हास्य-व्यंग्य >> ममता ममताभगवती प्रसाद वाजपेयी
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शिशु मनोविज्ञान केन्द्रित पारिवारिक उपन्यास।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आप शायद जानते हैं सरकारी अधिकारियों और
कर्मचारियों की वर्ष में दो-दो बार दीवाली होती है। एक तो हमारे आपके साथ
और दूसरी उनकी अकेले 31 मार्च को। उस दिन उनके दिलों में खुशी के दीये
जलते हैं, उम्मीदों के पटाखे दगते हैं और सारी रात लक्ष्मी की उपासना होती
है। सरकारी दफ्तरों में जश्न का वातावरण छा जाता है, आपाधापी, भाग-दौड़,
हिसाब-किताब, टेलीफोन की घंटियाँ टनटानानी शुरू हो जाती हैं।
सरकारी ठेकेदार, आर्डर-सप्लायर्स, कमीशन-एजेन्ट्स, पूरे साल ऑफिस को मुफ्त चाय पिलाने वाले दलाल, खद्दर-छाप छुटभैये नेता––ये सभी दफ्तर खुलते ही छोटे साहब, बड़े बाबू, एकाउंटेंट और स्टेनो बाबू के पास कुर्सी डालकर जम जाते हैं और उन्हें बारी-बारी से पान मसाला खिलाते रहते हैं। पैसा देकर ट्रेज़री से बिल पास कराए जाते हैं, फटाफट बैंक से कैश कराए जाते हैं, फिर बड़े साहब की मौजूदगी में चेक या बैंक ड्राफ्ट द्वारा भुगतान कर देते हैं, जिसका जो कमीशन तय होता है वह इस प्रक्रिया के पूर्व ही उनकी जेबों में पहुँच जाता है। देर रात तक शासन, विभागाध्यक्ष और नियन्त्रक अधिकारी के कार्यालय से विशेष वाहकों द्वारा स्वीकृत धनराशि के शासनादेश आते रहते हैं। सारे ऑफिस के एकजुट भाग-दौड़ और बड़े बाबू की कमाल की तरकीबों से पैसा बहता चला आता है, देखते ही देखते ऑफिस की सेफ बैंक का स्ट्रांगरूप बन जाती है।
इस समय 31 मार्च 1992 की रात के नौ बज चुके हैं, पर ए.डी.एम. प्लानिंग श्यामपुर के आफिस में ग्यारह बजे दिन की तरह अभी चहल-पहल चल रही है। मुफ्त की गंगा में बाबू, चपरासी, स्टेनो, छोटे साहब और बड़े यानी सभी लोग हराम के गोते लगा रहे हैं।
आज यानी 31 मार्च को ही ए.डी.एम. प्लानिंग सलिल शर्मा को साठ वर्ष की अधिवयता के आधार पर सेवानिवृत्त हो जाना है, पर वे किसी युवा अधिकारी की भाँति अनन्य-तन्मयता, अवधारणा एवं उत्साह के साथ प्रसन्न मुद्रा में नए बिलों पर हस्ताक्षर करते जा रहे हैं। इनका हरी रोशनाई का चायना फाउनटेन पेन हर समय सामनेही कलमदान पर खुला रखा है।
कुछ देर में जयसवाल बाबू नकली मुस्कान के साथ उनके शानदार रूम में प्रवेश करते हैं, कई बिलों पर जल्दी-जल्दी साइन कराते हैं, फिर सोद्देश्य मधुर भाषा में पूछते हैं––‘‘साहब, हम लोग निश्चिन्त होकर अपना काम करते रहें ?’’
‘‘क्या मतलब ?’
‘‘मतलब यह है कि पता नहीं कल प्रातः कौन साहब आपकी जगह पर चार्ज लेने टपक पड़ें और हमारी बिछाई बाजी के मुहरे ही बदल दें।’’
‘‘नहीं-नहीं, ऐसा है जयसवाल बाबू ! तुम जानते हो कि मेरी जन्मतिथि गलत लिखी हुई है, मैं अपनी वास्तविक आयु से एक वर्ष पूर्व रिटायर किया जा रहा हूँ। मैंने अपना प्रत्यावेदन राजाज्ञा के प्रावधानों के अनुसार मुख्य चिकित्सा अधिकारी की संस्तुति, मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट, हाईस्कूल का संशोधित प्रमाण पत्र, नोटरी, शपथ, पत्र यानी सारे आवश्यक अभिलेख छः महीने पूर्व शासन को प्रेषित कर रखे हैं। कृषि उत्पादन आयुक्त ने तो संस्तुति करने में अपनी कलम तोड़ दी है।
‘‘मुझे सचिवालय के मित्रों ने आश्वस्त कर दिया है कि आयु संशोधन और सेवा-विस्तारण सम्बन्धी दोनों शासनादेश मुझे शीघ्र प्राप्त हो जाने चाहिए। आज पूरे दिन मैंने इन आदेशों की प्रतीक्षा की है। सचिवालय से कोई फोन भी नहीं प्राप्त हुआ। तब भी चिन्ता की क्या बात है ? तुम अपने काम यों ही फटाफट निपटाते रहो, सब कुछ ठीक होना चाहिए। मेरे रहते किसी नए अधिकारी की तैनाती का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यदि किसी को मुझसे चार्ज लेकर मुझे कार्य-मुक्त करने भेजा गया होता तो वह आज ऑफिस टाइम में ही आ धमकता।
‘‘यह भी मुमकिन है कि मेरे सेवा विस्तारण के आदेश क़ृषि उत्पादन आयुक्त कार्यालय में रुक गए हों, कल की डाक से तुम्हें मिल जाएँ, पर मैं तुम्हारी वर्तमान चिन्ता को समझ रहा हूँ। अतः मैंने सोचा है कि मैं अभी लखनऊ क्यों न चला जाऊँ और ए.पी.सी. से मिलकर खुशखबरी के साथ तुरन्त लौट आऊँ। आने-जाने में चार घंटे से अधिक नहीं लगेगा। तुम रमेश ड्राइवर से कहकर जीप बाहर निकला दो, मैं रेजीडेन्स के दूसरे दरवाजे से चुपके से निकला जा रहा हूँ, तुम किसी को कानोकान भनक न होने देना। यह लो दो सौ रुपये, सबको पूड़ियाँ खिला दो, अपने सेक्शन वालों को और बड़े बाबू को मेरे वापस होने तक रोके रहो।’’ आदेशात्मक स्वर में कहते हुए शर्माजी तुरन्त लखनऊ प्रस्थान कर गए।
जब वे ए.पी.सी. कार्यालय पहुँचे तो वहाँ सन्नाटा छा चुका था। दफ्तर में रात की दूधिया रोशनी में शर्माजी को ए.पी.सी. केबिन के बाहर निकलते हुए मिले। वे घर जा रहे थे। शर्माजी ने उन्हें हाथ जोड़कर नमस्कार किया और आज के दिन-भर की अभूतपूर्व कार्य-व्यस्तता की चर्चा की। बैंक वालों की शिकायत की, फिर अपनी सेवा-वृद्धि के आदेशों के सम्बन्ध में जिज्ञासा की।
ए.पी.सी. सब कुछ सुनकर भी थोड़ी देर मौन रहे फिर हल्की मुस्कराहट के साथ बोले––‘‘ऐसा क्यों न करो शर्मा, तुम कल प्रातः नियोजन मंत्री जी से उनके बंगले पर मिल लो।’’
‘‘ठीक है सर, अच्छा तो आशीर्वाद दीजिए !’’ यह कहते हुए वे बाहर निकल आए और फिर चिन्तित मुद्रा में अपनी जीप दौड़ाते हुए श्यामपुर वापस लौट गए।
जब वे अपने ऑफिस में पहुँचे तो वे मुरझाए हुए थे। लटके चेहरे से उन्होंने सबको यथावत् सूचित कर दिया और धन्यवाद देकर अपने स्टॉफ को घर जाने की अनुमति दे दी।
शर्माजी ने खाना खाया, एक पैग बियर पी, पत्नी को आज की आमदनी का हिसाब समझाया और एक बड़ा लिफाफा नोटों से भरा हुआ उनके गोरे गदवदे हाथों में थमा दिया।
रातभर वे रंगीन सपने देखते रहे, कभी राजाजीपुरम में इतने दिनों से बेकार खाली पड़े प्लाट पर शापिंग काम्पलेक्स बनवाने, कभी गोमतीनगर के विस्तार खण्ड में मैरेज हॉल बनवाने तो कभी मलिहाबादी मार रोड पर दशहरी आम का बाग लगवाने के सपने उनकी पलकों पर क्रमसः उतरते रहे।
रात में कई बार इन्होंने रेडियम लगी अपनी सिटीजन घड़ी देखी, निश्चिन्तता की मुद्रा में सोती हुई स्थूल-काय पत्नी की ओर देखा। अपने इष्ट देव की मन-ही-मन प्रार्थना की और प्रातः चार बजते ही उठकर तैयार हो गए। जीप की चाभी उन्हीं के पास रहती थी। उन्होंने स्वयं चोरों की तरह गैराज से जीप बाहर निकाली और सबेरे की ठंडी हवा, जो आम के बौरों की सुगंध से महक रही थी, का आनन्द लेते हुए वे ठीक आठ बजे माल एवेन्यू लखनऊ स्थित मन्त्रीजी की कोठी पर पहुँच गए।
वहाँ पर जाकर ड्यूटी पर तैनात सन्तरी को पचास रुपये का नोट थमाते हुए वे बोले, ‘‘ऐसा करो भइया, तुम मन्त्रीजी से मेरी मुलाकात शीघ्र करवा दो, बहुत जरूरी काम से मैं श्यामपुर से इतने बड़े सबेरे दौड़ा चला आ रहा हूँ।’’
‘‘मन्त्री जी ! मन्त्री जी तो कल रात में ही लखनऊ-मेल से दिल्ली रवाना हो गए हैं।’’ सन्तरी ने बेरुखी की आवाज में उत्तर दिया।
‘‘अरे, यह तो गजब हो गया ! अब मुझे यह बदला दो कि अब मन्त्रीजी कब लौटेंगे ?’’ शर्मा जी ने बिना कुछ सोचे-समझे सन्तरी से दूसरा प्रश्न कर दिया।
‘‘कुछ कहा नहीं जा सकता साहब !’’ यह कहकर सन्तरी कोठी के अन्दर की ओर पीठ घुमाकर चला गया।
शर्माजी का सारा सपना क्षण-भर में चकनाचूर हो गया। वे पहाड़ से नीचे धड़ाम से गिर पड़े ! अब उनकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया, मन शोक-सागर में डूब गया था। वे किंकर्तव्यविमूढ़ होकर कोठी का गेट पकड़े कुछ देर स्टैचू की भाँति खड़े रहे। उनके माथे पर पसीना आ गया, उन्होंने अपने नए कोट की अन्दरूनी जेब से काली फास की चार गोलियाँ निकालकर मुँह में रख लीं, सिर झुकाकर जीप में बैठ हए, स्टीयरिंग सँभाली, गाड़ी स्टार्ट की, पर इतनी बड़ी दुनिया में उन्हें इस समय जीप ले जाने के लिए कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ रहा था। जिन्दगी की हर सड़क निराशा के गहन अन्धकार में न जाने कहाँ खोती जाती थी।
वे चुपचाप दारूलशफा के सामने एक सड़क छाप टी-स्टाल पर बैठकर गन्दे गिलास में चाय पीने लगे। पैण्ट की दाहिनी जेब से गन्दा रूमाल निकाल चेहरे पर आया पसीना अच्छी तरह पोंछा और बमुश्किल तमाम वह गर्म चाय का गिलास एक घंटे में खाली कर पाए।
चाय बेचने वाला शर्माजी के चेहरे को ध्यान से देखने लगा। उसे दिनभर में दो-चार खद्दर छाप छुटभैया नेता, चौड़ी बेल्ट बाँधे व नई कमीज-पतलून पहने, नौकरी की तलाश में चक्कर लगाते देहाती नौजवान इसी तरह अपनी चाय की दुकान पर हर रोज दिखलाई पड़ जाते थे।
उसने चुटकी लेते हुए शर्माजी से पूछा, ‘‘सर, क्या आपको विधायक निवास में किसी से मिलना था ?’’
‘‘नहीं, पर क्यों ?’
‘‘मेरी इस टुटपुंजिया चाय स्टॉल पर इतने सबेरे आम तौर से वे ही लोग आते हैं, जिन्हें किसी विधायक से मिलने की खुशी या न मिलने का गम होता है। लीजिए आज का दैनिक जागरण पढ़िए, लिखा है, प्रदेश सरकार दो-चान दिन की और मेहमान है।’’
‘‘तुम तो यार बहुत कुछ जानते हो ? आज अखबार में लिखा है कि शाम को मुख्यमन्त्री राज्यपाल को अपना इस्तीफा देने जा रहे हैं, अब क्या होगा ?’’
‘‘अब राष्ट्रपति शासन होगा––कांग्रेसी गवर्नर राज्य करेगा, अपने पार्टीजनों के परामर्श से कार्य करेगा, पार्टी की नींव मजबूत करेगा। मुख्य मन्त्रीजी ने नए पुल, नई सड़कें, नए स्कूल, नए अस्पताल बनवाकर इतने दिनों में जनता का जो समर्थन प्राप्त किया था वह राष्ट्रपति शासन के दौरान मटियामेट हो जाएगा।’’
‘‘तुम तो यार, बड़े दिलचस्प आदमी मालूम पड़ते हो, सब कुछ सही-सही कह रहे हो। पढ़े कितना हो ?’’
‘‘यह क्यों पूछ रहे हैं सर ? मैं तो एक रुपये गिलास चाय बेचने वाला मामूली आदमी हूँ।’’
‘‘ऊपर से मामूली––मगर अन्दर से ऊँचे राजनीतिज्ञ ?’’
सरकारी ठेकेदार, आर्डर-सप्लायर्स, कमीशन-एजेन्ट्स, पूरे साल ऑफिस को मुफ्त चाय पिलाने वाले दलाल, खद्दर-छाप छुटभैये नेता––ये सभी दफ्तर खुलते ही छोटे साहब, बड़े बाबू, एकाउंटेंट और स्टेनो बाबू के पास कुर्सी डालकर जम जाते हैं और उन्हें बारी-बारी से पान मसाला खिलाते रहते हैं। पैसा देकर ट्रेज़री से बिल पास कराए जाते हैं, फटाफट बैंक से कैश कराए जाते हैं, फिर बड़े साहब की मौजूदगी में चेक या बैंक ड्राफ्ट द्वारा भुगतान कर देते हैं, जिसका जो कमीशन तय होता है वह इस प्रक्रिया के पूर्व ही उनकी जेबों में पहुँच जाता है। देर रात तक शासन, विभागाध्यक्ष और नियन्त्रक अधिकारी के कार्यालय से विशेष वाहकों द्वारा स्वीकृत धनराशि के शासनादेश आते रहते हैं। सारे ऑफिस के एकजुट भाग-दौड़ और बड़े बाबू की कमाल की तरकीबों से पैसा बहता चला आता है, देखते ही देखते ऑफिस की सेफ बैंक का स्ट्रांगरूप बन जाती है।
इस समय 31 मार्च 1992 की रात के नौ बज चुके हैं, पर ए.डी.एम. प्लानिंग श्यामपुर के आफिस में ग्यारह बजे दिन की तरह अभी चहल-पहल चल रही है। मुफ्त की गंगा में बाबू, चपरासी, स्टेनो, छोटे साहब और बड़े यानी सभी लोग हराम के गोते लगा रहे हैं।
आज यानी 31 मार्च को ही ए.डी.एम. प्लानिंग सलिल शर्मा को साठ वर्ष की अधिवयता के आधार पर सेवानिवृत्त हो जाना है, पर वे किसी युवा अधिकारी की भाँति अनन्य-तन्मयता, अवधारणा एवं उत्साह के साथ प्रसन्न मुद्रा में नए बिलों पर हस्ताक्षर करते जा रहे हैं। इनका हरी रोशनाई का चायना फाउनटेन पेन हर समय सामनेही कलमदान पर खुला रखा है।
कुछ देर में जयसवाल बाबू नकली मुस्कान के साथ उनके शानदार रूम में प्रवेश करते हैं, कई बिलों पर जल्दी-जल्दी साइन कराते हैं, फिर सोद्देश्य मधुर भाषा में पूछते हैं––‘‘साहब, हम लोग निश्चिन्त होकर अपना काम करते रहें ?’’
‘‘क्या मतलब ?’
‘‘मतलब यह है कि पता नहीं कल प्रातः कौन साहब आपकी जगह पर चार्ज लेने टपक पड़ें और हमारी बिछाई बाजी के मुहरे ही बदल दें।’’
‘‘नहीं-नहीं, ऐसा है जयसवाल बाबू ! तुम जानते हो कि मेरी जन्मतिथि गलत लिखी हुई है, मैं अपनी वास्तविक आयु से एक वर्ष पूर्व रिटायर किया जा रहा हूँ। मैंने अपना प्रत्यावेदन राजाज्ञा के प्रावधानों के अनुसार मुख्य चिकित्सा अधिकारी की संस्तुति, मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट, हाईस्कूल का संशोधित प्रमाण पत्र, नोटरी, शपथ, पत्र यानी सारे आवश्यक अभिलेख छः महीने पूर्व शासन को प्रेषित कर रखे हैं। कृषि उत्पादन आयुक्त ने तो संस्तुति करने में अपनी कलम तोड़ दी है।
‘‘मुझे सचिवालय के मित्रों ने आश्वस्त कर दिया है कि आयु संशोधन और सेवा-विस्तारण सम्बन्धी दोनों शासनादेश मुझे शीघ्र प्राप्त हो जाने चाहिए। आज पूरे दिन मैंने इन आदेशों की प्रतीक्षा की है। सचिवालय से कोई फोन भी नहीं प्राप्त हुआ। तब भी चिन्ता की क्या बात है ? तुम अपने काम यों ही फटाफट निपटाते रहो, सब कुछ ठीक होना चाहिए। मेरे रहते किसी नए अधिकारी की तैनाती का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यदि किसी को मुझसे चार्ज लेकर मुझे कार्य-मुक्त करने भेजा गया होता तो वह आज ऑफिस टाइम में ही आ धमकता।
‘‘यह भी मुमकिन है कि मेरे सेवा विस्तारण के आदेश क़ृषि उत्पादन आयुक्त कार्यालय में रुक गए हों, कल की डाक से तुम्हें मिल जाएँ, पर मैं तुम्हारी वर्तमान चिन्ता को समझ रहा हूँ। अतः मैंने सोचा है कि मैं अभी लखनऊ क्यों न चला जाऊँ और ए.पी.सी. से मिलकर खुशखबरी के साथ तुरन्त लौट आऊँ। आने-जाने में चार घंटे से अधिक नहीं लगेगा। तुम रमेश ड्राइवर से कहकर जीप बाहर निकला दो, मैं रेजीडेन्स के दूसरे दरवाजे से चुपके से निकला जा रहा हूँ, तुम किसी को कानोकान भनक न होने देना। यह लो दो सौ रुपये, सबको पूड़ियाँ खिला दो, अपने सेक्शन वालों को और बड़े बाबू को मेरे वापस होने तक रोके रहो।’’ आदेशात्मक स्वर में कहते हुए शर्माजी तुरन्त लखनऊ प्रस्थान कर गए।
जब वे ए.पी.सी. कार्यालय पहुँचे तो वहाँ सन्नाटा छा चुका था। दफ्तर में रात की दूधिया रोशनी में शर्माजी को ए.पी.सी. केबिन के बाहर निकलते हुए मिले। वे घर जा रहे थे। शर्माजी ने उन्हें हाथ जोड़कर नमस्कार किया और आज के दिन-भर की अभूतपूर्व कार्य-व्यस्तता की चर्चा की। बैंक वालों की शिकायत की, फिर अपनी सेवा-वृद्धि के आदेशों के सम्बन्ध में जिज्ञासा की।
ए.पी.सी. सब कुछ सुनकर भी थोड़ी देर मौन रहे फिर हल्की मुस्कराहट के साथ बोले––‘‘ऐसा क्यों न करो शर्मा, तुम कल प्रातः नियोजन मंत्री जी से उनके बंगले पर मिल लो।’’
‘‘ठीक है सर, अच्छा तो आशीर्वाद दीजिए !’’ यह कहते हुए वे बाहर निकल आए और फिर चिन्तित मुद्रा में अपनी जीप दौड़ाते हुए श्यामपुर वापस लौट गए।
जब वे अपने ऑफिस में पहुँचे तो वे मुरझाए हुए थे। लटके चेहरे से उन्होंने सबको यथावत् सूचित कर दिया और धन्यवाद देकर अपने स्टॉफ को घर जाने की अनुमति दे दी।
शर्माजी ने खाना खाया, एक पैग बियर पी, पत्नी को आज की आमदनी का हिसाब समझाया और एक बड़ा लिफाफा नोटों से भरा हुआ उनके गोरे गदवदे हाथों में थमा दिया।
रातभर वे रंगीन सपने देखते रहे, कभी राजाजीपुरम में इतने दिनों से बेकार खाली पड़े प्लाट पर शापिंग काम्पलेक्स बनवाने, कभी गोमतीनगर के विस्तार खण्ड में मैरेज हॉल बनवाने तो कभी मलिहाबादी मार रोड पर दशहरी आम का बाग लगवाने के सपने उनकी पलकों पर क्रमसः उतरते रहे।
रात में कई बार इन्होंने रेडियम लगी अपनी सिटीजन घड़ी देखी, निश्चिन्तता की मुद्रा में सोती हुई स्थूल-काय पत्नी की ओर देखा। अपने इष्ट देव की मन-ही-मन प्रार्थना की और प्रातः चार बजते ही उठकर तैयार हो गए। जीप की चाभी उन्हीं के पास रहती थी। उन्होंने स्वयं चोरों की तरह गैराज से जीप बाहर निकाली और सबेरे की ठंडी हवा, जो आम के बौरों की सुगंध से महक रही थी, का आनन्द लेते हुए वे ठीक आठ बजे माल एवेन्यू लखनऊ स्थित मन्त्रीजी की कोठी पर पहुँच गए।
वहाँ पर जाकर ड्यूटी पर तैनात सन्तरी को पचास रुपये का नोट थमाते हुए वे बोले, ‘‘ऐसा करो भइया, तुम मन्त्रीजी से मेरी मुलाकात शीघ्र करवा दो, बहुत जरूरी काम से मैं श्यामपुर से इतने बड़े सबेरे दौड़ा चला आ रहा हूँ।’’
‘‘मन्त्री जी ! मन्त्री जी तो कल रात में ही लखनऊ-मेल से दिल्ली रवाना हो गए हैं।’’ सन्तरी ने बेरुखी की आवाज में उत्तर दिया।
‘‘अरे, यह तो गजब हो गया ! अब मुझे यह बदला दो कि अब मन्त्रीजी कब लौटेंगे ?’’ शर्मा जी ने बिना कुछ सोचे-समझे सन्तरी से दूसरा प्रश्न कर दिया।
‘‘कुछ कहा नहीं जा सकता साहब !’’ यह कहकर सन्तरी कोठी के अन्दर की ओर पीठ घुमाकर चला गया।
शर्माजी का सारा सपना क्षण-भर में चकनाचूर हो गया। वे पहाड़ से नीचे धड़ाम से गिर पड़े ! अब उनकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया, मन शोक-सागर में डूब गया था। वे किंकर्तव्यविमूढ़ होकर कोठी का गेट पकड़े कुछ देर स्टैचू की भाँति खड़े रहे। उनके माथे पर पसीना आ गया, उन्होंने अपने नए कोट की अन्दरूनी जेब से काली फास की चार गोलियाँ निकालकर मुँह में रख लीं, सिर झुकाकर जीप में बैठ हए, स्टीयरिंग सँभाली, गाड़ी स्टार्ट की, पर इतनी बड़ी दुनिया में उन्हें इस समय जीप ले जाने के लिए कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ रहा था। जिन्दगी की हर सड़क निराशा के गहन अन्धकार में न जाने कहाँ खोती जाती थी।
वे चुपचाप दारूलशफा के सामने एक सड़क छाप टी-स्टाल पर बैठकर गन्दे गिलास में चाय पीने लगे। पैण्ट की दाहिनी जेब से गन्दा रूमाल निकाल चेहरे पर आया पसीना अच्छी तरह पोंछा और बमुश्किल तमाम वह गर्म चाय का गिलास एक घंटे में खाली कर पाए।
चाय बेचने वाला शर्माजी के चेहरे को ध्यान से देखने लगा। उसे दिनभर में दो-चार खद्दर छाप छुटभैया नेता, चौड़ी बेल्ट बाँधे व नई कमीज-पतलून पहने, नौकरी की तलाश में चक्कर लगाते देहाती नौजवान इसी तरह अपनी चाय की दुकान पर हर रोज दिखलाई पड़ जाते थे।
उसने चुटकी लेते हुए शर्माजी से पूछा, ‘‘सर, क्या आपको विधायक निवास में किसी से मिलना था ?’’
‘‘नहीं, पर क्यों ?’
‘‘मेरी इस टुटपुंजिया चाय स्टॉल पर इतने सबेरे आम तौर से वे ही लोग आते हैं, जिन्हें किसी विधायक से मिलने की खुशी या न मिलने का गम होता है। लीजिए आज का दैनिक जागरण पढ़िए, लिखा है, प्रदेश सरकार दो-चान दिन की और मेहमान है।’’
‘‘तुम तो यार बहुत कुछ जानते हो ? आज अखबार में लिखा है कि शाम को मुख्यमन्त्री राज्यपाल को अपना इस्तीफा देने जा रहे हैं, अब क्या होगा ?’’
‘‘अब राष्ट्रपति शासन होगा––कांग्रेसी गवर्नर राज्य करेगा, अपने पार्टीजनों के परामर्श से कार्य करेगा, पार्टी की नींव मजबूत करेगा। मुख्य मन्त्रीजी ने नए पुल, नई सड़कें, नए स्कूल, नए अस्पताल बनवाकर इतने दिनों में जनता का जो समर्थन प्राप्त किया था वह राष्ट्रपति शासन के दौरान मटियामेट हो जाएगा।’’
‘‘तुम तो यार, बड़े दिलचस्प आदमी मालूम पड़ते हो, सब कुछ सही-सही कह रहे हो। पढ़े कितना हो ?’’
‘‘यह क्यों पूछ रहे हैं सर ? मैं तो एक रुपये गिलास चाय बेचने वाला मामूली आदमी हूँ।’’
‘‘ऊपर से मामूली––मगर अन्दर से ऊँचे राजनीतिज्ञ ?’’
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