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उपन्यास >> पुनर्नवा

पुनर्नवा

हजारी प्रसाद द्विवेदी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :310
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7885
आईएसबीएन :9788126701339

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पुनर्नवा चौथी शताब्दी की घटनाओं पर आधारित ऐतिहासिक उपन्यास है...

Punarnava - A Hindi Book - by Hazari Prasad Dwivedi

जिसे प्रायः सत्य कहा जाता है वह वस्तुस्थिति का प्रत्यक्षीकरण मात्र है। लोग सत्य को जानते हैं, समझते नहीं। और इसीलिए सत्य कई बार बहुत कड़वा तो लगता ही है, वह भ्रामक भी होता है। फलतः जनसाधारण ही नहीं, समाज के शीर्ष व्यक्ति भी कई बार लोकापवाद और लोकस्तुति के झूठे प्रपंचों में फँसकर पथभ्रष्ट हो जाते हैं।

पुनर्नवा ऐसे ही लोकापवादों से दिग्भ्रांत चरित्रों की कहानी है। वस्तुस्थिति की कारण-परंपरा को न समझकर वे समाज से ही नहीं, अपने-आपसे भी पलायन करते हैं और कर्तव्याकर्तव्य का बोध उन्हें नहीं रहता। सत्य की तह में जाकर जब वे उन अपवादों और स्तुतियों के भ्रमजाल से मुक्त होते हैं, तभी अपने वास्तविक स्वरूप का परिचय उन्हें मिलता है और नवीन शक्ति प्राप्त कर वे नए सिरे से जीवन-संग्राम में प्रवृत्त होते हैं।

पुनर्नवा ऐसे हीन चरित्र व्यक्तियों की कहानी भी है जो युग-युग से समाज की लांछना सहते आए हैं, किंतु शोभा और शालीनता की कोई किरण जिनके अंतर में छिपी रहती है और एक दिन यही किरण ज्योतिपुंज बनकर न केवल उनके अपने, बल्कि दूसरों के जीवन को भी आलोकिक कर देती है।

पुनर्नवा चौथी शताब्दी की घटनाओं पर आधारित ऐतिहासिक उपन्यास है, लेकिन जिन प्रश्नों को यहाँ उठाया गया है वे चिरंतन हैं और उनके प्रस्तुतीकरण तथा निर्वाह में आचार्य द्विवेदी ने अत्यन्त वैज्ञानिक एवं प्रगतिशील दृष्टिकोण का परिचय दिया है।

 

पुनर्नवा

एक

 

देवरात साधु पुरुष थे। कोई नहीं जानता था कि वे कहाँ से आकर हलद्वीप में बस गए थे। लोगों में उनके विषय में अनेक प्रकार की किंवदंतियाँ थीं। कोई कहता था, वे कुलूत देश के राजकुमार थे और विमाता से अनेक प्रकार के दुर्व्यवहार प्राप्त करने के बाद संसार से विरक्त होकर इधर चले आए थे। कुछ लोग बताते थे कि बाल्यावस्था में ही उन्हें मंखलि नामक किसी सिद्ध पुरुष से परिचय हो गया और उनके उपदेशों से वे संगार त्यागकर रमता राम बन गए। उनके गौर शरीर, प्रशस्त ललाट, दीर्घ नेत्र, कपाट के समान वक्षःस्थल, आजानुविलम्बित बाहुओं को देखकर इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता था कि वे किसी बड़े कुल में उत्पन्न हुए हैं। उनके शरीर में पुरुषोचित तेज और शौर्य दमकता रहता था और मन में अद्भुत औदार्य और करुणा की भावना थी। वे संस्कृत और प्राकृत के अच्छे कवि भी थे और वीणा, वेणु, मुरज और मृदंग-जैसे विभिन्न श्रेणी के वाद्ययन्त्रों के कुशल वादक भी थे। चित्र-कर्म में भी वे कुशल माने जाते थे। यह प्रसिद्ध था कि क्षिप्तेश्वरनाथ महादेव के मन्दिर के भीतरी भाग में जो भित्तिचित्र बने थे, वे देवरात की ही चमत्कारी लेखनी के फल थे। शील, सौजन्य औदार्य और मृदुता के वे यद्यपि आश्रम माने जाते थे, परन्तु फिर भी उन्होंने वैराग्य ग्रहण किया था। हलद्वीप के राज-परिवार में उनका बड़ा सम्मान था। जब कभी राजा के यहाँ कोई उत्सव होता था, वे ससम्मान बुलाए जाते थे। वे यज्ञ-भाग में उसी उत्साह के साथ सम्मिलित होते थे जिस उत्साह के साथ मल्ल-समाह्वय में। वे पंडितों की वाद-सभा में भी रस लेते थे और नृत्यगीत के आयोजनों में भी। लोगों का विश्वास था कि उन्हें संसार के किसी विषय से आसक्ति नहीं थी। उनका एकमात्र व्यसन था दीन-दुखियों की सेवा, बालकों को पढ़ाना और उन्हीं के साथ खेलना। यद्यपि वे अनेक शास्त्रों के ज्ञाता थे और भगवद्-भक्त भी माने जाते थे, परन्तु वे नियमों और आचारों के बन्धनों में कभी नहीं पड़े। साधारण जनता में उनकी रहस्यमयी शक्तियों पर बड़ी आस्था थी, परन्तु किसी ने उन्हें कभी पूजा-पाठ करते भी नहीं देखा।

देवरात का आश्रम हलद्वीप से सटा हुआ, थोड़ा पश्चिम की ओर, महासरयू के तट पर अवस्थित था। च्यवनभूमि के चौधरी वृद्धोगोप उन पर बड़ी श्रद्धा रखते थे। वृद्धगोप का इस क्षेत्र में बड़ा सम्मान था। उनके पूर्व-पुरुष मथुरा से शुंग राजाओं की सेना के साथ आकर यहीं बस गए थे। नन्दगोप के वंशधर होने के कारण उनका कुल जनता की श्रद्धा और विश्वास का पात्र था। वृद्धगोप के दो पुत्र थे जिनमें एक तो वस्तुतः ब्राह्मण-कुमार था जिसे उन्होंने यत्न और स्नेह से पाला था। कुछ साँवला होने के कारण उन्होंने इसका नाम दिया था श्यामरूप। दूसरा आर्यक उनका अपना लड़का था। श्यामरूप को उन्होंने देवरात के आश्रम में पढ़ने के लिए भेजने का निश्चय किया। उस समय उसकी अवस्था आठ या नौ वर्ष की थी। जब श्यामरूप आश्रम में जाने लगा तो चार-पाँच वर्ष की अवस्था का आर्यक भी पाठशाला जाने के लिए मचल उठा। वृद्धगोप आर्यक को अपनी वंश-परम्परा के अनुकुल मल्ल-विद्या की शिक्षा देना चाहते थे, परन्तु उसके हठ को देखते हुए उन्होंने उसे भी पाठशाला जाने की आज्ञा दे दी। देवरात इन दोनों शिष्यों को पाकर बहुत अधिक प्रसन्न हुए। उन्होंने वृद्धगोप से आग्रह किया कि दोनों बच्चों को उनके आश्रम में पढ़ने दिया जाए। उन्होंने गद्गद-भाव से वृद्धगोप से कहा था कि उन्हें ऐसा लग रहा है, जैसे स्वयं बलराम और कृष्ण ही इन दो बच्चों के रूप में उनके सामने आ गए हैं। भाव-गद्गद होकर दोनों बच्चों को गोद में लेकर वे देर तक बैठे रहे और फिर आकाश की ओर देखकर बोले, ‘‘प्रभो ! यह कैसी अपूर्व लीला है ! वृद्धगोप ने सुना तो उन्हें रोमांच हो आया। उन्हें लगा कि सचमुच ही जिस प्रकार नन्दगोप की गोदी में बलराम और कृष्ण आ गए थे, वैसे ही उनकी गोदी में श्यामरूप और आर्यक आ गए हैं। महात्मा देवरात के चरणों में साष्टांग दंडवत् करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘आर्य, आज मेरा जन्म-जन्मान्तर कृतार्थ जान पड़ता है। आपने ही इन दोनों बच्चों में बलराम और कृष्ण का रूप देखा है और आप ही इन्हें बलराम और कृष्ण बना सकते हैं। मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि श्यामरूप अपनी वंश-परम्परा के अनुसार पंडित बने और आर्यक अपनी वंश-परम्परा के अनुसार अजेय मल्ल बने, परन्तु आपके चरणों में इन्हें सौंपकर मैं निश्चिन्त हुआ हूँ। आप इन्हें यथोचित् शिक्षा दें।’’ देवरात देर तक दोनों बच्चों के शारीरिक लक्षणों की परीक्षा करते रहे और उल्लसित स्वर में बोले, ‘‘चिन्ता न करें भद्र, ये दोनों ही बच्चों पंडित भी बनेंगे और अजेय मल्ल भी। आर्यक में चक्रवर्ती के सब लक्षण दिखाई दे रहे हैं। यदि सामुद्रिक-शास्त्र सत्य है तो आर्यक दिग्विजयी होकर रहेगा और श्यामरूप उसको महामात्य बनेगा।’’ फिर आर्यक की ओर ध्यान से देखते हुए बोले, ‘‘मेरा मन कहता है कि यह बालक वृद्घगोप के घर में गाय चराने के लिए पैदा नहीं हुआ है। यह बहुत बड़ा होगा, बहुत बड़ा !’’ वृद्धगोप सन्तुष्ट होकर घर लौट गए। दोनों बच्चे देवरात की देख-रेख में पढ़ने और बढ़ने लगे। देवरात ने त्रिलिंग देश के मल्ल राजुल को उन्हें व्यायाम और मल्ल-विद्या सिखाने के लिए नियुक्त किया।

देवरात दीन-दुखियों की सेवा में सदा तत्पर रहा करते थे। उन्हें किसी से कुछ लेना-देना नहीं था। परन्तु उनकी कला-मर्मज्ञता का राज-भवन में भी सम्मान था। हलद्वीप की जनता का विश्वास था कि देवरात जो हलद्वीप में टिक गए हैं, उसका मुख्य कारण राजा का आग्रह और सम्मान है। अन्तःपुर में भी उनका अबाध प्रवेश था। वस्तुतः वे राजा और प्रजा दोनों के ही सम्मानभाजन थे।

देवरात के शील, सौजन्य, कला-प्रेम और विद्वत्ता ने हलद्वीप की जनता का मन मोह लिया था। लोग कानाफूसी किया करते थे कि उनका विरोध सिर्फ एक ही व्यक्ति की ओर से है। वह थी हलद्वीप के छोटे नगर की नगरश्री मंजुला। सारे नगर में उसके रूप, शील, औदार्य और कला-पटुता की धूम थी। बड़े-बड़े श्रेष्ठिकुमार उसके कृपा-कटाक्ष के लिए लालायित रहा करते थे। उसके नृत्य में मादकता थी और कंठ में अमृत का रस हलद्वीप में वह अत्यन्त अभिमानिनी गणिका के रूप में विख्यात थी और अपने विशाल सतखंड हर्म्य के बाहर बहुत कम जाती थी। केवल विशेष-विशेष अवसरों पर आयोजित राजकीय उत्सवों में ही वह अपना नृत्य-कौशल द़िखाया करती थी। अन्य अवसरों पर नृत्य और गीत के प्रेमियों को उसके द्वारस्थ होकर ही अपना मनोरथ पूरा करना पड़ता था। उसके अभिमान और आत्म-गौरव के सम्बन्ध में लोगों में अनेक प्रकार की किंवदंतियाँ प्रचलित थीं। कहा तो यहाँ तक जाता था कि कला-चातुरी के बारे में राजा भी उसकी आलोचना करने में हिचकते थे।

हलद्वीप के पश्चिमी किनारे पर, जहाँबोधसागर की सीमा समाप्त होती थी, एक ऊँचा-सा बड़ा टीला था। बरसात में जब बोधसागर में पानी भर जाता था और महासरयू में भी उफान आता था, तो यह टीला चारों ओर पानी से घिर जाता था। इसीलिए वह हलद्वीप में एक दूसरे द्वीप की तरह दिखाई देता था। उसका नाम ‘द्वीपखंड’ सर्वथा उचित ही था। इसी द्वीपखंड के दक्षिण-पूर्वी छोर पर हलद्वीप का ‘सरस्वती-विहार’ था। वसंतारम्भ के दिन इस सरस्वती-विहार में काव्य, नृत्यु, संगीत आदि का बहुत बड़ा आयोजन हुआ करता था। उस दिन राजा स्वयं इन उत्सवों का नेतृत्व करते थे। कई दिन तक नृत्य-गीत के साथ-साथ अक्षर-च्युतक, बिंदुमती, प्रहेलिका आदि की प्रतियोगिताएँ चलती थीं, न्याय और व्याकरण के शास्त्रार्थ हुआ करते थे, कवियों की समस्यापूर्ति की प्रतिद्वन्द्विता भी चला करती थी, और देश-विदेश से आए हुए प्रख्यात मल्लों की कुश्तियाँ भी।

राजा के सभापतित्व में ही एक बार मंजुला का नृत्य इसी सरस्वती-विहार में हुआ। देवरात भी सदा की भाँति आमन्त्रित थे। मंजुला ने उस दिन बड़ा ही मनोहर नृत्य किया था। स्वयं राजा ने उसे उस नृत्य के लिए साधुवाद दिया था। देवरात नृत्य किया था। स्वंय राजा ने उसे उस नृत्य के लिए साधुवाद दिया था। देवरात भाव-गद्गद होकर देर तक उस मादक नृत्य का आनन्द लेते रहे। मंजुला ने उस दिन पूरी तैयारी की थी। उस दिन उसकी सम्पूर्ण देहलता किसी निपुण कवि द्वारा निबद्घ छन्दोधारा की भाँति लहरा रही थी; द्रत-मंथर गति अनायास विविध भावों को इस प्रकार अभिव्यक्त कर रही थी, मानो किसी कुशल चित्रकार द्वारा चित्रित कल्पवल्ली ही सजीव होकर थिरक उठी हो। उसकी बड़ी-बड़ी काली आँखें कटाक्ष-निक्षेप की घूर्णमान परम्पराओं का इस प्रकार निर्माण कर रही थीं जैसे नीलकमलों का चक्रवाल ही चंचल हो उठता हो, शरत्कालीन चन्द्रमा के समान उसका मुखमंडल चारियों के वेग से इस प्रकार घूम रहा था कि जान पड़ता था, शत-शत चन्द्रमंडल ही आरात्रिक प्रदीपों की अराल-माला में गुँथकर जगर-मगर दीप्ति उत्पन्न कर रहे हों। उसकी नृत्य-भंगिमा से नाना स्थिति की भाव-मुद्राएँ अनायास निखर उठी थीं। उसके कन्धे के नीचे मृणाल-कोमल भुज-युगल सुकुमार-संग्रथित द्विपदी-खंड के समान भाव-परम्परा में वलयित हो उठते थे। वस्तुतः पूर्वानिल के झोंकों से झूमती हुई शतावरी लता के समान उसकी सम्पूर्ण देह-वल्लरी ही भावोल्लास की तरंग से लीलायित हो उठी थी। ऐसा लगता था, वह छन्दों से ही बनी है, रागों से ही पल्लवित हुई है, तानों से सँवारी गई है और तालों से ही कसी गई है। सभा एकाग्र की भाँति, चित्रलिखित की भाँति, मन्त्र-मुग्ध की भाँति, साँस रोककर उस अपूर्व तालानुग उत्ताल नर्त्तन का आनन्द ले रही थी। नृत्य की समाप्ति के बाद भी एक प्रकार की मादक विह्वलता छाई हुई थी। महाराज के साथ सम्पूर्ण राजसभा ने उल्लसित स्वर में ‘साधु-साधु’ की हर्षध्वनि की। देवरात निर्वात-निष्कम्प दीपशिखा की भाँति, निस्तरंग जलाशय की भाँति, वृष्टिपूर्व घनघुम्मर मेघमाला की भाँति स्थिर बने रहे। मंजुला गर्वपूर्वक उनकी ओर देखा। वे शान्त बने रहे। ऐसा लगता था कि वे अब भी भाव-विह्वल अवस्था में थे। महाराज ने उन्हें सचेत किया, ‘‘आर्य देवरात, नृत्य कैसा लगा आपको ?’’ ऐसा लगा कि देवरात आयापूर्वक अपनी संज्ञा के खोए हुए तन्तुओं को समेटने लगे। बोले, ‘‘क्या कहना है महाराज, मंजुला देवी ने आज नृत्य-कला को धन्य कर दिया है। शास्त्रकारों ने जो नृत्य को देवताओं का चाक्षुष यज्ञ कहा है, वह बात आज प्रत्यक्ष देख सका हूँ।’’ फिर मंजुला को सम्बोधन करते हुए बोले, ‘‘धन्य हो देवि, ताल तुम्हारे चरणों का दास है, भाव तुम्हारे मुखमंडल का मुँह जोहता रहता है...’’ कहते-कहते वे बीच में ही रुक गए। स्पष्ट जान पड़ा कि वे कुछ और कहना चाहते थे पर कह नहीं सके हैं। महाराज ने जान-बूझकर छेड़ा, ‘‘कुछ त्रुटि भी रह गई है क्या, आर्य ?’’ मंजुला मन-ही-मन जल उठी। उसे लगा कि देवरात कुछ दोषोद्गार करने के लिए ही यह मीठी भूमिका बाँध रहे हैं। इसके पहले भी ऐसी कोई बात नहीं कही जिसमें रंचमात्र भी अश्रद्धा प्रकट हुई हो, पर मंजुला ने सदा उनकी आलोचनाओं में द्वेष-भाव ही देखा था। आज भी उसे लगा कि देवरात कुछ ऐसा ही करने जा रहे हैं।

परन्तु देवरात कभी विद्वेष-बुद्धि से किसी को कुछ नहीं कहते थे। उन्हें सचमुच मंजुला का नृत्य अच्छा लगा था, यद्यपि वे उससे कुछ अधिक की आशा रखते थे। मंजुला को ही सम्बोधन करते हुए बोले, ‘‘बड़ा ही रमणीय साधन तुम्हें मिला है, देवि ! अपने को खोकर ही अपने को पाया जा सकता है। तुम्हारा नृत्य इसी महासाधना की ओर अग्रसर हो रहा है। इस महाविद्या के बल पर ही एक दिन तुम स्वयं को दलित द्राक्षा की तरह निचोड़कर महा-अज्ञात के चरणों में दे सकोगी।’’ फिर यह सोचकर कि कहीं मंजुला के चित्त को ठेस न पहुँच जाए, वे फिर उसी को सम्बोधन करके बोले, ‘‘अज्ञ जन दया का पात्र होता है, देवि ! अवश्य ही तुमने कुछ समझकर ही भावानुप्रवेश की उपेक्षा की होगी। मैं तो अज्ञ श्रद्धालु के रूप में ही यह सब कह रहा हूँ। इसे अन्यथा न समझना।’’ मंजुला का मुख क्षण-भर के लिए म्लान हो गया। वह कुछ उत्तर न दे सकी। राजा ने ही बीच में उसे सँभाला, ‘‘आर्य, किस प्रकार का भावानुप्रवेश आप चाहते हैं ?’’ देवरात मंजुला का म्लान मुख देखकर अनुतप्त हुए। परन्तु बात उनके मुँह से निकल चुकी थी और राजा के प्रश्न का उत्तर देना आवश्यक था। बड़ी संयत वाणी में उन्होंने कहा, ‘देव, मंजुला का नृत्य निस्सन्देह बहुत उत्तम कोटि का है। जो बात मेरी समझ में नहीं आई, वह यह है कि ‘छलित’ नृत्य मे नर्त्तक या नर्त्तकी को उन भावों को स्वयं अनुभव-सा करना चाहिए जो अभिनीत हो रहे हैं। इसी को भावानुप्रवेश कहते हैं। दूसरों के द्वारा प्रकट किए हुए भाव में स्वयं अपने को प्रवेश कराने का कौशल ! निस्सन्देह मंजुला देवी इसमें निपुण हैं। परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि वे आज अपने को भूल नहीं सकी हैं। नृत्य का उद्देश्य मानो कुछ और था—सहज आनन्द से भिन्न कुछ और बात !’’ देवरात को संकोच अनुभव हो रहा था। बात कुछ अवांछित दिशा की ओर बढ़ती जा रही थी। उसे किसी दूसरी ओर मोड़ देने के उद्देश्य से उन्होंने कहा, ‘‘भावानुप्रवेश तो पहली सीढ़ी है, महाराज ! अन्तिम लक्ष्य तो महाभाव की अनुभूति ही है।’’

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