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10 प्रतिनिधि कहानियाँ (अज्ञेय)

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7917
आईएसबीएन :978-93-80146-87

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‘‘उस दिन मैं अधिक देर करके जा रहा था। आधी रात होगी, गश्त पर जाते हुए उसी जगह के आसपास मैंने एक चीख़ सुनी...

10 Pratinidhi Kahaniyan (Ageya) - A Hindi Book - by Agyeya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’ सीरीज़ किताबघर प्रकाशन की एक महत्त्वाकांक्षी कथा-योजना है, जिसमें हिंदी कथा-जगत् के शीर्षस्थ कथाकारों को प्रस्तुत किया जा रहा है।

इस सीरीज़ में सम्मिलित दिवंगत कथाकारों की कहानियों के चयन के लिए उनके कथा-साहित्य के प्रतिनिधि एवं अधिकारी विद्वानों तथा मर्मज्ञों को संपादन-प्रस्तुति हेतु आमंत्रित किया गया है। यह हर्ष का विषय है कि उन्होंने अपने प्रिय कथाकार की दस प्रतिनिधि कहानियों को चुनने का दायित्व गंभीरता से निबाहा है।

किताबघर प्रकाशन गौरवान्वित है कि इस सीरीज़ के लिए अग्रज कथाकारों का उसे सहज सहयोग मिला है। इस सीरीज़ के अत्यंत महत्त्वपूर्ण कथाकार अज्ञेय के प्रस्तुत संकलन में वरिष्ठ आलोचक डॉ० कृष्णदत्त पालीवाल ने जिन दस कहानियों को प्रस्तुत किया है, वे हैं : ‘मेजर चौधरी की वापसी’, ‘गैंग्रीन (रोज़)’, ‘नगा पर्वत की एक घटना’, ‘हीली-बोन् की बत्तखें’, ‘पठार का धीरज’, ‘जयदोल’, ‘विवेक से बढ़कर’, ‘साँप’, ‘शरणदाता’ तथा ‘कोठरी की बात’।

हमें विश्वास है कि इस प्रस्तुति के माध्यम से पाठक सुविख्यात लेखक अज्ञेय की प्रतिनिधि कहानियों को एक ही जिल्द में पाकर सुखद संतोष का अनुभव करेंगे।

अनुक्रम


  • मेजर चौधरी की वापसी
  • गैंग्रीन (रोज़)
  • नगा पर्वत की एक घटना
  • हीली-बोन् की बत्तखें
  • पठार का धीरज
  • जय-दोल
  • विवेक से बढ़कर
  • साँप
  • शरणदाता
  • कोठरी की बात

  • 1

    मेजर चौधरी की वापसी


    किसी की टाँग टूट जाती है, तो साधारणतया उसे बधाई का पात्र नहीं माना जाता। लेकिन मेजर चौधरी जब छह सप्ताह अस्पताल में काटकर बैसाखियों के सहारे लड़खड़ाते हुए बाहर निकले, तो बाहर निकलकर उन्होंने मिज़ाजपुर्सी के लिए आए हुए अफ़सरों को बताया कि उनकी चार सप्ताह की ‘वारलीव’ के साथ उन्हें छह सप्ताह की ‘कम्पैशनेट लीव’1 भी मिली है, और इसके बाद ही शायद कुछ और छुट्टी के अनंतर उन्हें सैनिक नौकरी से छुटकारा मिल जाएगा, तब सुनने वालों के मन में अवश्य ही ईर्ष्या की लहर दौड़ गई थी, क्योंकि मोकोकचङ् यों सब डिवीज़न का केंद्र क्यों न हो, वैसे वह नगा पार्वत्य जंगलों का ही एक हिस्सा था, और जोंक, दलदल, मच्छर, चूती छतें, कीचड़ फर्श, पीने को उबाला जाने पर भी गँदला पानी और खाने को पानी में भिगोकर ताज़ा किए गए सूखे आलू-प्याज़–ये सब चीज़ें ऐसी नहीं हैं कि दूसरों के सुख-दुःख के प्रति सहज औदार्य की भावना को जागृत करें!

    मैं स्वयं मोकोकचङ् में नहीं, वहाँ से तीस मील नीचे मरियानी में रहता था, जो कि रेल की पक्की सड़क द्वारा सोवित छावनी थी। मोकोक्चङ् अपनी सामग्री और उपकरणों के लिए मरियानी पर निर्भर था इसलिए मैं जब-तब एक दिन के लिए मोकोक्चङ् जाकर वहाँ की अवस्था देख आया करता था। नाकाचारी चार-आली2 से आगे रास्ता बहुत ही खराब है और गाड़ी कीच-काँदो में फँस-फँस जाती है, किंतु उस प्रदेश की आवनगा जाति के हँसमुख चेहरों और साहाय्य-तत्पर व्यवहार के कारण वह जोखिम बुरी नहीं लगती।

    मुझे तो मरियानी लौटना था ही, मेजर चौधरी भी मेरे साथ ही चले–मरियानी से रेल द्वारा वह गौहाटी होते हुए कलकत्ते जाएँगे और वहाँ से अपने घर पश्चिम को...

    स्टेशन-वैगन चलाते-चलाते मैंने पूछा, ‘‘मेजर साहब, घर लौटते हुए कैसा लगता है?’’ ऐक्सिडेंट से अवश्य ही इस प्रत्यागमन पर एक छाया पड़ गई है, पर फिर भी घर तो घर है...’’

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    1. समवेदनाजन्य छुट्टी।
    2. चार-आली–चौरस्ता। आली असमिया में सड़क को कहते हैं।

    अस्पताल के छह हफ्ते मनुष्य के मन में गहरा परिवर्तन कर देते हैं, यह अचानक तब जाना जब मेजर चौधरी ने कुछ सोचते-से उत्तर दिया, ‘‘हाँ, घर तो घर ही है। पर जो एक बार घर से जाता है, वह लौटकर भी घर लौटता ही है, इसका क्या ठिकाना?’’

    मैंने तीखी दृष्टि से उनकी ओर देखा। कौन-सा गोपन दुःख उन्हें खा रहा है–‘घर’ की स्मृति को लेकर कौन-सा वेदना का ठूँठ इनकी विचारधारा में अवरोध पैदा कर रहा है? पर मैंने कुछ कहा नहीं, प्रतीक्षा में रहा कि कुछ और कहेंगे।
    देर तक मौन रहा, गाड़ी नाकाचारी की लीक में उचकती-धचकती चलती रही।

    थोड़ी देर बाद मेजर चौधरी फिर धीरे-धीरे कहने लगे, ‘‘देखो, प्रधान, फ़ौज में जो भरती होते हैं, न जाने क्या-क्या सोचकर, किस-किस आशा से। कोई-कोई अभागा आशा से नहीं, निराशा से भी भरती होता है, और लौटने की कल्पना नहीं करता। लेकिन जो लौटने की बात सोचते हैं–और प्रायः सभी सोचते हैं–वे मेरी तरह लौटने की बात नहीं सोचते...’’

    उनका स्वर मुझे चुभ गया। मैंने सांत्वना के स्वर में कहा, ‘नहीं मेजर चौधरी, इतने हतधैर्य आपको नहीं...’’
    ‘‘मुझे कह लेने दो, प्रधान!’’
    मैं रुक गया।

    ‘‘मेरी जाँघ और कूल्हे में चोट लगी थी, अब मैं सेना के काम का न रहा पर आजीवन लँगड़ा रहकर भी वैसे चलने-फिरने लगूँगा, यह तुमने अस्पताल में सुना है। सिविल जीवन में कई पेशे हैं, जो मैं कर सकता हूँ। इसलिए घबराने की कोई बात नहीं। ठीक है न? पर–’’ मेजर चौधरी फिर रुक गए और मैंने लक्ष्य किया कि आगे की बात कहने में उन्हें कष्ट हो रहा है, ‘‘पर चोटें ऐसी भी होती हैं–जिनका इलाज–नहीं होता...’’
    मैं चुपचाप सुनता रहा।

    ‘‘भरती होने के साल-भर पहले मेरी शादी हुई थी। तीन साल हो गए। हम लोग साथ लगभग नहीं रहे–वैसी सुविधाएँ नहीं हुईं। हमारी कोई संतान नहीं है।’’

    फिर मौन। क्या मेरी ओर से कुछ अपेक्षित हैं? किंतु किसी आंतरिक व्यथा की बात अगर वह कहना चाहते हैं, तो मौन ही सहायक हो सकता है, वही प्रोत्साहन है।
    ‘‘सोचता हूँ, दांपत्य जीवन में शुरू में–इतनी–कोमलता न बरती होती! कहते हैं कि स्त्री-पुरुष में पहले सख्य आना चाहिए–मानसिक अनुकूलता...’’

    मैंने कनखियों से उनकी तरफ देखा। सीधा देखने से स्वीकारी अंतरात्मा की खुलती सीढ़ी खट् से बंद हो जाया करती है। उन्हें कहने दूँ।
    पर उन्होंने जो कहा उसके लिए मैं बिलकुल तैयार नहीं था और अगर उनके कहने के ढंग में ही इतनी गहरी वेदना न होती तो जो शब्द कहे गए थे उनसे पूरा व्यंजनार्थ भी मैं न पा सकता...

    ‘‘हमारी कोई संतान नहीं है। और जब–जिससे आगे कुछ नहीं है वह सख्त भी कैसे हो सकता है? उसे–एक संतान का ही सहारा होता...कुछ नहीं? प्रधान, यह ‘कम्पैशनेट लीव’ अच्छा मज़ाक है–कम्पैशन भगवान् को छोड़कर और कौन दे सकता है और मृत्यु के अलावा होता कहाँ है? अब अति से आरंभ है! घर!’’ कुछ रुककर, ‘‘वापसी! घर!’’

    मैं सन्न रह गया! कुछ बोल न सका। थोड़ी देर बाद चौंककर देखा कि गाड़ी की चाल अपने आप बहुत धीमी हो गई है, इतनी कि तीसरे गीयर पर वह झटके दे रही है। मैंने कुछ सँभलकर गीयर बदला और फिर गाड़ी तेज़ करके एकाग्र होकर चलाने लगा–नही, एकाग्र होकर नहीं, एकाग्र दीखता हुआ।

    तब मेजर चौधरी एक बार अपना सिर झटके से हिलाकर मानो उस विचार-श्रृंखला को तोड़ते हुए सीधे होकर बैठ गए। थोड़ी देर बाद उन्होंने कहा, ‘‘क्षमा करना, प्रधान, मैं शायद अनकहनी कह गया। तुम्हारे प्रश्नों के लिए तैयार नहीं था...’’
    मैंने रुकते-रुकते कहा–‘‘मेजर, मेरे पास शब्द नहीं हैं कि कुछ कहूँ...’’

    ‘‘कहोगे क्या, प्रधान? कुछ बातें शब्द से परे होती हैं—शायद कल्पना से भी परे होती हैं। क्या मैं भी जानता हूँ कि–कि घर लौटकर मैं क्या अनुभव करूँगा? छोड़ो इसे। तुम्हें याद है, पिछले साल मैं कुछ महीने मिलिटरी पुलिस में चला गया था?’’
    मैंने जाना कि मेजर विषय बदलना चाह रहे हैं। पूरी दिलचस्पी के साथ बोला, ‘‘हाँ-हाँ! वह अनुभव ही अजीब रहा होगा।’’
    ‘‘हाँ! तभी की एक बात अचानक याद आई है। मैं शिलङ् में प्रोवोस्ट मार्शल* के दफ़्तर में था। तब–वे डिवीज़न की कुछ गोरी पलटनें वहाँ विश्राम और नए सामान के लिए बर्मा से लौटकर आई थीं।’’

    ‘‘हाँ, मुझे याद है। उन लोगों ने कुछ उपद्रव भी वहाँ खड़ा किया था...’’
    ‘‘काफ़ी! एक रात मैं जीप लिए गश्त पर जा रहा था। हैपी वैली की छावनी से जो सड़क शिलङ् बस्ती को आती है वह टेढ़ी-मेढ़ी और उतार-चढ़ाव की है और चीड़ के झुरमुटों से छाई हुई, यह तो तुम जानते हो। मैं एक मोड़ से निकला ही था कि मुझे लगा, कुछ चीज़ रास्ते से उछलकर एक ओर को दुबक गई है। गीदड़-लोमड़ी उधर बहुत हैं, पर उनकी फलाँग ऐसी अनाड़ी नहीं होती, इसलिए मैं रुक गया। झुरमुटों के किनारे खोजते हुए मैंने देखा; एक गोरा फ़ौजी छिपना चाह रहा है। छिपना चाहता है तो अवश्य अपराधी है, यह सोचकर मैंने उसे ज़रा धमकाया और नाम, नंबर, पलटन आदि का पता लिख लिया। वह बिना पास के रात को बाहर तो था ही, पूछने पर उसने बताया कि वह एक मील और नीचे नाङ्थिम्-माई की बस्ती को जा रहा था। इससे आगे का प्रश्न मैंने नहीं पूछा–उन प्रश्नों का उत्तर तुम जानते ही हो और पूछकर फिर कड़ा दंड देना पड़ता है जो कि अधिकारी नहीं चाहते–जब तक कि खुल्लम-खुल्ला कोई बड़ा स्कैंडल न हो।’’

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    *सैनिक पुलिस का उच्चाधिकारी प्रोवोस्ट मार्शल कहलाता है।

    ‘‘हूँ! मैंने तो सुना है कि यथासंभव अनदेखी की जाती है ऐसी बातों की, बल्कि कोई वेश्यालय में पकड़ा जाए और उसकी पेशी हो तो असली अपराध के लिए नहीं होती, वरदी ठीक न पहनने या अफ़सर की अवज्ञा या ऐसे ही किसी जुर्म के लिए होती है।’’

    ‘‘ठीक ही सुना है तुमने। असली अपराध के लिए ही हुआ करे तो अव्वल तो चालान इतने हों कि सेना बदनाम हो जाए; इससे इसका असर फ़ौजियों पर तो उटला पड़े–उनका दिमाग़ हर वक़्त उधर ही जाया करे। ख़ैर! उस दिन तो मैंने उसे डाँट-डपटकर छोड़ दिया। पर दो दिन बाद फिर एक अजीब परिस्थिति में उसका सामना हुआ।’’
    ‘‘वह कैसे?’’

    ‘‘उस दिन मैं अधिक देर करके जा रहा था। आधी रात होगी, गश्त पर जाते हुए उसी जगह के आसपास मैंने एक चीख़ सुनी। गाड़ी रोककर मैंने बत्ती बुझा दी और टॉर्च लेकर एक पुलिया की ओर गया, जिधर से आवाज़ आई थी। मेरा अनुमान ठीक ही था; पुलिया के नीचे एक पहाड़ी औरत गुस्से से भरी खड़ी थी, और कुछ दूर पर एक अस्त-व्यस्त गोरा फ़ौजी, जिसकी टोपी और पेटी ज़मीन पर पड़ी थी और बुश्शर्ट हाथ में। मैंने नीचे उतरकर डाँटकर पूछा, ‘यह क्या है?’ पर तभी मैंने उस फ़ौजी की आँखों में देखकर पहचाना कि एक तो वह परसों वाला व्यक्ति है, दूसरे वह काफ़ी नशे में है। मैंने और भी कड़े स्वर में पूछा, ‘तुम्हें शरम नहीं आती! क्या कर रहे थे तुम?’

    ‘‘वह बोला, ‘यह मेरी है।’
    ‘‘मैंने कहा, ‘बको मत!’ और उस औरत से कहा कि वह चली जाए। पर वह ठिठकी रही। मैंने उससे पूछा, ‘जाती क्यों नहीं?’ तब वह कुछ सहमी-सी बोली, ‘मेरे रुपए दे दो।’ ’’

    ‘‘काफ़ी बेशर्म ही रही होगी वह भी!’’
    ‘‘हाँ, मामला अजीब ही था। दोनों को डाँटने पर दोनों ने जो टूटे-फूटे वाक्य कहे उससे यह समझ में आया कि दो-तीन घंटे पहले यह गोरा एक बार उस औरत के पास हो गया था और फिर आगे गाँव की तरफ़ चला गया था। लौटकर फिर उसे वह रास्ते में मिली तो गोरे ने उसे पकड़ लिया था। झगड़ा इसी बात का था कि गोरे का कहना था, वह रात के पैसे दे चुका है, और औरत का दावा था कि पिछला हिसाब चुकता न था, और अब फ़ौजी उसका देनदार है। मैंने उसे धमकाकर चलता किया। पहले तो वह गालियाँ देने लगी, पर जब उसने देखा कि गोरा गिरफ़्तार हो गया है तो बड़बड़ाती चली गई।’’

    ‘‘फिर गोरे का क्या हुआ? उसे तो कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए थी?’’
    मेजर चौधरी थोड़ी देर तक चुप रहे। फिर बोले, ‘‘नहीं, प्रधान, उसे सज़ा नहीं मिली। मालूम नहीं, वह मेरी भूल थी या नहीं, पर जीप में ले आने के घंटा-भर बाद मैंने उसे छोड़ दिया।’’

    मैंने अचानक कहा, ‘‘वाह, क्यों?’’ फिर सोचकर कि वह प्रश्न कुछ अशिष्ट-सा हो गया है, मैंने फिर कहा, ‘‘कुछ विशेष कारण रहा होगा...’’
    ‘‘कारण? हाँ, कारण...था शायद। यह तो इस पर है कि कारण कहते किसे हैं। मैंने जैसे छोड़ा, वह बताता हूँ।’’

    मैं प्रतीक्षा करता रहा। मेजर कहने लगे, ‘‘उसे मैं जीप में ले आया। थोड़ी देर टॉर्च का प्रकाश उसके चेहरे पर डालकर घुमाता रहा कि वह और ज़रा सहम जाए। तब मैंने कड़ककर पूछा, ‘तुम्हें शरम नहीं आई अपनी फ़ौज का और ब्रिटेन का नाम कलंकित करते? अभी परसों मैंने तुम्हें पकड़ा था और माफ कर दिया था।’ मेरे स्वर का उसके नशे पर कुछ असर हुआ। ज़रा सँभलकर बोला, ‘सर, मैं कुछ बुरा नहीं करना चाहता था...’ मैंने फिर डाँटा, ‘सड़क पर एक औरत को पकड़ते हो और कहते हो कि बुरा करना नहीं चाहते थे?’ वह बगलें झाँकने लगा, पर फिर भी सफाई देता हुआ-सा बोला, ‘सर, वह अच्छी औरत नहीं है। वह रुपया लेती है–मैं तीन दिन से रोज़ उसके पास आता हूँ।’ मैंने सोचा, बेहयाई इतनी हो तो कोई क्या करे! पर इस टामी जंतु में जंतु का-सा सीधापन भी है जो ऐसी बात कर रहा है। मैंने कहा, ‘और तुम तो अपने को बड़ा अच्छा आदमी समझते होगे न, एकदम स्वर्ग से झरा हुआ फ़रिश्ता!’ वह फिर बोला, ‘नहीं सर, लेकिन-लेकिन...’’

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