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अब दुनिया गोल नहीं

टॉमस एल. फ्री़डमैन

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :630
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7831
आईएसबीएन :978-0-143-06406

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द वर्ल्ड इज़ फ़्लैट की हिंदी रूपांतर

Ab Duniya Gol Nahin - A Hindi Book - by Thomas L Friedman

दुनिया बदल रही है। भविष्य समतल है...

आज के वैश्वीकरण के इस नए दौर में टॉमस फ़्रीडमैन की अंतर्राष्ट्रीय रूप से सर्वाधिक बिकने वाली यह किताब बेहद रोचक और अद्यतन है। इस संवर्द्धित-विस्तृत संस्करण में, जिसमें अब पूर्ण रूप से दो नए अध्याय भी शामिल हैं, लेखक ने भारत, चीन और मध्य पूर्वी क्षेत्रों के भ्रमण को दर्शाया है और ब्लॉगिंग्स, ऑनलाइन इनसाइक्लोपीडिया और पॉडकास्टिंग के साथ प्रौद्योगिकी के विस्तार को भी; यह दिखाने के लिए कि ज्ञान और साधन इस संपूर्ण ग्रह पर इस तरह एक-दूसरे के संपर्क में आए, जैसे पहले कभी नहीं आए थे। वह बताते हैं कि व्यापार, पर्यावरण और हर जगह के लोगों के लिए इस दुनिया का ‘समतल’ होना अच्छा है।

‘सचमुच आश्चर्यजनक... उन लोगों के लिए जो वाक़ई में जानना चाहते हैं कि आने वाले समय में हमारी समतल दुनिया प्रकाश-गति से भी अधिक की तेज़ी से हमें कहां ले कर जाने वाली है।’

–ए.सी. ग्रेलाइन, इंडिपेंडेन्ट ऑन संडे

‘विश्व की शक्तियों को बेहतर ढंग से समझने में यह (किताब) लाखों पाठकों को प्रेरणा देगी।’

–मार्टिन वोल्फ़, फ़ाइनेंशियल टाइम्स

The World Is Flat, Thomas L. Friedman

आवरण डिज़ाइन : पूजा आहूजा

एक
जब मैं सो रहा था


आप सभी महाराजाधिराज, आप सब कैथोलिक क्रिस्तान (क्रिश्चियन) राजकुमार ईसाई मत में आस्था रखते हैं और उसी को चाहते हैं; आप मुहम्मद के सिद्धांत के ख़िलाफ़ हैं; इतना ही नहीं, अन्य सब धर्मों और बुतपरस्ती को भी नहीं मानते। आपने मुझे, क्रिस्टोफ़र कोलम्बस को, ऊपर जिक्र किए गए भारत के देशों में भेजने का निश्चय कर लिया था। वहां जाकर उनकी व्यवस्था को समझना और उन्हें अपने पवित्र धर्म में कैसे लाएं–इसका सही तरीक़ा खोजना मेरा दायित्व होगा। निर्देश यह भी था कि उस वक़्त पूर्वी देशों की तरफ़ जाने के लिए जो सड़क मार्ग अपनाया जाता था, उससे न जाकर मैं पश्चिम मार्ग अपनाऊं, कोई उस दिशा में गया था, इसका कोई प्रामाणिक प्रमाण उपलब्ध नहीं था।

–क्रिस्टोफ़र कोलम्बस की 1492 की समुद्री यात्रा, की डायरी का अंश

गोल्फ़ कोर्स में किसी ने मुझे पहले इस तरह दिशा-निर्देश नहीं दिए थे: ‘‘अपना लक्ष्य माइक्रोसॉफ़्ट या आईबीएम को रखो।’’ मैं दक्षिण भारतीय शहर बंगलूरु के के.जी.ए. गोल्फ़ क्लब के पहले ‘टी’ पर खड़ा था। मेरे साथी खिलाड़ी ने फ़र्स्ट-ग्रीन के पीछे काफ़ी दूर शीशे और स्टील की बनी दो, चमचमाती बिल्डिंग्स की तरफ़ इशारा किया। गोल्डमैन साक्स की बिल्डिंग अभी बनकर तैयार नहीं हुई थी, वरना वह उसे भी सामिल करके तीन बिल्डिंग्स की तरफ़ इशारा करता। एचपी और टैक्सस इंस्ट्रूमेंट्स के कार्यालय गोल्फ़ कोर्स के टैंथ-होल के समानांतर पर थे। बात यहीं ख़त्म नहीं होती। टी मार्कर्स अपसॉन प्रिंटर कंपनी के थे और हमारे कैडी 3एम का हैट पहने हुए थे। बाहर कुछ ट्रेफ़िक चिह्न भी टैक्सास इंस्ट्रूमेंट्स द्वारा स्पॉन्सर किए गए थे और रास्ते में पीत्सा हट के विज्ञापन होर्डिंग पर भाप निकलते गर्मा-गर्म पीत्सा का शीर्षक था ‘गीगापाइट्स ऑफ़ टेस्ट !’’ ना, निश्चित रूप से हम कैन्सस में नहीं हैं। न ही यह भारत जैसा लगता था। क्या यह नई दुनिया थी या पुरानी दुनिया या आने वाले समय की दुनिया ?

मैं भारत की सिलिकॉन वैली, बंगलुरु के कोलम्बस की सी खोज यात्रा पर आया था। कोलम्बस नीना, पींटा और सांटा मारिया के साथ अपनी मस्तूल नाव पर भारत का छोटा और सीधा रास्ता ढूंढ़ने निकला था। वह अटलांटिक से सीधा पश्चिम की ओर चला, यह सोचकर कि ईस्ट इंडिया के लिए यही सीधा, खुला समुद्री मार्ग होगा। उन दिनों पुर्तगाली खोजकर्ता भारत पहुंचने के लिए पहले अफ्रीका के दक्षिण की ओर जा, फिर घूमकर पूर्व का रास्ता ले रहे थे। उन दिनों मसालों का जादुई द्वीप भारत सोना, मोती, बहुमूल्य पत्थर और रेशम, जिनसे बेहिसाब दौलत कमाई जा सकती है के रूप में प्रसिद्ध था। उस वक़्त की मुग़ल सत्ता ने यूरोप से इधर आने के ज़मीनी रास्ते बंद कर रखे थे, शक्तिसाली और धनाढ्य बनने के लिए कोलम्बस और स्पेन की राजशाही के पास भारत पहुंचने के लिए छोटा समुद्री मार्ग ढूंढ़ लेना ही एकमात्र विकल्प था। अपनी समुद्री यात्रा शुरू करते वक़्त कोलम्बस का मानना यह था कि धरती गोल है, इसीलिए उसे विश्वास था कि पश्चिम की ओर जाने से वह भारत पहुंच जाएगा। पर रास्ते की लंबाई (दूरी) की उसकी गणना गड़बड़ा गई। उसने सोचा था कि धरती का क्षेत्रफल छोटा होगा पर वह बड़ा था। ईस्ट इंडिया पहुंचने से पहले एक विशाल भूखंड से उसका सामना होगा, उसने यह भी नहीं सोचा था। जो भी हो, इस नई दुनिया में जिन आदिवासियों से उसका सामना हुआ, उसने उन्हें ‘भारतीय’ ही कहा। वापस अपने देश पहुंचकर अपने संरक्षकों राजा फ़र्दीनांद और महारानी इज़ाबेला को उसने पूरे यक़ीन से बताया कि हालांकि वह भारत को नहीं खोज सका, पर धरती गोल है।

मैं पूरब की ओर से फ़्रैंकफ़र्ट होते हुए भारत के लिए चला। मैं लुफ़्तांज़ा के बिज़नेस क्लास का यात्री था। हवाई जहाज़ की अपनी सीट के आर्मरेस्ट से निकले स्क्रीन पर जीपीएस के नक़्शे को देखते रहने के कारण मुझे पूर्ण दिशाबोध था। मैं ठीक वक़्त पर सुरक्षित अपनी मंज़िल पर पहुंच गया। वहां मेरा सामना जिन लोगों से हुआ उन्हें भी ‘भारतीय’ कहते थे। मैं भी भारत की संपदा की खोज में आया था। कोलम्बस क़ीमती धातु, रेशम और मसालों जैसे हार्डवेयर की खोज में आया था। उन दिनों इन्हीं चीज़ों से अमीर हुआ जाता था। मैं सॉफ़्टवेयर की खोज में आया था: बौद्धिक शक्ति, जटिल ऐल्गोरिथम, नॉलेज वर्कर्स, कॉल सेंटर, ट्रांसमिशन प्रोटोकॉल्स, ऑप्टीकली इंजीनियरिंग में नई खोज-हमारे समय के धनार्जन के स्रोत।

कोलम्बस जिन भारतीयों (इंडियंस) से मिला, उन्हें अपना गुलाम बनाकर ख़ुश था। मैं यह समझने के लिए आया था कि जिन भारतीयों (इंडियंस) से मैं मिला हूं, वे हमारा काम क्यों हथिया रहे हैं ? अमेरिका तथा अन्य औद्योगिक देशों में सूचना प्रौद्योगिकी और सेवाओं के आउटसोर्सिंग के लिए ये लोग इतने महत्वपूर्ण क्यों हो गए हैं ? कोलम्बस के साथ उसके तीन जहाज़ों में सौ से ज़्यादा आदमी थे; मेरे पास डिस्कवरी टाइम चैनल का एक छोटा सा जत्था था। ये सब दो पिटी हुई गाड़ियों में समाए थे, जिनको भारतीय ड्राइवर नंगे पैर चला रहे थे। अपनी यात्रा शुरू करते वक़्त मैं भी यही मानता था कि दुनिया गोल है। लेकिन वास्तविक भारत से जब मेरा सामना हुआ तो उसने मेरी धारणा को हिला दिया। कोलम्बस संयोग से अमेरिका पहुंच गया और उसने सोच लिया कि उसने भारत का एक हिस्सा खोज लिया है। मैंने वास्तविक भारत को पा लिया और वहां जितने लोगों से मेरी मुलाक़ात हुई, मुझे लगा कि उनमें से अनेक अमेरिकी हैं। कुछ ने अमेरिकी नाम रख लिए थे, कुछ अन्य कॉल-सेंटरों और सॉफ़्टवेयर प्रयोगशालाओं में अमेरिकन बिज़नेस तकनीक में काम करते हुए अमेरिकी लहजे को अपना चुका थे।

कोलम्बस ने अपने राजा और रानी को बताया कि धरती गोल है। वह इतिहास में इस तथ्य के खोजकर्ता के रूप में जाना गया। मैंने घर लौटकर अपनी खोज की बात सिर्फ़ अपनी पत्नी को, उसे विश्वास में लेते हुए, फुसफुसाते हुए बताई—‘‘हनी, मुझे लगता है कि धरती समतल है।’’

मैं इस नतीजे पर कैसे पहुंचा ? मुझे लगता है कि इस धारणा की शुरुआत इंफ़ोसिस टेकनोलॉजीज़ लिमिटेड ने नंदन नीलेकनी के कॉन्फ़्रेंस रूम में हुई। इंफ़ोसिस भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी की दुनिया में एक हीरा है। कंपनी के सीईओ नीलेकनी भारतीय उद्योग जगत के सर्वाधिक समझदार और इज़्ज़तदार कैप्टन हैं। मैं डिस्कवरी टाइम्स के दल के साथ इंफोसिस कैंपस पहुंचा। यह कैंपस शहर से लगभग चालीस मिनट की दूरी पर है। मुझे यहां की सुविधाओं को देखना था और नीलेकनी का इंटरव्यू लेना था। कैंपस जाने वाली सड़क पर जहां-तहां गड्ढे हैं; पवित्र गऊएं, घोड़ागाड़ी, मोटर, ऑटोरिक्शा सब हमारी गाड़ी के आगे-पीछे चल रहे थे। पर इंफ़ोसिस के गेट के भीतर पहुंचते ही, आप एक दूसरी ही दुनिया में पहुंच जाते हैं। विशाल स्वीमिंग पूल, पूल के चारों ओर विशालखंड और पलकों से संवारे हुए से साफ़-सुथरे लॉन, साथ में अनेक विशाल रेस्तरां और शानदार हैल्थ क्लब। स्टील और कांच के भवन इस तरह छितराए हुए हैं, जैसे हर हफ़्ते कटाई-छंटाई के बाद जंगली घास उग आई हो। इन्हीं में से कुछ दफ़्तरों में इंफ़ोसिस के कर्मचारी अमेरिकन और यूरोपियन कंपनियों के लिए विशिष्ट सॉफ़्टवेयर प्रोग्राम तैयार कर रहे हैं, दूसरे भवनों में वे अमेरिका और यूरोप की प्रमुख मल्टीनेशनल कंपनियों के लिए दूर बैठे काम कर रहे हैं: कंप्यूटर की देखभाल से लेकर विशिष्ट रिसर्च प्रोजेक्ट्स। सारी दुनिया से फ़ोन कॉल्स यहां पहुंचती हैं, जिनका जवाब भी यहां दिया जाता है। सुरक्षा के कड़े प्रबंध हैं; कैमरे की नज़र हर दरवाज़े पर है; अगर आप अमेरिका एक्सप्रैस के लिए काम कर रहे हैं तो जिस भवन में जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी की सेवाओं और अनुसंधान का काम चल रहा है, उस भवन में आप नहीं जा सकते। युवा भारतीय इंजीनियर (स्त्री और पुरुष) अपने पहचान-पत्र लटकाए एक बिल्डिंग से दूसरी बिल्डिंग में मुस्तैदी से आ जा रहे हैं। एक तो ऐसा लगता है, मानो वह टैक्स विशेषज्ञ हो। दूसरी कंप्यूटर के एक एक पुर्जे़ की नब्ज़ पहचानती है... और तीसरी को देखकर लगता है जैसे कंप्यूटर उसी ने डिज़ाइन किया हो।

इंटरव्यू शुरू होने के बाद नीलेकनी ने हमारे टीवी से जुड़े दल को इंफ़ोसिस का ग्लोबल कॉन्फ़्रेसिंग सेंटर दिखाया—भारत का आउटसोर्सिंग उद्योग यहीं से शुरू हुआ। यह गुफा के आकार का कमरा, जिसकी दीवारें और फ़र्श लकड़ी से बने थे, आईवी लीग लॉ स्कूल की पंक्तिबद्ध कक्षा जैसा दिखता था। एक तरफ़ पूरी दीवार के साइज़ का विशाल स्क्रीन था और टेलीकॉन्फ़्रेसिंग के लिए ऊपर छत में कैमरे लगे हुए थे। ‘‘तो यह हमारा कॉन्फ्रेंस रूम है, संभवतः एशिया में सबसे बड़ी स्क्रीन—इसमें चालीस डिजिटल स्क्रीन एक साथ हैं।’’ नीलेकनी ने स्क्रीन की तरफ़ इशारा करते हुए गर्व से कहा। इतना बड़ी सपाट टीवी स्क्रीन मैंने पहले कभी नहीं देखी। नीलेकनी ने कहा, ‘‘इंफ़ोसिस इस विशालकाय स्क्रीन पर विश्व के अपने सप्लाई चेन के सभी मुख्य अधिकारियों की मीटिंग कर सकता है; किसी भी वक़्त, किसी भी प्रोजेक्ट पर। उनके अमेरिकन डिज़ाइनर अपने भारतीय सॉफ़्टवेयर राइटर्स के साथ पर्दे पर आ सकते हैं, साथ ही उनके एशियन उत्पादक भी, सब एक साथ। हम यहां बैठे होंगे, कोई न्यूयॉर्क में होगा, कोई लंदन, बोस्टन, सैन फ्रांसिस्को में होगा–इस स्क्रीन पर सब उपस्थित हो सकते हैं। संभवतः यहां लिए गए फ़ैसलों पर अमल होगा सिंगापुर में, अतः सिंगापुर का व्यक्ति भी यहां हो सकता है। यह है वैश्वीकरण (ग्लोबलाइज़ेशन)।’’ स्क्रीन के ऊपर लगी आठ घड़ियां इंफ़ोसिस के काम के दिनों को दर्शा रही थीं: 24/7/365। घड़ियों पर अलग-अलग देशों के लेबल थे: पश्चिमी यूएस, पूर्वी यूएस, जीएमटी, भारत, सिंगापुर, हांगकांग, जापान, ऑस्ट्रेलिया।

‘‘आज दुनिया में जो बड़े पैमाने पर मूलभूत काम हो रहे हैं, आउटसोर्सिंग तो उसका एक आयाम मात्रा है,’’ नीलेकनी ने समझाया। ‘‘पिछले कुछ सालों में जो कुछ हुआ, वह यह है कि प्रौद्योगिकी में बहुत बड़ी धनराशि का निवेश किया गया, विशेष रूप से बब्बल एरा में, जब लाखों, करोड़ों डॉलर ब्रॉड-बैंड को पूरी दुनिया से जोड़ने के लिए निवेश किए गए, समुद्र के अंदर केबल डालने में ख़र्च किए गए, ऐसी ही अनेक बातें।’’ इसी के साथ, उन्होंने आगे कहा, ‘‘कंप्यूटर सस्ते हुए, पूरी दुनिया में फैल गए और सॉफ़्टवेयर, जो किसी भी काम को बांटकर उसका एक हिस्सा बोस्टन भेज सकता है, एक हिस्सा बंगलुरु और एक हिस्सा बीजिंग, इससे कोई भी दूरस्थ काम को आसानी से कर सकता है। जब सन् 2000 में अचानक ये सब बातें एक साथ घटित हुईं तो उनसे एक ऐसा प्लेटफ़ॉर्म तैयार हुआ, जहां कहीं से भी बौद्धिक कार्य और बौद्धिक संपदा को भेजा जा सकता था। इसे अलग-अलग किया जा सकता था, कहीं भी पहुंचाया जा सकता था, बांटा जा सकता था, निर्मित किया जा सकता था और फिर से जोड़कर एक किया जा सकता था। इन सबसे हम जो काम कर रहे हैं, उसे करने में एक नई स्वतंत्रता हमें मिली, विशेष रूप से बौद्धिक क़िस्म के कामों के लिए। आज आप बंगलुरु में जो (होते) देख रहे हैं, वह वास्तव में इन सब बातों की एक साथ जुड़ने की पराकाष्ठा है।’’

हम नीलेकनी के ऑफ़िस के बाहर एक सोफ़े पर बैठे टेलीविज़न के सहयोगी द्वारा कैमरा सेट किए जाने का इंतज़ार कर रहे थे। अपनी कही बातों का तात्पर्य समझाते हुए किसी प्रसंग में नीलेकनी द्वारा कहा गया एक मुहावरा मेरे कानों में गूंज उठा। उन्होंने मुझसे कहा, ‘‘टॉम, खेल का मैदान समतल कर दिया गया है।’’ उनके कहने का आशय था कि अब भारत जैसे देश वैश्विक बौद्धिक कार्यों में प्रतिस्पर्धा के योग्य हैं, ऐसा पहले नहीं था और अमेरिका को इसके लिए तैयार रहना चाहिए। अमेरिका के सामने चुनौती आने वाली है, पर उन्होंने ज़ोर देकर कहा, चुनौती अमेरिका के लिए लाभप्रद होगी, क्योंकि चुनौती मिलने की स्थिति में ही हम सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हैं। उस शाम इंफ़ोसिस परिसर से निकल उसी (गड्ढों वाली) सड़क से बंगलुरु लौटते समय मैं उस मुहावरे को बार-बार दोहरा रहा था, ‘‘खेल का मैदान समतल कर दिया गया है।’’

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