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ओशो साहित्य >> जीवन ही है प्रभु

जीवन ही है प्रभु

ओशो

प्रकाशक : ओशो इंटरनेशनल प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :121
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7841
आईएसबीएन :9788172610475

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ओशो द्वारा जूनागढ़ ध्यान साधना शिविर में दिए गए सात अमृत प्रवचनों का संकलन

Jeevan Hi Hai Prabhu - A Hindi Book - by Osho

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ध्यान की गहराइयों में वह किरण आती है, वह रथ आता है द्वार पर जो कहता है : सम्राट हो तुम, परमात्मा हो तुम, प्रभु हो तुम, सब प्रभु है, सारा जीवन प्रभु है। जिस दिन वह किरण आती है, वह रथा आता है, उसी दिन सब बदल जाता है। उस दिन जिंदगी और हो जाती है। उस दिन चोर होना असंभव है। सम्राट कहीं चोर होते हैं ! उस दिन क्रोध करना असंभव है। उस दिन दुखी होना असंभव है। उस दिन एक नया जगत शुरू होता है। उस जगत, उस जीवन की खोज ही धर्म है।

इन चर्चाओं में इस जीवन, इस प्रभु को खोजने के लिए क्या हम करें, उस संबंध में कुछ बातें मैंने कही हैं। मेरी बातों से वह किरण न आएगी, मेरी बातों से वह रथ भी न आएगा, मेरी बातों से आप उस जगह न पहुंच जाएंगे। लेकिन हां, मेरी बातें आपको प्यासा कर सकती हैं। मेरी बातें आपके मन में घाव छोड़ जा सकती हैं। मेरी बातों से आपके मन की नींद थोड़ी बहुत चौंक सकती है। हो सकता है, शायद आप चौंक जाएं और उस यात्रा पर निकल जाएं जो ध्यान की यात्रा है।

तो निश्चित है, आश्वासन है कि जो कभी भी ध्यान की यात्रा पर गया है, वह धर्म के मंदिर पर पहुंच जाता है। ध्यान का पथ है, उपलब्ध धर्म का मंदिर हो जाता है। और उस मंदिर के भीतर जो प्रभु विराजमान है, वह कोई मूर्तिवाला प्रभु नहीं है, समस्त जीवन का ही प्रभु है।

ओशो

इस पुस्तक के कुछ विषय बिंदु :
* परमात्मा को कहां खोजें ?
* क्यों सबमें दोष दिखाई पड़ते हैं ?
* जिंदगी को एक खेल और एक लीला बना लेना
* क्या ध्यान और आत्मलीनता में जाने से बुराई मिट सकेगी ?

सम्यक प्रारंभ


मैंने सुना है, एक फकीर के पास कुछ युवक साधना के लिए आए थे कि हमें परमात्मा को खोजना है। तो उस फकीर ने कहा : तुम एक छोटा सा काम कर लाओ। उसने उन चारों युवकों को एक एक कबूतर दे दिया और कहा कि कहीं अंधेरे में मार लाओ जहां कोई देखता न हो। एक गया बाहर, उसने देखा चाहों तरफ, सड़क पर कोई नहीं था, दोपहरी थी, दोपहर था, लोग घरों में सोए थे, तो उसने जल्दी से गर्दन मरोड़ी। भीतर आकर उसने कहा कि यह रहा, सड़क पर कोई भी नहीं था। दूसरा युवक बड़ा परेशान हुआ, दिन था, दोपहरी थी। उसने कहा–मैं मारूं, तब तक कोई आ जाए, कोई खिड़की खोल कर झांक ले; कोई दरवाजा खोल दे, कोई सड़क पर निकल जाए, तो गलती हो जाएगी। उसने कहा, रात तक रुक जाना जरूरी है। रात जब अंधेरा उतर आया तब वह गया और उसने गर्दन मरोड़ी और वापस लाकर सांझ को गुरु को दे दिया और कहा, यह रहा–कोई भी नहीं था, अंधेरा पूरा था। अगर होता भी तो भी दिखाई नहीं पड़ सकता था। तीसरे युवक ने सोचा कि रात तो है, अंधेरी है, सब ठीक है, लेकिन आकाश में तारों का प्रकाश है, और कोई निकल आए, कोई दरवाजे से झांक ले, किसी को थोड़ा भी दिखाई पड़ जाए तो खतरा है। तो वह एक तलघरे में गया, द्वार बंद कर लिया, ताला लगा लिया, गर्दन मरोड़ी, लाकर गुरु को दे दिया। उसने कहा कि तलघर में मारा, ताला बंद था, भीतर आने का उपाय न था, नगर की तो बात ही नहीं आनी थी।

चौथा युवक बहुत परेशान हुआ। पंद्रह दिन बीत गए, और महीना बीतने लगा। गुरु ने कहा, वह चौथा कहां है ? क्या अभी तक जगह नहीं खोज पाया ? आदमी खोजने भेजे। वह लड़का करीब-करीब पागल हो गया था। कबूतर को लिए गांव-गांव फिर रहा था, बिलकुल पागल हो गया था। लोगों से पूछता था ऐसी कोई जगह बता दो जहां कोई न हो। लोगों ने उसे पकड़ा, उसे गुरु के पास लाए और कहा कि पागल हो गए हो। तुम्हारे तीन साथी तो उसी दिन मार कर आ गए; रात होते-होते सब वापस लौट आए। तुम क्या कर रहे हो ? उसने कहा : मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। मैं भी अंदेरे तलघरे में गया, लेकिन जब मैं कबूतर की गर्दन मरोड़ने लगा तो मैंने देखा, कबूतर मुझे देख रहा है। तो मैंने कबूतर की आंखों पर पट्टी बांध दी और मैं तब एक और अंधेरी गुफा में गया कि पट्टी में से ही किसी तरह दिखाई न पड़ जाए। लेकिन जब मैं गर्दन मरोड़ने को था तो मैंने देखा कि मैं तो देख ही रहा हूं। तब मैंने अपनी आंखों पर भी पट्टी बांध ली और पट्टियों पर पट्टी बांध ली, ताकि आंख कहीं से झांक कर देख न ले। क्योंकि आदमी की आंख का कोई भरोसा नहीं। कितनी पट्टियां बांधी हों, थोड़ी तो झांक कर देख ही सकती हैं। और जहां मना ही हो वहां तो झांक कर देख ही सकती हैं। उसने कहा, मैंने काफी पट्टियां बांध लीं, सब तरफ से पट्टियां बांध लीं, कबूतर की आंखों पर पट्टियां बांध लीं। बस गर्दन दबाने को था कि मुझे यह खयाल आया, अगर परमात्मा कहीं है तो उसे दिखाई तो पड़ ही रहा होगा। और उसी की खोज में मैं निकला हूं। तबसे मैं पागल हुआ जा रहा हूं, और मुझे वह जगह ही नहीं मिल रही है जहां परमात्मा न हो। यह कबूतर सम्हालिए आप। यह काम नहीं होने का। उसके गुरु ने कहा कि बाकी तीन फौरन विदा हो जाओ, तुम्हारी यहां कोई जरूरत नहीं है। इस चौथे आदमी की यात्रा हो सकती है। इसे जीवन के चारों तरफ छिपे हुए का थोड़ा सा बोध हुआ। इसने गहरे खोज करने की कोशिश की। इसे कुछ बोध हुआ है कि कोई मौजूद है चारों तरफ।

यह चारों तरफ जो मौजूदगी है, जो प्रेजेंस है उसका अनुभव, स्मरण–इसका स्मरण कैसे जगे ? जिसे हम भूल गए हैं और खोया नहीं, उसे हम फिर कैसे स्मरण करें ? इन चार दिनों में आपसे मैं बात ही नहीं करना चाहता; सच तो यह है कि बात मैं सिर्फ मजबूरी में करता हूं, बात करने में मुझे बहुत रस नहीं है। बात सिर्फ इसलिए करता हूं कि कुछ और करने को भी आपको राजी कर सकूं। हो सकता है बात से आप राजी हो जाएं, कुछ और किया जा सके, जिसका बात से कोई संबंध नहीं है। तो सांझ बात करूंगा और जिनको लगे कि हां, कहीं और यात्रा करनी है उनके लिए सुबह, बात नहीं, सुबह ध्यान का प्रयोग करेंगे और उस द्वार में प्रवेश की कोशिश करेंगे जहां से उस प्रभु का पता चलता है जो कि जीवन है। उसका पता चल सकता है। कठिन नहीं, क्योंकि वह बहुत निकट है। कठिन नहीं, क्योंकि वह दूर नहीं। और कठिन नहीं, क्योंकि हमने उसे सच में खोया नहीं है। और कठिन नहीं, क्योंकि हम चाहे उसे कितना ही भूल गए हों, वह हमें किसी भी हालत में और कभी भी नहीं भूल पाता है।

ओशो

मेरे प्रिय आत्मन् !
जीवन के गणित के बहुत अदभुत सूत्र हैं। पहली अत्यंत रहस्य की बात तो यह है कि जो निकट है वह दिखाई नहीं पड़ता, जो और भी निकट है, उसका पता भी नहीं चलता। और मैं जो स्वयं हूं उसका तो स्मरण भी नहीं आता। जो दूर है वह दिखाई पड़ता है। जो और दूर है और साफ दिखाई पड़ता है। जो बहुत दूर है वह निमंत्रण भी देता है, बुलाता भी है, पुकारता भी है।

चांय बुला रहा है आदमी को, तारे बुला रहा हैं। जगत की सीमाएं बुला रही हैं, एवरेस्ट की चोटियां बुलाती हैं, प्रशांत महासागर की गहराइयां बुलाती हैं। लेकिन आदमी के भीतर जो है वहां की कोई पुकार सुनाई नहीं पड़ती।

मैंने सुना है, सागर की मछलियां एक-दूसरे से पूछती हैं, सागर कहां है ? सागर में ही वे पैदा होती हैं, सागर में ही जीती हैं और सागर में ही मिट जाती हैं। लेकिन वे मछलियां पूछती हैं कि सागर कहां है ? वे आपस में विवाद भी करती हैं कि सागर कहां है ? मछलियों में ऐसी कथाएं भी हैं कि उनके किन्हीं पुरखों ने कभी सागर को देखा था। मछलियों में ऐसे महात्मा हो चुके हैं जिनकी स्मृतियां रह गई हैं, जिन्होंने सागर का अनुभव किया था। और बाकी मछलियां सागर में ही जीती हैं, सागर में ही रहती हैं, सागर में ही मरती हैं। और उन पुरखों की याद करती हैं जिन्होंने सागर का दर्शन किया था।

मैंने सुना है, सूरज की किरणें आपस में पूछती हैं दूसरी किरणों से—सच में प्रकाश को देखा है ? सुनते ही कहीं प्रकाश है और सुनते हैं कहीं सूरज है ! लेकिन कहां है ? कुछ पता नहीं। और किरणों में भी कथाएं हैं उनके पुरखों की, जिन्होंने सूरज को देखा था, और प्रकाश को अनुभव किया था। धन्य थे वे लोग, धन्य थीं वे किरणें, जिन्होंने प्रकाश को अनुभव किया और अभागी हैं वे किरणें जो विचार कर रही हैं, और दुखी हैं, और पीड़ित हैं, और परेशान हैं।

मछलियों की बात समझ में आ जाती है कि बड़ी पागल हैं। और किरणों की बात भी समझ में आ जाती है कि बड़ी पागल हैं, लेकिन आदमी की बात आदमी को समझ में नहीं आती कि हम भी बड़े पागल हैं। ईश्वर में ही उठना है, उसमें ही विलीन हो जाना है। और हम खोजते हैं और पूछते हैं ईश्वर कहां है ? और हम उन पुरखों को याद करते हैं जिन्होंने ईश्वर का दर्शन किया। और हम उन लोगों की मूर्तियां बना कर मंदिरों में स्थापित किए हैं जिन्होंने ईश्वर को जाना। फिर मछलियों पर हंसना ठीक नहीं है। फिर मछलियों पर व्यंग्य करना ठीक नहीं है। फिर मछलियां भी ठीक ही पूछती हैं कि सागर कहां है ?

स्वाभाविक ही है, मछलियों को सागर का पता न चलता हो। क्योंकि जिससे हम कभी बिछुड़ते ही नहीं उसका पता ही नहीं चलता। अगर कोई आदमी जन्म से ही स्वस्थ हो मरने तक तो उसे स्वास्थ्य का कभी भी पता नहीं चलेगा। स्वास्थ्य का पता चलने के लिए बड़ी दुर्भाग्य की बात है कि बीमार होना जरूरी है। स्वास्थ्य से टूटें, अलग हो जाएं, तो ही स्वास्थ्य का पता चलता है।

और मैंने तो सुना है, और भगवान न करे कि वह बात आपके संबंध में भी सच हो। मैंने सुना है कि बहुत से लोग जब मरते हैं तभी उनको पता चलता है कि वे जीते थे। क्योंकि जब तक मरें नहीं तब तक जीवन का कैसे पता चल सकता है। जीवन के गणित का पहला रहस्यपूर्ण सूत्र यह है कि यहां जो सबसे ज्यादा निकट है वह दिखाई नहीं पड़ता। यहां जो उपलब्ध ही है उसका पता ही नहीं चलता। जो दूर है उसकी खोज चलती है। जो नहीं मिला है उसके लिए हम तड़फते और भागते हैं। और जो मिला ही हुआ है उसे भूल जाते हैं क्योंकि उसे याद करने का मौका ही नहीं आता है।

परमात्मा का अर्थ, प्रभु का अर्थ है वह जिससे हम आते हैं और जिसमें हम चले जाते हैं। कोई नास्तिक भी ऐसे प्रभु को इनकार नहीं कर सकता, क्योंकि निश्चित ही हम कहीं से आते हैं और कहीं चले जाते हैं। सागर पर लहर उठती है, और फिर वापस सागर में खो जाती है। तो लहर जहां से आती है और जहां खो जाती है वह भी तो होगा ही; और जब लहर नहीं थी तब भी था और जब लहर थी तब भी था और जब लहर नहीं रह जाएगी तब भी होगा। तभी तो लहर उससे उठ सकती है और उसी में खो सकती है। नास्तिक भी यही कह सकते हैं कि जहां से हम आते हैं वहीं हम खो जाते हैं। और कहीं खोएंगे भी कैसे। लहर सागर से उठेगी तो सागर में ही तो विलीन होगी। और तूफान और आंधियां हवाओं में उठेंगी तो हवाओं में ही तो बिखर जाएंगी। और वृक्ष मिट्टी से पैदा होंगे,फूल खिलेंगे तो फिर बिखरेंगे कहां ? खोएंगे कहां ? वापस मिट्टी में गिरेंगे और सो जाएंगे।

जीवन का दूसरा सूत्र आपको कहना चाहता हूं–जीवन के गणित का–वह यह है कि जहां से हम आते हैं, वहीं हम वापस लौट जाते हैं। उसके क्या नाम दें, जहां से हम आते हैं और जहां हम वापस लौटे जाते हैं ? कोई नाम काम चलाने के लिए दे देना जरूरी है। उसी को प्रभु कहूंगा, जहां से हम आते हैं और जहां हम लौट जाते हैं। इसलिए मेरे प्रभु से किसी का भी झगड़ा नहीं हो सकता इस जमीन पर। न कभी हुआ है, न हो सकता है। क्योंकि प्रभु से मैं इतना ही मतलब ले रहा हूं–दि ओरिजिनल सोर्स, वह जो मूल आधार है। कहीं से तो हम आते ही होंगे। यह सवाल नहीं है कि कहां से ? कहीं से हम आते ही होंगे और कहीं हम खो जाते होंगे। और जहां से आना होता है, वहीं खोना होता है। क्योंकि जिससे हम उठते हैं, उसी में बिखर सकते हैं। हम और कहीं बिखर नहीं सकते। असल में जीवन जिससे हमने पाया है उसी को लौटा देना पड़ता है।

प्रभु मैं उसको कहूंगा, इन आने वाले दिनों में उसकी व्याख्या कर लेनी ठीक है, अन्यथा पता नहीं आप प्रभु से क्या सोचें। उसकी व्याख्या कर लेनी ठीक है। प्रभु मैं उसको कहूंगा, वह जो मूल आधार है, मूल-स्रोत है। जहां से सब निकलता है और जहां सब खो जाता है। ऐसा प्रभु का कोई व्यक्तित्व नहीं हो सकता, कोई आकृति, कोई रूप, कोई आकार नहीं हो सकता। क्योंकि जिससे सब आकार निकलते हों उसका खुद का आकार नहीं हो सकता है। अगर उसका भी अपना आकार हो तो उससे फिर दूसरे आकार न निकल सकेंगे।

आदमी से आदमी पैदा होता है, क्योंकि आदमी का एक आकार है। और आम के बीज से आम पैदा होता है, क्योंकि आम की बीज एक आकार है। पक्षियों से पक्षी पैदा होते हैं। सब चीजें अपने आकार से पैदा होती हैं। लेकिन ईश्वर से सब पैदा होता है इसलिए ईश्वर का कोई आकार नहीं हो सकता। वह आदमी के आकार का नहीं हो सकता है।

यह आदमी की ज्यादती है, अन्याय है कि अपने आकार में उसने भगवान की मूर्तियां बना रखी हैं। यह आदमी का अहंकार है कि उसने भगवान को भी अपनी शक्ल में बनाकर रख दिया है। यह आदमी का दंभ है कि वह सोचता है भगवान भी होगा तो उसे आदमी जैसा ही होना चाहिए। फिर आदमी भी बहुत तरह के हैं, इसलिए बहुत तरह के भगवान हैं। चीनियों के भगवान के गाल की हड्डी निकली हुई होगी, नाक चपटी होगी। चीनी सोच ही नहीं सकते, भगवान की नाक और चपटी न हो। और नीग्रो के भगवान के ओंठ बड़े चौड़े होंगे और बाल घुंघराले होंगे और शक्ल काली होगी। नीग्रो सोच ही नहीं सकता कि गोरा भी भगवान हो सकता है। गोरा और भगवान ? गोरा शैतान हो सकता है। गोरा भगवान कैसे हो सकता है ?
बहुत तरह के लोग हैं इसलिए बहुत तरह की शक्लों में भगवान का निर्माण कर लिया है।

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