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लीडरशिप के फंडे

एन. रघुरामन

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :143
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7906
आईएसबीएन :9788173158827

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नेतृत्वकला को एक नई परिभाषा देते सिद्धहस्त सुप्रसिद्ध स्तंभकार श्री एन. रघुरामन के व्यापक अनुभव से उपजे फंडे

Leadership Ke Funde - A Hindi Book - by N Raghuraman

जब कोई टीम जीतती है तो श्रेय पूरी टीम को मिलता है, पर उसमें विशेष योगदान उस टीम के लीडर का होता है। वह भिन्न-भिन्न सोच, क्षमता और प्रकृति के लोगों में एक ऐसे भाव का सूत्रपात करता है कि सबका एक ही लक्ष्य बन जाता है—जीत और सफलता।

कंपनी के उत्कर्ष के सफर में जहाँ लीडरशिप की मुख्य भूमिका होती है, वहीं अक्षम और अकुशल नेतृत्व किसी भी कंपनी को धराशायी करने के लिए काफी है। यह कुशल नेतृत्व का ही परिणाम है कि रिलायंस, इंफोसिस और टाटा जैसी कंपनियों ने वैश्विक स्तर पर सफलता का परचम लहराया और प्रसिद्धि पाई। दूरदर्शी सोच, रचनात्मक क्षमता और प्रबंधन कौशल—ये सभी कुशल नेतृत्व के विभिन्न पहलू हैं।

मैंनेजमेट के छोटे-छोटे सूत्रों की महत्ता को एक महत्त्वपूर्ण फंडा बनाने में सिद्धहस्त सुप्रसिद्ध स्तंभकार श्री एन. रघुरामन के व्यापक अनुभव से उपजे ये फंडे नेतृत्वकला को एक नई परिभाषा देते हैं। ये अपने सहयोगियों के साथ व्यवहार, उनकी क्षमताओं, उनके सुख-दुःख में सहभागिता को ध्यान में रखने की याद दिलाते हैं। ये फंडे अहसास कराते हैं कि बेशक कोई व्यक्ति टीम लीडर हो, पर उसकी सफलता टीम वर्क पर ही निर्भर करती है।

आइए, इन फंडों से नेतृत्व कौशल के लिए आवश्य गुणों में श्रीवृद्धि कर एक सफल लीड़र बनें।

आउटसोर्स कर्मचारी को भी प्रशिक्षण दें।


हम सभी की जिन्दगी में आउटसोर्सिंग बेहद आम हैं। रोजमर्रा के काम, जैसे फर्श व फर्नीचर की सफाई, कपड़े धोने अथवा बरतन साफ करने के लिए हम बाहर के लोगों की सेवाएँ लेते हैं। कई बार बीमार अथवा बुजुर्ग की देखभाल करने, कार धोने अथवा भोजन पकाने के लिए भी हमें बाहरी लोगों की सेवाओं की जरूरत होती है। इन कर्मचारियों से मिलनेवाली सेवा की गुणवत्ता हमारी अपेक्षा के अनुरूप उच्च स्तर की हो, इसका निर्धारण हम किस तरह से करते हैं ?

सीधी सी बात है, काम की प्रकृति के बारे में जानकारी, प्रशिक्षण, दिशा-निर्देश, समय-समय पर मूल्यांकन और सुधार के सुझाव देकर ही हम इनकी सेवाओं को और प्रभावी बनाते हैं। इनमें से किसी भी चीज की कमी सेवा की गुणवत्ता में कमी लाने के अलावा बाद में उसकी प्रभावशीलता पर असर डालती है। संपूर्णता के साथ काम करनेवाले कुछ लोग सेवा उपलब्ध करानेवाले व्यक्ति द्वारा काम समाप्त करने के बाद दोबारा उसी काम को करते हैं। इस तरह आउटसोर्सिंग फिजूल हो जाती है।

अब इस चीज को वृहद रूप में देखें। हममें से अधिकतर जिन हाउसिंग सोसाइटीज में रहते हैं, उनकी सुरक्षा, विद्युत व्यवस्था और जव-आपूर्ति प्रबंधन, साफ-सफाई, पेस्ट कंट्रोल के लिए महानगरों की प्रत्येक हाउसिंग सोसाइटी में छोटी-छोटी संस्थाएँ काम करती हैं। इन सोसाइटीज में भी ये सेवाएँ आउटसोर्स की जाती हैं, लेकिन इन सेवाओं की गुणवत्ता अलग-अलग होती है। अकसर यह गुणवत्ता मानवीय श्रम की आपूर्ति करनेवाली संस्था के स्थापित ब्रांड के अनुरूप नहीं होती। हालाँकि यह स्पष्ट है कि ऐसी सर्विस प्रदाता छोटी-बड़ी कंपनियों के कर्मचारियों की प्रोफाइल कमोबेस एक ही तरह की होती है। फिर अंतर कहाँ पड़ता है ? अंतर पड़ता है सर्विस प्रोवाइडर (सेवा प्रदाता) द्वारा शुरुआती दौर में दिए गए प्रशिक्षण से। काम के दौरान ग्राहक द्वारा दी गई ट्रेनिंग से फर्क तो पड़ता है, पर बहुत ज्यादा नहीं। बड़ी संस्थाओं व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में हम ऐसी ही आउटसोस्स सर्विसंग देख सकते हैं। सुरक्षा, हाउस कीपिंग, फैसिलिटी मैनेजमेंट, टी बॉय और कैफेटेरिया सर्विस, ट्रैवेल ऐंड टिकटिंग सर्विस और ऐसी ही तमाम अन्य सेवाओं को प्रत्येक संस्थान की आवश्यकता के अनुरूप ढाला जाता है। यहाँ भी हम एक समान चलन देखते हैं। यहाँ भी सेवा की गुणवत्ता संबंधित व्यक्ति की प्रतिभा की गुणवत्ता के सापेक्ष होती है। कई बार यहाँ इसका सीधा संबंध प्रशिक्षण के स्तर से जुड़ा होता है, जो उसे सेवा प्रदाता संस्था द्वारा अपने और ग्राहक की जरूरतों के अनुरूप दिया जाता है। सोसाइटी और मैक्रो स्तर पर इस तरह की समस्याएँ कॉल सेंटर्स, डीएसए, बीपीओ, विशिष्ट किस्म की सेवाओं और उच्च शिक्षा से जुड़े क्षेत्रों में देखने में आती हैं।

फंडा यह है कि आउटसोर्स किए गए कर्मचारियों के लिए भी प्रशिक्षण बहुत जरूरी है, ताकि संस्था को गुणवत्ता प्रधान कार्य की निर्बाध आपूर्ति जारी रहे।

योग्य कर्मचारियों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाएँ


ऐसे समय में जब आए दिन कर्मचारियों में मौजूदा कंपनी को छोड़कर नई कंपनी ज्वॉइन करने की होड़ मची हो, मैनेजमेंट गुरुओं ने संदिग्ध मन से ही सही, धीरे-धीरे इस बात से इत्तेफाक रखना शुरू कर दिया है कि एक नियमित प्रशिक्षण प्रणाली के जरिए ही कंपनियाँ अपने यहाँ एक सक्षम कर्मचारी वर्ग का निर्माण कर सकती हैं या फिर उन्हें बनाए रख सकती हैं।

नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रम से न केवल कर्मचारी समूह कार्यकुशल और सक्षम बना रहता है, बल्कि योग्य और जरूरी कर्मचारियों की निरंतर आपूर्ति भी कायम रहती है। जब प्रशिक्षण कार्यक्रम एक कंपनी का अभिन्न अंग बन जाता है, तो इससे एक संकेत जाता है कि नियोक्ता कंपनी अपने कर्मचारियों के उत्थान और उनके कॅरियर की प्रगति व्यक्तिगत रुचि ले रही है। इससे कर्मचारियों का मनोबल हमेशा ऊँचा रहता है और वे कंपनी के कामकाज में बढ़-चढ़कर रुचि लेते हैं। आखिरकार इसका लाभ कंपनी को ही मिलता है। सेवा क्षेत्र में कार्यबल कंपनियों की बड़ी थाती होता है। दरअसल, जब भी किसी संस्था की किसी नए स्थान पर स्थापना हो, तो उसे विभिन्न संस्कृतियों के मिलन-केंद्र के रूप में विकसित किया जाना चाहिए। इससे देश के किसी भी हिस्से से आए कर्मचारी के लिए एक-दूसरे से न सिर्फ कुछ नया सीखने का मौका मिलेगा, बल्कि कर्मचारियों में एक-दूसरे के प्रति गहरा लगाव भी पैदा होगा। यह संस्थान के कामकाजी माहौल को अनुकूल भी बनाता है।

माइक्रोसॉफ्ट और इंफोसिस जैसी आईटी कंपनियों में हर कर्मचारी को, चाहे वह कितना भी वरिष्ठ या अनुभवी हो, साल में 40 घंटे का प्रशिक्षण कार्यक्रम से गुजरना पड़ता है। यह कार्यक्रम कर्चारी के अनुसार भिन्न-भिन्न तरह का और कर्मचारियों की कंपनी में भावी जरूरतों के अनुसार होता है।

फंडा यह है कि अगर कंपनियाँ अपने हित और कर्मचारियों के कॅरियर तथा उनकी प्रगति को एक-दूसरे के साथ जोड़कर देखते हैं और उसके अनुसार प्रशिक्षण जैसे उन्नतिकरण कार्य्रम की व्यवस्था करती हैं, तो कंपनी को योग्य और सक्षम कर्मचारियों की कभी कमी नहीं होगी।

अपनी नौकरी कभी भी सुरक्षित न समझें


हाल ही में मेरी मुलाकात रेलवे के एक कर्मचारी मित्र से हुई। वह इस बात से काफी खीझा हुआ था कि आज के प्रतिस्पर्द्धापूर्ण समय में अतिरिक्त कमाई कर पाना बालू से तेल निकालने जैसा हो गया है। फिर मैंने उससे पूछा कि अतिरिक्त कमाई से तुम्हारा मतलब क्या है ? उसका जवाब था, ऐसी कोई आय, जो कि रेलवे की उसकी नौकरी से मिलनेवाली निर्धारित मासिक आय से अलग हो।

मैंने अपने दोस्त से आगे पूछा कि तुम अपनी अतिरिक्त कमाई कैसे करते हो ? फिर उसने बताना शुरू किया कि वह कैसे अपने रेलवे की नौकरी करने के बाद शाम 6 बजे से रात 10 बजे तक 20 किलोमीटर दूर अपने ग्राहकों से मिलने जाता है। कभी-कभी घर से 40 किलोमीटर दूर तक यात्रा करनी पड़ती है। मैंने उससे पूछा कि रेलवे में 8 घंटे की ड्यूटी करने के बाद तुम थक नहीं जाते ? इस पर उसने बताया कि रेलवे में काम करने के लिए कुछ खास होता ही नहीं।

यह जवाब सुनकर मेरे दिल से एक आह सी निकल गई। फिर एक ठंडी साँस लेते हुए मैंने उससे कहा कि हम जैसे कॉरपोरेट लाइफ जीनेवालों को अपनी मासिक वेतन भी निकालना कितना मुश्किल होता है। हमें करीब-करीब 14 घंटे तक रोज काम करना पड़ता है। ऐसे में अतिरिक्त कमाई के लिए सोच पाना भी मुश्किल होता है। इस पर उसकी आँखें फटी-की-फटी रह गईं। उसको ताज्जुब हुआ कि हम अतिरिक्त कमाई नहीं कर सकते।

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