प्रवासी लेखक >> कौन सी जमीन अपनी कौन सी जमीन अपनीसुधा ओम ढींगरा
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सुप्रतिष्ठित प्रवासी लेखक डॉ. सुधा ओम ढींगरा की कलम से एक अप्रतिम कहानी संग्रह...
चाहे हम एक जमीन पर रहते हैं, पर हम अपनी-अपनी जमीन पर अपना जीवन जीते हैं। इस माटी की गंध को निरंतर महसूसते हम इसे अपने अंतर में इतना रचा बसा लेते हैं कि इसका विछोह हमें सब प्रकार की सुख-समृद्धि होने के बावजूद वंचित-सा अनुभव करवाता है। प्रवासी मन इसी अभाव को जीता है और बार-बार अपने अतीत की ओर लौटना चाहता है।
सुधा ढींगरा की इन कहानियों में प्रवासी मन के वह अनछुए कोनें का सहज संवेदनशील वर्णन है, जो अधिकांश प्रवासी रचनाकारों की रचनाओं में मशीनी तौर पर शब्दों का आकार ग्रहण कर जैसे स्वयं को प्रवासी साहित्यकार सिद्ध करवाने के मोह में अनुभवहीनता के साथ एक ही पटरी पर दौड़ते दिखाई देते हैं। सुधा की कहानियों के पात्र प्रवासी मन की जिंदगी के विभिन्न कोनों को जीते दिखाई देते हैं। मंदी से गुजरते अमेरिका में मृगतृष्णा में लिप्त हिंदुस्तानी परिवार की गति, अपनी हिन्दुस्तानी सोच से घिरी माँ द्वारा अमेरिकी माहौल में पली बेटी को अकेले पालने की कशमकश, अपनी मिट्टी से जुड़े मन की वापस लौटने पर रिश्तों द्वारा की गई खराब मिट्टी है, जो कहलवाने को विवश करती है-"गरीबी तो हट गई, पर पैसे की गर्मी ने, रिश्ते ठंडे कर दिये।"
जैसे इंद्रधनुष अपने एकाकार रूप से मन को विभिन्न रंगों की विविधता के साथ एक रूपाकृति देता है, कुछ वैसा ही अनुभव सुधा ढींगरा की इन कहानियों को पढ़कर होता है।
"कौन-सी जमीन अपनी" डॉ. सुधा ढींगरा की एक नई भेंट है। संग्रह की कहानियों में सुधा ने भारतीय परम्पराओं और पाश्चात्य विचारधारा को एक सूत्र में बाँधकर देश, काल और परिस्थितियों का एक नया नमूना प्रस्तुत किया है। सुधा की कहानियाँ प्रेममयी, जीवन के प्रति एक खुली, सार्थक दृष्टि उसके निकट जी रहे कथा चरित्रों के स्वाभाविक विकास को कहीं बाधित नहीं करती और एक गहरी कलापूर्ण रचनात्मक बात उन्हें अधिक विश्वसनीय बना जाती है, इस सन्दर्भ में वे कहानियाँ अप्रतिम हैं, साथ ही इस सच्चाई की साक्षी भी कि मानव सम्बन्धों के बारीक, नाजुक धागों को खोलने की रचनात्मक क्षमता जैसी सुधा जी के पास है, वैसी अन्य कई प्रवासी लेखकों में कम ही देखने को मिलती है।
इन कहानियों में मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं, सामाजिक विद्रूपताओं,कुंठाओं और दृश्यों का बड़ा ही यथार्थपरक, करुण एव कलात्मक चित्र है जिससे पाठक सोचने पर विवश हो जाता है।
सुधा ढींगरा की इन कहानियों में प्रवासी मन के वह अनछुए कोनें का सहज संवेदनशील वर्णन है, जो अधिकांश प्रवासी रचनाकारों की रचनाओं में मशीनी तौर पर शब्दों का आकार ग्रहण कर जैसे स्वयं को प्रवासी साहित्यकार सिद्ध करवाने के मोह में अनुभवहीनता के साथ एक ही पटरी पर दौड़ते दिखाई देते हैं। सुधा की कहानियों के पात्र प्रवासी मन की जिंदगी के विभिन्न कोनों को जीते दिखाई देते हैं। मंदी से गुजरते अमेरिका में मृगतृष्णा में लिप्त हिंदुस्तानी परिवार की गति, अपनी हिन्दुस्तानी सोच से घिरी माँ द्वारा अमेरिकी माहौल में पली बेटी को अकेले पालने की कशमकश, अपनी मिट्टी से जुड़े मन की वापस लौटने पर रिश्तों द्वारा की गई खराब मिट्टी है, जो कहलवाने को विवश करती है-"गरीबी तो हट गई, पर पैसे की गर्मी ने, रिश्ते ठंडे कर दिये।"
जैसे इंद्रधनुष अपने एकाकार रूप से मन को विभिन्न रंगों की विविधता के साथ एक रूपाकृति देता है, कुछ वैसा ही अनुभव सुधा ढींगरा की इन कहानियों को पढ़कर होता है।
- प्रेम जनमेजय
"कौन-सी जमीन अपनी" डॉ. सुधा ढींगरा की एक नई भेंट है। संग्रह की कहानियों में सुधा ने भारतीय परम्पराओं और पाश्चात्य विचारधारा को एक सूत्र में बाँधकर देश, काल और परिस्थितियों का एक नया नमूना प्रस्तुत किया है। सुधा की कहानियाँ प्रेममयी, जीवन के प्रति एक खुली, सार्थक दृष्टि उसके निकट जी रहे कथा चरित्रों के स्वाभाविक विकास को कहीं बाधित नहीं करती और एक गहरी कलापूर्ण रचनात्मक बात उन्हें अधिक विश्वसनीय बना जाती है, इस सन्दर्भ में वे कहानियाँ अप्रतिम हैं, साथ ही इस सच्चाई की साक्षी भी कि मानव सम्बन्धों के बारीक, नाजुक धागों को खोलने की रचनात्मक क्षमता जैसी सुधा जी के पास है, वैसी अन्य कई प्रवासी लेखकों में कम ही देखने को मिलती है।
इन कहानियों में मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं, सामाजिक विद्रूपताओं,कुंठाओं और दृश्यों का बड़ा ही यथार्थपरक, करुण एव कलात्मक चित्र है जिससे पाठक सोचने पर विवश हो जाता है।
- श्याम त्रिपाठी
प्रमुख संपादक "हिन्दी चेतना"(अमेरिका, कैनेडा)
प्रमुख संपादक "हिन्दी चेतना"(अमेरिका, कैनेडा)
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