विविध उपन्यास >> तीन वर्ष तीन वर्षभगवतीचरण वर्मा
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हिन्दी जगत के जाने माने उपन्यासकार भगवतीचरण वर्मा का प्रस्तुत उपन्यास ‘तीन वर्ष’ एक ऐसे युवक की कहानी है जो नयी सभ्यता की चकाचौंध से पथभ्रष्ट हो जाता है।
हिन्दी जगत के जाने माने उपन्यासकार भगवतीचरण
वर्मा का प्रस्तुत उपन्यास ‘तीन वर्ष’ एक ऐसे युवक की
कहानी है जो नयी सभ्यता की चकाचौंध से पथभ्रष्ट हो जाता है। समाज की
दृष्टि में उदात्त और ऊँची जान पड़ने वाली भावनाओं के पीछे जो प्रेरणाएँ
हैं वह स्वार्थपरता और लोभ की अधम मनोवृतियों की ही देन हैं।
[1]
इकहरे बदन का लम्बा-सा युवक था। उसका मुख सुन्दर था और रंग गोरा था। चौड़े
मस्तक पर चिन्ता की गहरी लकीरें पड़ गई थीं। गाल धँस गए थे। आँखें
बड़ी-बड़ी किन्तु पथराई हुई-सी थीं, जिनमें कभी-कभी यौवन की आग की क्षीण
तथा क्षणिक चमक आ जाती थी। उन आँखों के चारों ओर कालिमा की एक हलकी-सी
परिधि खिंची हुई थी। उसके बाल बड़े-बड़े और रूखे थे और बड़ी असावधानी से
खिंचे हुए थे।
वह चाइना सिल्क का सूट पहिने था, जिसके नीचे चेकदार रेशम की कमीज थी। सूट नया था और किसी अच्छी अंग्रेजी दूकान का सिला हुआ मालूम पड़ता था। रेशमी टाई सूट के बाहर उड़ रही थी, सोला हैट बगल में दबा हुआ था। रेशमी मोजे पर पेटेन्ट चमड़े का काला आक्सफर्ड शू था। जेब में एक कीमती फाउन्टेन पेन तथा एक रूमाल था, जिसका रंग टाई के रंग से मिलता-जुलता था। कलाई पर चाँदी की चौपहली घड़ी थी।
प्रयाग-विश्वविद्यालय के साइंस डिपार्टमेन्ट और आर्ट्स डिपार्टमेन्ट को मिलानेवाली सड़क का नाम यूनिवर्सिटी रोड है। उसी यूनिवर्सिटी रोड पर वह युवक चल रहा था। उसका सिर झुका हुआ था, मानो वह किसी गहरे विचार में मग्न हो।
जुलाई का अन्तिम सप्ताह था; यूनिवर्सिटी दो-चार दिन पहले ही खुली थी। उस समय दोपहरी ढल रही थी। विद्यार्थियों की भीड़-की-भीड़ यूनिवर्सिटी से अपने घरों को तथा बोर्डिंग को जा रही थी। निश्चिन्ता का जीवन व्यतीत करने वाले विद्यार्थी प्रोफेसरों के शासन से मुक्त होकर अपने इच्छित वातावरण में आ गए थे। कुछ कालेज की पढ़ाई की बात कर रहे थे, कुछ नई फिल्म के विषय में पूछ-ताछ कर रहे थे, कुछ फुटबाल मैच की तैयारी कर रहे थे और कुछ रात की म्यूजिक पार्टी का प्रबन्ध कर रहे थे। वे प्रायः जोर से हँस भी देते थे।
पर वह युवक अकेला था, और वह इनमें से किसी भी विषय पर कुछ नहीं सोच रहा था। वह कभी-कभी चौंककर अपने आसपास के विद्यार्थियों को देख अवश्य लेता था; पर उसकी वह दृष्टि निरर्थक तथा शून्य होती थी। दूसरे ही क्षण वह अपने विचारों में मग्न होकर गरदन नीची कर लेता था। कुछ दूर तक चलने के बाद वह रुका और उसने एक ठंड़ी साँस ली। अपना सिर उठाकर उसने अपने चारों ओर देखा इसके बाद उसकी दृष्टि एक दूकान पर रुक गई। उस दूकान पर शरबत, चाय, रोटी, कलम, दावात, बनियाइन इत्यादि सब प्रकार की वस्तुएँ बिकती थीं। बगल में चार-छह मेजें पड़ी थीं, और उनके चारों ओर कुर्सियाँ रक्खी थीं। कुछ विद्यार्थी बैठे हुए शरबत पी रहे थे, बिजली का पंखा चल रहा था। इस बार मानो युवक का विचार-क्रम टूटा, उसने अपने हाथ में बँधी हुई घड़ी देखी। उस समय तीन बज रहे थे। वह दूकान पर चढ़ गया और नौकर से उसने कहा–‘‘एक गिलास गुलाब का शरबत’’–इतना कहकर वह खाली कुर्सी पर बैठ गया। थोड़ी देर में नौकर ने शरबत का गिलास उस युवक के सामने पड़ी हुई मेज पक रख दिया।
शरबत का गिलास उस युवक ने अपने मुँह में लगाया, एक घूँट में ही उसने गिलास खाली कर दिया। गिलास सामने रखते हुए उसने कहा–‘‘दूसरा गिलास।’’
वहाँ बैठे हुए लोगों की आँखें उस युवक की ओर उठ गईं; पर युवक ने इस पर कुछ बुरा न माना, वह केवल मुस्करा दिया। नौकर दूसरा गिलास बनाने लगा। उस युवक ने बाहर की ओर देखा, एक टक वह अपने सामने से निकलते हुए विद्यार्थियों की भीड़ को देख रहा था। सामने एक मेला-सा लगा हुआ था; पैदल, साइकिलों पर, ताँगों पर और मोटरों पर यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी तथा प्रोफेसर जा रहे थे।
युवक ने अपनी आँखें नीची कर लीं। वह फिर विचार-मग्न हो गया। शायद वह अपने सामने से निकलनेवाली भीड़ पर ही कुछ सोच रहा था। नौकर ने शरबत का गिलास उसके सामने रख दिया। उसने उसे नहीं दिखा। नौकर ने कभी किसी विद्यार्थी को विचारों में इतना तल्लीन न देखा था। इसलिए उसका कौतूहल बढ़ा। उस समय तक दूकान पर बैठे हुए अन्य विद्यार्थी चले गए थे। नौकर को कोई काम न था। इसलिए वह वहीं पर खड़ा होकर उस विचित्र मनुष्य पर आश्चर्य करने लगा, काफी देर हो गई, गिलास में पड़े हुए बरफ के टुकड़े गल गए; पर फिर भी उस युवक की तल्लीनता न भंग हुई। नौकर से न रहा गया, उसने कहा–‘‘बाबूजी ! शरबत ठंढा हो रहा है।’’
युवक चौंक उठा। उसने अपना मस्तक उठाया–‘‘क्या कहा ? शरबत ठंढा हो रहा है ?’’–यह कहकर उसने गिलास उठाया। इसके बाद वह हँस पड़ा–‘‘जनाब शरबत ठंढ़ा नहीं हो रहा है, बल्कि गरम हो रहा है।’’ अपनी गलती पर लज्जित होकर नौकर ने अपनी आँखें नीची कर लीं। युवक ने गिलास मुँह में लगाया। एक घूँट पीकर उसने गिलास मेज पर रख दिया–‘‘कहो जी खिलावन, अच्छी तरह से तो रहे।’’
‘‘हाँ बाबूजी।’’–इस बार नौकर ने युवक को पहचानने की कोशिश की। कुछ देर तक सोचने के बाद वह कह उठा–‘‘अरे रमेश बाबू ! बाबूजी बहुत दिन बाद आए। हम तो बाबूजी का पहिचानै न सकेन। बाबूजी बहुत दुबले हुए गए। का बाबूजी बीमार रहे ?’’
युवक हँसने लगा–‘‘नहीं, बीमार तो मैं नहीं रहा।’’–इतना कहकर उसने गिलास उठाकर दूसरा घूँट पिया।
नौकर ने फिर कहा–‘‘बाबूजी कौन बोर्डिंग मा ठहरे हैं ?’’
युवक ने इस प्रश्न को शायद नहीं सुना। वह सामने सड़क पर आनेवाली कार को बड़े गौर से देख रहा था। इसी समय कुछ और विद्यार्थी दूकान पर आ गए थे। उनमें से एक ने आवाज दी–‘‘खिलावन आइसक्रीम।’’–नौकर चला गया।
जिस कार की ओर युवक देख रहा था, वह उस समय तक दूकान के सामने आ गई थी। वह छह सिलेंडर की आस्टिन कार थी, और एक युवती उसे चला रही थी। युवती अकेली थी और उसकी अवस्था प्रायः बीस वर्ष की थी। वह गठे बदन की थी और उसका रंग गोरा था। उसके बाल अंग्रेजी ढंग से कटे हुए थे, माथे पर सेन्दुर की लाल बिन्दी थी। वह नीले रंग की छपी हुई रेशमी साड़ी पहने थी और उसका जम्पर भी उसी कपड़े का था, जिसकी साड़ी थी। युवती का मुख भरा हुआ तथा गोल था और उसके होठ छोटे-छोटे तथा लाल थे। भौंहें धनी और काली थीं। मुख पर कीमती पाउडर तथा होठों पर कीमती लिपस्टिक का प्रयोग किया गया था; क्योंकि दिन में भी सौन्दर्य का एक अच्छा पारखी, जो विदेशी-कला से अनभिज्ञ नहीं है, उसके सौन्दर्य की प्रशंसा किए बिना नही रह सकता था।
युवती की दृष्टि अचानक दूकान पर बैठे हुए पुरुष पर जा पड़ी। एकाएक उसके मुख से निकल पड़ा–‘‘अरे !’’–और पैर स्वयं ही ब्रेक पर जा पड़ा। कार एक झटके के साथ रुक गई।
युवक ने यह देखा। एक क्षण के लिए उसने अपना मुख फेर लिया, और शरबत का तीसरा घूँट पीने का प्रयत्न किया। फिर कुछ सोचकर उसने गिलास मेज पर रख दिया और वह उठ खड़ा हुआ। वह सीधे कार के पास पहुँचा। युवती ने मुस्कराते हुए कहा–‘‘रमेश ! कब आए ?’’
युवक के मुख पर भी एक रूखी तथा व्यंग्यात्मक मुस्कराहट दौड़ गई–‘‘प्रभा तुम !’’
मैं आज सुबह आया।’’
वह चाइना सिल्क का सूट पहिने था, जिसके नीचे चेकदार रेशम की कमीज थी। सूट नया था और किसी अच्छी अंग्रेजी दूकान का सिला हुआ मालूम पड़ता था। रेशमी टाई सूट के बाहर उड़ रही थी, सोला हैट बगल में दबा हुआ था। रेशमी मोजे पर पेटेन्ट चमड़े का काला आक्सफर्ड शू था। जेब में एक कीमती फाउन्टेन पेन तथा एक रूमाल था, जिसका रंग टाई के रंग से मिलता-जुलता था। कलाई पर चाँदी की चौपहली घड़ी थी।
प्रयाग-विश्वविद्यालय के साइंस डिपार्टमेन्ट और आर्ट्स डिपार्टमेन्ट को मिलानेवाली सड़क का नाम यूनिवर्सिटी रोड है। उसी यूनिवर्सिटी रोड पर वह युवक चल रहा था। उसका सिर झुका हुआ था, मानो वह किसी गहरे विचार में मग्न हो।
जुलाई का अन्तिम सप्ताह था; यूनिवर्सिटी दो-चार दिन पहले ही खुली थी। उस समय दोपहरी ढल रही थी। विद्यार्थियों की भीड़-की-भीड़ यूनिवर्सिटी से अपने घरों को तथा बोर्डिंग को जा रही थी। निश्चिन्ता का जीवन व्यतीत करने वाले विद्यार्थी प्रोफेसरों के शासन से मुक्त होकर अपने इच्छित वातावरण में आ गए थे। कुछ कालेज की पढ़ाई की बात कर रहे थे, कुछ नई फिल्म के विषय में पूछ-ताछ कर रहे थे, कुछ फुटबाल मैच की तैयारी कर रहे थे और कुछ रात की म्यूजिक पार्टी का प्रबन्ध कर रहे थे। वे प्रायः जोर से हँस भी देते थे।
पर वह युवक अकेला था, और वह इनमें से किसी भी विषय पर कुछ नहीं सोच रहा था। वह कभी-कभी चौंककर अपने आसपास के विद्यार्थियों को देख अवश्य लेता था; पर उसकी वह दृष्टि निरर्थक तथा शून्य होती थी। दूसरे ही क्षण वह अपने विचारों में मग्न होकर गरदन नीची कर लेता था। कुछ दूर तक चलने के बाद वह रुका और उसने एक ठंड़ी साँस ली। अपना सिर उठाकर उसने अपने चारों ओर देखा इसके बाद उसकी दृष्टि एक दूकान पर रुक गई। उस दूकान पर शरबत, चाय, रोटी, कलम, दावात, बनियाइन इत्यादि सब प्रकार की वस्तुएँ बिकती थीं। बगल में चार-छह मेजें पड़ी थीं, और उनके चारों ओर कुर्सियाँ रक्खी थीं। कुछ विद्यार्थी बैठे हुए शरबत पी रहे थे, बिजली का पंखा चल रहा था। इस बार मानो युवक का विचार-क्रम टूटा, उसने अपने हाथ में बँधी हुई घड़ी देखी। उस समय तीन बज रहे थे। वह दूकान पर चढ़ गया और नौकर से उसने कहा–‘‘एक गिलास गुलाब का शरबत’’–इतना कहकर वह खाली कुर्सी पर बैठ गया। थोड़ी देर में नौकर ने शरबत का गिलास उस युवक के सामने पड़ी हुई मेज पक रख दिया।
शरबत का गिलास उस युवक ने अपने मुँह में लगाया, एक घूँट में ही उसने गिलास खाली कर दिया। गिलास सामने रखते हुए उसने कहा–‘‘दूसरा गिलास।’’
वहाँ बैठे हुए लोगों की आँखें उस युवक की ओर उठ गईं; पर युवक ने इस पर कुछ बुरा न माना, वह केवल मुस्करा दिया। नौकर दूसरा गिलास बनाने लगा। उस युवक ने बाहर की ओर देखा, एक टक वह अपने सामने से निकलते हुए विद्यार्थियों की भीड़ को देख रहा था। सामने एक मेला-सा लगा हुआ था; पैदल, साइकिलों पर, ताँगों पर और मोटरों पर यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी तथा प्रोफेसर जा रहे थे।
युवक ने अपनी आँखें नीची कर लीं। वह फिर विचार-मग्न हो गया। शायद वह अपने सामने से निकलनेवाली भीड़ पर ही कुछ सोच रहा था। नौकर ने शरबत का गिलास उसके सामने रख दिया। उसने उसे नहीं दिखा। नौकर ने कभी किसी विद्यार्थी को विचारों में इतना तल्लीन न देखा था। इसलिए उसका कौतूहल बढ़ा। उस समय तक दूकान पर बैठे हुए अन्य विद्यार्थी चले गए थे। नौकर को कोई काम न था। इसलिए वह वहीं पर खड़ा होकर उस विचित्र मनुष्य पर आश्चर्य करने लगा, काफी देर हो गई, गिलास में पड़े हुए बरफ के टुकड़े गल गए; पर फिर भी उस युवक की तल्लीनता न भंग हुई। नौकर से न रहा गया, उसने कहा–‘‘बाबूजी ! शरबत ठंढा हो रहा है।’’
युवक चौंक उठा। उसने अपना मस्तक उठाया–‘‘क्या कहा ? शरबत ठंढा हो रहा है ?’’–यह कहकर उसने गिलास उठाया। इसके बाद वह हँस पड़ा–‘‘जनाब शरबत ठंढ़ा नहीं हो रहा है, बल्कि गरम हो रहा है।’’ अपनी गलती पर लज्जित होकर नौकर ने अपनी आँखें नीची कर लीं। युवक ने गिलास मुँह में लगाया। एक घूँट पीकर उसने गिलास मेज पर रख दिया–‘‘कहो जी खिलावन, अच्छी तरह से तो रहे।’’
‘‘हाँ बाबूजी।’’–इस बार नौकर ने युवक को पहचानने की कोशिश की। कुछ देर तक सोचने के बाद वह कह उठा–‘‘अरे रमेश बाबू ! बाबूजी बहुत दिन बाद आए। हम तो बाबूजी का पहिचानै न सकेन। बाबूजी बहुत दुबले हुए गए। का बाबूजी बीमार रहे ?’’
युवक हँसने लगा–‘‘नहीं, बीमार तो मैं नहीं रहा।’’–इतना कहकर उसने गिलास उठाकर दूसरा घूँट पिया।
नौकर ने फिर कहा–‘‘बाबूजी कौन बोर्डिंग मा ठहरे हैं ?’’
युवक ने इस प्रश्न को शायद नहीं सुना। वह सामने सड़क पर आनेवाली कार को बड़े गौर से देख रहा था। इसी समय कुछ और विद्यार्थी दूकान पर आ गए थे। उनमें से एक ने आवाज दी–‘‘खिलावन आइसक्रीम।’’–नौकर चला गया।
जिस कार की ओर युवक देख रहा था, वह उस समय तक दूकान के सामने आ गई थी। वह छह सिलेंडर की आस्टिन कार थी, और एक युवती उसे चला रही थी। युवती अकेली थी और उसकी अवस्था प्रायः बीस वर्ष की थी। वह गठे बदन की थी और उसका रंग गोरा था। उसके बाल अंग्रेजी ढंग से कटे हुए थे, माथे पर सेन्दुर की लाल बिन्दी थी। वह नीले रंग की छपी हुई रेशमी साड़ी पहने थी और उसका जम्पर भी उसी कपड़े का था, जिसकी साड़ी थी। युवती का मुख भरा हुआ तथा गोल था और उसके होठ छोटे-छोटे तथा लाल थे। भौंहें धनी और काली थीं। मुख पर कीमती पाउडर तथा होठों पर कीमती लिपस्टिक का प्रयोग किया गया था; क्योंकि दिन में भी सौन्दर्य का एक अच्छा पारखी, जो विदेशी-कला से अनभिज्ञ नहीं है, उसके सौन्दर्य की प्रशंसा किए बिना नही रह सकता था।
युवती की दृष्टि अचानक दूकान पर बैठे हुए पुरुष पर जा पड़ी। एकाएक उसके मुख से निकल पड़ा–‘‘अरे !’’–और पैर स्वयं ही ब्रेक पर जा पड़ा। कार एक झटके के साथ रुक गई।
युवक ने यह देखा। एक क्षण के लिए उसने अपना मुख फेर लिया, और शरबत का तीसरा घूँट पीने का प्रयत्न किया। फिर कुछ सोचकर उसने गिलास मेज पर रख दिया और वह उठ खड़ा हुआ। वह सीधे कार के पास पहुँचा। युवती ने मुस्कराते हुए कहा–‘‘रमेश ! कब आए ?’’
युवक के मुख पर भी एक रूखी तथा व्यंग्यात्मक मुस्कराहट दौड़ गई–‘‘प्रभा तुम !’’
मैं आज सुबह आया।’’
[2]
तीन वर्ष पहले की बात है।
इलाहाबाद-यूनिवर्सिटी की गर्मी की छुट्टियों के बाद खुलने का पहला दिवस था। इंगलिश डिपार्टमेन्ट में बी. ए. फर्स्ट इयर के कमरे में कुछ विद्यार्थी बैठे हुए आपस में एक-दूसरे का परिचय प्राप्त कर रहे थे, और कुछ किताबें क्लास में रखकर बाहर टहल रहे थे। अगली सीट पर एक विद्यार्थी अकेला बैठा हुआ एक पुस्तक पढ़ रहा था। वह विद्यार्थी बन्द गले का गबरून का कोट पहने था, जो काफी पुराना था और फटने लगा था। उसकी धोती मोटी थी और घुटने के नीचे का कुछ थोडा-सा ही हिस्सा ढँक सकती थी। पैर में एक काला डरबी शू पहने हुए था, जो शायद नया था। सिर पर एक पुरानी फेल्ट कैप थी, जिसने कभी अच्छे दिन अवश्य देखे होंगे; पर अब उस पर आध इंच मोटी तैल की तह जमी हुई थी। टोपी का चँदवा उठा हुआ था, और एक लम्बी-सी चुटिया उस टोपी के बाहर पीछे की ओर निकली हुई थी। विद्यार्थी की अवस्था लगभग अठारह वर्ष की थी।
विद्यार्थी का रंग गोरा था, उसका मुख गोल, मसें भीग रही थीं; पर दाढ़ी पर अभी तक उस्तरा न चला था। वह बड़ी तन्मयता के साथ पुस्तक पढ़ रहा था। अपने चारों ओर होनेवाले कोलाहल की उसे कोई चिन्ता न थी। अपने विभिन्न वातावरण के प्रति वह सर्वथा उदासीन था।
घंटा बजा और बाहर टहलनेवाले व्यक्तियों ने क्लास में प्रवेश किया। विद्यार्थी अपनी-अपनी जगह पर बैठने लगे। एक विद्यार्थी ने आकर अगली सीट पर बैठे हुए विद्यार्थी के कंधे पर हाथ लगाया, उसने चौंककर पीछे देखा।
‘‘जनाब आदाब अर्ज ! जिस सीट पर आप डटे हुए हैं, वह मेरी है।’’
जिस व्यक्ति ने ये शब्द कहे थे वह दोहरे बदन का एक लम्बा-सा नवयुवक था। दाढ़ी-मूँछ साफ, आँख पर चश्मा और कपड़ों से सेन्ट की महक। धारीदार सिल्क का बहुत सुन्दर सूट पहने था, जेब में रेशमी रूमाल और फाउन्टेन पेन, कलाई पर सोने की रिस्टवाच और उँगलियों में हीरे की अँगूठी। मोजा, रूमाल और टाई एक ही रंग के थे।
नवागन्तुक का यह वाक्य सुनकर उस विद्यार्थी ने उसे देखा और फिर खड़ा हो गया–‘‘आपकी किताबें यहाँ न थीं, इसलिए मैं बैठ गया था, क्षमा कीजिएगा।’’–यह कहकर वह पासवाली सीट पर बैठ गया।
नवागन्तुक ने पासवाली सीट पर बैठकर उस विद्यार्थी को गौर से देखा। वह कुछ मुस्कराया, उसकी आँखें चमकने लगीं। उसने कहा–‘‘मेरा नाम कुँवर अजितकुमार सिंह है। आपका नाम ?’’
‘‘मेरा नाम रमेशचन्द्र श्रीवास्तव है।’’
‘‘और शायद आप बलिया के रहनेवाले हैं।’’–अजितकुमार ने अपनी मुस्कराहट दबाते हुए कहा–‘‘देखिए महाशयजी, आपकी चोटी जो आपकी टोपी के अन्दर रहने से विरोध करती है, वही आपकी चोटी, देखिए भूल गया कि क्या कहनेवाला था। हाँ, महाशयजी, वही आपकी चोटी बड़ी मजेदार चीज है। और यह आपकी अशोक के समय की टोपी, जिसके चँदवे पर अशोक ने अपना स्तूप बनवा दिया था, महाशयजी, इस टोपी को आप प्रदर्शनी में भिजवाइए, प्रदर्शनी में ! समझे !’’–अजितकुमार अब अपनी मुस्कराहट को न दबा सका और वह खिलखिलाकर हँस पड़ा।
रमेश चुप था। जब से वह प्रयाग आया था, लोग उससे इसी प्रकार की बातचीत करते थे। उसने इस बात का जरा भी बुरा न माना। दबी जबान से उसने केवल इतनी ही कहा–‘‘मैं बलिया का रहनेवाला नहीं हूँ, मैं झाँसी से आ रहा हूँ।’’
‘‘आप झाँसी से आ रहे हैं !’’–अजितकुमार ने मुख पर आश्चर्य की मुद्रा लाते हुए कहा–‘‘यह झाँसी कौन-सी जगह है ? माफ कीजिएगा, गलती हो गई। साहब यह झाँसी अच्छी जगह होगी, लेकिन आपके झाँसी के जू की बाबत मैंने पहले कभी नहीं सुना था, इसलिए यह गलती हो गई। अब आप मेरी गलती का कारण समझ ही गए होंगे। लेकिन महाशयजी, आपके साथियों को, आपका तुड़ा कर यहाँ परचतला आना, बुरा तो लगाही होगा। देखिए, उनलोगों को भुला देना कोई अच्छी बात नहीं है। कहीं इस तरह से भाई-चारा तोड़जाताहै...’’ इतने ही में प्रोफेसर ने कमरे में प्रवेश किया और अजितकुमार की बात अधूरी रह गई।
प्रोफेसर के प्रवेश करते ही क्लास-रूम में निस्तब्धता छा गई। कुर्सी पर बैठकर प्रोफेसर साहब ने क्लास का आदि से अन्त तक निरीक्षण किया। प्रोफेसर साहब की मेज एक डायस पर रक्खी थी। उनके सामने चार-चार की दो कतारों में लड़कों की डेस्कें तथा कुर्सियाँ पड़ी थीं। इन दो कतारों के बीच में रास्ता था।प्रोफेसर साहब के बगल में, बाईं ओर कुछ डेस्कें तथा कुछ कुर्सियाँ पड़ी थीं, जिन पर क्लास की लेडी स्टूडेन्ट्स बैठती थीं।
रजिस्टर खोलकर प्रोफेसर साहब ने लड़कों के नाम लिखना आरम्भ किया। नाम लिखने के साथ-साथ वे उनकी योग्यता भी पूछते जाते थे।
‘रमेशचन्द्र श्रीवास्तव ! किस कालेज से आए ?’’
‘‘इंटरमीडिएट कालेज, झाँसी से।’’
‘‘किस डिवीजन में इंटरमीडिएट पास किया ?’’
‘‘फर्स्ट डिवीजन में।’’
‘‘तुम्हारी कौन सी पोजीशन थी ?’’
‘‘फर्स्ट।’’
नाम लिखकर प्रोफेसर साहब ने अजितकुमार सिंह से पूछा–
‘‘तुम्हारा नाम ?’’
‘‘कुँवर अजितकुमार सिंह’’
‘‘किस कालेज से आए ?’’
‘‘प्रसीडेंसी कालेज कलकत्ता से।’’
‘‘तुम्हारी क्वालीफिकेशन ?’’
‘‘वहाँ बी.ए. में दो वर्ष फेल हुआ।’’
‘‘क्या वहीं पढ़े ? एफ. ए. किस डिवीजन में पास किया ?’’
‘‘मैंने एफ.ए. नहीं पास किया। आक्सफोर्ड में चार साल तक अंडर ग्रेजुएट अवश्य रहा हूँ। इसके बाद मेरा नाम काट दिया गया। मैं सीनियर कैम्ब्रिज पास हूँ।’’
क्लास के लड़कों की आँखें अजितकुमार पर लगी थीं। प्रोफेसर साहब मुस्कराए–‘‘अच्छा तो यों कहिए कि आप तफरीहन पढ़ रहे हैं।’’ अजितकुमार ने भी मुस्कराते हुए उत्तर दिया–‘‘बहरहाल जिन्दगी में कुछ करना जरूर चाहिए।’’
लड़के हँस पड़े, प्रोफेसर ने दूसरे लड़कों के नाम लिखना आरम्भ कर दिया।
इलाहाबाद-यूनिवर्सिटी की गर्मी की छुट्टियों के बाद खुलने का पहला दिवस था। इंगलिश डिपार्टमेन्ट में बी. ए. फर्स्ट इयर के कमरे में कुछ विद्यार्थी बैठे हुए आपस में एक-दूसरे का परिचय प्राप्त कर रहे थे, और कुछ किताबें क्लास में रखकर बाहर टहल रहे थे। अगली सीट पर एक विद्यार्थी अकेला बैठा हुआ एक पुस्तक पढ़ रहा था। वह विद्यार्थी बन्द गले का गबरून का कोट पहने था, जो काफी पुराना था और फटने लगा था। उसकी धोती मोटी थी और घुटने के नीचे का कुछ थोडा-सा ही हिस्सा ढँक सकती थी। पैर में एक काला डरबी शू पहने हुए था, जो शायद नया था। सिर पर एक पुरानी फेल्ट कैप थी, जिसने कभी अच्छे दिन अवश्य देखे होंगे; पर अब उस पर आध इंच मोटी तैल की तह जमी हुई थी। टोपी का चँदवा उठा हुआ था, और एक लम्बी-सी चुटिया उस टोपी के बाहर पीछे की ओर निकली हुई थी। विद्यार्थी की अवस्था लगभग अठारह वर्ष की थी।
विद्यार्थी का रंग गोरा था, उसका मुख गोल, मसें भीग रही थीं; पर दाढ़ी पर अभी तक उस्तरा न चला था। वह बड़ी तन्मयता के साथ पुस्तक पढ़ रहा था। अपने चारों ओर होनेवाले कोलाहल की उसे कोई चिन्ता न थी। अपने विभिन्न वातावरण के प्रति वह सर्वथा उदासीन था।
घंटा बजा और बाहर टहलनेवाले व्यक्तियों ने क्लास में प्रवेश किया। विद्यार्थी अपनी-अपनी जगह पर बैठने लगे। एक विद्यार्थी ने आकर अगली सीट पर बैठे हुए विद्यार्थी के कंधे पर हाथ लगाया, उसने चौंककर पीछे देखा।
‘‘जनाब आदाब अर्ज ! जिस सीट पर आप डटे हुए हैं, वह मेरी है।’’
जिस व्यक्ति ने ये शब्द कहे थे वह दोहरे बदन का एक लम्बा-सा नवयुवक था। दाढ़ी-मूँछ साफ, आँख पर चश्मा और कपड़ों से सेन्ट की महक। धारीदार सिल्क का बहुत सुन्दर सूट पहने था, जेब में रेशमी रूमाल और फाउन्टेन पेन, कलाई पर सोने की रिस्टवाच और उँगलियों में हीरे की अँगूठी। मोजा, रूमाल और टाई एक ही रंग के थे।
नवागन्तुक का यह वाक्य सुनकर उस विद्यार्थी ने उसे देखा और फिर खड़ा हो गया–‘‘आपकी किताबें यहाँ न थीं, इसलिए मैं बैठ गया था, क्षमा कीजिएगा।’’–यह कहकर वह पासवाली सीट पर बैठ गया।
नवागन्तुक ने पासवाली सीट पर बैठकर उस विद्यार्थी को गौर से देखा। वह कुछ मुस्कराया, उसकी आँखें चमकने लगीं। उसने कहा–‘‘मेरा नाम कुँवर अजितकुमार सिंह है। आपका नाम ?’’
‘‘मेरा नाम रमेशचन्द्र श्रीवास्तव है।’’
‘‘और शायद आप बलिया के रहनेवाले हैं।’’–अजितकुमार ने अपनी मुस्कराहट दबाते हुए कहा–‘‘देखिए महाशयजी, आपकी चोटी जो आपकी टोपी के अन्दर रहने से विरोध करती है, वही आपकी चोटी, देखिए भूल गया कि क्या कहनेवाला था। हाँ, महाशयजी, वही आपकी चोटी बड़ी मजेदार चीज है। और यह आपकी अशोक के समय की टोपी, जिसके चँदवे पर अशोक ने अपना स्तूप बनवा दिया था, महाशयजी, इस टोपी को आप प्रदर्शनी में भिजवाइए, प्रदर्शनी में ! समझे !’’–अजितकुमार अब अपनी मुस्कराहट को न दबा सका और वह खिलखिलाकर हँस पड़ा।
रमेश चुप था। जब से वह प्रयाग आया था, लोग उससे इसी प्रकार की बातचीत करते थे। उसने इस बात का जरा भी बुरा न माना। दबी जबान से उसने केवल इतनी ही कहा–‘‘मैं बलिया का रहनेवाला नहीं हूँ, मैं झाँसी से आ रहा हूँ।’’
‘‘आप झाँसी से आ रहे हैं !’’–अजितकुमार ने मुख पर आश्चर्य की मुद्रा लाते हुए कहा–‘‘यह झाँसी कौन-सी जगह है ? माफ कीजिएगा, गलती हो गई। साहब यह झाँसी अच्छी जगह होगी, लेकिन आपके झाँसी के जू की बाबत मैंने पहले कभी नहीं सुना था, इसलिए यह गलती हो गई। अब आप मेरी गलती का कारण समझ ही गए होंगे। लेकिन महाशयजी, आपके साथियों को, आपका तुड़ा कर यहाँ परचतला आना, बुरा तो लगाही होगा। देखिए, उनलोगों को भुला देना कोई अच्छी बात नहीं है। कहीं इस तरह से भाई-चारा तोड़जाताहै...’’ इतने ही में प्रोफेसर ने कमरे में प्रवेश किया और अजितकुमार की बात अधूरी रह गई।
प्रोफेसर के प्रवेश करते ही क्लास-रूम में निस्तब्धता छा गई। कुर्सी पर बैठकर प्रोफेसर साहब ने क्लास का आदि से अन्त तक निरीक्षण किया। प्रोफेसर साहब की मेज एक डायस पर रक्खी थी। उनके सामने चार-चार की दो कतारों में लड़कों की डेस्कें तथा कुर्सियाँ पड़ी थीं। इन दो कतारों के बीच में रास्ता था।प्रोफेसर साहब के बगल में, बाईं ओर कुछ डेस्कें तथा कुछ कुर्सियाँ पड़ी थीं, जिन पर क्लास की लेडी स्टूडेन्ट्स बैठती थीं।
रजिस्टर खोलकर प्रोफेसर साहब ने लड़कों के नाम लिखना आरम्भ किया। नाम लिखने के साथ-साथ वे उनकी योग्यता भी पूछते जाते थे।
‘रमेशचन्द्र श्रीवास्तव ! किस कालेज से आए ?’’
‘‘इंटरमीडिएट कालेज, झाँसी से।’’
‘‘किस डिवीजन में इंटरमीडिएट पास किया ?’’
‘‘फर्स्ट डिवीजन में।’’
‘‘तुम्हारी कौन सी पोजीशन थी ?’’
‘‘फर्स्ट।’’
नाम लिखकर प्रोफेसर साहब ने अजितकुमार सिंह से पूछा–
‘‘तुम्हारा नाम ?’’
‘‘कुँवर अजितकुमार सिंह’’
‘‘किस कालेज से आए ?’’
‘‘प्रसीडेंसी कालेज कलकत्ता से।’’
‘‘तुम्हारी क्वालीफिकेशन ?’’
‘‘वहाँ बी.ए. में दो वर्ष फेल हुआ।’’
‘‘क्या वहीं पढ़े ? एफ. ए. किस डिवीजन में पास किया ?’’
‘‘मैंने एफ.ए. नहीं पास किया। आक्सफोर्ड में चार साल तक अंडर ग्रेजुएट अवश्य रहा हूँ। इसके बाद मेरा नाम काट दिया गया। मैं सीनियर कैम्ब्रिज पास हूँ।’’
क्लास के लड़कों की आँखें अजितकुमार पर लगी थीं। प्रोफेसर साहब मुस्कराए–‘‘अच्छा तो यों कहिए कि आप तफरीहन पढ़ रहे हैं।’’ अजितकुमार ने भी मुस्कराते हुए उत्तर दिया–‘‘बहरहाल जिन्दगी में कुछ करना जरूर चाहिए।’’
लड़के हँस पड़े, प्रोफेसर ने दूसरे लड़कों के नाम लिखना आरम्भ कर दिया।
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