ़ता रहता था और अँधेरा होने पर लैम्प जला कर फिर पढ़ने लग जाता था। ‘‘वह किसी से मिलता-जुलता भी नहीं, बस पढ़ता ही रहता है। इतना क्या पढ़ता रहता है? अगर उसकी दिनचर्या ऐसी ही बनी रही तो शरीर खराब हो जाएगा मोटा और थुलथुल। वैसे आदमी अच्छा मालूम होता है। किसी की जीवनचर्या में दखल नहीं देता, बस पढ़ता रहता है। मुझे इसमें आपत्ति क्यों हो? उसकी ज़िंदगी है, वह जाने। मैं तो बस यह चाहता हूँ कि उसका शरीर व स्वास्थ्य ठीक रहे। उसकी माँ के देहान्त के बाद उसका वज़न बढ़ गया है। उसे चाहिए कि कम से कम भोर के समय नदी किनारे जाकर थोड़ा टहला करे। आलसी आदमी है। इसका पिता बड़ा कंजूस साहूकार था जिसने बेचारे एक गरीब विद्वान का बड़ी मेहनत से बनाया गया पूरा पुस्तकालय ज़ब्त कर लिया था। उस पंडित की मौत के बाद साहूकार ने अदालती आदेश के ज़रिये बढ़िया शीशम की बनी खुली अलमारियाँ और उनमें लगी हुई पुस्तकें सब कुछ हथिया लिया था और अपने उस साहूकार पिता की मृत्यु के बाद शंभु बैठा उन्हीं पुस्तकों को पढ़ता रहता है। इतना पढ़ना आँखों के लिए अच्छा नहीं है। ऐसा कोई कानून बन जाना चाहिए कि आदमी केवल अपने परिश्रम अथवा कमाई से प्राप्त की गई पुस्तकें पढ़ सकता है, उत्तराधिकार में प्राप्त हुई पुस्तकें नहीं।’’
उस ओर से दरवाज़े पर एक हल्की-सी आवाज़ सुनाई दी। वह समझ गया कि उसकी माँ दरवाज़ा खोलने की कोशिश कर रही है, पर खोल नहीं सकती। दरवाज़े का किवाड़ बहुत भारी, पुराने जमाने की सागौन की लकड़ी का बना था जिस पर कमल की शक्ल में नक्काशी हो रही थी और बीच में पीतल की बनी हुई चमकदार घुंड़ियाँ सी लगी हुई थीं। बचपन में नन्हा नागराज पंजों के बल पर खड़ा होकर अपना मुख उन घुड़ियों तक पहुँचाने की कोशिश करता था और उसका भाई, जो उससे लंबा और हर बात में उससे तेज़ था, उन्हें मुँह में लेकर उसे चिढ़ाता : ‘‘आहा, कितना मीठा दूध है!’’ दरवाज़े से निचले कगार पर पाँव जमा और पीपल की घुंडियाँ हाथों में पकड़ कर वो लोग ‘रेलगाड़ी-रेलगाड़ी’ भी खेलते थे।
सुबह कॉफी पीने के बाद वह टहलता हुआ अपने मित्र व फोटोग्राफर जयराज को, जो अपनी दुकान के सामने बेंच पर सोता था, जगाने के लिए चल देता। वह सोते हुए जयराज की बेंच के किनारे पर बैठ कर ट्रूथ प्रिंटिंग प्रेस द्वारा प्रकाशित प्रातःकालीन एकपृष्ठीय समाचार पत्र (जिसमें पिछले दिन के अखबारों और रेडियो पर प्रसारित समाचारों का संक्षिप्त विवरण होता था) पर नज़र डाल लेता। अखबार वाला लड़का इसके दस पैसे रोज़ लेता था और पैसे जयराज देता था, पर इसे सर्वप्रथम पढ़ने का अवसर प्राप्त होता था नागराज को, जो अखबारवाले लड़के के साथ ही साथ वहाँ पहुँचता था। नागराज चार मिनट में उस अखबारवाले लड़के के साथ ही साथ वहाँ पहुँचता था। नागराज चार मिनट में उस अखबार को पढ़ डालता और उसमें से अपनी दैनिक गपशप के लिए विषय चुन लेता। जयराज के आँखें खोलते ही वह शुरू हो जाता : ‘‘मंत्री महोदय बर्म्यूडा जा रहे हैं।’’
‘‘कौन से मंत्री महोदय?’’
‘‘कोई से तो जा ही रहे हैं, मंत्रियों की कमी है क्या...?’’
‘‘किसलिए जा रहे हैं?’’
‘‘पता नहीं। मैं कैसे जान सकता हूँ? कोई उद्देश्य नहीं बताया गया है। प्रिंटर से पूछूँगा। दस पैसे में केवल एक पन्ना उपलब्ध होता है और उसका भी एक पृष्ठ पूरा विज्ञापनों से भरा रहता है।’’
‘‘और विज्ञापन भी कैसे ! एकदम बकवास ! अपने इस कस्बे में है ही क्या? कल-कारखाने हैं? कोई महत्त्वपूर्ण व्यापार-वाणिज्य है? महत्त्वपूर्ण व्यक्ति रहते हैं? विज्ञापन करने के लिए है क्या?’’
‘‘देखो, इतना बुरा भी नहीं है। मैं तुमसे सहमत नहीं हूँ,’’ नागराज ने कहा, ‘‘हमारी अपनी दुकानें हैं, अपने लोग हैं और अगर विज्ञापनों के माध्यम से जनता के सामने एक बेहतर स्थिति की झलक रखी जाए तो धीरे-धीरे नगर विकास की ओर बढ़ सकता है। कम से कम इस अखबार से हमें दुकानों, शादियों, खाली मकानों, मौतों आदि की जानकारी तो होती है।’’
‘‘पर वह सब ही पृष्ठ में ठुँसा रहता है,’’ जयराज ने व्यंग्य से कहा, ‘‘अगर ट्रूथ प्रिंटिंग वाला मेरा मित्र नहीं होता और उसे मेरे सहयोग की इतनी ज़रूरत नहीं होती तो मैं यह अखबार बंद कर देता।’’
‘‘कोई बात नहीं, संक्षिप्त होने के कारण यह हमारे समय की बचत तो करता ही है, साथ ही इसमें उपलब्ध सूचना मेरे काम के लिए उपयोगी होती है।’’
नागराज की काम वाली बात को अनसुनी करके जयराज उठ खड़ा हुआ और बोला, ‘‘यहीं इन्तज़ार करना। मैं जल्दी से घर जाकर नहा आता हूँ। मैं दुकान को बिना रखवाली के नहीं छोड़ सकता। आजकल लोग ताला तोड़ने के लिए तैयार रहते हैं,’’ और उसने दुकान की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘अन्दर दुर्लभ और कीमती चीज़ें हैं। मेरे कैमरे और दूसरे सामान पर इधर से निकलने वाले हर बदमाश की गिद्ध-दृष्टि लगी रहती है।’’
‘‘पर तुम्हें हमेशा दूसरे का विदेशी कैमरा उधार लेने की क्या ज़रूरत है?’’
‘‘वह तो बाहर जाता हूँ, तब लेता हूं। अंदर रखा हुआ कैमरा तो मेरा खुद का है। सबसे अच्छा लेन्स है उसका। उसका लक्ष्य चाहे कोई लाश हो या कोई दूल्हा हो, उसके लिए दोनों बराबर हैं। क्या तुमने कभी इस बात पर गौर किया है कि कैमरे का लेन्स कितना निष्पक्ष होता है?’’
‘‘आहा ! आपके विचारों की गहराई...’’
‘‘बहुत कम लोग इस बात को समझ पाते हैं। वे सोचते हैं कि मैं एक साधारण फोटोग्राफर हूँ। वे यह नहीं जानते कि कैमरे के पीछे बैठे हुए व्यक्ति को एक विचारक भी होना चाहिए, वरना वह एक लेन्स साफ करने वाला मात्र रह जाएगा।’’
‘‘सच कहते हो। अपनी पुस्तक में भी मैं इस बात पर ज़ोर डालना चाहता हूँ।’’
जयराज ने जान-बूझ कर उस पुस्तक के बारे में नहीं पूछा वरना उसे वहाँ बैठ कर, देवर्षि नारद पर नागराज जो पुस्तक लिखना चाहता था उसकी योजना के बारे में लंबा-चौड़ा, शब्दाडम्बरपूर्ण भाषण सुनना पड़ता। जब पहली बार नागराज ने इसके बारे में बात की थी तो जयराज यह पूछने की गलती कर बैठा था : ‘‘नारद ही क्यों?’’ और नागराज ने देवर्षि नारद (कहते हैं उन्हें शाप था कि यदि वे रोज़ाना कम से कम एक अफवाह नहीं फैलाएँगे तो उनका सिर फट जाएगा) पर बोलना शुरू कर दिया था। देवर्षि इस सृष्टि के समस्त ऊपर और नीचे वाले चौदह भुवनों में बेरोक-टोक भ्रमण कर सकते थे और इधर की बातें उधर तथा उधर की इधर बता कर प्रायः न केवल देवताओं व दानवों के बीच बल्कि देवों-देवों में और दानवों-दानवों में पारस्परिक झगड़े भी करवा देते थे। ये झगड़े तथा इनके फलस्वरूप होने वाला विनाश अंततः सृष्टि-चक्र के अनुकूल ही होता था, यानी बुरे तत्त्व स्वयं ही अपना नाश कर बैठते थे। यह था नागराज की भावी शोध-पुस्तक का विषय। कई बार नागराज की पुस्तक सम्बन्धी बातों में उलझ कर जयराज अपने ग्राहकों की उपेक्षा कर बैठता था, अतः अब वह इस मामले में सतर्क हो गया था। अब ज्यों ही नागराज इस विषय पर पहुँचने लगता, वह किसी न किसी बहाने उसे टालने की कोशिश करता था। इस समय भी वह वहाँ से उठ गया किंतु दुकान खोलने के लिए शीघ्र लौट आया।
नागराज भी अपनी जगह से उठ गया और इधर-इधर टहलते हुए आस-पास की दुकानों को देखता रहा। दुकानें खोलने का समय हुआ ही था और दुकानदार अपनी-अपनी दुकानों के शटर उठा कर फल और सब्जियाँ जगह पर सजा रहे थे नागराज को खेतों की उपज इन फल-सब्जियों को देख कर एक विचित्र से आनन्द की अनुभूति होती थी। उन छोटी-छोटी दुकानों के बीच के संकीर्ण रास्ते से निकलते हुए उसने सोचा : ‘‘बंदगोभी का वह ढेर कितना सुंदर लग रहा है...और वे हरे और जामुनी रंग के चमकते हुए बैंगन...सब कितने आकर्षक हैं, मानो बगीचे में फूल खिले हुए हों! कितने खेद की बात है कि इन्हें काट कर पका दिया जाता है और जब पका कर थाली में परोसा जाता है तो इनकी कैसी हालत हो जाती है–तेलयुक्त व क्षत-विक्षत! अपनी पत्नी से यह बात नहीं कही जा सकती। वह समझेगी कि उसकी बनाई हुई सब्ज़ी की तौहीन हो रही है।...एक गृहस्थ व्यक्ति को हमेशा सावधान रहने की आवश्यकता है। अपने दाम्पत्य जीवन को सुचारू रूप से चलाना एक तनी हुई रस्सी पर चलने से कम नहीं है। आजकल तो वह बहुत जल्दी नाराज़ भी होने लगी है।’’...बाज़ार में नागराज को सब जानते थे। इधर-उधर से दुकानदार उसे बुला भी रहे थे। पर इस समय उसकी कुछ भी खरीदने की इच्छा नहीं थी। ‘‘इस समय नहीं,’’ वह बोला, ‘‘अभी मेरे पास पैसे नहीं हैं।’’
‘‘पैसे बाद में आ जाएँगे। आप तो हमारे लिए बैंक की तरह हो...!’’ पर वह दुकानदारों की इन बातों पर हँसता हुआ टहलता रहा। बीच में एक जगह करेले देखकर उसके मन में आया भी कि क्यों न करेले ले लें। ‘‘इस करेले की शक्ल बिल्कुल...किसकी जैसी है?’’ वह उपमा सोचने की कोशिश करता रहा, किंतु याद नहीं आई। बाद में उसे ध्यान आया कि इस करेले की शक्ल मगर के बच्चे जैसी थी, जिसकी पीठ पर इसी तरह की बनावट होती है। ‘‘प्रकृति की रचना भी कैसी अद्भुत होती है!’’ उसने सोचा, ‘‘कोई भी दो सब्ज़ियाँ एक-सी नहीं होतीं। और कुछ सब्ज़ियों की शक्ल तो करेले से भी ज़्यादा विकृत होती है। प्रकृति के परिहास!’’
वह घर की ओर चल दिया। दिमाग में कहीं कुछ परेशानी-सी महसूस हो रही थी। आखिर वह क्या थी? उसे कैसे दूर करे?...ईश्वर की कृपा से आर्थिक कष्ट उसे नहीं था। और फिर वह लालची भी नहीं था। सम्पत्ति के बँटवारे के बाद भी बैंक में पिता के छोड़े रुपयों में से उसे एक हज़ार रुपये मिल रहे थे। अच्छा हुआ पिता ने अपने जीवन-काल में ही यह सब तय कर दिया था, वरना उसका बड़ा भाई काफी झगड़ालू स्वभाव का था। पिता की मृत्यु के बाद वह सम्पत्ति के लिए झगड़ा करने से बाज़ नहीं आता। नागराज अपने हिस्से से पूर्णतः सन्तुष्ट था। यदि उसे ज्यादा पैसे की ज़रूरत पड़ती तो वह अपने मकान का एक हिस्सा किराए पर उठा सकता था। उन दिनों चल रही आवास-समस्या को देखते हुए कोई भी किराएदार उसके घर के एक हिस्से का किराया तीन सौ रुपये मासिक आसानी से दे देता। और घर इतना बड़ा था कि मकान-मालिक और किराएदार दोनों बड़े आराम से रह सकते थे। पर उसने ऐसा नहीं किया था। वह चाहता था कि उसकी बूढ़ी माँ आज़ादी से पूरे मकान में इधर से उधर घूमे और उसकी पत्नी भी इच्छानुसार स्वतन्त्रता से बोले–चाले, बहस करे, चिल्लाए और उसे ऐसा करने में किसी किराएदार के देखने-सुनने का डर न हो। आखिर यह सब करना उसका अधिकार था, और अगर उसकी सारी बातें सुनने का उसका मन नहीं होता तो वह पोल (प्रवेशद्वार वाला बरामदा या चबूतरा) पर जाकर बैठ सकता था।
घर पहुँचने पर द्वार खटखटाने के स्थान पर उसने दरवाज़े पर ही अपने सैंडल उतारे और पोल पर पहुँच कर बरामदे के खंभे का सहारा लेकर बैठ गया। उसकी ग्रेनाइट की बनी ठण्डी, चिकनी सतह का स्पर्श उसे अति प्रिय था और वहाँ बैठ कर कबीर मार्ग की गतिविधियों को देखते रहना भी।
अगले एक-दो घंटे तक वह वहाँ से हिलने वाला नहीं था। इस प्रकार उस स्थान पर बैठे हुए उसे लगता था कि वह अपने जीवन से पूर्ण सन्तुष्ट है–उसे जीवन से और कुछ नहीं चाहिए। उस मार्ग से निकलने वालों के आने-जाने का सही समय तक उसे मालूम होता था।
वह जानता था कि पन्द्रह मिनट के अन्दर ‘बातूनी बाबू’ उधर आ निकलेंगे। उनका उस पंक्ति में पहला मकान था। वे उस पूरे मार्ग में सबसे व्यस्त आदमी थे। वे अपने-आपको पत्रकार बताते थे और सारे दिन साइकिल पर बैठ कर नगर में चक्कर लगाते रहते थे। नागराज सोचता रहता था कि आखिर वे करते क्या हैं। ‘‘कुछ भी करें, अपने को क्या!’’ वह सोचता, ‘‘उनके पिता ने उनके लिए बड़ा-सा मकान और काफी रुपया-पैसा छोड़ा है। आदमी खुशनसीब है। शादी की नहीं, वरना मेरी तरह गृहस्थी से बँध जाता। नहीं, नहीं, मुझे ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए। ऐसा कह कर मैं बेचारी अपनी पत्नी के साथ अन्याय कर रहा हूँ जिसे कभी एक दिन का भी आराम नहीं मिला और जो स्वेच्छा से हमेशा मेरी और मेरी माँ की सेवा करती रहती है, हालाँकि कभी-कभी वह मुझ पर या मेरी माँ पर (विशेषकर माँ पर) झल्ला भी उठती है, लेकिन फिर शांत हो जाती है...।’’
फिर उसके विचार उसके निकटतम पड़ोसी शंभु की ओर मुड़ गए जो बातूनी बाबू के विपरीत बाहर बहुत कम दिखाई देता था। अपनी गली की ओर खुलने वाली खिड़की के सामने कैनवस की मुड़ने वाली कुर्सी लगाए सारे दिन बैठा (जब तक प्रकाश रहता) पुस्तक पढ़ता रहता था और अँधेरा होने पर लैम्प जला कर फिर पढ़ने लग जाता था। ‘‘वह किसी से मिलता-जुलता भी नहीं, बस पढ़ता ही रहता है। इतना क्या पढ़ता रहता है? अगर उसकी दिनचर्या ऐसी ही बनी रही तो शरीर खराब हो जाएगा मोटा और थुलथुल। वैसे आदमी अच्छा मालूम होता है। किसी की जीवनचर्या में दखल नहीं देता, बस पढ़ता रहता है। मुझे इसमें आपत्ति क्यों हो? उसकी ज़िंदगी है, वह जाने। मैं तो बस यह चाहता हूँ कि उसका शरीर व स्वास्थ्य ठीक रहे। उसकी माँ के देहान्त के बाद उसका वज़न बढ़ गया है। उसे चाहिए कि कम से कम भोर के समय नदी किनारे जाकर थोड़ा टहला करे। आलसी आदमी है। इसका पिता बड़ा कंजूस साहूकार था जिसने बेचारे एक गरीब विद्वान का बड़ी मेहनत से बनाया गया पूरा पुस्तकालय ज़ब्त कर लिया था। उस पंडित की मौत के बाद साहूकार ने अदालती आदेश के ज़रिये बढ़िया शीशम की बनी खुली अलमारियाँ और उनमें लगी हुई पुस्तकें सब कुछ हथिया लिया था और अपने उस साहूकार पिता की मृत्यु के बाद शंभु बैठा उन्हीं पुस्तकों को पढ़ता रहता है। इतना पढ़ना आँखों के लिए अच्छा नहीं है। ऐसा कोई कानून बन जाना चाहिए कि आदमी केवल अपने परिश्रम अथवा कमाई से प्राप्त की गई पुस्तकें पढ़ सकता है, उत्तराधिकार में प्राप्त हुई पुस्तकें नहीं।’’
उस ओर से दरवाज़े पर एक हल्की-सी आवाज़ सुनाई दी। वह समझ गया कि उसकी माँ दरवाज़ा खोलने की कोशिश कर रही है, पर खोल नहीं सकती। दरवाज़े का किवाड़ बहुत भारी, पुराने जमाने की सागौन की लकड़ी का बना था जिस पर कमल की शक्ल में नक्काशी हो रही थी और बीच में पीतल की बनी हुई चमकदार घुंड़ियाँ सी लगी हुई थीं। बचपन में नन्हा नागराज पंजों के बल पर खड़ा होकर अपना मुख उन घुड़ियों तक पहुँचाने की कोशिश करता था और उसका भाई, जो उससे लंबा और हर बात में उससे तेज़ था, उन्हें मुँह में लेकर उसे चिढ़ाता : ‘‘आहा, कितना मीठा दूध है!’’ दरवाज़े से निचले कगार पर पाँव जमा और पीपल की घुंडियाँ हाथों में पकड़ कर वो लोग ‘रेलगाड़ी-रेलगाड़ी’ भी खेलते थे।
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