जीवन कथाएँ >> अछूत अछूतदया पवार
|
9 पाठकों को प्रिय 355 पाठक हैं |
मराठी के दलित लेखक दया पवार का बहुचर्चित आत्मकथात्मक उपन्यास...
ढोर मरने के बाद महारवाड़ा में एक चेतना दौड़ जाती। उसमें भी बैल यदि कगार
से फिसलकर मर गया तो आनन्द दुगुना। ऐसा बैल अधिक ताज़ा समझा जाता। जंगल
में कहाँ ढोर मरा है, इसकी ख़बर महारवाड़ा पहुँचने में देर न लगती। आज के
टेलेक्स से भी तेज़ गति से ख़बरे पहुँचतीं। आकाश में चील-गिद्ध विमान-जैसे
एक ही दिशा में मँडराने लगते तो महारों को मालूम हो जाता कि खाना कहाँ
पड़ा है। गिद्धों द्वारा खाने की बरबादी न हो, इसके लिए भागदौड़ मचती।
गिद्ध भी कितने ! आसानी से पाँच-पचास का झुंड। पंख फड़फड़ाते। मुँह से
मचाक्-मचाक् की आवाज़ें निकालते। अण्णाभाऊ साठे ने एक कथा में इन गिद्धों
से मख़मली जैकेट पहने साहूकार-पत्र की उपमा दी है। पत्थर मारने पर थोड़ी
दूर उड़ जाते परन्तु वेशर्मों-से फिर खाने की दिशा में सरकते। शायद उन्हें
महार लोगों पर बड़ा क्रोध भी आता होगा। उनके मुँह से महार लोग कौर जो छीन
लेते थे ! गिद्धों की हिंस्र आँखें, उनकी धारदार चोंच ! मुझे लगता, वे सब
मेरा ही पीछा कर रहे हैं।
‘अछूत’ मराठी के दलित लेखक दया पवार का बहुचर्चित आत्मकथात्मक उपन्यास है, जो पाठकों को न केवल एक अनबूझी दुनिया में अपने साथ ले चलता है बल्कि लेखन की नयी ऊँचाई से भी परिचित कराता है।
कथाकार दया पवार इस रचना के पात्र तथा भोक्ता दोनों ही हैं। इस उपन्यास में पिछड़ी जाति में जन्मे एक व्यक्ति की पीड़ाओं का द्रवित कर देनेवाला किस्सा-भर नहीं है, महाराष्ट्र की महार जाति का झकझोर देनेवाला अंदरूनी नक्शा है।
कथाकार ने छुटपन से वयस्क होने की संघर्ष-यात्राओं को बड़ी बारीकी से लेखनीबद्ध किया है। उसकी दृष्टि उन मार्मिक स्थलों पर अत्यन्त संवेदनशील हो जाती है, जो आभिजात्य तथा वादपरक आग्रहों के कारण उपेक्षित कर दिये जाते रहे हैं। यही कारण है कि इस रचना में वर्णित पिता मजबूत इंसान, समर्पित कलाकार, पिसता हुआ गोदी मजदूर और ओछा-चोट्टा सभी एक साथ हैं। माँ अत्यन्त अपमानजनक स्थितियों को नकारते हुए भी सभी कुछ को अनदेखा कर देती है। मित्रों, पड़ोसियों और आर्थिक दृष्टि से विपन्न लोगों का जीवन कठोर होते हुए भी अत्यन्त रस-रंग भरा है। राजनीति में ह्वास का वातावरण मौजूद रहते हुए भी उसकी सार्थक भूमिका खोजी जा रही है।
‘अछूत’ साधारण लोगों की असाधारण गाथा है। आद्यंत पठनीय तथा मन को भीतर तक छू लेनेवाली रचना।
‘अछूत’ मराठी के दलित लेखक दया पवार का बहुचर्चित आत्मकथात्मक उपन्यास है, जो पाठकों को न केवल एक अनबूझी दुनिया में अपने साथ ले चलता है बल्कि लेखन की नयी ऊँचाई से भी परिचित कराता है।
कथाकार दया पवार इस रचना के पात्र तथा भोक्ता दोनों ही हैं। इस उपन्यास में पिछड़ी जाति में जन्मे एक व्यक्ति की पीड़ाओं का द्रवित कर देनेवाला किस्सा-भर नहीं है, महाराष्ट्र की महार जाति का झकझोर देनेवाला अंदरूनी नक्शा है।
कथाकार ने छुटपन से वयस्क होने की संघर्ष-यात्राओं को बड़ी बारीकी से लेखनीबद्ध किया है। उसकी दृष्टि उन मार्मिक स्थलों पर अत्यन्त संवेदनशील हो जाती है, जो आभिजात्य तथा वादपरक आग्रहों के कारण उपेक्षित कर दिये जाते रहे हैं। यही कारण है कि इस रचना में वर्णित पिता मजबूत इंसान, समर्पित कलाकार, पिसता हुआ गोदी मजदूर और ओछा-चोट्टा सभी एक साथ हैं। माँ अत्यन्त अपमानजनक स्थितियों को नकारते हुए भी सभी कुछ को अनदेखा कर देती है। मित्रों, पड़ोसियों और आर्थिक दृष्टि से विपन्न लोगों का जीवन कठोर होते हुए भी अत्यन्त रस-रंग भरा है। राजनीति में ह्वास का वातावरण मौजूद रहते हुए भी उसकी सार्थक भूमिका खोजी जा रही है।
‘अछूत’ साधारण लोगों की असाधारण गाथा है। आद्यंत पठनीय तथा मन को भीतर तक छू लेनेवाली रचना।
अछूत
जब कभी भी वह अकेला होता है, उससे अक्सर मेरी मुलाक़ात हो जाती है। जब से
मैंने होश सँभाला है, तब से मैं उसे अच्छी तरह पहचानता हूँ। जितना अपनी
परछाईं से परिचय हो, उतना परिचित है वह। पर कभी-कभी अँधेरा छा जाने पर या
बदली छा जाने पर जैसे स्वयं की परछाईं लुप्त हो जाती है, वैसे ही वह भी
लुप्त हो जाता है। पिछले कई वर्षों से उसे भीड़ से बड़ा लगाव रहा है।
हमेशा किसी के साथ या सभा-सम्मेलनों में दिखाई देता है।
आज भी ऐसा ही हुआ। एक सभागृह में सामाजिक समस्याओं पर परिसंवाद आयोजित किया गया था। स्टेज पर प्रतिष्ठित लोग बैठे थे। उस भीड़ में वह भी सिकुड़कर बैठा था। जब उसकी बारी आती है, तब वह अपना विषय बड़े मनोयोग से प्रस्तुत करता है। अनेक लोग उसके प्रस्तुतीकरण की दाद देते हैं। कुछ लोग तालियाँ भी बजाते हैं। सभा समाप्त होती है। उसके चारों ओर मँडराने वाले चेहरे गायब हो जाते हैं। मेरे पास आकर वह कहता है, ‘‘मेरा भाषण कैसा रहा ?’’
‘‘बहुत अच्छा भाषण दिया तूने। पर एक बात तो बता ? तू कभी ख़ुश नहीं दिखता ? हमेशा परेशान-सा लगता है !’’
‘‘लगता है, तूने मुझे बहुत दिनों बाद आड़े हाथों लिया है। अरे, आज तक मैंने तुझसे छिपाया ही क्या है ?’’
‘‘तुम्हारा एक प्रोफ़ेसर दोस्त तुम्हें ‘दलित ब्राह्मण’ कहकर गाली देता है !’’
‘‘उसके कहने में सत्यांश है। ऊपरी तौर पर देखने से कोई भी कहेगा, मैंने एक सुखी आदमी की शर्ट पहन रखी है। सात-आठ सौ की सरकारी नौकरी है। वह भी ऑडिटर की। माई-बाप सरकार ने, किराये का ही सही, सबर्ब में मकान दिया है। पढ़ी-लिखी पत्नी है। दो लड़कियाँ पढ़ रही हैं। अपना नाम चलाने के लिए पाँच-छह साल का लड़का हाथों-कन्धों पर नाच-फुदक रहा है। बड़ी लड़की की शादी हो गई है। पिछले साल ही उसे लड़का भी हुआ। यानी मैं उम्र के चालीसे में ही नाना बन गया। मुझे देखकर ऐसा नहीं लगता। कुल मिलाकर बेल ऊपर चढ़ती हुई फल-फूल रही है।’’
‘‘फिर भी तू उदास रहता है ? क्या खो गया है तुम्हारा ?’’
‘‘उस गुरखे लड़के की कथा मालूम है तुम्हें ? उसकी टोपी गुम हो गई थी !’’
मेरे ‘नहीं’ कहने पर वह बोला, ‘‘एक गुरखे की टोपी गुम हो गई थी। लड़के को टोपी की याद आई। खाते-पीते उसे टोपी ही दिखती। इसको लेकर वह सदैव बेचैन रहता। एक दिन हमेशा की तरह वह जंगल में ढोर चराने गया। जंगल में शहर से आया एक प्रेमी-युगल प्रेमालाप कर रहा था। गुरखा उनका संवाद सुनता है। प्रेमी अपनी प्रेमिका की आँखों में झाँकते हुए कहता है, ‘हे प्रिये, मुझे तुम्हारी आँखों से चाँद, सूरज, फूल, सागर, सुहानी शाम का नन्दनवन दिखाई दे रहा है।’ चोरी से संवाद सुननेवाला गुरखा आगे बढ़कर पूछता है, ‘अरे, ज़रा देखना भाई, मेरी गुम टोपी उन आँखों में कहीं दिखाई देती है ?’’
‘‘दार्शनिकों का मुखौटा पहन इस तरह मत बको। ठीक-ठीक बताओ, क्या हुआ ? सीधे-सीधे क्यों नहीं बताते।’’
‘‘कैसे बताया जा सकेगा सीधे-सीधे ? वह सारा क्या एक दिन का है ? पूरे चालीस साल की ज़िन्दगी का जीवित इतिहास है...रात में कौन-सी सब्ज़ी खाई, आज याद नहीं रहता। वैसे मैं बड़ा भुलक्कड़ हूँ। विस्मरण की आदत के कारण ही जीवित रह सका, नहीं तो सिर फटवाकर मरने की बात थी। मुझे एक भी बच्चे की जन्म-तिथि याद नहीं। पत्नी ही उनके जन्म-दिनों की याद दिलाती है।’’
‘‘पर तू कैसे बड़ा होता गया, किसकी गोद में तुम्हारी परवरिश हुई, यह सब बताने में क्या एतराज है ?’’
‘‘ठीक है। जैसा याद आए, बताता हूं...।’’
कोंडवाला [काँजीहाऊस] में मेरी पसन्द की एक कविता है :
आज भी ऐसा ही हुआ। एक सभागृह में सामाजिक समस्याओं पर परिसंवाद आयोजित किया गया था। स्टेज पर प्रतिष्ठित लोग बैठे थे। उस भीड़ में वह भी सिकुड़कर बैठा था। जब उसकी बारी आती है, तब वह अपना विषय बड़े मनोयोग से प्रस्तुत करता है। अनेक लोग उसके प्रस्तुतीकरण की दाद देते हैं। कुछ लोग तालियाँ भी बजाते हैं। सभा समाप्त होती है। उसके चारों ओर मँडराने वाले चेहरे गायब हो जाते हैं। मेरे पास आकर वह कहता है, ‘‘मेरा भाषण कैसा रहा ?’’
‘‘बहुत अच्छा भाषण दिया तूने। पर एक बात तो बता ? तू कभी ख़ुश नहीं दिखता ? हमेशा परेशान-सा लगता है !’’
‘‘लगता है, तूने मुझे बहुत दिनों बाद आड़े हाथों लिया है। अरे, आज तक मैंने तुझसे छिपाया ही क्या है ?’’
‘‘तुम्हारा एक प्रोफ़ेसर दोस्त तुम्हें ‘दलित ब्राह्मण’ कहकर गाली देता है !’’
‘‘उसके कहने में सत्यांश है। ऊपरी तौर पर देखने से कोई भी कहेगा, मैंने एक सुखी आदमी की शर्ट पहन रखी है। सात-आठ सौ की सरकारी नौकरी है। वह भी ऑडिटर की। माई-बाप सरकार ने, किराये का ही सही, सबर्ब में मकान दिया है। पढ़ी-लिखी पत्नी है। दो लड़कियाँ पढ़ रही हैं। अपना नाम चलाने के लिए पाँच-छह साल का लड़का हाथों-कन्धों पर नाच-फुदक रहा है। बड़ी लड़की की शादी हो गई है। पिछले साल ही उसे लड़का भी हुआ। यानी मैं उम्र के चालीसे में ही नाना बन गया। मुझे देखकर ऐसा नहीं लगता। कुल मिलाकर बेल ऊपर चढ़ती हुई फल-फूल रही है।’’
‘‘फिर भी तू उदास रहता है ? क्या खो गया है तुम्हारा ?’’
‘‘उस गुरखे लड़के की कथा मालूम है तुम्हें ? उसकी टोपी गुम हो गई थी !’’
मेरे ‘नहीं’ कहने पर वह बोला, ‘‘एक गुरखे की टोपी गुम हो गई थी। लड़के को टोपी की याद आई। खाते-पीते उसे टोपी ही दिखती। इसको लेकर वह सदैव बेचैन रहता। एक दिन हमेशा की तरह वह जंगल में ढोर चराने गया। जंगल में शहर से आया एक प्रेमी-युगल प्रेमालाप कर रहा था। गुरखा उनका संवाद सुनता है। प्रेमी अपनी प्रेमिका की आँखों में झाँकते हुए कहता है, ‘हे प्रिये, मुझे तुम्हारी आँखों से चाँद, सूरज, फूल, सागर, सुहानी शाम का नन्दनवन दिखाई दे रहा है।’ चोरी से संवाद सुननेवाला गुरखा आगे बढ़कर पूछता है, ‘अरे, ज़रा देखना भाई, मेरी गुम टोपी उन आँखों में कहीं दिखाई देती है ?’’
‘‘दार्शनिकों का मुखौटा पहन इस तरह मत बको। ठीक-ठीक बताओ, क्या हुआ ? सीधे-सीधे क्यों नहीं बताते।’’
‘‘कैसे बताया जा सकेगा सीधे-सीधे ? वह सारा क्या एक दिन का है ? पूरे चालीस साल की ज़िन्दगी का जीवित इतिहास है...रात में कौन-सी सब्ज़ी खाई, आज याद नहीं रहता। वैसे मैं बड़ा भुलक्कड़ हूँ। विस्मरण की आदत के कारण ही जीवित रह सका, नहीं तो सिर फटवाकर मरने की बात थी। मुझे एक भी बच्चे की जन्म-तिथि याद नहीं। पत्नी ही उनके जन्म-दिनों की याद दिलाती है।’’
‘‘पर तू कैसे बड़ा होता गया, किसकी गोद में तुम्हारी परवरिश हुई, यह सब बताने में क्या एतराज है ?’’
‘‘ठीक है। जैसा याद आए, बताता हूं...।’’
कोंडवाला [काँजीहाऊस] में मेरी पसन्द की एक कविता है :
सागर में हिमखंड ज्यों डूबकर बचे
ठीक उसी तरह ये दुख
शिखर लाँघ-लाँघकर आते हैं
यादों की दाहक बूँदें
शरीर पर तेजाब छिड़कने-सी
आग दहका जाती हैं
काँधे पर ज़िन्दगी का यह सलीब
तुमने खुल्लमखुल्ला हाथ झटक लिये हैं
अब भूतकाल की खाल खींचकर
साफ़ चेहरे से कैसे घूमा जा सकता है।
ठीक उसी तरह ये दुख
शिखर लाँघ-लाँघकर आते हैं
यादों की दाहक बूँदें
शरीर पर तेजाब छिड़कने-सी
आग दहका जाती हैं
काँधे पर ज़िन्दगी का यह सलीब
तुमने खुल्लमखुल्ला हाथ झटक लिये हैं
अब भूतकाल की खाल खींचकर
साफ़ चेहरे से कैसे घूमा जा सकता है।
यह कविता मुझे अपनी ही उम्र का आईना लगती है। मेरा चेहरा इस तरह जमा गुआ
ज्यों समुद्र में कोई हिमखंड डुबोया हो। उसका सिर, शिखर लोगों को दिखता
है। इसके आधार पर लोगों के तर्क-विर्तक। मैंने जो भूतकाल भोगा है, वह
सागरमें पोसा-पाला गया बर्फ़ के पहाड़-सा विशाल-विस्तृत है। जब से मुझमें
समझ आई है, तब से वह मुझे चकमा दे रहा है। इसे पकड़ते समय प्राण काँपने
लगते हैं। काफ़ी दिनों तक तो ऊपरी सतक पर दिखनेवाले इसी शिखर पर मोहित
हुआ। अनेक बार शॉक दिया। अब कुदाल लेकर इसे तोड़-फोड़ डालें, ऐसी कुछ
तुम्हारी इच्छा लगती है। मुझे शंका है, वह टूटेगा भी या नहीं ! परन्तु
तोड़ते समय मेरी दशा पोतराज-सी होगी। तूने देखा होगा–पोतराज
अपने ही खुले बदन पर कोड़े बरसाता था। पैरों के घुँघरू बजाता। मज़बूत
बाहुओं में सुई घोंप लेता। उसके बदन से ख़ून का फ़व्वारा फूटता। लोग
तालियाँ बजाते। कोई ‘बेचारा’ कहकर आहें भरता।...मेरी
भी हालत ठीक वैसी ही होगी...और यदि मैं दया का पात्र बन गया तो ?
‘‘इसमें तुम्हारा क्या दोष ?’’
यह मुझे अच्छी तरह मालूम है। यदि मेरा जन्म बर्फ़ीले टुन्ड्रा प्रदेश में हुआ होता तो क्या ऐसा ही भूतकाल मेरे हिस्से आता ? वहाँ भी दुख-तकलीफ़ें होंगी, परन्तु उनका स्वरूप अलग होगा। इस तरह का मनुष्य-निर्मित भयंकर दुख न होगा। यह सब बताते समय ठीक मुझसे ही मुलाक़ात हो पाएगी या नहीं, यह मैं फिलहाल नहीं बता सकता। यह कोई ज़रूरी तो नहीं कि आईने को उसके सामने खड़े हर आदमी के बारे में सबकुछ मालूम हो ही। अब इसी बात पर ग़ौर करो न। मेरा नाम है ‘दगड़ू’। यह तो तू भूल ही गया होगा। मैं भी भूल गया था। पर आज भी तुम्हें स्कूल के सर्टिफ़िकेट में यही नाम मिलेगा। आज इस शहर में मुझे इस नाम से कोई नहीं जानता। पता नहीं, बीवी-बच्चों को भी यह नाम मालूम है या नहीं। मुझे बचपन से ही इस नाम से घृणा-सी रही। शेक्सपियर कहता है–‘नाम में क्या रखा है ?’पर मेरे ही हिस्से यह ‘दगड़ू’ नाम क्योंकर आए ! धरती के जिस टुकड़े पर जन्म लिया, वहाँ सभी के इसी प्रकार के नाम हैं–कचरू, धोंड्या, सटवा जबा...सब इसी तरह। किसी माँ ने बड़े प्यार से गोतम नाम रखा कि उसका तत्काल ‘गवत्या’ हो जाता। यही परम्परा थी। ‘मनुस्मृति’ में शूद्रों के नामों की सूची देखी-इसी प्रकार तुच्छतादर्शी। ब्राह्मणों के नाम विद्याधर, क्षत्रियों के बलराम, वैश्यों के लक्ष्मीकान्त और शूद्रों के शूद्रक, मातंग। वही परम्परा बीसवीं सदी में भी जारी रही।
बचपन में माँ कहती थीं : ‘बेटा, तुझसे पहले दस-बारह बच्चे दफ़न कर चुकी थी। बच्चे जीते ही नहीं थे। मनौती की। तू पैदा हुआ। किसी ने कहा कि ‘दगड़ू’, ‘धोंड्या’ नाम रखो, बच्चा जियेगा...।’
इस तरह मेरा नामकरण हुआ। स्कूल जाने लगा। यह नाम मुझे पसन्द नहीं, यह बात कक्षा के लड़कों को मालूम थी। इसलिए वे मुझे डी. एम. कहते। कोई मित्र घर आकर दरवाज़े पर मुझे पूछता तो दादी कहती : ‘डलाम् घर में नहीं हय।’ डी. एम. का उसकी भाषा में यही रूपान्तर था।
मेरा बचपन कभी गाँव में तो कभी शहर में बीता। मेरा एक पैर गाँव में और दूसरा शहर में होता। इसलिए आज भी मैं पूर्णतः शहर में नहीं रहता। मेरी मानसिकता भी दो भागों में बँटी हुई है, दो दिशाओं की ओर–जरासन्ध-सी।
पिताजी बम्बई की सुक्या गोदी में काम करते थे। उन्हें मैं ‘दादा’ कहता था। आज भी मेरा बेटा मुझे ‘दादा’ कहता है। वह डैडी या पप्पा कहे, यह मुझे क़तई पसन्द नहीं। यह सब देशी कँटीले झाड़ों में विलायती कैक्टस की क़लम लगाने-सा लगता है !
हाँ, तो मैं कह रहा था...उन दिनों हम कावाख़ाना में रहते थे। दस बाई बारह का कमरा। भीतर ही नल। संडास कॉमन। माँ, दादी और चाचा का परिवार भी वहीं।
आज आपको बम्बई के नक्शे में कावाख़ाना नहीं मिलेगा। उन दिनों फारस की खाड़ी से छूटनेवाली ट्राम फोरास रोड नाका से गिरगाँव की ओर जाती थी। दादी ने घोड़ों की ट्राम देखी थी। दादी पुरानी बातें सुनाती। मेरी आँखों के सामने एक दृश्य कौंध जाता। घोड़ा ट्राम कैसे खींचता होगा...उसके नथुनों से कैसा झाग निकलता होगा...इसी पुल के पास से नागपाड़ा शुरू होता था। इसी नागपाड़ा में कावाखाना था। आज वहाँ पाँच-छह मंजिल की विशाल इमारत है। कावाखाना के एक ओर चोर बाज़ार। दूसरी ओर कामाठीपुरा। गोलपीठा में वेश्याओं की बस्ती। इन दोनों के ठीक बीचोबीच कावाख़ाना की बस्ती थी।
इस इलाक़े में महार लोग छोटे-छोटे द्वीप बनाकर रहते थे। ये संगमनेर, अकोला, जुन्नर, सिन्नर की तराइयों से आए हुए लोग थे। आसपास ईसाइयों-मुसलमानों की बस्ती थी।
महार लोगों के मकानों की व्यवस्था बड़ी घटिया थी। एक-एक दबड़े में दो-तीन उप-किरायेदार। बीच में लकड़ी की पेटियों का पार्टीशन। लकड़ी के इन्हीं सन्दूकों में उनका सारा संसार !
पुरुष हमाली (मज़दूरी) करते। किसी मिल या कारख़ाने में जाते। स्त्रियों को कोई भी परदे में न रखता। उलटे पुरुषों की अपेक्षा वे ही अधिक खटती थीं। शराबी पति उन्हें कितना भी पीटें, वे उनकी सेवा करतीं। उनका शौक़ पूरा करतीं। सड़कों पर पड़ी चिन्दियाँ, काग़ज़, काँच के टुकड़े, लोहा-लंगर, बोतलें बीनकर लाना, उन्हें छाँट-छाँटकर अलग करना और सुबह बाज़ार में ले जाकर बेचना–यही उनका धन्धा था। वहीं पास ही मंगलदास मार्केंट में कपड़े का व्यापार चलता था। उन दुकानों में फेंके गए काग़ज़ आदि ये औरतें इकट्ठा करतीं। सबकी अपनी-अपनी दुकानें तय थीं। कचरा उठाने के लिए झगड़े होते। वहाँ की दुकानों के नौकरों को छोटी-मोटी रिश्वत भी दी जाती। कुछ औरतें पास के ही वेश्यालय में वेश्याओं की साड़ियाँ धोतीं। कीमा-पाव से ऊबी वेश्याओं के लिए कुछ औरतें बाजरे की रोटियाँ और रायता पहुँचातीं। शौक़ीन ग्राहक इन आयाओं की ही माँग कर बैठता ! ऐसे समय काँच-सी इज़्ज़त बचाने के लिए वे सिर पर पैर रखकर भागतीं।
कावाख़ाना की एक और ख़ासियत थी। बस्ती के पास ही एक क्लब था। क़रीब-क़रीब खुला। बड़े हॉल के सामने खुली जगह में चटाई की दीवारें। विलायती टाट की छत। इसी क्लब को कावाख़ाना कहते। यहाँ गोरे साहब, यहूदी, ऊँची क़द-काठी के अरबी लोग, उनमें एकाध हब्शी–ये सारे लोग दिन-भर जुआ खेलते। उनके खेल भी विविध–ताश के तीन पत्तों के खेल, बिलियर्ड आदि। चमकदार रंग-बिरंगे गोले चिकनी छड़ी से छेद में लुढ़काते। इस बिलियर्ड खेल को हम बन्द दरवाज़ों की दरारों से देखते रहते। वे लोग अपने व्यवहार से यह ज़ाहिर करते रहते कि यह खेल ग़रीबों का नहीं है।
क्लब के ये अमीर लोग काम-धन्धों पर कभी जाते न दिखते। सुबह से रात के बारह तक वहीं पड़े रहते। बिना दूध की चाय पीते। ऐसा ही एक और पैय वे पीते, जो कोको के बीज से तैयार किया जाता। उसे वे ‘कावा’ कहते। इस गहरे काले पेय से गाजर जैसे लाला सुर्ख़ यहूदियों को कौन-सा आनन्द मिलता होगा, भगवान जाने !
यहूदियों से एक बात याद आई। मुर्गी़ मारने का उनका बड़ा अजीब तरीक़ा था। वे मुर्ग़ी के आर-पार छुरी नहीं घुमाते थे। सिर्फ़ आधा गला काटकर मैदान में फेंक देते। मुर्गी़ के गले से होता ख़ून का छिड़काव और उसकी जानलेवा छटपटाहट। यह क्रूर खेल देखा न जाता। यहूदी मंडली के विशाल मन्दिर के पास ही यह हत्याकांड निरन्तर चलता रहता। स्कूल जाने-आने का वहीं से रास्ता था। यह सब देखकर रोंगटे खड़े हो जाते।
‘‘इसमें तुम्हारा क्या दोष ?’’
यह मुझे अच्छी तरह मालूम है। यदि मेरा जन्म बर्फ़ीले टुन्ड्रा प्रदेश में हुआ होता तो क्या ऐसा ही भूतकाल मेरे हिस्से आता ? वहाँ भी दुख-तकलीफ़ें होंगी, परन्तु उनका स्वरूप अलग होगा। इस तरह का मनुष्य-निर्मित भयंकर दुख न होगा। यह सब बताते समय ठीक मुझसे ही मुलाक़ात हो पाएगी या नहीं, यह मैं फिलहाल नहीं बता सकता। यह कोई ज़रूरी तो नहीं कि आईने को उसके सामने खड़े हर आदमी के बारे में सबकुछ मालूम हो ही। अब इसी बात पर ग़ौर करो न। मेरा नाम है ‘दगड़ू’। यह तो तू भूल ही गया होगा। मैं भी भूल गया था। पर आज भी तुम्हें स्कूल के सर्टिफ़िकेट में यही नाम मिलेगा। आज इस शहर में मुझे इस नाम से कोई नहीं जानता। पता नहीं, बीवी-बच्चों को भी यह नाम मालूम है या नहीं। मुझे बचपन से ही इस नाम से घृणा-सी रही। शेक्सपियर कहता है–‘नाम में क्या रखा है ?’पर मेरे ही हिस्से यह ‘दगड़ू’ नाम क्योंकर आए ! धरती के जिस टुकड़े पर जन्म लिया, वहाँ सभी के इसी प्रकार के नाम हैं–कचरू, धोंड्या, सटवा जबा...सब इसी तरह। किसी माँ ने बड़े प्यार से गोतम नाम रखा कि उसका तत्काल ‘गवत्या’ हो जाता। यही परम्परा थी। ‘मनुस्मृति’ में शूद्रों के नामों की सूची देखी-इसी प्रकार तुच्छतादर्शी। ब्राह्मणों के नाम विद्याधर, क्षत्रियों के बलराम, वैश्यों के लक्ष्मीकान्त और शूद्रों के शूद्रक, मातंग। वही परम्परा बीसवीं सदी में भी जारी रही।
बचपन में माँ कहती थीं : ‘बेटा, तुझसे पहले दस-बारह बच्चे दफ़न कर चुकी थी। बच्चे जीते ही नहीं थे। मनौती की। तू पैदा हुआ। किसी ने कहा कि ‘दगड़ू’, ‘धोंड्या’ नाम रखो, बच्चा जियेगा...।’
इस तरह मेरा नामकरण हुआ। स्कूल जाने लगा। यह नाम मुझे पसन्द नहीं, यह बात कक्षा के लड़कों को मालूम थी। इसलिए वे मुझे डी. एम. कहते। कोई मित्र घर आकर दरवाज़े पर मुझे पूछता तो दादी कहती : ‘डलाम् घर में नहीं हय।’ डी. एम. का उसकी भाषा में यही रूपान्तर था।
मेरा बचपन कभी गाँव में तो कभी शहर में बीता। मेरा एक पैर गाँव में और दूसरा शहर में होता। इसलिए आज भी मैं पूर्णतः शहर में नहीं रहता। मेरी मानसिकता भी दो भागों में बँटी हुई है, दो दिशाओं की ओर–जरासन्ध-सी।
पिताजी बम्बई की सुक्या गोदी में काम करते थे। उन्हें मैं ‘दादा’ कहता था। आज भी मेरा बेटा मुझे ‘दादा’ कहता है। वह डैडी या पप्पा कहे, यह मुझे क़तई पसन्द नहीं। यह सब देशी कँटीले झाड़ों में विलायती कैक्टस की क़लम लगाने-सा लगता है !
हाँ, तो मैं कह रहा था...उन दिनों हम कावाख़ाना में रहते थे। दस बाई बारह का कमरा। भीतर ही नल। संडास कॉमन। माँ, दादी और चाचा का परिवार भी वहीं।
आज आपको बम्बई के नक्शे में कावाख़ाना नहीं मिलेगा। उन दिनों फारस की खाड़ी से छूटनेवाली ट्राम फोरास रोड नाका से गिरगाँव की ओर जाती थी। दादी ने घोड़ों की ट्राम देखी थी। दादी पुरानी बातें सुनाती। मेरी आँखों के सामने एक दृश्य कौंध जाता। घोड़ा ट्राम कैसे खींचता होगा...उसके नथुनों से कैसा झाग निकलता होगा...इसी पुल के पास से नागपाड़ा शुरू होता था। इसी नागपाड़ा में कावाखाना था। आज वहाँ पाँच-छह मंजिल की विशाल इमारत है। कावाखाना के एक ओर चोर बाज़ार। दूसरी ओर कामाठीपुरा। गोलपीठा में वेश्याओं की बस्ती। इन दोनों के ठीक बीचोबीच कावाख़ाना की बस्ती थी।
इस इलाक़े में महार लोग छोटे-छोटे द्वीप बनाकर रहते थे। ये संगमनेर, अकोला, जुन्नर, सिन्नर की तराइयों से आए हुए लोग थे। आसपास ईसाइयों-मुसलमानों की बस्ती थी।
महार लोगों के मकानों की व्यवस्था बड़ी घटिया थी। एक-एक दबड़े में दो-तीन उप-किरायेदार। बीच में लकड़ी की पेटियों का पार्टीशन। लकड़ी के इन्हीं सन्दूकों में उनका सारा संसार !
पुरुष हमाली (मज़दूरी) करते। किसी मिल या कारख़ाने में जाते। स्त्रियों को कोई भी परदे में न रखता। उलटे पुरुषों की अपेक्षा वे ही अधिक खटती थीं। शराबी पति उन्हें कितना भी पीटें, वे उनकी सेवा करतीं। उनका शौक़ पूरा करतीं। सड़कों पर पड़ी चिन्दियाँ, काग़ज़, काँच के टुकड़े, लोहा-लंगर, बोतलें बीनकर लाना, उन्हें छाँट-छाँटकर अलग करना और सुबह बाज़ार में ले जाकर बेचना–यही उनका धन्धा था। वहीं पास ही मंगलदास मार्केंट में कपड़े का व्यापार चलता था। उन दुकानों में फेंके गए काग़ज़ आदि ये औरतें इकट्ठा करतीं। सबकी अपनी-अपनी दुकानें तय थीं। कचरा उठाने के लिए झगड़े होते। वहाँ की दुकानों के नौकरों को छोटी-मोटी रिश्वत भी दी जाती। कुछ औरतें पास के ही वेश्यालय में वेश्याओं की साड़ियाँ धोतीं। कीमा-पाव से ऊबी वेश्याओं के लिए कुछ औरतें बाजरे की रोटियाँ और रायता पहुँचातीं। शौक़ीन ग्राहक इन आयाओं की ही माँग कर बैठता ! ऐसे समय काँच-सी इज़्ज़त बचाने के लिए वे सिर पर पैर रखकर भागतीं।
कावाख़ाना की एक और ख़ासियत थी। बस्ती के पास ही एक क्लब था। क़रीब-क़रीब खुला। बड़े हॉल के सामने खुली जगह में चटाई की दीवारें। विलायती टाट की छत। इसी क्लब को कावाख़ाना कहते। यहाँ गोरे साहब, यहूदी, ऊँची क़द-काठी के अरबी लोग, उनमें एकाध हब्शी–ये सारे लोग दिन-भर जुआ खेलते। उनके खेल भी विविध–ताश के तीन पत्तों के खेल, बिलियर्ड आदि। चमकदार रंग-बिरंगे गोले चिकनी छड़ी से छेद में लुढ़काते। इस बिलियर्ड खेल को हम बन्द दरवाज़ों की दरारों से देखते रहते। वे लोग अपने व्यवहार से यह ज़ाहिर करते रहते कि यह खेल ग़रीबों का नहीं है।
क्लब के ये अमीर लोग काम-धन्धों पर कभी जाते न दिखते। सुबह से रात के बारह तक वहीं पड़े रहते। बिना दूध की चाय पीते। ऐसा ही एक और पैय वे पीते, जो कोको के बीज से तैयार किया जाता। उसे वे ‘कावा’ कहते। इस गहरे काले पेय से गाजर जैसे लाला सुर्ख़ यहूदियों को कौन-सा आनन्द मिलता होगा, भगवान जाने !
यहूदियों से एक बात याद आई। मुर्गी़ मारने का उनका बड़ा अजीब तरीक़ा था। वे मुर्ग़ी के आर-पार छुरी नहीं घुमाते थे। सिर्फ़ आधा गला काटकर मैदान में फेंक देते। मुर्गी़ के गले से होता ख़ून का छिड़काव और उसकी जानलेवा छटपटाहट। यह क्रूर खेल देखा न जाता। यहूदी मंडली के विशाल मन्दिर के पास ही यह हत्याकांड निरन्तर चलता रहता। स्कूल जाने-आने का वहीं से रास्ता था। यह सब देखकर रोंगटे खड़े हो जाते।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book