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सरकार का घड़ा

यज्ञ शर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7903
आईएसबीएन :978-81-7721-102

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इन रचनाओं में राजनीतिक और सामाजिक विसंगतियों में फँसे आम आदमी की पीड़ा अभिव्यक्त हुई है, जो पाठक को संवेदनशील बनाती है।

Sarkar Ka Ghada - A Hindi Book - by Yagya Sharma

यज्ञ शर्मा समकालीन हिंदी व्यंग्य साहित्य के उन सशक्त व्यंग्यकारों में से हैं, जो अपने समय की विसंगतियों को बखूबी पहचानते हैं और उनपर सार्थक प्रहार करते हैं। छोटे-छोटे वाक्यों में नावक के तीर जैसे आकार में छोटे परंतु तीक्ष्ण प्रहार करनेवाले व्यंग्य लेखों की रचना करने में वे सिद्धहस्त हैं। उनकी रचना में से अनावश्यक वाक्य तो दूर की बात है, अनावश्यक शब्द भी रेखांकित करना कठिन है। उनकी व्यंग्य-भाषा अपनी सभी शक्तियों से लैस होकर कथ्य को सटीक अभिव्यक्ति प्रदान करती है। भाषा के इन प्रयोगों में वे शरद जोशी की परंपरा के व्यंग्यकार हैं। वे अपने आस-पास घटनेवाली सामाजिक, राजनीतिक आदि घटनाओं के प्रति निरंतर सजग रहते हैं और एक कुशल व्यंग्यकार की तरह उनपर रचनात्मक आक्रमण करते हैं।

सामाजिक सरोकारों से जुड़े सरकार का घड़ा संग्रह के व्यंग्य जहाँ एक ओर पाठक को सामाजिक विसंगतियों के प्रति शिक्षित करते हैं, वहीं अपनी रोचकता में एक उपन्यास का सा आनंद भी देते हैं। इन रचनाओं में राजनीतिक और सामाजिक विसंगतियों में फँसे आम आदमी की पीड़ा अभिव्यक्त हुई है, जो पाठक को संवेदनशील बनाती है।

—प्रेम जनमेजय

राष्ट्र के नाम संदेश


इस बार गणतंत्र दिवस पर मैंने राष्ट्र के नाम एक संदेश दिया। वैसे मैं कोई राष्ट्रपति नहीं हूँ, प्रधानमंत्री नहीं हूँ, अपनी हाउसिंग सोसायटी का सेक्रेटरी या चेयरमैन भी नहीं हूँ और मेरी बीवी तक मेरी बात नहीं सुनती। लेकिन, इसका मतलब यह थोड़े ही है कि मैं राष्ट्र के नाम संदेश नहीं दे सकता। मैंने सोच लिया कि चाहे कोई ले या न ले, मैं तो दे ही दूँगा। मन में अगर ऐसी भावना न हो तो राष्ट्र के नाम संदेश नहीं दिया जा सकता। आप पूछेंगे, राष्ट्र के नाम संदेश देने से फायदा क्या है ? अब इस देश में सब काम फायदे के लिए ही तो किए नहीं जाते।

तो, मैंने राष्ट्र के नाम संदेश दे ही दिया। जैसा कि ऐसे संदेशों में होता है, सबसे पहले मैंने कहा—हमारा देश महान् है ! वैसे इस देश में यह बात किसी को बताने की जरूरत नहीं है; क्योंकि पिछले पसाच साल में यह बात इतनी बार दोहराई गई है कि सबको रट गई है। जनता को रटी हो या न हो, नेताओं को तो रट ही गई है। रटने का एक फायदा होता है, पाठ अच्छी तरह याद हो जाता है। रटने से ज्ञान भले ही न मिलता हो, परीक्षा में नंबर अच्छे मिलते हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि हम अच्छे नंबरों से महान् हैं, कर्मों से भले ही न हों।

एक समय यह देश इतना महान् था कि सोने की चिड़िया कहलाता था। फिल्मों में गाने लिखे जाते थे—‘यहाँ डाल-डाल पर सोने की चिड़ियाँ करती हैं बसेरा...’ लेकिन सोने की चिड़िया यहाँ पर तभी तक थी, जब तक उसके पंख नहीं निकले। पंख निकलते ही चिड़िया उड़ गई। अब तो हमें यह भी पता नहीं है कि वह डाल कौन सी थी जिस पर सोने की चिड़िया बैठती थी। पता होता तो आज देश में पर्यटन विकास के काम आती। ताजमहल के बाद पर्यटकों को हम वह डाल दिखाने ले जाते।

हमारे महान् होने का एक बड़ा कारण यह है कि हमारे यहाँ बड़ी-बड़ी महान् विभूतियाँ हुईं—बुद्ध हुए, महावीर हुए, विवेकानन्द हुए, गांधी हुए। उन्होंने बड़े-बड़े काम किए। ये महानुभाव इतने महान् काम कर गए कि और महानता करने की गुंजाइश ही नहीं बची। इसीलिए, हमारे वर्तमान नेता बड़ी मेहनत से प्रयास कर रहे हैं कि इस देश की महानता कुछ कम हो, ताकि उन्हें भी किसी क्षेत्र में महान् होने का मौका मिले।

ऐसा नहीं है कि हमारे देश में महान् नेता नहीं हैं। हैं, लेकिन कोई हिंदुओं में महान् है तो कोई मुसलमानों में महान् है। कोई यादवों में महान् है तो कोई जाटों में महान् है। कोई इस प्रदेश में महान् है तो कोई उस प्रदेश में महान् है। जो पूरे देश में महान् हो, ऐसा कोई नहीं है। क्यों नहीं है ? क्योंकि जितने भी महान् नेता हैं, वे अपनी महानता बढ़ाने से ज्यादा मेहनत इसमें करते हैं कि दूसरे की महानता कैसे कम हो। उद्देश्य सबका एक ही है—देश-सेवा, लेकिन राय सबकी अलग है। एक खड़ा रहने को बोले तो दूसरा बैठ जाता है। तीसरा चलने को कहे तो चौथा ब्रेक लगा देता है। सीधा बोलो तो काम नहीं होता, उलटा करने से काम होता है। अब, उलटा करने से काम हो तो जाता है, लेकिन उसका परिणाम भी तो उलटा होता है।

हो सकता है, कुछ लोगों को हमारी यह महानता समझ में न आए। अगर गणित का सहारा लिया जाए तो बात समझ में आ सकती है। गणित में एक अंक है शून्य। हम बड़े गर्व से कहते हैं कि दुनिया को शून्य हमने दिया। यह शून्य भी बड़ा महान् अंक है। शून्य में शून्य जोड़ो तो शून्य रहता है। शून्य में से शून्य निकालो तो भी शून्य बचता है। इसीलिए, जब हमने दुनिया को शून्य दे दिया तो हमारे पास शून्य ही बचा। दुनिया ने शून्य में एक जोड़ा और दस बन गई। मगर हमको जोड़ने की अक्ल ही नहीं आई। हम तो शून्य में शून्य ही जोड़ते रहे और शून्य ही बने रहे। आजकल देश में जो कुछ हो रहा है, उससे लगता है कि हमारी महानता भी अब शून्य होने वाली है।

कन्फ्यूज्ड देश


रोज सुबह दाढ़ी बनाते वक्त जब मैं शीशे में अपना चेहरा देखता हूँ तो मुझे हिंदुस्तान नजर आता है। ऐसा नहीं है कि मुझे यह चेहरा पसंद नहीं, लेकिन देखकर मन में कोई उत्साह महसूस नहीं होता। रोज दिखाई देता है कि चेहरा बदल तो रहा है, लेकिन ऐसा नहीं लगता कि बेहतर हो रहा है। क्या देश भी मेरी तरह बूढ़ा होता जा रहा है ? बूढ़ा, कमजोर, लाचार। अपनी नालायक औलादों की नाकाबिली पर निर्भर रहने को मजबूर !

रोज जब मैं घर से बाहर निकलता हूँ तो मुझे फिर महसूस होता है जैसे कि मैं हिंदुस्तान हूँ। मन में हमेशा एक डर लगा रहता है। कोई मुझे पकड़ ले और भरी सड़क पर पीट दे, तो मैं क्या करूँगा ? कोई मेरी मदद को आगे नहीं आने वाला, अमेरिका भी नहीं। जब आपको मालूम हो कि आप पिट सकते हैं, कभी भी पिट सकते हैं और पिटने के बाद भी आप कुछ नहीं कर सकते तो बड़ी असुरक्षा महसूस होती है। आप अपने घर के बाद भी आप कुछ नहीं कर सकते तो बड़ी असुरक्षा महसूस होती है। आप अपने घर में सुरक्षित नहीं हैं, अपने शहर में सुरक्षित नहीं हैं, अपने देश में सुरक्षित नहीं हैं, इससे बड़ी असुरक्षा की भावना और क्या हो सकती है !

जब भी मेरे घर की घंटी बजती है तो मैं डर जाता हूँ। तरह-तरह के डरावने खयाल मन में आते हैं। दरवाजे पर गुंडा हुआ तो ? उसके हाथ में हथियार हुआ तो ? उसने मेरे ऊपर हमला कर दिया तो ? उससे बचने को मैं कहाँ छिपूँ ? सच कहता हूँ, मुझे वास्तव में नहीं मालूम कि दुश्मन से बचने के लिए मैं अपने ही घर में कहाँ छिप सकता हूँ। दुश्मन मेरे घर को मुझसे ज्यादा अच्छी तरह से जानता है। उसके पास मेरे घर की पूरी जानकारी है। कोने-कोने का नक्शा है उसकी जेब में। यह जानकारी उसे किसने दी ? जाहिर है, जानकारी देनेवाला घर का ही कोई भेदी है। जाहिर है, उसे मुझसे ज्यादा मेरा दुश्मन अजीज है। जाहिर है, मेरे घर पर हमला करने की पूरी तैयारी की गई है। अपनी हिफाजत के लिए मैंने क्या तैयारी की है ? सवाल बहुत हैं, जबाव कोई नहीं ! जब भी मैं अपने घर को देखता हूँ, मुझे घर में हिंदुस्तान नजर आता है। घर क्या है, सराय है। दुश्मन जब चाहे अंदर घुस आता है। जब चाहे बाहर चला जाता है। आराम से आता है, आराम से जाता है, आराम से रहता है, आराम से खाता है। जैसे कि वह दुश्मन नहीं, देश का दामाद है। ये दामाद जैसे सहूलियतें उसे किसने दीं ? जाहिर है, दुश्मन का कोई ससुर जरूर है इस देश में। यह ससुरा कौन है ? यह सवाल मत पूछिए, वरना हंगामा हो जाएगा। इस देश में दुश्मन का नाम पूछना भी मना है।

जब भी संकट की घड़ी आती है तो बहुत से लोग एक साथ बोलने लगते हैं। इन लोगों को करना कुछ नहीं होता, सिर्फ गोल-मोल बोलना होता है। ये सबकुछ कर के नहीं, सिर्फ बोलकर महत्त्वपूर्ण बने हैं। ये वे लोग हैं, जो देश में आग लगने पर उसकी लपटें बुझाने के सही उपाय नहीं करते, बल्कि आग पर अपनी रोटियाँ सेंकते हैं, अपनी-अपनी खिचड़ी पकाते हैं। देश इनके लिए एक चूल्हे से ज्यादा कुछ नहीं है। ये पीटने वाले से कुछ नहीं कहते, पिटनेवाले को इनसानियत का पाठ पढ़ाते हैं। इतने स्वार्थी, इतने मूर्ख, इतने अदूरदर्शी नेता किसी और देश में नहीं होंगे।

जैसे हरकतें दुश्मन करता है, उससे जाहिर है कि वह इन्सान नहीं, हैवान है। और हैवानियत से निपटने के लिए हमारे देश में कानून हैं। लेकिन अपने कानून का इस्तेमाल करना हम खुद ही नहीं जानते। कितनी अजीब बात है कि जो कानून हमने दुश्मन को सजा देने के लिए बनाया है, उसी कानून का इस्तेमाल करके दुश्मन बचकर निकल जाता है। यह कानून किसका है, हमारा कि दुश्मन का ?

हमारी ज्ञान-विज्ञान की परंपरा बहुत पुरानी है। फिर भी अनपढ़, जाहिल, तंग दिमाग मानसिकतावाला दुश्मन हम पर भारी पड़ रहा है। और बौद्धिकता की प्राचीन परंपरा वाले हम वैचारिक स्तर पर भी उसका सामना नहीं कर पा रहे। आज तो हालत यह हो गई है कि हमको यह भी समझ नहीं आ रहा शक करें तो किस पर और भरोसा करें तो किस पर ? अजीब कन्फ्यूजन की स्थिति है। हमसे ज्यादा कन्फ्यूज्ड देश दुनिया में कोई दूसरा नहीं होगा !

खुला बाजार


भारत क्या है ? एक देश है। ऐसा आप समझते होंगे। दुनिया तो इसे बाजार समझती है। ताज्जुब की बात है न ! जिस देश में 80 प्रतिशत लोग गरीब हैं, खाने को रोटी नहीं, खरीदने को पैसे नहीं, कमाने को काम नहीं, वह देश दुनिया के लिए बाजार है। वैसे, इतनी गरीबी के बावजूद भारत बाजार तो है। है, लेकिन सिर्फ 20 प्रतिशत। क्या है कि भारत के 20 प्रतिशत लोग मध्यम वर्ग के हैं। इन लोगों की जेब में थोड़ा-बहुत पैसा है। दुनिया की नजर इसी पैसे पर है। ऐसा है कि ये जो भारत के 20 प्रतिशत लोग हैं न, इनकी संख्या इतनी बड़ी है कि किसी-किसी अमीर देश की पूरी आबादी से भी ज्यादा है। साफ है कि इस गरीब मुल्क का बाजार अमीर देशों के बाजार से भी बड़ा है। इसीलिए तो अमीर देशों के मुँह में पानी आ रहा है।

आज सभी कह रहे हैं कि बाजार खुला होना चाहिए। तो भाई हिंदुस्तान का बाजार बंद कब था ? अगर सरकार ने कोई रास्ता बंद किया तो उसे अपराधियों ने खोल लिया जो चीज कानूनन अंदर नहीं आ सकती, वह गैर-कानूनन आने लगी। इसीलिए व्यापारी स्मगरलों से जलते थे। वे वह सब भी कमाना चाहते थे, जो स्मगलर कमा रहे थे। यानी स्मगलिंग बंद करो, माल सीधा आने दो। और यही हुआ। जो काम कभी स्मगलर करते थे वह व्यापारी करने लगे। बाहर से माल लाना और देश बेचना। ठीक भी है। विदेशी माल से टक्कर लेने के लिए अपनी क्वालिटी सुधारने की मेहनत करनी पड़ती। वह मेहनत कौन करेगा ? क्वालिटी सुधारने की बात करते ही हिंदुस्तानी व्यापारी को पसीना आने लगता है।

हिंदुस्तान में व्यापार की एक बहुत बड़ी खासियत है। यहाँ बेचनेवाला बाप होता है। ग्राहक को क्या चाहिए, इससे ज्यादा जरूरी यह है कि व्यापारी को क्या बेचना है। आदमी को रोटी चाहिए, बाजार उसको मेकअप का सामान बेचता है। पेट पिचका है तो क्या हुआ, गाल तो लाल हैं। यही खुले बाजार का फलसफा है।

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