लोगों की राय

उपन्यास >> चाय शराब और ज़हर

चाय शराब और ज़हर

कृष्ण चन्द्र त्रिपाठी, रोहित मीचू

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7886
आईएसबीएन :9788183613460

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

186 पाठक हैं

दो युवा लेखकों की संयुक्त औपन्यासिक कृति...

Chay Sharab Aur Zahar - A Hindi Book - by Krishna Chandra Tripathi, Rohit Meechu

समिधा का चला जाना सदमा था। अचानक से आए इस परिवर्तन ने प्रभात के जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया था। जीवन अब...जीवन न था। वक़्त बस गुज़र रहा था। इन्तज़ार फिर भी है। रात को लगता है सवेरा होने पर राहत मिलेगी, काम पर जाना है, मन लगा रहेगा। लेकिन मन तो कहीं और लगा है। दफ़्तर में काम बहुत है। ‘एक कप चाय पी लूँ फिर शुरू करता हूँ।’ चाय पी जाती है। कुछ पन्ने उलटे जाते हैं। मन एकाग्र करने की पूरी कोशिश की जाती है। वक़्त देखता है। अभी सिर्फ़ 11 बजे हैं ? अभी 6 घंटे और बिताने हैं ? ‘12 बजे एक सिगरेट पी जाएगी।’ लेकिन 12 बजने में एक घंटा था। 12 बजे। ‘हाँ सिगरेट लेनी चाहिए।’ सिगरेट पी गई। 12:30 बजे। ‘हाँ, कुछ काम किया जाए।’ 1:30 बजे लंच। ‘2 तो बज ही जाएँगे।’ लंच करके 2 बजाया जाता है। अब ? चाय भी हो गई। सिगरेट भी पी ली। लंच भी हो गया। अब वक़्त कैसे गुज़रे ? अब तो काम करना ही होगा। आधे-अधूरे मन से काम करके 4 बजाया जाता है। फिर सिगरेट पी जाती है। 4:30 बजते हैं। अब एक घंटा काम करना चाहिए। ‘बहुत काम बाक़ी है, अब घड़ी देखना बन्द।’ बहुत काम किया जाता है। कुर्सी पर टेक लगाकर घड़ी देखी जाती है। ‘अब वक़्त हो गया होगा चलने का। पर अभी पाँच ही बजे हैं। आधा घंटा और !!’

–इसी पुस्तक से

यह उपन्यास कई मायनों में विशेष है। पहली विशेषता इसकी यह है कि यह प्रेम के विषय में है, और आज के उन उपन्यासों से भिन्न है जो केवल आलोचक-सन्तोष और ‘पोलिटिकली करेक्टनेस’ के फेर में पड़कर निहायत ही अप्रामाणिक अनुभवों के विवरणों से भरे होते हैं। यह उपन्यास समाज से, उसकी कटु सच्चाइयों से भी दूर नहीं, बल्कि अपने पाठ में प्रेम और उसकी पीड़ा के सघन, प्रामाणिक और छू जानेवाले बिम्बों को इतनी ईमानदारी से उकेरता है, कि हमें हमारे वर्तमान समाज में प्रेम की असंभवता स्पष्ट दिखने लगती है।

यही सघनता इसकी दूसरी विशेषता है। यह कथा चमत्कार पर निर्भर नहीं है, न यह चौंतानेवाले स्थिति-संयोजन का सहारा लेती है, बस अपनी पीड़ा को कुरेदते हुए, जीवन के साथ मद्धम गति से बढ़ते हुए हमें अपने साथ बनाए रखती है।

और तीसरी विशेषता इस उपन्यास की यह है कि यह दो लेखकों की संयुक्त रचना है, दोनों युवा हैं और उनकी यह पहली पुस्तक है। इस औपन्यासिक कृति से हम हमारे समय की उस युवा रचनात्मकता से रू-ब-रू होते हैं जो अपनी पारम्परिक साहित्यिक संवेदना से भी उतनी ही जुड़ी है, जितनी अपने आधुनिक व्यक्ति-बोध से।

प्रारब्ध


इलाहाबाद के लगभग मध्य मे स्थित कम्पनी बाग़ यहाँ के लोगों के ‘मॉर्निंग वॉक’ के लिए सबसे उपयुक्त स्थान है। ‘कम्पनी बाग़’, यह नाम शायद अंग्रेज़ों के समय से, ईस्ट इंडिया कम्पनी के नाम पर पड़ा होगा। इसका विस्तार यहाँ नियमित आनेवालों को ही ज्ञात है। म्यूज़ियम, टेनिस कोर्ट, क्रिकेट स्टेडियम, लाइब्रेरी और चन्द्रशेखर आज़ाद की दिव्य प्रतिमा इस बाग को बहुत-सी गतिविधियों का केन्द्र बनाते हैं। लेकिन ऐसी भी कुछ ‘गतिविधियों का केन्द्र बनाते हैं। लेकिन ऐसी भी कुछ ‘गतिविधियाँ’ यहाँ पनपती हैं जिनकी इजाज़त यहाँ का ‘सभ्य’ समाज नहीं देता।

कम्पनी बाग की पश्चिमी सीमा से सटकर चलती है ‘पार्क रोड’। ऐसे बहुत से पेड़ हैं इस पश्चिमी सीमा पर जिनकी छाया पार्क रोड पर काफ़ी दूर तक पड़ती है। इनमें एक नीम का पेड़ है जिसकी छाँह बहुत विशाल है, बाग़ के अन्दर भी, पार्क रोड पर भी। इसी पेड़ की छाँव में, एक बर्फ़ीली सुबह, प्रभात और समिधा बैठे हैं। सर्दी बहुत है। सुबह के 7-8 बज रहे होंगे। यूँ तो लोग-बाग कम हैं, फिर भी समिधा पलटकर पार्क रोड की तरफ़ देख ही लेती है–छोटा शहर है, कोई बाहर से देख ही ले। मगर रोड उसकी दिखती नहीं है–घने कोहरे की वजह से। वह आश्वस्त हो जाती है। पार्क रोड पर रखी नगर निगम की ट्राली भी अभी कोहरे में दिख नहीं रही है। जब से समिधा प्रभात के साथ यहाँ आने लगी है, अभी कुछ एक महीने ही हुए होंगे, निगम की इस ट्राली को देखकर धुंध के घनत्व का अन्दाज़ा लगाती है। चूँकि यह ट्राली पार्क रोड पर मौजूद अन्य सभी वस्तुओं से ज़्यादा नजदीक है, इसलिए जब तक ये नज़र नहीं आती तब तक पार्क रोड पर से देखे जाने का भय नहीं है।

दोनों करीब एक घंटे से बैठे हैं। बात के नाम पर यदा-कदा ‘क्या सोच रही हो ?’ के सिवाय कुछ नहीं है। फिर भी दोनों आनन्दित हैं।

समिधा ने स्वेटर की आस्तीन से हथेलियाँ ढँक ली हैं। प्रभात ने एक बेहद महीन शाख़ से एक अँगूठी बनाकर समिधा की उँगली में पहना दी है। समिधा उसे देखे जा रही है। कुछ अधेड़ उम्र के लोग वहाँ से टहलते हुए गुज़रे–मगर किसी ने ख़ास तवज्जो नहीं दी।
एक दूसरे की ठंडी हथेलियों को थामे दोनों काफ़ी देर बैठे रहे–निःशब्द, निश्चल।

समिधा ने बालों को ‘हेयर पिन’ से समेटा हुआ था जिसे प्रभात ने निकाल दिया और देखने लगा समिधा के बालों को उसके कन्धों पर ठहरे हुए। ऐसे लिपटा था उस शाख़ से दामन उसका कि देखते-ही-देखते बहार आ गई थी।

नगर निगम की वह ट्राली नज़र आने लगी है। सूरज आहिस्ता-आहिस्ता अपने होने की ख़बर देने लगा है। पार्क रोड पर चहल-पहल शुरू हो चुकी है।

तुम्हारी रुख़्सती का वो दिन


सितारे जब डूबने लगते हैं, तब रात की तारीक़ी बेहद घनी होती है। चराग़ बुझने से पहले एक बार जवान होता है और ‘दम’ निकलने से पहले एक बार जिस्म को जकड़-सा लेता है मानो कह रहा हो ‘‘नहीं ! तुम कमज़ोर सही, मैं तुझे नहीं छोड़ूँगा।’’ जिस्म में हलचल-सी होती है मगर इसी वक़्त दम निकल जाता है।

बहुत अफ़सोस होता है रिश्तों के टूटने का या उनके रूप बदलने का। इंसान तड़पकर रह जाता है, रिश्ता बचाने की कोशिश करता है किन्तु असफल रहता है। रिश्तेदार चले जाते हैं अपने पीछे एक कहानी छोड़कर जिन्हें याद करके हम ख़ुद को परेशान करते हैं। बार-बार पीछे मुड़के देखते हैं कि कहीं से कोई बुला ले मगर सन्नाटे हैं कि टूटते ही नहीं।

ख़ूबसूरत झूठ की तुलना में बदसूरत सच अपनाना बेहतर है। हम दस कदम चलते हैं, फिर पलटते हैं कि कहीं कोई बुला तो नहीं रहा है। कोई नहीं होता। हम फिर चलते हैं, लगता है कोई बुला रहा होगा, हम फिर पलटते हैं, फिर सन्नाटे चीखते हैं कि कोई नहीं है साथ। एक बार ! सिर्फ़ एक बार ऐसा हो कि हम पलटें और हमें सुनसान राहों की जगह फैली हुई बाँहें मिलें। लेकिन ये कोरी ख़्वाहिश है। आगे नए रास्ते हैं। ‘नया’ अगर अच्छा नहीं है तो बुरा भी नहीं हो सकता। वह इसीलिए तो नया है।

हर हालात का कोई छोर होता है, कोई जड़ होती है। जिस जगह आज हम खड़े हैं, वह जगह हमारी ही चुनी हुई है। इसमें हमारा ही निर्णय है। वक़्त ने हमें चुनने का मौक़ा दिया था, हर मोड़ पर दिया था। हमने हर मोड़ पर चुना भी था। लेकिन शायद हमसे चुनने में हर बार चूक हो गई। हमने हर बार ग़लत चुना। दोष वक़्त का नहीं है क्योंकि उसने कहा, ‘चुनो।’ दोष हालात का भी नहीं है क्योंकि हालात तो उस चुनाव का नतीजा है।

आज कोई उन्हीं हालात के दायरे में खड़ा है जो उसके चुनाव या ग़लत चुनाव, का नतीजा है। हालात इंसान से पैदा होते हैं या इंसान जो है वह हालात का नतीजा है ? एक रिश्ता ! सिर्फ़ एक रिश्ता ज़िन्दगी पर भारी पड़ा था। क्या दीवारों पर माज़ी का चलचित्र दिखाई देता है ? अगर नहीं तो क्यों वह दीवार देख रहा था ? क्या ख़ला टूटकर उस कमरे में आ गई थी जहाँ की ख़ामोशी कहीं चल रहे शोर की गवाही दे रही थी ? बड़ी ख़ामोशी है यहाँ, यक़ीनन कुछ देर पहले तूफ़ान आया होगा। हाँ, आया था। जज़्बात और ज़िन्दगी में ज़द्दोजहद हुई थी। अभी तक तो ज़िन्दगी जीत रही थी। लेकिन कब तक ?

‘‘कोई मिलने आया है।’’ वार्ड ब्वॉय ने कहा।
‘‘भेज दीजिए।’’ प्रभात ने इजाज़त दी।

कहने के बाद प्रभात जिज्ञासु भाव से दरवाज़े को देखने लगा। तमाम ख़ास लोगों के चेहरे याद करने लगा। इस क़तार में उसने वह चेहरा नहीं देखा जो सबसे ख़ास था। हाँ ! वह तो सबसे ख़ास है। उम्मीद कभी तो टूटती ही है। टूट चुकी थी। ये फ़ितरत है कि क्या है ?
शायद जिसके आने की उम्मीद न हो उसके आने का सबसे अधिक इन्तज़ार रहता है।

‘‘प्रभात क्या है ये सब ? क्यूँ ? मुझे आज ख़बर लगी। भागा नहीं जाता यार...लड़ा जाता है।’’ ये शशि था। शशि और प्रभात साथ काम करते थे। दोनों एक कम्पनी में फाइनेंस देखते थे। शशि एक हफ़्ते के लिए बाहर चला गया था। आज ही लौटा था।

‘‘ओह शशि कहाँ थे तुम ? सब ख़त्म है यार...कहाँ जाऊ ?’’ प्रभात टूट गया। हथेलियों की ओट से बहते आँसू और उनमें बसी सिसकियाँ शशि ने सुनीं।

‘‘अचानक ? क्यूँ यार ? तुम तो सब भूलना चाहते थे। रितु ने बताया तुम कसौली से जल्दी आ गए हो। घर फ़ोन किया तो फ़ोन उठा नहीं। दफ़्तर तुम आए नहीं। सुबह लौटा तो घर में ताला बन्द पाया। पड़ोसियों ने हादसे की ख़बर दी।’’ प्रभात चुप था। शशि ने थोड़ा गुस्से के लहज़े में कहा।

‘‘कसौली से वापस आने की इत्तला तो कर देते। ख़ैर वह सब जाने दो। अचानक तुमसे ख़ुदकशी...’’
‘‘अचानक कहाँ यार। मैं तो कब का मर चुका था। ज़बरदस्ती ढो रहा था ख़ुद को। जान ही नहीं जाती यार। शायद मैं जान देना नहीं चाहता।’’

बहते-बहते सारे जज़्बात बहने लगे। जब तक आँखों ने दिल का साथ दिया प्रभात रोता रहा। फिर आँखों ने साथ छोड़ दिया। जज़्बात नींद में भी चीखते रहे लेकिन उन्हें आँखों या होंठों ने सहारा नहीं दिया।

शशि ने देखा प्रभात का बेसुध चेहरा।
‘‘डॉक्टर ! क्या हुआ था ?’’
‘‘नींद की गोलियाँ खा ली थीं। पूरी शीशी। बहुत मुश्किल से बचे हैं। क्या पागलपन है दुनिया में।’’
‘पागलपन ? हाँ, पागलपन ही तो है।’ शशि सोच रहा था। बड़ी मजबूर आँखों से शशि ने प्रभात का जिस्म देखा। बेहद कमज़ोर।

‘प्रभात ! तुम्हारे लिए मैं कुछ न कर सका। मैं कर भी क्या सकता था ?’ शशि अपने में बुदबुदा रहा था। प्रभात मानो ख़ामोशी में शशि से बात कर रहा हो ‘बड़ी महँगी थी यार मोहब्बत। सबकुछ लुटा देने पर भी न मिल सकी।’

‘‘ये ठीक तो हो जाएगा न ?’’
‘‘हाँ। लेकिन शरीर बहुत कमज़ोर हो गया है। इन्हें सम्हालना होगा।’’
कमरे में मरियम की तस्वीर थी। मरियम यानी माँ और माँ यानी औरत। मरियम–दया की मूर्ति। औरत ! दया ! शशि हँसा।

वक़्त गुज़र जाता है। ग़ुजरे हुए वक़्त में जो ढल गया उसका अक़्स ज़ेहन में कहीं ज़रूर रहता है। हम बार-बार उस पल को जीते हैं, उस अक़्स को ज़ेहन से आँखों में उतारकर। वह पल भले ही मृत हो लेकिन हम उसी में जीते हैं। वे जो जानते हैं, वह कहते हैं कि दिल दर्पण है।

यादें तो अतीत की तस्वीर हैं। ज़रा आँख बन्द किया कि वर्तमान का शिफ़ॉन पर्दा सरका और तस्वीर साफ़ दिखाई देने लगी। देखा शशि ने प्रभात को बेफ़िक्री से कुर्सी पर आधे लेटे हुए, सुना उसने प्रभात को कहते हुए–

‘‘आज दो बजे रिज़ेंसी कैफ़े जाना है।’’
‘‘तुम यार ! अभी कल तो मिल के आए हो।’’
‘‘क्या करें। उसका तो जैसे मन ही नहीं भरता है मुझसे।

प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book