हास्य-व्यंग्य >> बालम तू काहे न हुआ एन.आर.आई. बालम तू काहे न हुआ एन.आर.आई.आलोक पुराणिक
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अगर सुदामा परदेश नहीं जाते, तो क्या इतने फेमस हो पाते ? नहीं। बालम, तू काहे न हुआ एन. आर. आई. आलोक पुराणिक का नया व्यंग्य संग्रह है।
अगर सुदामा परदेश नहीं जाते, तो क्या इतने फेमस हो पाते ? नहीं। कृष्ण के
जिन मित्रों ने परदेश जाने का साहस नहीं दिखाया, क्या उनका नाम कोई जानता
है ? नहीं। इसे यों कहा जाना चाहिए कि सुदामा की पत्नी ने अगर पति से
परदेश जाने की झकझक न की होती, तो सुदामा भी चिरकुट मिडिल क्लास लाइफ जीकर
निपट जाते।
वैसे जो भी हो, परदेश में मामला आसान हो जाता है। एक मेरे परिचित टोरन्टो कनाडा में स्टेशन के पास समोसे बेचते हैं। पर यहाँ बताते हैं कि फूड प्रोसेसिंग का कारोबार है। परदेश में जाने का फायदा यह होता है कि समोसे का धन्धा फूड प्रोसेसिंग का मान लिया जाता है। कभी-कभी सुदामा-कृष्ण की कहानी सुनकर मुझे शक होता है कि कृष्ण ने इतनी आसानी से सुदामा को इतना कैसे दे दिया। यह हुआ होगा कि सुदामा द्वारिका में चाट बेचने लगे होंगे, उसी में दबाकर कमाई कर ली होगी। द्वारिका में चाट बेची जा सकती थी, अपने इलाके में नहीं। टोरन्टों में समोसे बेचे जा सकते हैं, अपने इलाके में नहीं। परदेशी के कई कायदे हैं।
...पर जो भी हो, अब श्रेष्ठ बालमत्व परदेशी होने में ही निहित है। परमश्रेष्ठ बालम वह है, जो परमानेन्ट वही रहने का जुगाड़ कर ले। एकाध महीने के लिए परदेश जाकर लौटकर आनेवाला बालम उच्चकोटि का बालम नहीं माना जाता। इधर उस कहावत का मर्म समझ में आ रहा है कि ‘लौट के बुद्ध घर को आए’। इसका मतलब है, जो लौटकर इस देश में आ गया, वह बुद्धू ही है। जो कनाड़ा में पकौड़ों की दुकान नहीं खोल पाया है, वह बुद्धू ही है। जो इस देश से जा ही नहीं पाया है, वह तो परमबुद्धू है।
आलोक पुराणिक हमारे रोजमर्रा जीवन की विसंगतियों की शल्प-क्रिया करनेवाले व्यंग्यकार हैं।
बालम, तू काहे न हुआ एन. आर. आई. उनका नया व्यंग्य संग्रह है। इसमें उन्होंने देश-विदेश एवं मेथकीय सन्दर्भों से जहाँ आज के सामाजिक जीवन की विद्रूपताओं को रेखांकित किया है, वहीं राजनीत में प्याप्त भ्रष्टाचार पर प्रकाश डालने के साथ अपने स्वार्थों में लिप्त धार्मिक पाखंडियों का भी पर्दाफाश किया है।
व्यंग्य के बहाने लेखक हमारे जीवन से जुड़े उन विरोधाभासों को परत-दर-परत खोलता चलता है जिनका सामना हमें जीवन में कदम-कदम पर करना पड़ता है और जहाँ हम नाटकीय जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं। स्वार्थों और चालाकियों की भेंट चढ़े रिश्ते हों या बहुराष्ट्रीयता के प्रहसन के सामने अपनी साख बचाती स्थानीयता या फिर स्वतन्त्रता बाद के भारत की राजनीति हो, यह सब उनकी लेखनी के दायरे में आते हैं, और इतने स्वाभाविक चुटीलेपन के साथ कि पाठक भावोद्वेलित पर बिना नहीं रह सकता।
वैसे जो भी हो, परदेश में मामला आसान हो जाता है। एक मेरे परिचित टोरन्टो कनाडा में स्टेशन के पास समोसे बेचते हैं। पर यहाँ बताते हैं कि फूड प्रोसेसिंग का कारोबार है। परदेश में जाने का फायदा यह होता है कि समोसे का धन्धा फूड प्रोसेसिंग का मान लिया जाता है। कभी-कभी सुदामा-कृष्ण की कहानी सुनकर मुझे शक होता है कि कृष्ण ने इतनी आसानी से सुदामा को इतना कैसे दे दिया। यह हुआ होगा कि सुदामा द्वारिका में चाट बेचने लगे होंगे, उसी में दबाकर कमाई कर ली होगी। द्वारिका में चाट बेची जा सकती थी, अपने इलाके में नहीं। टोरन्टों में समोसे बेचे जा सकते हैं, अपने इलाके में नहीं। परदेशी के कई कायदे हैं।
...पर जो भी हो, अब श्रेष्ठ बालमत्व परदेशी होने में ही निहित है। परमश्रेष्ठ बालम वह है, जो परमानेन्ट वही रहने का जुगाड़ कर ले। एकाध महीने के लिए परदेश जाकर लौटकर आनेवाला बालम उच्चकोटि का बालम नहीं माना जाता। इधर उस कहावत का मर्म समझ में आ रहा है कि ‘लौट के बुद्ध घर को आए’। इसका मतलब है, जो लौटकर इस देश में आ गया, वह बुद्धू ही है। जो कनाड़ा में पकौड़ों की दुकान नहीं खोल पाया है, वह बुद्धू ही है। जो इस देश से जा ही नहीं पाया है, वह तो परमबुद्धू है।
आलोक पुराणिक हमारे रोजमर्रा जीवन की विसंगतियों की शल्प-क्रिया करनेवाले व्यंग्यकार हैं।
बालम, तू काहे न हुआ एन. आर. आई. उनका नया व्यंग्य संग्रह है। इसमें उन्होंने देश-विदेश एवं मेथकीय सन्दर्भों से जहाँ आज के सामाजिक जीवन की विद्रूपताओं को रेखांकित किया है, वहीं राजनीत में प्याप्त भ्रष्टाचार पर प्रकाश डालने के साथ अपने स्वार्थों में लिप्त धार्मिक पाखंडियों का भी पर्दाफाश किया है।
व्यंग्य के बहाने लेखक हमारे जीवन से जुड़े उन विरोधाभासों को परत-दर-परत खोलता चलता है जिनका सामना हमें जीवन में कदम-कदम पर करना पड़ता है और जहाँ हम नाटकीय जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं। स्वार्थों और चालाकियों की भेंट चढ़े रिश्ते हों या बहुराष्ट्रीयता के प्रहसन के सामने अपनी साख बचाती स्थानीयता या फिर स्वतन्त्रता बाद के भारत की राजनीति हो, यह सब उनकी लेखनी के दायरे में आते हैं, और इतने स्वाभाविक चुटीलेपन के साथ कि पाठक भावोद्वेलित पर बिना नहीं रह सकता।
बालम, तू काहे न हुआ एन.आर.आई.
बालम परदेश न जा–बेगम अख्तर की कई साल पुरानी ठुमरीनुना गजल या
गजलनुमा ठुमरी ट्रांजिस्टर पर चल रही है। तीस-चालीस साल पहले बालम को यही
कहा जाता था–बालम, परदेश न जा। मेरी पत्नी मुझसे रोज झगड़ती है
कि अमेरिका या कनाड़ा की कोई नौकरी क्यों नहीं तलाशते। देखो, वह मछली के
पकौड़े बनानेवाला कनाड़ा में सैटल हो गया है। इस बार बता रहा था कि
मर्सीडीज खरीदी है। देखो, वह बाबू भाई मिस्त्री दुबई में जम गया है।
देखो, वह चौरसिया पानवाला भी न्यू जर्सी में एन.आर.आई. हो गया है। तुम कब परदेशी होगे बालम ? सारे कायदे के बालम परदेशी हुए जा रहे हैं। सब तरफ मामले उलटे हो गए हैं। प्राचीन काव्यग्रन्थों में दिखाया जाता था कि नायिका विरह-वेदना में परेशान हो रही है। कह रही है कि दुष्ट बालम परदेश जाकर लौटने का नाम नहीं लेते। अब इन ग्रन्थों में रिवीजन इस तरह से होना चाहिए, नायिका परेशान है। कह रही है कि दुष्ट, आलसी, चिरकुट बालम परदेश जाने का नाम नहीं ले रहे हैं। सारी सखियों के बालम परदेशी हो गए हैं, सो मुझे वे सब चिढ़ाती हैं।
तुम सब परदेशी होगे बालम? सब तरफ यही सन्देश सुनाई दे रहा है। सिर्फ बालम होने से अब काम नहीं चल रहा है। परदेशी होना जरूरी हो गया है। क्या दिन रहे होंगे, जब सिर्फ बालम होने भर से काम चल जाता था। कैसे सुन्दर प्रेमपूर्ण दिन रहे होंगे, जब कोई बालम बताता होगा कि कम्पनी विदेश भेज रही है, क्या करूँ। पत्नी वही कहती होगी–ना, परदेश न जा बालम।
तब बालम भी बहुत भोले होते होंगे, जो परदेश जाकर डॉलर-पौंड खींचने के बजाय वहाँ से अपनी पत्नी को फोन करने में टाइम वेस्ट करते थे, जैसाकि एक प्राचीन फिल्म में उस गाने में दिखाया गया है–मेरे पिया गए रंगून, किया है वहाँ से टेलीफून, तुम्हारी याद सताती है। अबे, रंगून पहुँचकर ही याद सताती है, बालम तब न्ययॉर्क में मछली के पकौड़े बेचकर मर्सीडीज कैसे खरीदेगा। अब तो समझदार बालम सिलिकौन वैली कैलिर्फोनिया पहुँचकर दनादन डॉलर पीटते हैं। फोन नहीं करते, खाली-पीली में टाइम खोटी क्यों करें।
वैसे, बालम बाजार में अब सबसे हिट बालम वही है, जो परदेशी है। देशी बालमों को बालम बाजार में कुछ अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता। इधर मैंने अखबारों के मेट्रीमोनियल विज्ञापनों पर गहन शोध किया है। श्रेष्ठ सुन्दरियाँ एन.आर.आई. बालमों की ही माँग कर रही हैं। स्वदेशी की ऐसी उपेक्षा। बालम मेरिट लिस्ट का हाल यह है कि परदेशी पकौड़ेवाला भी स्वदेशी प्रोफेसर पर भारी पड़ रहा है।
मुझे गीता का दसवाँ अध्याय याद आ रहा है, जिसमें कृष्ण ने अपनी श्रेष्ठता के बारे में बताया है, मैं देवर्षियों में नारद हूँ, सिद्ध पुरुषों में कपित मुनि हूँ, हाथियों में ऐरावत हूँ, पशुओं में सिंह हूँ...अब कृष्ण अर्जुन को यह भी बताते कि मैं कारों में मर्सीडीज हूँ, वीजाओं में अमेरिकी वीजा हूँ, शहरों में न्यूयॉर्क हूँ और बालमों में एन.आर.आई.बालम हूँ।...
एक विद्वान का कहता है कि सुदामा और कृष्ण की स्टोरी और कुछ नहीं, उस वक्त एन.आर.आई. होने के फायदे की स्टोरी है। सुदामा की पत्नी ने लड़-झगड़कर उन्हें तत्कालीन परदेश द्वारिका कृष्ण के पास भिजवाया। रिजल्ट क्या रहे, सब जानते हैं।
अगर सुदामा परदेश नहीं जाते, तो क्या इतने फेमस हो पाते, नहीं। कृष्ण के जिन मित्रों ने परदेश जाने का साहस नहीं दिखाया, क्या उनका नाम कोई जानता है, नहीं। इसे यों कहा जाना चाहिए कि सुदामा की पत्नी ने अगर पति से परदेश जाने की झकझक न की होती, तो सुदामा भी चिरकुट मिडिल क्लास लाइफ जीकर निपट जाते।
वैसे जो भी हो, परदेश में मामला आसान हो जाता है। एक मेरे परिचित टोरन्टो कनाडा में स्टेशन के पास समोसे बेचते हैं। पर यहाँ बताते हैं कि फूड प्रोसेसिंग का कारोबार है। परदेश में जाने का फायदा यह होता है कि समोसे का धन्धा फूड प्रोसेसिंग का मान लिया जाता है। कभी-कभी सुदामा-कृष्ण की कहानी सुनकर मुझे शक होता है कि कृष्ण ने इतनी आसानी से सुदामा को इतना कैसे दे दिया। यह हुआ होगा कि सुदामा द्वारिका में चाट बेचने लगे होंगे, उसी में दबाकर कमाई कर ली होगी। द्वारिका में चाट बेची जा सकती थी, अपने इलाके में नहीं। टोरन्टो में समोसे बेचे जा सकते हैं, अपने इलाके में नहीं। परदेशी होने में कई फायदे हैं।
...पर जो भी हो, अब श्रेष्ठ बालमत्व परदेशी होने में ही निहित है। परमश्रेष्ठ बालम वो है, जो परमानेन्ट वहीं रहने का जुगाड कर ले। एकाध महीने के लिए परदेश जाकर लौटकर आनेवाला बालम उच्चकोटि का बालम नहीं माना जाता। इधर उस कहावत का मर्म समझ में आ रहा है कि लौट के बुद्धू घर को आए। इसका मतलब है, जो लौटकर इस देश में आ गया, वह बुद्धू ही है। जो कनाडा में पकौड़ों की दुकान नहीं खोल पाया है, वह बुद्धू ही है। जो इस देश से जा ही नहीं पाया है, वह तो परमबुद्धू है।
हे बालम, तू अगर अपनी अक्लमन्दी प्रमाणित करना चाहता है, तो निकल ले। फिर लौटकर न आ।
देखो, वह चौरसिया पानवाला भी न्यू जर्सी में एन.आर.आई. हो गया है। तुम कब परदेशी होगे बालम ? सारे कायदे के बालम परदेशी हुए जा रहे हैं। सब तरफ मामले उलटे हो गए हैं। प्राचीन काव्यग्रन्थों में दिखाया जाता था कि नायिका विरह-वेदना में परेशान हो रही है। कह रही है कि दुष्ट बालम परदेश जाकर लौटने का नाम नहीं लेते। अब इन ग्रन्थों में रिवीजन इस तरह से होना चाहिए, नायिका परेशान है। कह रही है कि दुष्ट, आलसी, चिरकुट बालम परदेश जाने का नाम नहीं ले रहे हैं। सारी सखियों के बालम परदेशी हो गए हैं, सो मुझे वे सब चिढ़ाती हैं।
तुम सब परदेशी होगे बालम? सब तरफ यही सन्देश सुनाई दे रहा है। सिर्फ बालम होने से अब काम नहीं चल रहा है। परदेशी होना जरूरी हो गया है। क्या दिन रहे होंगे, जब सिर्फ बालम होने भर से काम चल जाता था। कैसे सुन्दर प्रेमपूर्ण दिन रहे होंगे, जब कोई बालम बताता होगा कि कम्पनी विदेश भेज रही है, क्या करूँ। पत्नी वही कहती होगी–ना, परदेश न जा बालम।
तब बालम भी बहुत भोले होते होंगे, जो परदेश जाकर डॉलर-पौंड खींचने के बजाय वहाँ से अपनी पत्नी को फोन करने में टाइम वेस्ट करते थे, जैसाकि एक प्राचीन फिल्म में उस गाने में दिखाया गया है–मेरे पिया गए रंगून, किया है वहाँ से टेलीफून, तुम्हारी याद सताती है। अबे, रंगून पहुँचकर ही याद सताती है, बालम तब न्ययॉर्क में मछली के पकौड़े बेचकर मर्सीडीज कैसे खरीदेगा। अब तो समझदार बालम सिलिकौन वैली कैलिर्फोनिया पहुँचकर दनादन डॉलर पीटते हैं। फोन नहीं करते, खाली-पीली में टाइम खोटी क्यों करें।
वैसे, बालम बाजार में अब सबसे हिट बालम वही है, जो परदेशी है। देशी बालमों को बालम बाजार में कुछ अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता। इधर मैंने अखबारों के मेट्रीमोनियल विज्ञापनों पर गहन शोध किया है। श्रेष्ठ सुन्दरियाँ एन.आर.आई. बालमों की ही माँग कर रही हैं। स्वदेशी की ऐसी उपेक्षा। बालम मेरिट लिस्ट का हाल यह है कि परदेशी पकौड़ेवाला भी स्वदेशी प्रोफेसर पर भारी पड़ रहा है।
मुझे गीता का दसवाँ अध्याय याद आ रहा है, जिसमें कृष्ण ने अपनी श्रेष्ठता के बारे में बताया है, मैं देवर्षियों में नारद हूँ, सिद्ध पुरुषों में कपित मुनि हूँ, हाथियों में ऐरावत हूँ, पशुओं में सिंह हूँ...अब कृष्ण अर्जुन को यह भी बताते कि मैं कारों में मर्सीडीज हूँ, वीजाओं में अमेरिकी वीजा हूँ, शहरों में न्यूयॉर्क हूँ और बालमों में एन.आर.आई.बालम हूँ।...
एक विद्वान का कहता है कि सुदामा और कृष्ण की स्टोरी और कुछ नहीं, उस वक्त एन.आर.आई. होने के फायदे की स्टोरी है। सुदामा की पत्नी ने लड़-झगड़कर उन्हें तत्कालीन परदेश द्वारिका कृष्ण के पास भिजवाया। रिजल्ट क्या रहे, सब जानते हैं।
अगर सुदामा परदेश नहीं जाते, तो क्या इतने फेमस हो पाते, नहीं। कृष्ण के जिन मित्रों ने परदेश जाने का साहस नहीं दिखाया, क्या उनका नाम कोई जानता है, नहीं। इसे यों कहा जाना चाहिए कि सुदामा की पत्नी ने अगर पति से परदेश जाने की झकझक न की होती, तो सुदामा भी चिरकुट मिडिल क्लास लाइफ जीकर निपट जाते।
वैसे जो भी हो, परदेश में मामला आसान हो जाता है। एक मेरे परिचित टोरन्टो कनाडा में स्टेशन के पास समोसे बेचते हैं। पर यहाँ बताते हैं कि फूड प्रोसेसिंग का कारोबार है। परदेश में जाने का फायदा यह होता है कि समोसे का धन्धा फूड प्रोसेसिंग का मान लिया जाता है। कभी-कभी सुदामा-कृष्ण की कहानी सुनकर मुझे शक होता है कि कृष्ण ने इतनी आसानी से सुदामा को इतना कैसे दे दिया। यह हुआ होगा कि सुदामा द्वारिका में चाट बेचने लगे होंगे, उसी में दबाकर कमाई कर ली होगी। द्वारिका में चाट बेची जा सकती थी, अपने इलाके में नहीं। टोरन्टो में समोसे बेचे जा सकते हैं, अपने इलाके में नहीं। परदेशी होने में कई फायदे हैं।
...पर जो भी हो, अब श्रेष्ठ बालमत्व परदेशी होने में ही निहित है। परमश्रेष्ठ बालम वो है, जो परमानेन्ट वहीं रहने का जुगाड कर ले। एकाध महीने के लिए परदेश जाकर लौटकर आनेवाला बालम उच्चकोटि का बालम नहीं माना जाता। इधर उस कहावत का मर्म समझ में आ रहा है कि लौट के बुद्धू घर को आए। इसका मतलब है, जो लौटकर इस देश में आ गया, वह बुद्धू ही है। जो कनाडा में पकौड़ों की दुकान नहीं खोल पाया है, वह बुद्धू ही है। जो इस देश से जा ही नहीं पाया है, वह तो परमबुद्धू है।
हे बालम, तू अगर अपनी अक्लमन्दी प्रमाणित करना चाहता है, तो निकल ले। फिर लौटकर न आ।
सुक्खी लाला की याद आती है
सिटी बैंक, बैंक ऑफ अमेरिका, स्टेट बैंक वाले जिस तरह से मनुहार करके
क्रेडिट कार्ड बेच रहे हैं, उसे देखकर लगता है कि मिर्जा गालिब वाकई सही
समय से पहले आ गए। उन्हें इस समय होना चाहिए था, बहुत मौज में रहते। सुबह
से सिटी बैंक वालों का तीसरा फोन है–
देखिए हमारे क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल करेंगे, तो इतना फायदा होगा...
पर मैं उधारी का खाने में यकीन नहीं करता, जेब में होंगे, तो ही खर्च करूँगा, मुझे क्रेडिट कार्ड की जरूरत नहीं है।
देखिए आपको जरूरत है...
मेरी जरूरत क्या है, मुझे समझ में नहीं आता, सिटी बैंक वाले समझ जाते हैं। इधर मामला बहुत पेचीदा हो गया है। मेरी जरूरत क्या है, मुझे ही पता नहीं होता, इधर मामला बहुत पेचीदा हो गया है। मेरी जरूरत क्या है, मुझे ही पता नहीं होता, क्रेडिट कार्डवालों को पता हो जाता है। मेरे नानाजी अकसर समझाया करते थे–आय से अधिक खर्च करनेवाला तिरस्कार भोगता है। मामला उलटा हो गया है, सिटी बैंक वाला समझ रहा है कि हमारे क्रेडिट कार्ड पर जितनी जल्दी खरीदारी करेंगे, उतने ज्यादा बोनस पाइंट आपको दिए जाएँगे। आय से अधिक खर्च करने वालों को अब क्रेडिट कार्ड वालों की तरफ से बोनस मिलते हैं। एक बैंक वाला आता है, बताता है, हमसे कर्ज लेकर मारुति ले लीजिए, अब तो आपकी जरूरत है। एक आता है कि हमसे कर्ज लेकर मकान बनवा लीजिए, मकान आपकी जरूरत है। एक आता है, हमसे कर्ज लेकर ऑस्ट्रेलिया घूम आइए, ऑस्ट्रेलिया जाना इधर बहुत जरूरी हो गया है। कभी-कभी लगता है कि अपनी जरूरतों के बारे में कितना कम जानता हूँ।
उधारी का मामला इधर रिवर्स गीयर में चल रहा है। पहले उधार लेनेवाला साहूकार के पास जाकर गिड़गिड़ाया करता था कि माई-बाप दे दो, मुझे रकम की जरूरत है। अब साहूकार खुद आकर बताता है कि ले लो, इस काम में आएगा, उस काम में आएगा। सिटी बैंक बालों, बैंक ऑफ अमेरिका वालों, अच्छा है, अभी आए हो, कहीं पहले आ गए होते, तो बहुत उलटा-पुलटा हो गया होता। मदर इंडिया जैसी फिल्म पहले आ गए होते, तो बहुत उलटा-पुलटा हो गया होता। मदर इंडिया जैसी फिल्म न बन पाती। थीम की तुक ही नहीं मिलती। मदर इंडिया में सुक्खी लाला का कैरेस्टर बिलकुल झूठा जान पड़ता। फिल्म में उलटा दिखाना पड़ता, सुक्खी लाला नर्गिस के पास जाकर रो रहे हैं, मुझसे ही लेना कर्ज। उसके पीछे कोई दुक्खी लाला लाइन में है, नहीं, नहीं मुझसे लेना कर्ज, मैं इतना डिस्काउंट दूँगा और साथ में वो वाला फ्री गिफ्त भी।
सत्तर से पहले बनी सारी की सारी फिल्में झूठी पड़ जातीं। साहूकार का कैरेक्टर घृणा का नहीं दया का पात्र बन जाता। पता लगता कि सुक्खी लाला दुखी होकर बन्दूक उठा रहे हैं कि कोई हमसे कर्ज नहीं लेता। गाँववालों देख लूँगा, तुमको। मदर इंडिया में मजबूर होकर डाकू सुनील दत्त नहीं, सुक्खी लाला बनते। मिर्जा गालिब होते, तो परेशान नहीं होते। गालिब ने लिखा है कि बरसात अगर एक घंटे होती है, तो उनका घर कई घंटे तक टपकता है। एच. डी. एफ. सी. वाले गालिब से कहते, चिन्ता की क्या बात, यह लो लोन। बस यह करो कि हवेली के ऊपर बहुत बड़ा-सा साइन बोर्ड टाँग दो स्पान्सर्ड बाई एच. डी. एफ. सी.।
पर एक बात समझ में नहीं आती, जिन्हें जरूरत है, उन्हें सिटी बैंक वाले नहीं देते, जिन्हें जरूरत नहीं है, उन्हें सिटी बैंक वाले फोन कर-करके देते हैं–एक नादान सवाल पूछ रहा है।
कर्ज हैंडपम्प लगाने के लिए नहीं मिलता, कार के लिए मिलता है। कर्ज झोंपड़े के लिए नहीं मिलता, अपार्टमेन्ट के लिए मिलता है। बीमार माँ को देखने के लिए बेगूसराय जाने के पैसे न हों, तो कर्ज नहीं मिलता, कर्ज ऑस्ट्रेलिया के एक्साइटिंग टूर के लिए मिलता है। फसल के लिए बीज खरीदने हों, तो सिटी बैंक से कर्ज नहीं मिलेगा, हाँ, घर सजाने के आइटम खरीदने हों, तो झटके में कर्ज मिल जाएगा। बच्चा बीमार हो, तो कर्ज नहीं मिलेगा, हाँ इक्यावन इंची टी.वी. खरीदने के लिए मिलता है। सिर्फ टी.वी. और कार के कर्ज देखकर सुक्खी लाला याद आते हैं। जैसे भी हों सुक्खी लाला उन्होंने फसल के बीच के लिए भी कर्ज दिया और बीमारी के लिए भी दिया।
कार का कर्ज नहीं चुका पाया, इसलिए बैंक के गुंडों ने पीटा और कार छीनी-अखबार में खबर है।
तमाम बैंक वाले कर्ज देने के मामले में भले ही मदर इंडिया हों, पर वसूलने में सुक्खी लाला हैं। सुक्खी लाला का रिकार्ड इस मामले में बहुत साफ है। वह देने के मामले में भी सुक्खी लाला है और लेने के मामले में भी सुक्खी लाला है। सुक्खी लाला ने कभी किसी को फोन करके, उसकी मनुहार करके कर्ज नहीं दिया। जो सब तरफ से सुक्खी लाला लगे, लेने में भी, देने में भी, उससे निपटना आसान है। पर जो देते वक्त मदर इंडिया हो जाए, और लेते वक्त सुक्खी लाला, उससे पार पाना मुश्किल है।
चलूँ, सिटी बैंक से किन्हीं मदर इंडिया का फोन है, समझा रही हैं–इतना उधार तो आपको लेना ही पडेगा, वरना आपकी गुडविल चौपट हो जाएगी...।
देखिए हमारे क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल करेंगे, तो इतना फायदा होगा...
पर मैं उधारी का खाने में यकीन नहीं करता, जेब में होंगे, तो ही खर्च करूँगा, मुझे क्रेडिट कार्ड की जरूरत नहीं है।
देखिए आपको जरूरत है...
मेरी जरूरत क्या है, मुझे समझ में नहीं आता, सिटी बैंक वाले समझ जाते हैं। इधर मामला बहुत पेचीदा हो गया है। मेरी जरूरत क्या है, मुझे ही पता नहीं होता, इधर मामला बहुत पेचीदा हो गया है। मेरी जरूरत क्या है, मुझे ही पता नहीं होता, क्रेडिट कार्डवालों को पता हो जाता है। मेरे नानाजी अकसर समझाया करते थे–आय से अधिक खर्च करनेवाला तिरस्कार भोगता है। मामला उलटा हो गया है, सिटी बैंक वाला समझ रहा है कि हमारे क्रेडिट कार्ड पर जितनी जल्दी खरीदारी करेंगे, उतने ज्यादा बोनस पाइंट आपको दिए जाएँगे। आय से अधिक खर्च करने वालों को अब क्रेडिट कार्ड वालों की तरफ से बोनस मिलते हैं। एक बैंक वाला आता है, बताता है, हमसे कर्ज लेकर मारुति ले लीजिए, अब तो आपकी जरूरत है। एक आता है कि हमसे कर्ज लेकर मकान बनवा लीजिए, मकान आपकी जरूरत है। एक आता है, हमसे कर्ज लेकर ऑस्ट्रेलिया घूम आइए, ऑस्ट्रेलिया जाना इधर बहुत जरूरी हो गया है। कभी-कभी लगता है कि अपनी जरूरतों के बारे में कितना कम जानता हूँ।
उधारी का मामला इधर रिवर्स गीयर में चल रहा है। पहले उधार लेनेवाला साहूकार के पास जाकर गिड़गिड़ाया करता था कि माई-बाप दे दो, मुझे रकम की जरूरत है। अब साहूकार खुद आकर बताता है कि ले लो, इस काम में आएगा, उस काम में आएगा। सिटी बैंक बालों, बैंक ऑफ अमेरिका वालों, अच्छा है, अभी आए हो, कहीं पहले आ गए होते, तो बहुत उलटा-पुलटा हो गया होता। मदर इंडिया जैसी फिल्म पहले आ गए होते, तो बहुत उलटा-पुलटा हो गया होता। मदर इंडिया जैसी फिल्म न बन पाती। थीम की तुक ही नहीं मिलती। मदर इंडिया में सुक्खी लाला का कैरेस्टर बिलकुल झूठा जान पड़ता। फिल्म में उलटा दिखाना पड़ता, सुक्खी लाला नर्गिस के पास जाकर रो रहे हैं, मुझसे ही लेना कर्ज। उसके पीछे कोई दुक्खी लाला लाइन में है, नहीं, नहीं मुझसे लेना कर्ज, मैं इतना डिस्काउंट दूँगा और साथ में वो वाला फ्री गिफ्त भी।
सत्तर से पहले बनी सारी की सारी फिल्में झूठी पड़ जातीं। साहूकार का कैरेक्टर घृणा का नहीं दया का पात्र बन जाता। पता लगता कि सुक्खी लाला दुखी होकर बन्दूक उठा रहे हैं कि कोई हमसे कर्ज नहीं लेता। गाँववालों देख लूँगा, तुमको। मदर इंडिया में मजबूर होकर डाकू सुनील दत्त नहीं, सुक्खी लाला बनते। मिर्जा गालिब होते, तो परेशान नहीं होते। गालिब ने लिखा है कि बरसात अगर एक घंटे होती है, तो उनका घर कई घंटे तक टपकता है। एच. डी. एफ. सी. वाले गालिब से कहते, चिन्ता की क्या बात, यह लो लोन। बस यह करो कि हवेली के ऊपर बहुत बड़ा-सा साइन बोर्ड टाँग दो स्पान्सर्ड बाई एच. डी. एफ. सी.।
पर एक बात समझ में नहीं आती, जिन्हें जरूरत है, उन्हें सिटी बैंक वाले नहीं देते, जिन्हें जरूरत नहीं है, उन्हें सिटी बैंक वाले फोन कर-करके देते हैं–एक नादान सवाल पूछ रहा है।
कर्ज हैंडपम्प लगाने के लिए नहीं मिलता, कार के लिए मिलता है। कर्ज झोंपड़े के लिए नहीं मिलता, अपार्टमेन्ट के लिए मिलता है। बीमार माँ को देखने के लिए बेगूसराय जाने के पैसे न हों, तो कर्ज नहीं मिलता, कर्ज ऑस्ट्रेलिया के एक्साइटिंग टूर के लिए मिलता है। फसल के लिए बीज खरीदने हों, तो सिटी बैंक से कर्ज नहीं मिलेगा, हाँ, घर सजाने के आइटम खरीदने हों, तो झटके में कर्ज मिल जाएगा। बच्चा बीमार हो, तो कर्ज नहीं मिलेगा, हाँ इक्यावन इंची टी.वी. खरीदने के लिए मिलता है। सिर्फ टी.वी. और कार के कर्ज देखकर सुक्खी लाला याद आते हैं। जैसे भी हों सुक्खी लाला उन्होंने फसल के बीच के लिए भी कर्ज दिया और बीमारी के लिए भी दिया।
कार का कर्ज नहीं चुका पाया, इसलिए बैंक के गुंडों ने पीटा और कार छीनी-अखबार में खबर है।
तमाम बैंक वाले कर्ज देने के मामले में भले ही मदर इंडिया हों, पर वसूलने में सुक्खी लाला हैं। सुक्खी लाला का रिकार्ड इस मामले में बहुत साफ है। वह देने के मामले में भी सुक्खी लाला है और लेने के मामले में भी सुक्खी लाला है। सुक्खी लाला ने कभी किसी को फोन करके, उसकी मनुहार करके कर्ज नहीं दिया। जो सब तरफ से सुक्खी लाला लगे, लेने में भी, देने में भी, उससे निपटना आसान है। पर जो देते वक्त मदर इंडिया हो जाए, और लेते वक्त सुक्खी लाला, उससे पार पाना मुश्किल है।
चलूँ, सिटी बैंक से किन्हीं मदर इंडिया का फोन है, समझा रही हैं–इतना उधार तो आपको लेना ही पडेगा, वरना आपकी गुडविल चौपट हो जाएगी...।
काले बादल जी डरपावैं
अब तक मैं स्पेन को भारत का मित्र देश समझता था। पर कुछ बच्चों की सोहबत
में कुछ समझदारी आई है। भारत में जो कुछ गड़बड़झाला है, उसका सारा क्रेडिट
सिर्फ सी. आई. ए. और आई. एस. आई. के खाते में नहीं जाना चाहिए, कुछ
क्रेडिट स्पेन के खाते में भी जाना चाहिए। रेन रेन गो अवे, लिटिल जानी
वांट्स टू प्ले, रेन रेन गो टू स्पेन, डांट शो योर फेस
एगेन–भारत के लाखों स्कूलों में बच्चों द्वारा नियमित गाई
जानेवाली इस कविता में इन्द्र देवता से आहवान किया जा रहा है कि यहाँ मत
आओ, स्पेन चले जाओ। यह सरासर नाइन्साफी है। क्या स्पेन वाले इसके बदले में
भारत के लिए कुछ करते हैं।
बच्चों की प्रार्थनाओं पर एक जाँच कमीशन बिठाया जाना जरूरी है। ऐसी खतरनाक प्रार्थनाएँ करते हैं कि अकाल-सूखे का खतरा हो जाए। वैसे खबर यह है कि आजकल कोक और पेप्सी वाले भी यही प्रार्थना कर रहे हैं। धुआँधार बारिश ने उसकी सेल चौपट कर दी है। वे भी इन्द्र देवता को स्पेन में ही देखना चाहते हैं। बरसात देखकर कवि खुश हो सकता है, पर पेप्सी का सेल्समैन रोता है। महीने की सेल के टारगेट ध्वस्त हो जाते हैं। बादल आएँ भी, तो बिना बरसे ही चले जाएँ, पेप्सी का सेल्समैन यही प्रार्थना करता है। बरसात आनन्दित उसे ही कर सकती है, जिसके सेल टारगेट पूरे हो गए हों।
समसामयिक सन्दर्भों में कालिदास पर शोध करके एक मित्र ने यह निष्कर्ष निकाला है कि कालिदास दरअसल पेप्सी के सेल्समैन थे और इसलिए नहीं चाहते थे कि बादल वहाँ बरसें, जहाँ उनकी पोस्टिंग है। सेल के टारगेट पूरे करने के लिए वह बदलों को तरह-तरह के कामों में लगा देते थे। अपनी प्रेमिका के पास भेज देते थे, सन्देशवाहक बनाकर। कालिदास के शहर में बादल बरस गए, तो पेप्सी की सेल का क्या होगा, इस खतरे को भाँपकर वह बादलों को बहुत दूर जाने को कह देते थे। कालिदास के शहर में बादल आते तो थे, पर बरसते नहीं थे। निकल पड़ते थे, कालिदास के संदेश बहुत दूर पहुँचाने। पूरा मेघदूत गवाह है कि कालिदास ने बादलों से कैसे-कैसे काम लिए।
जिस भी कवि ने लिखा है कि काले बादलों को देखकर मन बहुत-बहुत घबराता है, वह निश्चय ही कोक या पेप्सी का सैल्समैन रहा होगा।
बच्चों की प्रार्थनाओं पर एक जाँच कमीशन बिठाया जाना जरूरी है। ऐसी खतरनाक प्रार्थनाएँ करते हैं कि अकाल-सूखे का खतरा हो जाए। वैसे खबर यह है कि आजकल कोक और पेप्सी वाले भी यही प्रार्थना कर रहे हैं। धुआँधार बारिश ने उसकी सेल चौपट कर दी है। वे भी इन्द्र देवता को स्पेन में ही देखना चाहते हैं। बरसात देखकर कवि खुश हो सकता है, पर पेप्सी का सेल्समैन रोता है। महीने की सेल के टारगेट ध्वस्त हो जाते हैं। बादल आएँ भी, तो बिना बरसे ही चले जाएँ, पेप्सी का सेल्समैन यही प्रार्थना करता है। बरसात आनन्दित उसे ही कर सकती है, जिसके सेल टारगेट पूरे हो गए हों।
समसामयिक सन्दर्भों में कालिदास पर शोध करके एक मित्र ने यह निष्कर्ष निकाला है कि कालिदास दरअसल पेप्सी के सेल्समैन थे और इसलिए नहीं चाहते थे कि बादल वहाँ बरसें, जहाँ उनकी पोस्टिंग है। सेल के टारगेट पूरे करने के लिए वह बदलों को तरह-तरह के कामों में लगा देते थे। अपनी प्रेमिका के पास भेज देते थे, सन्देशवाहक बनाकर। कालिदास के शहर में बादल बरस गए, तो पेप्सी की सेल का क्या होगा, इस खतरे को भाँपकर वह बादलों को बहुत दूर जाने को कह देते थे। कालिदास के शहर में बादल आते तो थे, पर बरसते नहीं थे। निकल पड़ते थे, कालिदास के संदेश बहुत दूर पहुँचाने। पूरा मेघदूत गवाह है कि कालिदास ने बादलों से कैसे-कैसे काम लिए।
जिस भी कवि ने लिखा है कि काले बादलों को देखकर मन बहुत-बहुत घबराता है, वह निश्चय ही कोक या पेप्सी का सैल्समैन रहा होगा।
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