बाल एवं युवा साहित्य >> गजराज गजराजरामेश बेदी
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हाथी जंगलों का सर्वोच्च गौरव है। यह अद्भुत प्राणी हमारे पर्वों, धार्मिक और राष्ट्रीय समारोहों की शोभा है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हाथी जंगलों का सर्वोच्च गौरव है। यह अद्भुत प्राणी हमारे पर्वों, धार्मिक
और राष्ट्रीय समारोहों की शोभा है। सौम्य, शान्त तथा यूथ में रहने वाला यह
प्राणी पालतू व प्रशिक्षित होने पर इंसान के लिए जितना उपयोगी होता है,
वहीं जंगली हाथी कई बार एक गंभीर समस्या बन जाता है। इस पुस्तक में हमें
एकदंत गणेश, मदमस्त हाथी, इक्कड़ दंतैल, हत्यारा हाथी, गुस्सैल हाथी के
बारे में जानकारी मिलती है। हाथीदांत बहुत मूल्यवान पदार्थ है। इसके लिए
हाथियों का चोरी से शिकार किया जाता है। हाथियों की संख्या में हो रही
निरंतर कमी को देखते हुए भारत सरकार ने 1991-92 में हाथियों के संरक्षण के
लिए एक योजना आरम्भ की थी, जिससे हाथियों के अस्तित्व को बनाये रखने में
सहयोग मिला है।
रमेश बेदी, जन्म, 20 जून 1915 को कालाबाग, पंजाब (अब पाकिस्तान में), की शिक्षा-दीक्षा जंगलों में स्थित गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय में हुई। जहाँ उनकी रूचि जंगलों में घूमने और जंगली जानवरों के अध्ययन में अधिक रही। जंगल के राजा, हाथी के प्रति उन्हें विशेष लगाव था। शिक्षा पूरी करने के बाद वे लाहौर लौट गये, परन्तु 1947 में विभाजन के बाद उन्हें विस्थापित होकर हरिद्वार आना पड़ा। यहाँ उन्होंने हाथियों से जुड़े कई पहलुओं-मदमस्त हाथी, मादा की चाह में भीमकाय जंतुओं में टकराव, समागम, रौद्र चिंघाड़ या घाटियों को गुंजा देनेवाला तुमुलघोष-का अध्ययन किया।
रमेश बेदी, जन्म, 20 जून 1915 को कालाबाग, पंजाब (अब पाकिस्तान में), की शिक्षा-दीक्षा जंगलों में स्थित गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय में हुई। जहाँ उनकी रूचि जंगलों में घूमने और जंगली जानवरों के अध्ययन में अधिक रही। जंगल के राजा, हाथी के प्रति उन्हें विशेष लगाव था। शिक्षा पूरी करने के बाद वे लाहौर लौट गये, परन्तु 1947 में विभाजन के बाद उन्हें विस्थापित होकर हरिद्वार आना पड़ा। यहाँ उन्होंने हाथियों से जुड़े कई पहलुओं-मदमस्त हाथी, मादा की चाह में भीमकाय जंतुओं में टकराव, समागम, रौद्र चिंघाड़ या घाटियों को गुंजा देनेवाला तुमुलघोष-का अध्ययन किया।
प्राक्कथन
रामेश बेदी और उनके छायाकार पुत्रों, नरेश तथा राजेश, ने हाथियों को निकट
से देखने तथा पुस्तक के अनुरूप छायाचित्र खींचने के लिए जंगलों में भटकते
हुए अनेक कठिनाइयों का सामना किया।
श्री विनोद ऋषि, भारतीय वन सेवा, के महत्वपूर्ण सुझावों के प्रति लेखक अत्यंत कृतज्ञ है।
श्री विनोद ऋषि, भारतीय वन सेवा, के महत्वपूर्ण सुझावों के प्रति लेखक अत्यंत कृतज्ञ है।
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परिचय
अगर आप हरिद्वार के जंगलों में काम करने वाले बसेलों और लकड़हारों से
पूछें कि वे किस जानवर से सबसे ज्यादा डरते हैं तो वे तुरंत उत्तर देंगे,
हाथी ! उनके आसपास बाघ, गुलदार, भालू सुअर आदि वन्य पशु जंगलों को
रौंदते-फिरते हैं, परन्तु उनसे उन्हें कोई खतरा नहीं लगता। चरते हुए
हाथियों का झुण्ड जब उनके डेरे के पास से गुजरता है। तब वह उनकी झोपड़ियों
को उजाड़कर छोड़ता है। उनका आटा व राशन खा जाता है और उनके बिस्तरों तथा
बरतनों को बुरी तरह रौंद डालता है।
कश्मीरी गूजरों को इसका खूब अनुभव है। ये लोग इस प्रदेश में लंबे अरसे से सैलानियों का जीवन बिता रहे हैं। दिन के समय परिवार का कोई बड़ा सदस्य डेरे पर नहीं रहता; भैंसे चराने के लिए वे तंग व घनीघाटियों के अन्दर दूर तक निकल गए होते हैं। ऐसी हालत में यदि डेरे पर हाथी आ जाएँ तो छप्परों को तहसनहस करने के साथ-साथ वे सुकुमार कटरों को भी रौंद डालते हैं।
मुझे याद है कि शेरबोजी (कार्बेट नेशनल पार्क, उत्तर प्रदेश) में एक बार चारे के लिए बाँधे गए पड्डे पर शेर के बजाए हाथी आ गए। सरकंडे के ऊँचे झुण्डों के बीच में एक खाली जगह पर शाम को पड्डा बांधा गया था। चरते हुए हाथियों का झुँड उस दिन वहाँ से गुजर रहा था। मौत के पंजे का इन्तजार करते हुए उस पड्डे को मस्त हाथियों की सूंडों ने पकड़ लिया, फिर पैरों की ठोकरों से उसका भुर्ता बना दिया।
हाथी सौम्य, शांत स्वभाव और यूथ में रहने वाला प्राणी है, जो 10 से 100 तक के झुंडों में विचरण करता है। इसमें अधिकतर मादा और कुछ नर रहते हैं। प्रत्येक यूथ की नेता एक हथिनी होती है। नेता के चिघाड़ने पर यूथ के सभी सदस्य एक जगह इकट्ठे हो जाते हैं। झुंड से बिछुड़ने पर हथिनियाँ त्रस्त हो जाती हैं और सहम जाती हैं। हथिनियाँ प्रायः झुंड से दूर जाने की हिम्मत नहीं करतीं। हाथी अक्सर चले जाते हैं, परंतु बहुत दूर नहीं। सबसे अधिक बलशाली दंतुर को झुंड का स्वामी स्वीकार लिया जाता है। जब कोई दूसरा नर उसका प्रतिस्पर्द्धी बनकर सिर उठाता है, तब दोनों में डटकर युद्ध होता है। जिसकी हार होती है उसके आगे दो ही रास्ते होते हैं यह तो वह विजेता की अधीनता स्वीकार करके झुंड में ही रहे या फिर उस झुंड को छोड़कर अलग रहने लगे। दूसरे। प्रकार का मार्ग अपनाने वाले को क्योंकि अकेला ही रहना पड़ता है, इसलिए उसे आत्मरक्षा के लिए अधिक सजग रहना पड़ता है। अकेले विचरने की आदत के कारण वनवासी इसे इक्कड़ हाथी कहते हैं।
यह आवाश्यक नहीं कि इक्कड़ सदा बहिष्कृत हाथी ही हो। यह भी हो सकता है कि एकांत जीवन शुरू करने से पहले वह एक शक्तिशाली झुंड का नेता रहा हो और मस्ती में, स्वेच्छा से, उसने यह स्वच्छंदता और निरंकुशता का रास्ता अपना लिया हो।
इक्कड़ हाथी वनों के किनारे रहने की कोशिश करते हैं जहाँ से खेतों में आसानी से घुस सकें। वनवासियों के डेरों के पास ये आटा, चावल और गुड़ मिलने की आशा से चक्कर लगाते हैं। साग-सब्जी बाहर रह जाए और रात को हाथी उधर निकल आए तो कुछ नहीं छोड़ते। मुर्चिसन पार्क में एक हाथी 18 किलोग्राम आलुओं को पाँच मिनट में खा गया था। उसके बाद उसने रेंजर की झोपड़ी की खिड़की में सूंड डाली और 23 लीटर पौम्ब नामक देशी शराब को सुड़क गया। अगला सारा दिन उसने एक पेड़ के सहारे सोते हुए गुजारा। एक बार हाथी को केले, आलू, मकई, गन्ना आदि फसल खाने का चस्का लग जाए तो वह टलता नहीं और जानमाल के लिए एक खतरा बन जाता है। लोग इसे डराने और भगाने के अनेक उपाय करते हैं। मनुष्य के साथ इक्कड़ का सदा संघर्ष बना रहने से यह निडर, गुस्सैल, साहसी और खतरनाक बन जाता है। जब यह अकारण ही राहगीरों पर हमला करने लगे तब इसे लागू हाथी कहने लगते हैं।
मनुष्य द्वारा सताए जाने या जख्मी किए जाने पर ये हाथी लागू बन जाते हैं। फसलों को बचाने की कोशिश में चलाई गई गोलियों के शिकार बनकर घावों से पीड़ित हो जाते हैं और बहुत गुस्सैल हो जाते हैं। फिर तो बदला लेने के लिए किसी भी इंसान को मार डालते हैं। प्रायः निर्दोष घसियारे, लकड़हारे और दूसरे राहगीर उनके क्रोध का शिकार बन जाते हैं।
एक इक्कड़ तो इतना धूर्त था कि सूंड में लक्कड़ और पत्थर उठाकर फेंकता था। वन-पथ पर जाती हुई लौरी का पीछा करता था। अनेक इक्कड़ हाथियों को बस के आगे सड़क रोक कर खड़े होते देखा गया है। हार्न बजाते रहिए, वह टस से मस नहीं होता। ऐसी हालत में ड्राइवर दूर ही बस रोक देता है और यात्रियों को शांत रहने की हिदायत देता है। कई बार उसे हटाने के लिए हवा में गोली छोड़नी पड़ती है। अफ्रीका में एक हाथी अपने पास 100 मीटर के अन्दर आनेवाले प्रत्येक वाहन पर हमला करता था। वार्डन के ट्रक का इसने 5 किलोमीटर तक पीछा किया। उसे गोली से मार देना पड़ा था। मोटर बस को हाथी अपने उद्दंतों की चोट, माथे की टक्कर और सूंड की पकड़ से बुरी तरह तोड़-फोड़ देता है। अफ्रीका के एक नेशनल पार्क में एक सड़क अभी नयी बनी थी। जंगली जानवर उसके परे रहना नहीं सीखे थे। एक दिन एक लौरी एक हाथी के सिर से टकरा गयी। उसमें बैठे दो अफ्रीकी गंभीर रूप से जख्मी हो गए। हाथी का भी यही हाल हुआ।
मुर्चिसन पार्क में हवाई पट्टी के पास दिलचस्प घटना घटी। डकोटा के उतरने के लिए जंगल का एक टुकड़ा साफ कर दिया गया था। पट्टी पर पाँच टन का ट्रक जा रहा था। मुर्चिसन के एक दैत्य ने उसके मार्ग को रोक लिया। अपने उद्दंतों से उसने लौरी पर कम से कम तीन हमले किए। पहली टक्कर बोनेट पर की, दूसरी बॉडी के बीच में इससे नीचे लटकी हुई पेट्रौल की टंकी में सुराख हो गया। तीसरी टक्कर भी उसी जगह की जिसने लौरी को पलट दिया। उसके पलटने से हवाई पट्टी का मार्ग रुक गया। लौरी की लोहे की चादर में उद्दंत दो जगह खुब गए थे। उद्दंतों से बनाए हुए छिद्र ऐसे लगते थे जैसे 28 मिलीमीटर आर्मर-पियर्सिंग गोलों के लगने से बनें हों। ट्रक के तले में लगी लोहे की चादर का भी यही हाल था जो 88 मिलीमीटर मोटा तो था ही। भाग्यवश अंदर बैठे तीन आदमियों को गम्भीर चोटें नहीं आईं।
मुझे अपने बचपन के वे दिन याद हैं जब मैं शिवालक की तलहटी में गंगा के किनारे, कच्चे मकानों से बने आश्रम में रहकर विद्याभ्यास किया करता था। हरिद्वार जाना होता था तब 6.5 किलोमीटर के बीहड़ मार्ग में अनेक छोटे छोटे पहाड़ी नाले, कंटकित वन और कुछ तेज धाराएँ पार करनी पड़ती थीं। बरसात में गंगा का पाट बहुत फैल जाने के कारण पुल तो टूट ही जाते थे, नौकाओं का चलना भी कठिन हो जाता था। हम लोग बाहर की दुनिया से एक दम अलग-थलग, वन्य जीवों से भरे इस एकांत जंगल में ही बंदी बन जाते थे।
बरसात में एक दिन अपने बिस्तरों को कंधे पर उठाए हुए कुछ छात्र हरिद्वार से अपने पुराने आश्रम की ओर जा रहे थे। यह घटना 1928 के आसपास की है। सुरमे जैसे काले अञ्जनवन को पार कर एक नाले के बीत में हम उतरे ही थे कि एक काना इक्कड़ हमारे पीछे भागा। उससे बचने के लिए हम लोग बिस्तरों को फेंककर बेतहाशा दौड़े। काने इक्कड़ ने बिस्तरों को पाकर उन्हें बुरी तरह रौंदा, सूंड में उठाकर उधर-उधर पटका और जब तक उसका गुस्सा शांत नहीं हुआ वह बिस्तरों में बँधे कपड़े बिखेरता रहा। उस वक्त हममें से कोई उसके हाथ पड़ जाता तो वह उसका भुर्ता बनाए बिना न छोड़ता।
हाथी पीछा कर रहा हो तो उस समय कोट, कमीज, पगड़ी जो भी हाथ लगे, फेंककर भाग जाना चाहिए। हाथी कुछ देर तक उसी से उलझता रहेगा और इंसान को बच निकलने का मौका मिल जाएगा। एक बार एक पर्यटक की कार के पीछे हाथी भागा केलों से भरा कनस्तर गिर गया और हाथी उसी को तोड़ने फोड़ने और खाने लगा। पर्यटक बच निकले।
नेशनल पार्कों और पशु-शरण-स्थलों में मुझे कई बार पालतू हाथी की पीठ पर बैठकर जंगली हाथियों को देखने और उनके फोटो खींचने के लिए जाने का अवसर मिला है। यदि हम नर हाथी पर सवार हैं तो हमें सामान्यतः केवल इक्कड़ हाथी से खतरा रहता है। झुंड में रहने वाले हाथी दर्शकों में अक्सर उत्सुकता नहीं दिखाते। अपने हाथी को हम जंगली हाथियों के झुंड के एकदम पास ले जाते हैं। हाथी सधा हुआ हो तो उसे हम झुंड के बीच में ले जाने की हिम्मत भी कर सकते हैं। कौतूहल से या मित्रभाव से जंगली हाथी हमारे हाथी के पास आता है और अपनी सूंड बढ़ाकर उसका आलिंगन करता है। प्रकट रूप से यही दीखता है कि उसे ऊपर बैठी हुई सवारियों का कुछ पता ही नहीं है।
ऐसे दंतुर हाथी जो मनुष्य के जीवन व संपत्ति के लिए मुसीबत बन जाते हैं, लागू और खूनी घोषित कर दिए जाते हैं।
जंगली हाथी से बचने के लिए सीधे रास्ते पर नहीं दौड़ना चाहिए, क्योंति ऐसे रास्ते पर वह भी 40 से 48 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से दौड़ सकता है और आपको पकड़ सकता है। टेढ़ी-मेढ़ी, ऊँची-नीची, वृक्षों के बीच में से जाती हुई पतली पगडंडियों का आश्रय लेने में ही भलाई होती है। इन बाधाओं में हाथी की गति में बाधा पड़ जाती है और तब दूर निकलने का अवसर मिल जाता है। यदि पहाड़ी इलाका हो तो ढलान पर नीचे की ओर भागना चाहिए। ढलान पर हाथी बहुत धीरे-धीरे उतरता है। पहाड़ के ऊपर की ओर नहीं भागना चाहिए, क्योंकि वहाँ आदमी की गति तो कम हो जाएगी पर हाथी की विशेष कम न होगी। इसके अलावा सूंड बढ़ाकर वह नीचे से ही चढ़ने वाले को पकड़ लेता हैं।
ऊँचाई से नीचे उतरते हुए यदि आपने गोल गोल पत्थरों से आच्छादित नाले का मार्ग अपना लिया तो बहुत अच्छा होगा। आप तो पत्थरों पर निकल जाएँगे, परन्तु हाथी के भारी बोझ से पत्थर लुढ़क पड़ते हैं और उसे अपने को संभालना कठिन हो जाता है। वनवासी बताते हैं कि ऐसे समय हाथी बड़ी सावधानी से काम लेता है। वह अपनी पिछली टाँगों पर झुक जाता है और अगली टाँगों को अकड़ा कर नीचे फिसल जाता है। चिकनी गीली मिट्टी पर यदि यह रपट पड़े तो बड़ी फुर्ती से शरीर को सम्हालकर खड़ा हो जाता है।
बिल्ली की दुबकी चाल से तो सभी परिचित हैं, परंतु जिन लोगों ने जंगल में हाथी को जाते हुए देखा है वे आश्चर्य करते हैं कि इतनी भारी-भरकम काया का जानवर भी किस तरह बिना आहट के आगे बढ़ता है। यह सामान्यतः 6 किलोमीटर प्रति घंटा चलता है। जरूरत पड़ने पर यह तेज दौड़ने वाले मनुष्य से आगे निकल जाता है और 32 किलोमीटर प्रतिघंटे की गति पकड़ सकता है। इतनी तेज यह कुछ देर के लिए ही दौड़ सकता है। हां, 16 किलेमीटर प्रति घंटे की चाल से यह लगातार बहुत दूर तक भाग सकता है।
सौभाग्यवश हाथी की निगाह बहुत दूर की चीज नहीं देख पाती। इसलिए, यदि झटपट किसी बड़े पेड़ या चट्टान के पीछे छिप जाएँ तो बचने की संभावना बढ़ जाती है।
हाथी के लिए कहा जाता है कि उसकी नजर कमजोर होती है। जितनी दूर मनुष्य देखता है, उतनी दूर वह देख तो लेता है परंतु उसकी छोटी आँखें सहसा फोकस नहीं कर पातीं, चीजों को साफ साफ देखने में उसे कुछ समय लगता है। इस कमी की पूर्ति के लिए वह अपने अतिशय बड़े आकार के कानों पर अधिक निर्भर करता है। ध्वनि को ग्रहण करने की शक्ति इसमें खूब विकसित होती है।
हाथी की सूँघने की शक्ति भी बड़ी तेज होती है। आदमी की गंध पाकर वह चौकन्ना हो जाता है और भाग खड़ा होता है। कभी कभी वह गंध, शब्द दृष्टि से मनुष्य का पता पाकर भी चुपचाप निश्छल खड़ा रहता है और आदमी के समीप पहुँचने पर आक्रमण कर देता है।
जंगल में हमने अनेक बार अनुभव किया है कि पास पहुँचने पर ही मालूम पड़ता है कि हाथी खड़ा है। यदि वह हिल-डुल न रहा हो तो दिखाई इसलिए नहीं पड़ता कि उसका काला-भूरा या स्लेटी रंग जंगल की छाया और ढूहों में मिल जाता है।
कश्मीरी गूजरों को इसका खूब अनुभव है। ये लोग इस प्रदेश में लंबे अरसे से सैलानियों का जीवन बिता रहे हैं। दिन के समय परिवार का कोई बड़ा सदस्य डेरे पर नहीं रहता; भैंसे चराने के लिए वे तंग व घनीघाटियों के अन्दर दूर तक निकल गए होते हैं। ऐसी हालत में यदि डेरे पर हाथी आ जाएँ तो छप्परों को तहसनहस करने के साथ-साथ वे सुकुमार कटरों को भी रौंद डालते हैं।
मुझे याद है कि शेरबोजी (कार्बेट नेशनल पार्क, उत्तर प्रदेश) में एक बार चारे के लिए बाँधे गए पड्डे पर शेर के बजाए हाथी आ गए। सरकंडे के ऊँचे झुण्डों के बीच में एक खाली जगह पर शाम को पड्डा बांधा गया था। चरते हुए हाथियों का झुँड उस दिन वहाँ से गुजर रहा था। मौत के पंजे का इन्तजार करते हुए उस पड्डे को मस्त हाथियों की सूंडों ने पकड़ लिया, फिर पैरों की ठोकरों से उसका भुर्ता बना दिया।
हाथी सौम्य, शांत स्वभाव और यूथ में रहने वाला प्राणी है, जो 10 से 100 तक के झुंडों में विचरण करता है। इसमें अधिकतर मादा और कुछ नर रहते हैं। प्रत्येक यूथ की नेता एक हथिनी होती है। नेता के चिघाड़ने पर यूथ के सभी सदस्य एक जगह इकट्ठे हो जाते हैं। झुंड से बिछुड़ने पर हथिनियाँ त्रस्त हो जाती हैं और सहम जाती हैं। हथिनियाँ प्रायः झुंड से दूर जाने की हिम्मत नहीं करतीं। हाथी अक्सर चले जाते हैं, परंतु बहुत दूर नहीं। सबसे अधिक बलशाली दंतुर को झुंड का स्वामी स्वीकार लिया जाता है। जब कोई दूसरा नर उसका प्रतिस्पर्द्धी बनकर सिर उठाता है, तब दोनों में डटकर युद्ध होता है। जिसकी हार होती है उसके आगे दो ही रास्ते होते हैं यह तो वह विजेता की अधीनता स्वीकार करके झुंड में ही रहे या फिर उस झुंड को छोड़कर अलग रहने लगे। दूसरे। प्रकार का मार्ग अपनाने वाले को क्योंकि अकेला ही रहना पड़ता है, इसलिए उसे आत्मरक्षा के लिए अधिक सजग रहना पड़ता है। अकेले विचरने की आदत के कारण वनवासी इसे इक्कड़ हाथी कहते हैं।
यह आवाश्यक नहीं कि इक्कड़ सदा बहिष्कृत हाथी ही हो। यह भी हो सकता है कि एकांत जीवन शुरू करने से पहले वह एक शक्तिशाली झुंड का नेता रहा हो और मस्ती में, स्वेच्छा से, उसने यह स्वच्छंदता और निरंकुशता का रास्ता अपना लिया हो।
इक्कड़ हाथी वनों के किनारे रहने की कोशिश करते हैं जहाँ से खेतों में आसानी से घुस सकें। वनवासियों के डेरों के पास ये आटा, चावल और गुड़ मिलने की आशा से चक्कर लगाते हैं। साग-सब्जी बाहर रह जाए और रात को हाथी उधर निकल आए तो कुछ नहीं छोड़ते। मुर्चिसन पार्क में एक हाथी 18 किलोग्राम आलुओं को पाँच मिनट में खा गया था। उसके बाद उसने रेंजर की झोपड़ी की खिड़की में सूंड डाली और 23 लीटर पौम्ब नामक देशी शराब को सुड़क गया। अगला सारा दिन उसने एक पेड़ के सहारे सोते हुए गुजारा। एक बार हाथी को केले, आलू, मकई, गन्ना आदि फसल खाने का चस्का लग जाए तो वह टलता नहीं और जानमाल के लिए एक खतरा बन जाता है। लोग इसे डराने और भगाने के अनेक उपाय करते हैं। मनुष्य के साथ इक्कड़ का सदा संघर्ष बना रहने से यह निडर, गुस्सैल, साहसी और खतरनाक बन जाता है। जब यह अकारण ही राहगीरों पर हमला करने लगे तब इसे लागू हाथी कहने लगते हैं।
मनुष्य द्वारा सताए जाने या जख्मी किए जाने पर ये हाथी लागू बन जाते हैं। फसलों को बचाने की कोशिश में चलाई गई गोलियों के शिकार बनकर घावों से पीड़ित हो जाते हैं और बहुत गुस्सैल हो जाते हैं। फिर तो बदला लेने के लिए किसी भी इंसान को मार डालते हैं। प्रायः निर्दोष घसियारे, लकड़हारे और दूसरे राहगीर उनके क्रोध का शिकार बन जाते हैं।
एक इक्कड़ तो इतना धूर्त था कि सूंड में लक्कड़ और पत्थर उठाकर फेंकता था। वन-पथ पर जाती हुई लौरी का पीछा करता था। अनेक इक्कड़ हाथियों को बस के आगे सड़क रोक कर खड़े होते देखा गया है। हार्न बजाते रहिए, वह टस से मस नहीं होता। ऐसी हालत में ड्राइवर दूर ही बस रोक देता है और यात्रियों को शांत रहने की हिदायत देता है। कई बार उसे हटाने के लिए हवा में गोली छोड़नी पड़ती है। अफ्रीका में एक हाथी अपने पास 100 मीटर के अन्दर आनेवाले प्रत्येक वाहन पर हमला करता था। वार्डन के ट्रक का इसने 5 किलोमीटर तक पीछा किया। उसे गोली से मार देना पड़ा था। मोटर बस को हाथी अपने उद्दंतों की चोट, माथे की टक्कर और सूंड की पकड़ से बुरी तरह तोड़-फोड़ देता है। अफ्रीका के एक नेशनल पार्क में एक सड़क अभी नयी बनी थी। जंगली जानवर उसके परे रहना नहीं सीखे थे। एक दिन एक लौरी एक हाथी के सिर से टकरा गयी। उसमें बैठे दो अफ्रीकी गंभीर रूप से जख्मी हो गए। हाथी का भी यही हाल हुआ।
मुर्चिसन पार्क में हवाई पट्टी के पास दिलचस्प घटना घटी। डकोटा के उतरने के लिए जंगल का एक टुकड़ा साफ कर दिया गया था। पट्टी पर पाँच टन का ट्रक जा रहा था। मुर्चिसन के एक दैत्य ने उसके मार्ग को रोक लिया। अपने उद्दंतों से उसने लौरी पर कम से कम तीन हमले किए। पहली टक्कर बोनेट पर की, दूसरी बॉडी के बीच में इससे नीचे लटकी हुई पेट्रौल की टंकी में सुराख हो गया। तीसरी टक्कर भी उसी जगह की जिसने लौरी को पलट दिया। उसके पलटने से हवाई पट्टी का मार्ग रुक गया। लौरी की लोहे की चादर में उद्दंत दो जगह खुब गए थे। उद्दंतों से बनाए हुए छिद्र ऐसे लगते थे जैसे 28 मिलीमीटर आर्मर-पियर्सिंग गोलों के लगने से बनें हों। ट्रक के तले में लगी लोहे की चादर का भी यही हाल था जो 88 मिलीमीटर मोटा तो था ही। भाग्यवश अंदर बैठे तीन आदमियों को गम्भीर चोटें नहीं आईं।
मुझे अपने बचपन के वे दिन याद हैं जब मैं शिवालक की तलहटी में गंगा के किनारे, कच्चे मकानों से बने आश्रम में रहकर विद्याभ्यास किया करता था। हरिद्वार जाना होता था तब 6.5 किलोमीटर के बीहड़ मार्ग में अनेक छोटे छोटे पहाड़ी नाले, कंटकित वन और कुछ तेज धाराएँ पार करनी पड़ती थीं। बरसात में गंगा का पाट बहुत फैल जाने के कारण पुल तो टूट ही जाते थे, नौकाओं का चलना भी कठिन हो जाता था। हम लोग बाहर की दुनिया से एक दम अलग-थलग, वन्य जीवों से भरे इस एकांत जंगल में ही बंदी बन जाते थे।
बरसात में एक दिन अपने बिस्तरों को कंधे पर उठाए हुए कुछ छात्र हरिद्वार से अपने पुराने आश्रम की ओर जा रहे थे। यह घटना 1928 के आसपास की है। सुरमे जैसे काले अञ्जनवन को पार कर एक नाले के बीत में हम उतरे ही थे कि एक काना इक्कड़ हमारे पीछे भागा। उससे बचने के लिए हम लोग बिस्तरों को फेंककर बेतहाशा दौड़े। काने इक्कड़ ने बिस्तरों को पाकर उन्हें बुरी तरह रौंदा, सूंड में उठाकर उधर-उधर पटका और जब तक उसका गुस्सा शांत नहीं हुआ वह बिस्तरों में बँधे कपड़े बिखेरता रहा। उस वक्त हममें से कोई उसके हाथ पड़ जाता तो वह उसका भुर्ता बनाए बिना न छोड़ता।
हाथी पीछा कर रहा हो तो उस समय कोट, कमीज, पगड़ी जो भी हाथ लगे, फेंककर भाग जाना चाहिए। हाथी कुछ देर तक उसी से उलझता रहेगा और इंसान को बच निकलने का मौका मिल जाएगा। एक बार एक पर्यटक की कार के पीछे हाथी भागा केलों से भरा कनस्तर गिर गया और हाथी उसी को तोड़ने फोड़ने और खाने लगा। पर्यटक बच निकले।
नेशनल पार्कों और पशु-शरण-स्थलों में मुझे कई बार पालतू हाथी की पीठ पर बैठकर जंगली हाथियों को देखने और उनके फोटो खींचने के लिए जाने का अवसर मिला है। यदि हम नर हाथी पर सवार हैं तो हमें सामान्यतः केवल इक्कड़ हाथी से खतरा रहता है। झुंड में रहने वाले हाथी दर्शकों में अक्सर उत्सुकता नहीं दिखाते। अपने हाथी को हम जंगली हाथियों के झुंड के एकदम पास ले जाते हैं। हाथी सधा हुआ हो तो उसे हम झुंड के बीच में ले जाने की हिम्मत भी कर सकते हैं। कौतूहल से या मित्रभाव से जंगली हाथी हमारे हाथी के पास आता है और अपनी सूंड बढ़ाकर उसका आलिंगन करता है। प्रकट रूप से यही दीखता है कि उसे ऊपर बैठी हुई सवारियों का कुछ पता ही नहीं है।
ऐसे दंतुर हाथी जो मनुष्य के जीवन व संपत्ति के लिए मुसीबत बन जाते हैं, लागू और खूनी घोषित कर दिए जाते हैं।
जंगली हाथी से बचने के लिए सीधे रास्ते पर नहीं दौड़ना चाहिए, क्योंति ऐसे रास्ते पर वह भी 40 से 48 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से दौड़ सकता है और आपको पकड़ सकता है। टेढ़ी-मेढ़ी, ऊँची-नीची, वृक्षों के बीच में से जाती हुई पतली पगडंडियों का आश्रय लेने में ही भलाई होती है। इन बाधाओं में हाथी की गति में बाधा पड़ जाती है और तब दूर निकलने का अवसर मिल जाता है। यदि पहाड़ी इलाका हो तो ढलान पर नीचे की ओर भागना चाहिए। ढलान पर हाथी बहुत धीरे-धीरे उतरता है। पहाड़ के ऊपर की ओर नहीं भागना चाहिए, क्योंकि वहाँ आदमी की गति तो कम हो जाएगी पर हाथी की विशेष कम न होगी। इसके अलावा सूंड बढ़ाकर वह नीचे से ही चढ़ने वाले को पकड़ लेता हैं।
ऊँचाई से नीचे उतरते हुए यदि आपने गोल गोल पत्थरों से आच्छादित नाले का मार्ग अपना लिया तो बहुत अच्छा होगा। आप तो पत्थरों पर निकल जाएँगे, परन्तु हाथी के भारी बोझ से पत्थर लुढ़क पड़ते हैं और उसे अपने को संभालना कठिन हो जाता है। वनवासी बताते हैं कि ऐसे समय हाथी बड़ी सावधानी से काम लेता है। वह अपनी पिछली टाँगों पर झुक जाता है और अगली टाँगों को अकड़ा कर नीचे फिसल जाता है। चिकनी गीली मिट्टी पर यदि यह रपट पड़े तो बड़ी फुर्ती से शरीर को सम्हालकर खड़ा हो जाता है।
बिल्ली की दुबकी चाल से तो सभी परिचित हैं, परंतु जिन लोगों ने जंगल में हाथी को जाते हुए देखा है वे आश्चर्य करते हैं कि इतनी भारी-भरकम काया का जानवर भी किस तरह बिना आहट के आगे बढ़ता है। यह सामान्यतः 6 किलोमीटर प्रति घंटा चलता है। जरूरत पड़ने पर यह तेज दौड़ने वाले मनुष्य से आगे निकल जाता है और 32 किलोमीटर प्रतिघंटे की गति पकड़ सकता है। इतनी तेज यह कुछ देर के लिए ही दौड़ सकता है। हां, 16 किलेमीटर प्रति घंटे की चाल से यह लगातार बहुत दूर तक भाग सकता है।
सौभाग्यवश हाथी की निगाह बहुत दूर की चीज नहीं देख पाती। इसलिए, यदि झटपट किसी बड़े पेड़ या चट्टान के पीछे छिप जाएँ तो बचने की संभावना बढ़ जाती है।
हाथी के लिए कहा जाता है कि उसकी नजर कमजोर होती है। जितनी दूर मनुष्य देखता है, उतनी दूर वह देख तो लेता है परंतु उसकी छोटी आँखें सहसा फोकस नहीं कर पातीं, चीजों को साफ साफ देखने में उसे कुछ समय लगता है। इस कमी की पूर्ति के लिए वह अपने अतिशय बड़े आकार के कानों पर अधिक निर्भर करता है। ध्वनि को ग्रहण करने की शक्ति इसमें खूब विकसित होती है।
हाथी की सूँघने की शक्ति भी बड़ी तेज होती है। आदमी की गंध पाकर वह चौकन्ना हो जाता है और भाग खड़ा होता है। कभी कभी वह गंध, शब्द दृष्टि से मनुष्य का पता पाकर भी चुपचाप निश्छल खड़ा रहता है और आदमी के समीप पहुँचने पर आक्रमण कर देता है।
जंगल में हमने अनेक बार अनुभव किया है कि पास पहुँचने पर ही मालूम पड़ता है कि हाथी खड़ा है। यदि वह हिल-डुल न रहा हो तो दिखाई इसलिए नहीं पड़ता कि उसका काला-भूरा या स्लेटी रंग जंगल की छाया और ढूहों में मिल जाता है।
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प्रणय क्रीड़ा और प्राकृतिक वास
मंगलकारी पशु
प्राचीन भारत में मनुष्य के निरंतर सान्निधय में रहने वाले जंतुओं में गौ
और घोड़े के बाद हाथी का स्थान है। धर्म शास्त्रों में हाथी का वध वर्जित
था और यह एक मंगलमय पशु माना जाता था। अब भी नए कार्य को शुरू करने से
पहले हाथी के देव रूप गजानन गणेश की पूजा की जाती है। भरहुत, बुद्ध गया,
अमरावती तथा उदयगिरि के भग्नावशेषों में गजलक्ष्मी का अंकन है। पुष्पक
विमान के स्तंभों पर गजलक्ष्मी का चित्र अंकित था। कमल पुष्प पर आसीन और
सूंड में कमल लिए हुए लक्ष्मी के प्रतीक ये हाथी जल बरसाते हुए दिखाए गए
हैं। पुराणों में चारों दिशाओं के पालक चार हाथी माने गए हैं। सुमेरियन
लोगों का विश्वास था कि हाथी जीवन-तरू की रक्षा करने वाला प्राणी है। यह
काल्पिक वृक्ष सब प्रकार की कामनाओं को पूरा करने वाला देवद्रुम था।
मेसोपोटामिया में हाथी नहीं पाया जाता, इसलिए सुमेरी जाति को यह परिकल्पना
सिंधु सभ्यता से प्राप्त हुई थी।
हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की मुद्राओं तथा मुद्रा-छापों पर हाथी का अंकन प्राप्त हुआ है। एक मुद्रा-छाप के एक पार्श्व दर व्याघ्र-दमन का दृश्य तथा पंचाक्षरी लेख है, दूसरे पार्श्व पर एक श्रृंग, हाथी और गैंडा तीनों पशु, एक दूसरे के पीछे चलते हुए, देवद्रुम का अभिवादन करते जाते दिखाए गए हैं। मोहनजोदड़ो से प्राप्त तीन पहली वाली एक मुद्रा के एक पहलू पर गैंडा, हाथी, चीता, बाघ, छोटे सींगों वाला बैल, वन-वृषभ, बकरा, मगर, कछुआ, और मछली आदि मांस और घास खाने वाले विरूद्ध प्रकृति के पशु सौम्य भाव से देवद्रुम का अभिवादन करते जाते हुए अंकित किए गए हैं। मोहनजोदड़ो की एक चौरस मुद्रा पर एक त्रिमुख देवता योगासन मुद्रा में विराजमान दिखाई देता है। उसके दाएँ और बाएँ दो दो पशु हैं। जिनमें हाथी और बाघ दाईं ओर तथा गैंडा और भैंसा बाईं ओर हैं। उसके आसन के नीचे दो हिरण आमने-सामने खड़े मुड़कर पीछे की ओर देख रहे हैं। संभवतया यह पशुपति का चित्रण है जिसके सभी पशु वशीभूत हैं।
इस चित्र में ध्यान देने योग्य बात यह है कि हाथी के अलावा तीनों पशुओं के मुख पशुपति की ओर हैं। हाथी के पास एक आदमी खड़ा है। संभवतया यह पराक्रमी वीर है जो पशुपति से विमुख होकर भागते हुए हाथी को रोकने का प्रयास कर रहा है। एक अन्य मुद्रा पर तांत्रिक उपायों द्वारा हाथी को वश में करने का दृश्य है, लेकिन उसे वश में करना आसान नहीं। हाथी पराक्रमी वीर के आदेशों की परवाह किए बिना अपने शरीर के अगले भाग को ऊँचा उठा कर जोर से माथे की टक्कर मार रहा है। हड़प्पा की एक मुद्रा-छाप पर बने चित्र से पता चलता है कि हाथी बाघों को पछाड़ देने वाले पराक्रमी वीर से डरता था। उस वीर द्वारा दो बाघों को पछाड़ने के दृश्य को देखकर हाथी चुपचाप खिसक रहा है।
अमरावती के अवशेषों में भी मेसोपोटामिया जैसे विचित्र हाथी अंकित किए गए हैं, जिनका पिछला भाग मछली जैसा है। महाभारत में ऐसे हाथियों का नाम मीनबाजी और ‘गजवक्त्रझश’ लिखा है। मछली या मगरमच्छ के पृष्ठ भाग वाले हाथियों की कल्पना को वाल्मीकि के रणभूमि के उस वर्णन से उद्बोधन मिला है, जिसमें उन्होंने रणभूमि की उपमा ऐसे समुद्र या नदी से दी है जिसमें हाथियों के रूप में मछलियाँ या मगरमच्छ भरे पड़े हैं।
कोई कोई हाथी जन्म से ही उद्दंत वाला होता है। गजानन गणेश भी एक दंत होते हैं। मंदिरों में गाई जाने वाली एक आरती में उनके बारे में कहा गया हैः
हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की मुद्राओं तथा मुद्रा-छापों पर हाथी का अंकन प्राप्त हुआ है। एक मुद्रा-छाप के एक पार्श्व दर व्याघ्र-दमन का दृश्य तथा पंचाक्षरी लेख है, दूसरे पार्श्व पर एक श्रृंग, हाथी और गैंडा तीनों पशु, एक दूसरे के पीछे चलते हुए, देवद्रुम का अभिवादन करते जाते दिखाए गए हैं। मोहनजोदड़ो से प्राप्त तीन पहली वाली एक मुद्रा के एक पहलू पर गैंडा, हाथी, चीता, बाघ, छोटे सींगों वाला बैल, वन-वृषभ, बकरा, मगर, कछुआ, और मछली आदि मांस और घास खाने वाले विरूद्ध प्रकृति के पशु सौम्य भाव से देवद्रुम का अभिवादन करते जाते हुए अंकित किए गए हैं। मोहनजोदड़ो की एक चौरस मुद्रा पर एक त्रिमुख देवता योगासन मुद्रा में विराजमान दिखाई देता है। उसके दाएँ और बाएँ दो दो पशु हैं। जिनमें हाथी और बाघ दाईं ओर तथा गैंडा और भैंसा बाईं ओर हैं। उसके आसन के नीचे दो हिरण आमने-सामने खड़े मुड़कर पीछे की ओर देख रहे हैं। संभवतया यह पशुपति का चित्रण है जिसके सभी पशु वशीभूत हैं।
इस चित्र में ध्यान देने योग्य बात यह है कि हाथी के अलावा तीनों पशुओं के मुख पशुपति की ओर हैं। हाथी के पास एक आदमी खड़ा है। संभवतया यह पराक्रमी वीर है जो पशुपति से विमुख होकर भागते हुए हाथी को रोकने का प्रयास कर रहा है। एक अन्य मुद्रा पर तांत्रिक उपायों द्वारा हाथी को वश में करने का दृश्य है, लेकिन उसे वश में करना आसान नहीं। हाथी पराक्रमी वीर के आदेशों की परवाह किए बिना अपने शरीर के अगले भाग को ऊँचा उठा कर जोर से माथे की टक्कर मार रहा है। हड़प्पा की एक मुद्रा-छाप पर बने चित्र से पता चलता है कि हाथी बाघों को पछाड़ देने वाले पराक्रमी वीर से डरता था। उस वीर द्वारा दो बाघों को पछाड़ने के दृश्य को देखकर हाथी चुपचाप खिसक रहा है।
अमरावती के अवशेषों में भी मेसोपोटामिया जैसे विचित्र हाथी अंकित किए गए हैं, जिनका पिछला भाग मछली जैसा है। महाभारत में ऐसे हाथियों का नाम मीनबाजी और ‘गजवक्त्रझश’ लिखा है। मछली या मगरमच्छ के पृष्ठ भाग वाले हाथियों की कल्पना को वाल्मीकि के रणभूमि के उस वर्णन से उद्बोधन मिला है, जिसमें उन्होंने रणभूमि की उपमा ऐसे समुद्र या नदी से दी है जिसमें हाथियों के रूप में मछलियाँ या मगरमच्छ भरे पड़े हैं।
कोई कोई हाथी जन्म से ही उद्दंत वाला होता है। गजानन गणेश भी एक दंत होते हैं। मंदिरों में गाई जाने वाली एक आरती में उनके बारे में कहा गया हैः
एक दंत दयावंत चार भुजाधारी।
लड्डुन का भोग करें चूहे की सवारी।
लड्डुन का भोग करें चूहे की सवारी।
दांत के साम्य के कारण एक उद्दंत वाले हाथी को गणेश या एक दंतागणेश कहते
हैं। यह भी प्रकृति की विलक्षणताओं में से एक है। दरअसल, एक दंत गणेश में
दूसरा उद्दंत निकलता ही नहीं। ऐसा एक हाथी मैंने कार्बेट नेशनल पार्क में,
1967 में, देखा था। एक दंत होने पर भी यह झुंड का मुखिया था। उस झुंड में
दो दांतों वाले और भी तीन हाथी थे। जो उससे दूर रहते थे। एकदंतों का
स्वभाव अच्छा नहीं सुना जाता।
दक्षिण अफ्रीका में एक गैर सरकारी रक्षित-वन में गेम गार्ड बाराड़े के पीछे एक बार एक गणेश पड़ गया। वह एक झुंड का अगुआ था। उसने बहुत दूर तक उनका पीछा किया और उनकी जान लेने की हर चंद कोशिश की। भागते-भागते वे बुरी तरह थक गए थे और थकान के मारे किसी भी क्षण लड़खड़ार गिर पड़ने की स्थिति में आ गए थे। आखिर जंगल का अंत आ गया और उन्हें हब्शियों का एक दल नजर आ गया एक झोंपड़ी के अंधेरे, दुर्गंध भरे कोने में उन्होंने शरण ली। जंगल से निकलने पर खूनी एकदंत के सामने जो सबसे पहला व्यक्ति पड़ा उसी को उसने पकड़ लिया। दुर्भाग्यवश वह एक नीग्रो स्त्री थी। सूंड से उसकी गरदन को लपेटकर उसने उठाया और धरती पर दे मारा। मरने के बाद भी उसने लाश नहीं छोड़ी। ढीली बेजान देह को वह उठाता और झंडे की तरह लहराता हुआ नीचे दे पटकता। ऐसा उसने कई बार किया। गोली से मार न दिया जाता तो उस दिन वह जाने कितनी ही और जानें ले लेता।
दक्षिण अफ्रीका में एक गैर सरकारी रक्षित-वन में गेम गार्ड बाराड़े के पीछे एक बार एक गणेश पड़ गया। वह एक झुंड का अगुआ था। उसने बहुत दूर तक उनका पीछा किया और उनकी जान लेने की हर चंद कोशिश की। भागते-भागते वे बुरी तरह थक गए थे और थकान के मारे किसी भी क्षण लड़खड़ार गिर पड़ने की स्थिति में आ गए थे। आखिर जंगल का अंत आ गया और उन्हें हब्शियों का एक दल नजर आ गया एक झोंपड़ी के अंधेरे, दुर्गंध भरे कोने में उन्होंने शरण ली। जंगल से निकलने पर खूनी एकदंत के सामने जो सबसे पहला व्यक्ति पड़ा उसी को उसने पकड़ लिया। दुर्भाग्यवश वह एक नीग्रो स्त्री थी। सूंड से उसकी गरदन को लपेटकर उसने उठाया और धरती पर दे मारा। मरने के बाद भी उसने लाश नहीं छोड़ी। ढीली बेजान देह को वह उठाता और झंडे की तरह लहराता हुआ नीचे दे पटकता। ऐसा उसने कई बार किया। गोली से मार न दिया जाता तो उस दिन वह जाने कितनी ही और जानें ले लेता।
वर्गीकरण
हाथी की दो स्पष्ट जातियाँ उपलब्ध हैं। एक एशिया में और एक अफ्रीका में।
एशिया में किसी समय हाथी की और भी जातियाँ पायी जाती थीं। वर्तमान काल
में जो भारतीय, बर्मी, सिंहाली और सुमात्री किस्में मिलती हैं,
वे
सबकी प्राणिकी के अनुसार एक ही उपजाति की अलग-अलग किस्में हैं।
प्राणिविज्ञान में इस जाति को एलिफास मैक्सिमस लिन. (Elephas maximus
Linn.) कहते हैं। प्राणिविज्ञान में भारतीय हाथी का नाम एलिफास मैक्सिमस
इंडिकस जी. कुवियर (Elephas maximus indicus G. Cuvier) है। अफ्रीकी हाथी
का नाम एलिफास एफ्रिकेनस लिन.(Elephas africanus Linn.) इसका मस्तक और कान
अधिक बड़े होते हैं। इन दोनों जातियों में मुख्य भेद इस प्रकार हैं:
अफ्रीकी हाथी
1. डीलडौल में बड़ा
2. अधिक ऊँचा 331 से.मी.
3. सबसे ऊँचा स्थान कंधे के ऊपर
4. कान अधिक बड़े
5. सूंड छोटी
6. दंत अधिक दीर्घ
7. अगले दोनों पैरों में चार चार उँगलियाँ
8. पिछले दोनों पैरों में तीन तीन उँगलियाँ
9. सूंड के सिरे पर उँगली जैसे दो अवशेष- दोनों किनारों पर एक एक
10. नर और मादा दोनों में उद्दंत समान रूप से निकलते हैं
11. पालतू बनाना कठिन
2. अधिक ऊँचा 331 से.मी.
3. सबसे ऊँचा स्थान कंधे के ऊपर
4. कान अधिक बड़े
5. सूंड छोटी
6. दंत अधिक दीर्घ
7. अगले दोनों पैरों में चार चार उँगलियाँ
8. पिछले दोनों पैरों में तीन तीन उँगलियाँ
9. सूंड के सिरे पर उँगली जैसे दो अवशेष- दोनों किनारों पर एक एक
10. नर और मादा दोनों में उद्दंत समान रूप से निकलते हैं
11. पालतू बनाना कठिन
भारतीय हाथी
1. डीलडौल में छोटा
2. कम ऊँचा। पीठ पर एक रिकार्ड नाप 320 से.मी.
3. सबसे ऊँचा स्थान पीठ का केंद्र
4. कान अपेक्षाकृत छोटे
5. सूंड बड़ी
6. दंत अपेक्षाकृत छोटे
7. अगले दोनों पैरों में पाँच पाँच उंगलियाँ
8. पिछलो दोनों पैरों में चार चार उँगलियाँ
9. सूंड के सिरे पर उँगली जैसा अवशेष-सामने के किनारे पर
10. सामान्यतया नर के उद्दंत निकलते हैं
11. आसानी से पालतू बन जाता है
एशियाई हाथी की तुलना में अफ्रीकी हाथी को पालने में उपेक्षा की गई है। अफ्रीकी हाथियों को सेना के लिए सधाने का उल्लेख मिलता है। इसी से यह धारणा बन गई है कि वह पालतू नहीं बनता। यूरोप में एशियाई हाथी तो युगों से मनुष्य की सेवा में लगा रहा है।
2. कम ऊँचा। पीठ पर एक रिकार्ड नाप 320 से.मी.
3. सबसे ऊँचा स्थान पीठ का केंद्र
4. कान अपेक्षाकृत छोटे
5. सूंड बड़ी
6. दंत अपेक्षाकृत छोटे
7. अगले दोनों पैरों में पाँच पाँच उंगलियाँ
8. पिछलो दोनों पैरों में चार चार उँगलियाँ
9. सूंड के सिरे पर उँगली जैसा अवशेष-सामने के किनारे पर
10. सामान्यतया नर के उद्दंत निकलते हैं
11. आसानी से पालतू बन जाता है
एशियाई हाथी की तुलना में अफ्रीकी हाथी को पालने में उपेक्षा की गई है। अफ्रीकी हाथियों को सेना के लिए सधाने का उल्लेख मिलता है। इसी से यह धारणा बन गई है कि वह पालतू नहीं बनता। यूरोप में एशियाई हाथी तो युगों से मनुष्य की सेवा में लगा रहा है।
नस्लें
कुछ विद्वानों ने भारतीय हाथी की दो नस्लों का वर्णन किया है। एक का आधुनिक प्रणिविज्ञान में नाम है—एलिफास दखुमेन्सिस डेरानियागाला (Elephas maximus dakhumensis Deraniyagala)। इस नस्ल के हाथी, दक्षिण भारत में पाए जाते हैं। दूसरी नस्ल उत्तर भारत और नेपाल में मिलती है। इसका प्राणिकी नाम है एलिफास मैक्सिमस बेन्गालेन्सिस दे ब्लेन्विल्ले (Elephas maximus bengalensis de Blainville)।
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