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अतीत की स्मृतियाँ

वीरेन्द्र कुमार दुबे

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7887
आईएसबीएन :978-81-8031-353

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यह ऐसी कहानियाँ हैं जिनमें पाठक और लेखक के बीच सहज संवाद होता है बहुत अधिक बौद्धिक व्यायाम की आवश्यकता नहीं पड़ती है।

Atit Ki Smrutian - A Hindi Book - by Virendra Kumar Dubey

प्रस्तुत संग्रह की सभी कहानियाँ जहाँ स्वाभाविकता, देशीपन और आँचलिकता से पाठक को चमत्कृत कर देती हैं वहाँ कथा के रस का उद्रेक अनुभव करते ही बनता है। यह ऐसी कहानियाँ हैं जिनमें पाठक और लेखक के बीच सहज संवाद होता है बहुत अधिक बौद्धिक व्यायाम की आवश्यकता नहीं पड़ती है।

इस कहानी संग्रह में कहानीकार हर पात्र और घटना के साथ हस्तक्षेप करता प्रतीत होता है जिसके कारण पात्र घटने वाली घटनाओं में स्वतंत्र विकास नहीं कर पाया है। इस कहानी संग्रह में विधा संक्रमण की भी स्थिति कई स्थलों पर देखने को मिलती है। जिसमें यह कह पाना कठिन हो जाता है कि यह कहानी का तत्व है या संस्मरण का। लेकिन संग्रह का शीर्षक ‘अतीत की स्मृतियाँ इसको सार्थक सिद्ध कर देती है।

अधरा


बसंतोत्सव मनाने की तैयारी चल रही थी। चारों ओर ऋतुराज के आगमन की आहट सुनाई दे रही थी। आम की डालियाँ बौर से बौराई दिखाई दे रही थी। हवा में मादक सुगन्ध चारों ओर बिखरी हुई थी।

ऊषाकाल का समय है चिड़ियों की चहचहाट, गायों का रंभाना तथा कुत्तों का ऊँघना जारी था। ठीक इसी समय अधरा की गाय ने बछड़े को जन्म दिया। अधरा के मन में अपार खुशी की लहर हिलोरें मार रही थीं कि उसकी कबरी गाय ने एक सुन्दर बछड़े को जन्म दिया। वह सीधा दौड़ता हुआ अपने खेत की तरफ भागा उसके दादा वहाँ सुबह-सुबह गेहूँ की सिंचाई कर रहे थे। वह कहता है, दादा कबरी बिआई गयी। दादा आश्चर्य से प्रसन्नातापूर्वक पूछते हैं, ‘कारे बेटा कबरी बछिया या बछवा का बिआई है ?’ ‘दादा उ बछवा बिआई है।’

दादा सिंचाई छोड़कर दौड़ते हुये घर आते हैं। गाय की देखभाल करते हैं। अधरा इस समय दस साल का बालक है। इसे गाय पालने एवं दूध पीने का बड़ा शौक है। अधरा का असली नाम रामअधार है। इसके दादा ने प्यार से अधरा-अधरा बुलाना शुरू किया इसलिए इसका नाम अधरा हो गया।

अधरा बड़ा होनहार बालक था। उसका मन पढ़ने-लिखने में नहीं लगता था सिवाय खेलने के। उसे विविध प्रकार के खेल खेलना, गाय चराना एवं गप लड़ाना बहुत पसंद था। उसे लाठी रखने का बड़ा शौक था। लाठी को सरसों का तेल पिला-पिला कर मजबूत बनाना उसे भली-भाँति आता था। वह किसी से नहीं डरता था। जिससे भी वह लड़ता उसे वह पराजित कर देता।

पड़ोस के गाँव की प्राथमिक पाठशाला में वह कभी-कभी अपनी उपस्थिति दर्ज करा आता उसके दोस्तों की संख्या बहुत अधिक थी वह जब स्कूल जाता तो उसे तीन बच्चे कन्धे पर उठाकर ले जाते। वह उन्हें अपनी बैलगाड़ी कहता था। उसका एक प्यारा कुत्ता था जो शायद उसे बहुत चाहता था। जहाँ वह जाता उसका आज्ञाकारी कुत्ता उसके साथ रहता। स्कूल जाते समय वह अपना बस्ता प्रथा अपने कुछ साथियों के बस्ते को अपने कुत्ते की पीठ पर अच्छी प्रकार बाँध देता। कुत्ता खरामा-खरामा उसके साथ स्कूल पहुँच जाता है। वह तब तक उसके साथ रहता जब तक अधरा स्कूल में रहता परन्तु स्कूल जाना संभवतः बहुत कम होता उसे पशुओं को चराना तथा उसके चारे आदि का इन्तजाम करना ज्यादा भाता था।

अधरा आठवीं तक किसी तरह पढ़ पाया। वह किशोरावस्था में प्रवेश कर गया था। गाँव की लड़कियों को वह छेड़ता था। वह अपने हम उम्र के लड़कों में हीरो जैसा था। वह लम्बा छरहरा किशोर था जिसे संभवतः लड़कियाँ ज्यादा पसंद करती थी। उसकी चाल-ढाल तथा बेपरवाह, बातचीत ने खूबसूरत कई लड़कियों को दीवाना बना दिया था। अब वह खेती-किसानी का काम करता, गायों का रेहड चराता था, पढ़ाई को उसने तिलान्जलि दे दी थी क्योंकि पढ़ाई के अलावा उसको अन्य कार्यों में बड़ा मजा आता था। उसका ब्याह बचपन में ही हो गया था। अब उसका गौना भी आ गया। अपनी पत्नी को वह बहुत प्रेम करता था परन्तु गाँव की लड़कियों से भी उसके अन्तरंग संबंध थे। उसके पिता ‘दादा’ ने कहा, ‘बेटवा अब तू बाहर जाके कमा-धमा, गाय चरैले,से का हासिल होई ? अब तू जवान जहान भईला, अब कुछ समा-धमा।’ यह सुनकर अधरा अपने गाँव के अन्य साथियों के साथ बाम्बे ‘मुम्बई’ कमाने चला गया।

जब वह पहले पहल दादर महानगरी एक्सप्रेस से दादर स्टेशन पर उतरा तो उसे बम्बई एक नई दुनिया लगी क्योंकि उसने इतनी मोटर गाड़ियाँ, इतने लोगों की भीड़ कभी नहीं देखी थी। उसके ताऊ के बड़ा लड़के बम्बई में रहकर ऑटोरिक्शा चलाते थे। मुख्य रूप से ये लोग अँधेरी मूलन में ही रहते थे। अधरा भी अपने ताऊ के बड़े लड़के जिन्हें भइया कहता था उन्हीं के साथ उनकी खोली ‘घर’ में चला गया। अधरा ने कुछ दिन तक कोई काम नहीं किया। वह दिन भर घूमता, भइया की खोली में खाना खाता तथा वहीं पर रात गुजारता। कुछ दिनों में अधरा भी ऑटोरिक्शा चलाना सीख गया। भइया ने उसे ऑटोरिक्शा किराये पर चलाने के लिये दिला दिया। वह दिन भर ऑटोरिक्शा चलाता, शाम को भइया के पास आ जाता और उनके पास रहता। कुछ दिन तक सब कुछ सामान्य चला। एक दिन किसी बात पर उसका अन्य किसी ऑटो वाले से झगड़ा हो गया। अधरा आव न देखा ताव न देखा उसको पीट दिया। गाँव के कई लोग ऑटोरिक्शा चलाते थे। सभी ने अधरा का साथ दिया। अब वह ऑटोवालों का नेता हो गया। दारू पीने लगा।

रात में भी ऑटो रिक्शा चलाता। धीरे-धीरे तीन वर्ष बीत गये, वह अपने गाँव नहीं गया इसी बीच जब वह घर से यहाँ आया था तो उसके एक सन्तान भी घर पर हुई। उसके बीबी-बच्चे उसके दादा के साथ गाँव में रहते। अधरा रात में दारू खूब पीता, अनाब-सनाब बकता। वह अब बम्बइया दादा बन गया था। रात को ऑटो भी चलाता। अब उसने अपनी खोली भी किराये पर ले लिया। भइया से अलग रहने लगा। एक दिन रात में ऑटोरिक्शा चलाते समय एक युवती अन्धेरे में उसके पास आई और बोली ‘क्यों अधरा दादा। घर का ख्याल नहीं आता ? आओ आज हमारे साथ रात बिताओ।’ अधरा दारू की मस्ती में उस युवती को बाहों में भर लिया। ऑटोरिक्शा को किनारे लगाया। बिस्फोट हुआ, दोनों का एकाकार हुआ। अब अधरा हर दूसरे-तीसरे दिन युवतियों को बुलाता, उनसे शारीरिक संबंध बनाता। उसे क्या पता कि उसका शरीर खोखला हो रहा है कुछ दिनों के बाद उसकी तबीयत खराब रहने लगी। डॉक्टरों से बहुत इलाज कराया लेकिन ठीक नहीं हुआ। किसी ने गाँव में जाकर उसके पिता से कहा कि अधरा बीमार रहता है। काम-धाम सब छोड़ दिया। उसके दादा ने संदेश भेजवाया कि बेटा घर आजा। गाँव का हवा पानी लगेगा तो बर बीमारी सब ठीक हो जायेगी। पर वह घर आने पर भी बीमार ही रहता। बाम्बे में उसके रक्त की जाँच हुई थी तो डॉक्टर ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि अधरा को एड्स है, पर माता-पिता मानने के लिये तैयार ही नहीं थे कि उसको ऐसी कोई भयंकर बीमारी है।

‘उन्होंने ख्वाब देखे थे कि बेटा कमाएगा घर की गरीबी दूर हो जायेगी। पर यह क्या ? एक दिन उसका अधरा बिना बताये रात में सोते-सोते भगवान को प्यारा हो गया।
काश, अधरा को इस बीमारी की जानकारी होती, उससे बचने के उपाय के बारे में जानकारी होती तो वह अपने अन्दर जीवन कौशल का विकास किए होता। अज्ञानता का अंधकार अधरा को निगल गया।

कोलाहर


गर्मी के दिनों में चारों ओर गेहूँ के खेत कट रहे थे। गाँव में जगह-जगह मड़ाई का कार्य चल रहा था। थ्रेसर का विकास नहीं हुआ था। गाँव का छोटा-बड़ा किसान अपने-अपने बैलों से गेहूँ के सूखे पौधों पर कुचलवाते तीन-चार दिन में वह भूसे में बदल जाता तत्पश्चात हवा में गेहूँ ओसाने ‘उड़ाने’ का कार्य होता जिसमें भूसा अलग हो जाता, गेहूँ अलग हो जाता। गेहूँ के पौधों की गाँठ को बाद में सम्पूर्ण मड़ाई समाप्त हो जाने के बाद फिर मड़ाई करते हैं। उसमें से भी गेहूँ और भूसा अलग हो जाता है। यदि हवा नहीं चलती तो किसान बड़े चद्दर या लोई से दो लोग हवा करते हैं। एक-दो व्यक्तिटोकरी में गेहूँयुक्त भूसे को ओसाते जिससे गेहूँ भूसे से अलग हो जाता है। सम्पूर्ण क्रिया खलिहान में होती थी।

खलिगान गाँव के पास बाग के अन्दर खुले स्थान या गाँव के पास किसी के खाली खेत में लोग खलिहान बनाते हैं। खलिहान बनाने से लोग पहले उस स्थान की सफाई करते तत्पश्चात् गोबर से लिपाई होती। पास-पास 10-15 लोगों के खलिहान बनते उससे गेहूँ जौ, अरहर, चना, मटर, सरसों आदि काट करके खलिहान में ‘पईर’ (जहाँ बैलों से गेहूँ के सूखे पौधों पर कुचलवाया जाता) पर अपने-अपने बिछौनों को उस पर लगाकर रखवाली करते। रात में किस्से-कहानियों का दौर चलता।

कोलाहर का खलिहान अपने आप में अलग होता। वह अपने बैलों को खूब चुस्त-दुरुस्त रखते, उससे उनके खलिहान में भूसा अच्छा बनाया जाता। रात को कहानियाँ होती, जिन्हें वह केवल सुनते। उनकी गाली पूरे गाँव में प्रसिद्ध थी। मतलब वह गालियों पर नवाचार करते रहते जिस गाली को वह एक बार दे देते फिर दूसरी को वह पर्याप्त संशोधन करके प्रस्तुत करते।

जवानी के दिनों की इतनी करतूत सभी बुजर्ग बताते हैं कि ये अपने जमाने के बड़े रसिक प्राणी थे इनकी शादी नहीं हो रही थी। गाँव में ही एक विधवा से जिसके कई बच्चे भी थे शादी कर ली बाद में इनसे भी दो बच्चे हुए। अपने लड़के को यह प्राण से ज्यादा प्यार करते थे उसके खाने-पीने की अच्छी से अच्छी व्यवस्था करते परन्तु उसकी शादी बाल्यावस्था में करके इन्होंने अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी। तीन वर्ष बाद लड़के का गौना लाये। परन्तु वह अपने लड़के पर अंकुश लगाते थे कि वह अपनी पत्नी से कम से कम बात करे और मिले। उनकी धारणा थी कि हमारा लड़का शारीरिक रूप से कमजोर हो जायेगा। जब कभी बहू महावर लगा कर निकलती तो वह कहते ‘आज ई हमरे लड़का कै जान ले लेई।’
यह सुनते ही गाँव के लोग हँसी ठिठोली करते।

कोलाहर अब बूढ़े हो चले थे। उनका काम मवेसी चराना ही रह गया था। भैंस पालने के वे बड़े शौक़ीन थे। उन्होंने अपने जीवन काल में हमेशा अपने घर में गोरस का प्रबंध कर रखा था। कहते थे कि ‘दूध-घी ही अमृत है जिसके घर में गोरस नहीं उसके घर में कुछ नहीं।’ बुढ़ापे में लड़के इन्हें बहुत चिढ़ाते थे। कारण था इनकी स्पेशल गाली सुनने की चाहत। एक दिन की बात है कि कोलाहर भैंस चराकर घर आये। सायंकाल का समय था। भैंस को नाँद पर बाँध कर हुक्का-चिलम पी रहे थे। लग रहा था कि वह किसी सोच में डूबे थे। तब तक कुछ लड़के इधर से गुजरते हैं। एक शरारती लड़का कहता है। ‘बाबा पाँव लगी’। कोलाहर ने जबाब दिया ‘खुश रहो बिटवा पढ़-लिखकर बड़ा होवा।’ कुछ देर में जैसे लगा कि कोलाहर के दिमाग की बत्ती जल गयी। ‘बाबा’ शब्द पर विचार करते हुए उसके गूढ़ रहस्य विचारित कर उन्होंने उस बच्चे को विशिष्ट गालियों से गोहराना शुरू किया। कारण साफ था, वह सोचे यह लड़का रोज ‘काका’ कहता था आज यह ‘बाबा’ कह रहा है। लगता है यह हमें गाली दे रहा है। गाँव में पद के ही अनुसार कहा जाता था। ससुर को भी ‘बाबा’ कहा जाता है। अतः कोलाहल सोचे कि हमें ‘काका’ न कहकर ‘बाबा’ कहा इसका मतलब यह हमें ससुर बना दिया।

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