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उपन्यास >> अपना पराया

अपना पराया

रमेश पोखरियाल निशंक

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7905
आईएसबीएन :9788173158896

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पहाड़ के रीति-रिवाज एवं सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों का दिग्दर्शन कराता एक मर्मस्पर्शी, संवेदनशील उपन्यास !

Apna Paraya - A Hindi Book - by Ramesh Pokhariyal

अपना पराया एक सामाजिक उपन्यास है, जिसमें सुप्रसिद्ध उपन्यासकार डॉ. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ बड़े कौशल से पर्वतीय अभावमय जीवन, सामाजिक विसंगतियों, अनमेल विवाह, विधवा-समस्या, सास-बहू-संबंध, वर्तमान शहरी प्रभाव, शिक्षा-स्वास्थ्य-बिजली-पानी-सड़क आदि और अन्य कई ग्रामीण समस्याओं का चित्रण कर उनका समाधान पाठक के ऊपर छोड़ देते हैं। कुछ समस्याओं-शैक्षिक आत्मनिर्भरता, संशोधित घराट योजना आदि का वह समाधान भी प्रस्तुत करते हैं।

उपन्यास मानवीय संबंधों और संवेदनाओं को उजागर करने में समर्थ है। आत्मीयता, विश्वास, आस्था और स्नेहप्रेम के भाव पराए को भी अपना बना लेते हैं और इनके अभाव में अपना भी पराया-सा लगता है। ग्रामीण मुहावरेदार और लोकोक्तिपरक वाक्य-रचना उपन्यास के आंचलिक वैशिष्ट्य को सामने लाती है।

पहाड़ के रीति-रिवाज एवं सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों का दिग्दर्शन कराता एक मर्मस्पर्शी, संवेदनशील उपन्यास !

एक


दुर्गम पहाड़ी पगडंडी से गुजरते हुए आधा मील की खड़ी चढ़ाई पार कर सुरेश ने गहरी साँस ली और एक पत्थर पर निढाल बैठ गया। जेब से रूमाल निकाला और माथे पर पानी की बूंदों की तरह टपटपाते पसीने को पोंछने लगा। तेज चलने के कारण उसका चेहरा तमतमा गया था। यों तो अब तक सुरेश लगभग तीन मील की दूरी पैदल तय कर चुका था, लेकिन इस चढ़ाई को चढ़ने के बाद अब तो साँसें धौंकनी की तरह चल रही थीं। गाँव के बड़े-बूढ़े बताते हैं कि पानी और जंगल जहाँ अच्छा मिला, पुराने लोग वहीं बस गए। फिर चाहे वह जगह ऊँची पहाड़ी चोटी पर ही क्यों न हो। किंतु अब न तो ये जंगल ही अपने रहे और न पानी के वे प्राकृतिक स्रोत ही। बस, रह गई तो ये दुर्गम खड़ी चढ़ाई, बंजर होते खेत-खलिहान और तेजी से वीरान होते घर-गाँव !

आगे नजर गई, तो देखा, रास्ता दो भागों में बँटा है। कौन सा रास्ता जाता होगा सीला गाँव को ? किससे पूछे ? मोड़ मुड़ते ही मुख्य रास्ते का अंदाजा लगाकर वह एक रास्ते पर बढ़ गया। आठ-दस कदम पर पंदेरा दिखाई दिया, जिस पर गाँव की बहू-बेटियों की भीड़ जमा थी और उनके हँसने-खिलखिलाने की आवाजें वातावरण में गूँज रही थीं।
सुरेश ने इधर-उधर देखा, लेकिन कोई और नज़र नहीं आया तो वह धीरे-धीरे कदम बढ़ाता पंदेरे की ओर चल दिया।

लगभग ग्यारह बजे का समय होगा। नाश्ता-पानी निबटाकर बहू-बेटियाँ इत्मीनान से पंदेरे पर जमा थीं। किसी के पास धोने के लिए कपड़ों का ढेर था, तो कोई जूठे बरतन ही वहाँ ले आई थी। पीढ़ियों से बाँज बुरांश की शीतल जड़ों का ठंडा-मीठा पानी पिलाते आ रहे सीला गाँव के इस कुदरती जलधारे से एक आत्मीय रिश्ता भी तो बन गया था गाँववालों का।

अपनी सखी-सहेलियों-सा ही अजीज यह पंदेरा जहाँ गाँव की बहू-बेटियों के सुख-दुःख का साक्षी है, वहीं प्रौढ़ व वृद्धाओं के अतीत की स्मृतियों का स्मारक भी है। हँसी-ठिठोली और चुहुलबाजी से लेकर गाँव-इलाके की घटनाओं पर चर्चा करने और कुछ पल सुकून से बिताने का यही तो उन सबका एकमात्र ठिया है।

इतने शोर में कोई उसकी आवाज सुनेगा भी !
इसी संकोच में सुरेश ने एक बार फिर इधर-उधर देखा कि शायद कोई और नजर आ जाए तो उसी से पूछ लूँ, पर वहाँ दूर-दूर तक कोई नहीं दिखा।

आखिरकार पंदेरे के और पास आकर उसने रास्ता पूछने की हिम्मत जुटाई; पर वही हुआ जिसका उसे अंदेशा था। उसकी आवाज पंदेरिनों के शोर में कहीं दब गई। उसे सामने खड़ा देख वे इतना तो समझ गईं कि कोई परदेसी है, जो कुछ पूछ रहा है।
उन्हें शरारत से अपनी ओर निहारते देख सुरेश सकपका गया।

‘हे भगवान ! कहाँ फँस गया।’ सुरेश मन-ही-मन बुदबुदाया और रूमाल निकालकर माथे पर चमक आई पसीने की बूँदें पोंछने लगा।
तभी उनमें से किसी ने कुछ कहा, जो सुरेश को तो नहीं सुनाई दिया, लेकिन वे सभी खिलखिलाकर हँस पड़ीं।
इन सबसे मदद की कोई उम्मीद छोड़ सुरेश आगे बढ़ चला, लेकिन उन सबकी खिलखिलाहट उसका पीछा करती रही।

इसी भीड़ में शामिल थी लक्ष्मी, जो राख-गारे से अपनी गागर माँजकर पानी भरने के लिए अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रही थी। किसी अपरिचित परदेशी के साथ धारे पर खड़ी महिलाओं का यह व्यवहार उसे कतई अच्छा नहीं लगा। न जाने क्या पूछना चाहता था वह हमसे ? कितनी बुरी बात है किसी अपरिचित की इस तरह हँसी उड़ाना ? क्या सोचेगा वो हमारे और हमारे गाँव के बारे में ? अनजाने ही उसके मन में उस युवक के प्रति सहानुभूति उमड़ आई। साथ ही उसने सबको झिड़क भी दिया कि ऐसा बरताव अच्छा नहीं है।

देर होने का बहाना कर लक्ष्मी ने अपनी गागर भरी और तेजी से घर की ओर चल दी। उसकी तेजी देख पीछे से सुमति भाभी ने कोई फिकरा कसा, जिसे सुनकर एक बार फिर सबकी खिलखिलाहट गूँज उठी; लेकिन लक्ष्मी ने सुना-अनसुना कर दिया। वह तो जल्दी से उस युवक के पास पहुँचकर उससे जानना चाहती थी कि उसे जाना कहाँ है।

इसी हड़बड़ी में गागर का पानी छलकरकर उसके बालों को भिगोता हुआ उसके चेहरे पर टपक रहा था। पानी की बूँदों पर पड़ती सूर्य की किरणें लक्ष्मी के चेहरे की आभा बढ़ा रही थीं।

सुरेश चलता-चलता अचानक ठिठक गया। उसे लगा, पीछे से किसी ने आवाज दी है। पीछे मुड़ा, तो देखा एक युवती सिर पर पानी की गागर लिये खड़ी है। ‘उनमें से ही होगी, जो अभी पंदेरे पर खड़ी उसका मजाक उड़ा रही थीं’ सुरेश का मन वितृष्ण से भर उठा। वह पलटकर अपनी राह चलने को ही था कि युवती प्रश्न कर बैठी।

‘कहाँ जाना है आपको ?’
युवती के स्वर में सौम्यता थी। सुरेश के दग्ध चित्त को शांति महसूस हुई। पंदेरे पर खिल्ली उड़ाने को उसने भीड़ में हुई सहज प्रतिक्रिया मान कर अपने मन से निकालने का प्रयास किया।

‘सीला गाँव का रास्ता कौन सा है ?’
‘किसके घर जाना है आपको वहाँ ?’
‘जोशीजी के, महिमानंद जोशीजी के।’

लक्ष्मी चौंकी। एक पल को उसके हाथ काँपे। सिर पर रखी गागर थोड़ी सी छलकी, लेकिन लक्ष्मी तुरत सँभल गई।
यह तो उन्हीं के घर का रास्ता पूछ रहा है। कौन है और क्यों आ रहा है उनके घर ?

लक्ष्मी के पिता महिमानंद जोशीजी पंडिताई करते थे। आस-पास के गाँवों से लोग उनके पास आते रहते थे। किसी को वर्षफल पुजवाना होता तो किसी को सत्यनारायण की कथा करवानी होती। नवरात्रों में तो उन्हें फुरसत ही नहीं मिलती। पता नहीं वह युवक कौन है और क्यों उनके पास जा रहा है ? होगा कोई भी, उसे क्या ? लक्ष्मी ने अपना सिर झटका, उसे रास्ता बताया और अपने पग धीमे कर दिए। सुरेश लंबे-लंबे डग भरता हुआ युवती बताए रास्ते पर चल दिया। लक्ष्मी ने जानबूझकर अपनी चाल धीमी कर दी। इस अनजान युवक के बाद ही घर पहुँचना चाहती थी वह।

कुछ दूर जाने पर सुरेश को पीपल का बड़ा पेड़ नजर आया, जिस के नीचे चबूतरा बना था। उसके एक ओर मंदिर और दूसरी ओर पगडंडी थी। उसी पगडंडी पर दूसरा घर बताया गया था उसे जोशीजी का। सुरेश पगडंडी की ओर मुड़ गया।

कुछ ही देर बाद लक्ष्मी घर पहुँची तो माँ बाहर ही खड़ी प्रतीक्षा कर रही थी।
‘कहाँ थी इतनी देर से ? कब से प्रतीक्षा कर रही हूँ।’ लक्ष्मी के सिर से गागर उतारकर माँ लगभग खींचती हुई उसे अंदर ले गई।

अंदर पहुँचकर जो लक्ष्मी को पता चला, उससे तो उसके होश ही उड़ गए। यह तो वही लड़का है, जिसका रिश्ता उसके लिए आया था। लेकिन ये ऐसे ही अचानक बिना बताए क्यों आ गया ? मन में सवाल उठा, लेकिन किससे पूछती ? चुपचाप भीगे कपड़े बदलकर माँ के साथ चाय-नाश्ते की तश्तरी लेकर ऊपरवाले कमरे में चली गई, जहाँ वह युवक उसके पिता के साथ बैठा था।

क्या सोच रहा होगा वह उसके बारे में ? पंदेरे में और भी तो लड़कियाँ थीं। क्या जरूरत थी उसको दयाभाव से विगलित हो उसके पीछे जाने की ? इतनी भीड़ में तो उसे नहीं पहचानता वह, लेकिन अब तो पहचान ही लेगा।

लेकिन दूसरे ही पल उसने सोचा, क्या बुरा किया उसने ? एक अनजान, अपरिचित यात्री को उसके गंतव्य का मार्ग सुझाया। अगर इसे वह उसकी वाचालता समझे, तो वह क्या कर सकती है ?
इसी उधेड़बुन में डूबती-उतराती लक्ष्मी माँ के साथ ऊपरी मंजिल में स्थित अपने घर की बैठक में प्रविष्ट हुई।

‘ये है मेरी बड़ी बेटी लक्ष्मी।’ पिता ने कहा और लक्ष्मी चाय-नाश्ते की तश्तरी मेज पर रख एक ओर बैठ गई। लज्जावश उसकी नजरें झुकी हुई थीं।

सुरेश ने धीरे से सिर उठाकर देखा। एक पल तो वह चौंक गया, लेकिन शीघ्र ही उसने अपने भावों पर काबू पा लिया। यह तो वही लड़की है, लेकिन है अच्छी कलाकार। एक बार भी ये प्रकट नहीं होने दिया कि अपने ही घर का रास्ता बता रही है। सुरेश मन-ही-मन मुसकरा दिया और लक्ष्मी ! उसका तो चेहरा ही सुर्ख हो आया। थोड़ी ही देर में माँ का इशारा पाकर, वह धीरे से कमरे से बाहर निकल गई और सीढ़ियाँ उतरकर रसोई के एक कोने में दुबक कर बैठ गई।

‘बड़ी खुश लग रही है। लड़का पसंद आ गया क्या ?’ छोटी बहन बिनीता ने छेड़ा तो लक्ष्मी सकपका गई। सुर्ख बुराँश की सी लालिमा लक्ष्मी के चेहरे पर खिल आई।
विनीता को झूठा गुस्सा दिखाते हुए लक्ष्मी ने आँखें तरेरीं, लेकिन विनीता पर इसका कोई असर न हुआ।

पिछले एक वर्ष से माता-पिता लक्ष्मी के लिए उपयुक्त रिश्ते की तलाश में थे। कहीं जन्मपत्री न जुड़ती तो कहीं लेन-देन पर बात अटक जाती तो कहीं लड़केवालों की लक्ष्मी पसंद न आती। बेचारी लक्ष्मी पिछले कुछ समय से यही मानसिक यंत्रणा झेल रही थी। एक पल को आशा की किरण दिखाई देती, तो दूसरे ही पल माता-पिता का उतरा हुआ चेहरा देखकर वह समझ जाती कि ये रिश्ता भी...!

इसी कारण लक्ष्मी को धीरे-धीरे इन रिश्तों से वितृष्णा-सी होने लगी थी। रिश्ते की बात सुनते ही उसका मन कटुता से भर जाता था। उसका मन होता कि जाकर माँ-पिताजी से कह दे कि नहीं करना उसे विवाह। उसके रिश्ते को लेकर माता-पिता के चेहरे पर स्थायी तनाव की रेखाएँ उसे स्पष्ट दिखाई देती थीं, लेकिन जिस समाज में वह रह रही थी, वहाँ क्या यह संभव था कि लक्ष्मी अविवाहित रह पाती। जहाँ लड़कियों के जीवन की एकमात्र सफलता उनका घर बस जाना ही मानी जाती थी, वहाँ क्या कोई उसके अविवाहित रह जाने की बात मानना तो दूर, सुनता भी नहीं ? लेकिन इस मनोदशा के चलते भी मन के किसी कोने में चोरी से इस नवयुवक ने अपनी जगह लक्ष्मी के मन में बना ही ली।

जोशीजी के बहुत आग्रह के बाद भी सुरेश दोपहर के भोजन से पहले ही अपने गाँव के लिए निकल गया। अगले ही दिन उसे अपनी नौकरी पर मेरठ वापस लौटना था।

पंडित महिमानंदजी की चार बेटियाँ थीं, जिनमें लक्ष्मी सबसे बड़ी थी। गाँव में आठवीं तक का स्कूल था, सो लक्ष्मी और विनीता दोनों आठवीं पास कर चुकी थीं और अब घर-बाहर के काम में माँ का हाथ बँटा रही थीं। विनीता से छोटी मीरा छठी में और सबसे छोटी अनीता चौथी कक्षा में पढ़ रही थी।

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