नाटक-एकाँकी >> मंच अँधेरे में मंच अँधेरे मेंनरेन्द्र मोहन
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मंच अँधेरे में नाटक भाषाहीनता के भीतर से भाषा की तलाश करते हुए बाहरी-भीतरी संतापों-तनावों को संकेतित करने वाला नाट्य प्रयोग है, जिसमें परिवेशगत विसंगति के विरोध में संघर्ष और विद्रोह-चेतना को खड़ा किया गया है।...
मंच अंधेरे में
मंच कलाकार की जान है और खाली मंच कलाकार की
मौत।
‘खाली मंच’ से तात्पर्य उस स्थिति से है जब
अभिव्यक्ति पर
प्रतिबंध हो। ऐसी स्थिति में अभिनेता, रंगर्मी क्या करे ? मंच अँधेरे में
नाटक ऐसी ही विकट स्थिति से दर्शक/पाठक का सामना कराता
है–रंग-कर्म
की अपनी भाषा में। इस तरह से देखें तो मंच अँधेरे में नाटक में नाटक है।
इस नाटक में शब्द, उनके अर्थ, उनकी ध्वनियाँ-प्रतिध्वनियाँ इस तरह से गुँथी हुई हैं कि उन्हें अलगाना संभव नहीं है। रंगकर्मी अंधकारपूर्ण स्थितियों में भी सपने देखता है और प्रकाश पाने के लिए संघर्ष करता है। अभिव्यक्ति को सघन तथा प्रभावी बनाने के लिए अँधेरा और प्रकाश और उन्हीं में से जन्म लेतीं कठपुतलियों और मुखौटों के ज़रिए लेखक ने जैसे एक रंग-फैंटेसी ही प्रस्तुत की है।
मंच अँधेरे में नाटक भाषाहीनता के भीतर से भाषा की तलाश करते हुए बाहरी-भीतरी संतापों-तनावों को संकेतित करने वाला नाट्य प्रयोग है, जिसमें परिवेशगत विसंगति के विरोध में संघर्ष और विद्रोह-चेतना को खड़ा किया गया है। एक बड़ी त्रासदी और विडंबना के बावजूद इसके हरकत-भरे शब्द और जिजीविषा से भरे पात्र मंच अँधेरे में होने के बावजूद उम्मीद और आस्था को सहेजे हुए हैं, जिसके कारण नाटक समाप्त होकर भी भीतर कहीं जारी रहता है। यही इस नाटक की जीवंतता और सार्थकता है।
इस नाटक में शब्द, उनके अर्थ, उनकी ध्वनियाँ-प्रतिध्वनियाँ इस तरह से गुँथी हुई हैं कि उन्हें अलगाना संभव नहीं है। रंगकर्मी अंधकारपूर्ण स्थितियों में भी सपने देखता है और प्रकाश पाने के लिए संघर्ष करता है। अभिव्यक्ति को सघन तथा प्रभावी बनाने के लिए अँधेरा और प्रकाश और उन्हीं में से जन्म लेतीं कठपुतलियों और मुखौटों के ज़रिए लेखक ने जैसे एक रंग-फैंटेसी ही प्रस्तुत की है।
मंच अँधेरे में नाटक भाषाहीनता के भीतर से भाषा की तलाश करते हुए बाहरी-भीतरी संतापों-तनावों को संकेतित करने वाला नाट्य प्रयोग है, जिसमें परिवेशगत विसंगति के विरोध में संघर्ष और विद्रोह-चेतना को खड़ा किया गया है। एक बड़ी त्रासदी और विडंबना के बावजूद इसके हरकत-भरे शब्द और जिजीविषा से भरे पात्र मंच अँधेरे में होने के बावजूद उम्मीद और आस्था को सहेजे हुए हैं, जिसके कारण नाटक समाप्त होकर भी भीतर कहीं जारी रहता है। यही इस नाटक की जीवंतता और सार्थकता है।
पात्र-परिचय
रंगनाथ : अभिनेता
सुरेखा : रंगनाथ की बेटी/नटी, अभिनेत्री
सुदर्शन : सुरेखा का पति/सूत्रधार
नंदिता : सुरेखा-सुदर्शन की बेटी
लारेंस : रंगनाथ का दोस्त
महारानी
राजकुमार
काल/हलाल/बेताल : कठपुतलियाँ और चरित्र
गुरुजी, गोवर्धनदास, ढिंढोरची
इंस्पेक्टर बिल्ला, हवलदार
सिपाही एक, दो
सुरेखा : रंगनाथ की बेटी/नटी, अभिनेत्री
सुदर्शन : सुरेखा का पति/सूत्रधार
नंदिता : सुरेखा-सुदर्शन की बेटी
लारेंस : रंगनाथ का दोस्त
महारानी
राजकुमार
काल/हलाल/बेताल : कठपुतलियाँ और चरित्र
गुरुजी, गोवर्धनदास, ढिंढोरची
इंस्पेक्टर बिल्ला, हवलदार
सिपाही एक, दो
दृश्य : एक
(मंच पर घुप अँधेरा। अँधेरे में दो आकृतियाँ संगीत और नृत्य की अपूर्व
संगति में नाचती दिखती हैं। राग और ध्वनि तरंगों से अँधेरा पल-भर के लिए
छिन्न-भिन्न होता है, दूसरे पल वैसे का वैसा। दोनों की तीव्र नृत्य
भंगिमाएं सुलगती लकीरों-सी अँधेरे में बनती-मिटती हैं। नृत्य गति
धीरे-धीरे सम पर आती है। दोनों स्पंदित-रोमांचित एक-दूसरे की तरफ देखते
हैं :)
पहला : नटी, इस बार तुमने ग़ज़ब का नृत्य किया।
नटी : सूत्रधार, क्या सचमुच ! (उसकी आँखों में झांकती है)
सूत्रधार : तुम साथ होती हो तो समां बंध जाता है।
नटी : दृश्यों के अंदर हो या दृश्यों से बाहर...
सूत्रधार : (सीधे दर्शकों से) आपने देखा दृश्यों के बीच हम इस तरह आते-जाते रहे और खेल चुके आप के सामने ‘अँधेर नगरी’ नाटक के चार दृश्य...
नटी : (उसे टोकती और कलपती हुई) तुम्हारी गिनती कब सुधरेगी ? एक, दो, तीन, चार, पाँच–चार हुए कि पाँच
सुत्रधार : हाँ, हाँ, पाँच और तू भी तो भूल गई वह टुकड़ा जो हमने अभी-अभी खेला और जिसे देख लोट-पोट हो गए दर्शक...
नटी : (हंसती हुई) हाँ, छठे दृश्य का पहला हिस्सा...
मोटू गोवर्धनदास–उसने खूब माल खाया-उड़ाया...
सुत्रधार : और सिपाही उसे घसीटते हुए ले गए फांसी देने के लिए...
नटी : और यह लो आख़िरी टुकड़ा–नाटक का क्लॉइमेक्स
(नटी और सूत्रधार दायीं, बायीं तरफ से चले जाते हैं)
(मंच पर अँधेरे और प्रकाश का ऐसा संयोजन हो कि एक फैंटसी-सी घटित होती प्रतीत हो)
(दायीं तरफ से गुरु जी, बायीं तरफ से गोवर्धनदास प्रवेश करते हैं : )
गुरुजी : अरे बच्चा गोवर्धनदास ! तेरी यह क्या दशा है ?
गोवर्धनदास : (गुरु को हाथ जोड़कर) गुरु जी ! दीवार के नीचे बकरी दब गयी, सो, इसके लिए मुझे फाँसी देते हैं, गुरु जी, बचाओ।
गुरुजी : कोई चिंता नहीं, नारायण सब समर्थ है। (गुरु जी चेले के कान में कुछ समझाते हैं।)
गोवर्धनदास : (प्रकट) तब तो गुरु जी हम अभी फाँसी चढ़ेंगे।
गुरुजी : नहीं, बच्चा हम। इतना समझाया, नहीं मानता, हम बूढ़े भए, हम को जाने दे।
(इस प्रकार दोनों हुज्जत करते हैं)
(राजा, मंत्री, कोतवाल आते हैं)
राजा : (गुरु से) बाबाजी ! बोलो। काहे को आप फाँसी पर चढ़ते हैं ?
गुरुजी : राजा ! इस समय ऐसा साइत है कि जो मरेगा सीधा बैकुंठ जायेगा।
मंत्री : तब तो हम फाँसी चढ़ेंगे।
गोवर्धनदास : हम, हम। हम को तो हुकुम है।
कोतवाल : हम लटकैंगे। हम सबब तो दीवार गिरी।
राजा : चुप रहो, सब लोग, राजा के आछत और कौन बैकुंठ जा सकता है ? हम को फाँसी चढ़ाओ, जल्दी, जल्दी।
(वाक्य के खत्म होते न होते इंस्पेक्टर और हवलदार स्टेज पर धड़धड़ाते चढ़ते दिखते हैं)
सूत्रधार : (उन्हें मंच पर आता देख) कहाँ चले आ रहे हो, भई ? अब कोई एंट्री नहीं, चलो, चलो, नीचे...
इंस्पेक्टर बिल्ला : (तेज़-कठोर आवाज़ में) एंट्री-फेंट्री तेरी माँ की... बंद कर यह नौटंकी। (बंदूक का कुंदा उस की तरफ करता है।) कोई हिल-डुल नहीं। मेरे लोगों ने पूरा स्टेज घेर रखा है।
(सूत्रधार और नटी देखते हैं कि पुलिस मंच को घेरे हुए है। इन दोनों के अलावा सभी कलाकार और पूरा सीन फ्रीज़)
सूत्रधार : (स्थिति की भयावहता को समझ, आगे बढ़) इंस्पेक्टर बिल्ला !
बिल्ला : तू कौन ?
सूत्रधार : मैं सूत्रधार, डायरेक्टर....
बिल्ला : सूत्रधार क्या ? डोराक्टर कहाँ के ?
हवलदार : सर, सूतधार नहीं, सूत्रधार, डोराक्टर नहीं, तमाशे का डायरेक्टर। सर, मैंने एम.ए. हिंदी किया है...
बिल्ला : ठीक है, ठीक, है (चीखते हुए) डोरक्टर !
सूत्रधार : सर !
बिल्ला : सर के बच्चे, बंद कर यह खेल-तमाशा...
हवलदार : खेल ख़त्म, पैसा हज़म। (जैसे अपने से) क्यों करें बंद, फालतू में बौखला रहा....
बिल्ला : क्या कहा ?
हवलदार : सूत्रधार की हिमाक़त देखो, सर, आप के रिंकू-टिंकू को पास नहीं दिये–आप की नाक कट गयी न ?
(नटी हँसती है)
बिल्ला : हो, हो, हो, हो हवलदार ! किस की नाक ?
हवलदार : सर, जिस की कटी...
बिल्ला : कटी नहीं, फटी–हवलदार के बच्चे, बड़ी बात है पब्लिक–क्या कहते हैं उसे–
हवलदार : पब्लिक मॉरैलिटी, सर ( अपने से) साला दोगला...
बिल्ला : हां, हाँ, पब्लिक मारलटी...
नटी : मारलटी नहीं, मॉरैलिटी, इंस्पेक्टर बिल्ला ! (हँसती है)
बिल्ला : निकालता हूँ तेरी हँसी...
नटी : इंस्पेक्टर बिल्ला, ग़ज़ब का तमाशा हुआ और अज़ब हैं आप कि हँसे नहीं ?
बिल्ला : मैं तेरा वो तमाशा बनाऊँगा कि तू रोएगी। (सूत्रधार से) तूने राजा को फाँसी दी ?
सूत्रधार : नहीं, सर, मैं कौन होता हूँ राजा को फाँसी देने वाला ?
हवलदार : सर, आपने देखा नहीं राजा ने ख़ुद कहा मुझे फाँसी चढ़ाओ !
बिल्ला : चुप्प ! मुझे साजिश की बू आ रही है...
हवलदार : (सूंघता हुआ) न, न, न इधर न उधर, कहीं बू-बा नहीं
बिल्ला : (सूत्रधार के कंधे पर बंदूक का कुंदा दबाता हुआ) सीधे-सीधे बोल, नहीं तो...
नटी : बंदूक हटा तो बोले
बिल्ला : चोप्प ! हरामजादी...
नटी : (गाली बुदबुदाती है)
बिल्ला : क्या कहा ?
सूत्रधार : बिल्ला !
बिल्ला : (नटी को ललचाई नज़रों से देखता हुआ) बिल्ला ! (अट्टहास करता है) भयानक बिल्ला ! (कहते कहते अट्टहास की जगह कठोरता ले लेती है) तू बिल्ले को नहीं जानती ! मुझे चिढ़ाएगी ?
(जंगली बिल्ले की-सी हरकतें करता हुआ) फाड़ डालूँगा
हवलदार : सर, बहुत बड़ी एकट्रेस है
बिल्ला : (खा जाने वाली निगाह से नटी को देखता हुआ) लगता तो है... (पलट कर) तू क्यों कर जाणै ?
हवलदार : कहाँ देखा था ? हाँ, याद आया, द्रौपदी नाटक था। मेरी ड्यूटी हॉल में थी... आप ने वो नाटक देखा, सर ?
बिल्ला : (चीख़ता हुआ) नहीं...
हवलदार : ज़रूर देखो, सर, छा गयी थी। धृतराष्ट्र सर न उठा सका। हाँ, कृष्ण की बात अलग है, मगर उस सीन में वह भी इस के सामने टिक न सका।
बिल्ला : तोप है ?
हवलदार : हाँ, सर, तोप है।
बिल्ला : (दाँत पीसता हुआ) मैं उसे तिनके-सा मसल दूँगा।
हवलदार : सर !
बिल्ला : हट, (सूत्रधार से) तैने राजा को फांसी दी...
सूत्रधार : नाटक में होता ही है
हवलदार : उस दिन मैंने देखी अभिनय यानी सर, एक्टिंग की ऊँचाई...
बिल्ला : (नटी की तरफ देख कर हँसता हुआ) मैं भी देखूँगा एक दिन ! (सूत्रधार से) क्या होता है नाटक में, बोल ?
सुत्रधार : (उसी मुद्रा में) सर, यह लोककथा है।
बिल्ला : होगी, मगर तैने उसे दिखाया क्यों ?
हवलदार : सर छोड़िए, ‘अंधेर नगरी’ पुराना नाटक है। मैंने पढ़ा है। मैंने एम.ए. हिन्दी...
बिल्ला : चोप्प, अगर अब तैने एम.ए. हिंदी का नाम लिया...
हवलदार : सर, सैकड़ों बार खेला जा चुका है।
बिल्ला : चोप्प गधे, एक बार हो या सैकड़ों बार, कानून कायदा कोई चीज़ है कि नहीं ?
सूत्रधार : है, लेकिन खेल में कानून का क्या काम ? खेल खेल है, सर...
बिल्ला : और कानून कानून है– (भौंडे ढंग से दाँतों में पीस-पीस कर बोलता है)
(सूत्रधार से) हालात पहले से बिगड़े हुए हैं, ऊपर से तूने राजा को फाँसी पर चढ़ता दिखाया...तूने पूरे सिस्टुम की ऐसी-तैसी कर दी।
हवलदार : सर, सिस्टुम नहीं, सिस्टम...
नटी : सिस्टुम ! (एक-एक अक्षर को तोड़ती हुई हँसती है)
बिल्ला : तू क्यों हँसी ?
(और खुल कर हँसती है)
बिल्ला : चुप्प !
सूत्रधार : हँसना मना है क्या ?
पहला : नटी, इस बार तुमने ग़ज़ब का नृत्य किया।
नटी : सूत्रधार, क्या सचमुच ! (उसकी आँखों में झांकती है)
सूत्रधार : तुम साथ होती हो तो समां बंध जाता है।
नटी : दृश्यों के अंदर हो या दृश्यों से बाहर...
सूत्रधार : (सीधे दर्शकों से) आपने देखा दृश्यों के बीच हम इस तरह आते-जाते रहे और खेल चुके आप के सामने ‘अँधेर नगरी’ नाटक के चार दृश्य...
नटी : (उसे टोकती और कलपती हुई) तुम्हारी गिनती कब सुधरेगी ? एक, दो, तीन, चार, पाँच–चार हुए कि पाँच
सुत्रधार : हाँ, हाँ, पाँच और तू भी तो भूल गई वह टुकड़ा जो हमने अभी-अभी खेला और जिसे देख लोट-पोट हो गए दर्शक...
नटी : (हंसती हुई) हाँ, छठे दृश्य का पहला हिस्सा...
मोटू गोवर्धनदास–उसने खूब माल खाया-उड़ाया...
सुत्रधार : और सिपाही उसे घसीटते हुए ले गए फांसी देने के लिए...
नटी : और यह लो आख़िरी टुकड़ा–नाटक का क्लॉइमेक्स
(नटी और सूत्रधार दायीं, बायीं तरफ से चले जाते हैं)
(मंच पर अँधेरे और प्रकाश का ऐसा संयोजन हो कि एक फैंटसी-सी घटित होती प्रतीत हो)
(दायीं तरफ से गुरु जी, बायीं तरफ से गोवर्धनदास प्रवेश करते हैं : )
गुरुजी : अरे बच्चा गोवर्धनदास ! तेरी यह क्या दशा है ?
गोवर्धनदास : (गुरु को हाथ जोड़कर) गुरु जी ! दीवार के नीचे बकरी दब गयी, सो, इसके लिए मुझे फाँसी देते हैं, गुरु जी, बचाओ।
गुरुजी : कोई चिंता नहीं, नारायण सब समर्थ है। (गुरु जी चेले के कान में कुछ समझाते हैं।)
गोवर्धनदास : (प्रकट) तब तो गुरु जी हम अभी फाँसी चढ़ेंगे।
गुरुजी : नहीं, बच्चा हम। इतना समझाया, नहीं मानता, हम बूढ़े भए, हम को जाने दे।
(इस प्रकार दोनों हुज्जत करते हैं)
(राजा, मंत्री, कोतवाल आते हैं)
राजा : (गुरु से) बाबाजी ! बोलो। काहे को आप फाँसी पर चढ़ते हैं ?
गुरुजी : राजा ! इस समय ऐसा साइत है कि जो मरेगा सीधा बैकुंठ जायेगा।
मंत्री : तब तो हम फाँसी चढ़ेंगे।
गोवर्धनदास : हम, हम। हम को तो हुकुम है।
कोतवाल : हम लटकैंगे। हम सबब तो दीवार गिरी।
राजा : चुप रहो, सब लोग, राजा के आछत और कौन बैकुंठ जा सकता है ? हम को फाँसी चढ़ाओ, जल्दी, जल्दी।
(वाक्य के खत्म होते न होते इंस्पेक्टर और हवलदार स्टेज पर धड़धड़ाते चढ़ते दिखते हैं)
सूत्रधार : (उन्हें मंच पर आता देख) कहाँ चले आ रहे हो, भई ? अब कोई एंट्री नहीं, चलो, चलो, नीचे...
इंस्पेक्टर बिल्ला : (तेज़-कठोर आवाज़ में) एंट्री-फेंट्री तेरी माँ की... बंद कर यह नौटंकी। (बंदूक का कुंदा उस की तरफ करता है।) कोई हिल-डुल नहीं। मेरे लोगों ने पूरा स्टेज घेर रखा है।
(सूत्रधार और नटी देखते हैं कि पुलिस मंच को घेरे हुए है। इन दोनों के अलावा सभी कलाकार और पूरा सीन फ्रीज़)
सूत्रधार : (स्थिति की भयावहता को समझ, आगे बढ़) इंस्पेक्टर बिल्ला !
बिल्ला : तू कौन ?
सूत्रधार : मैं सूत्रधार, डायरेक्टर....
बिल्ला : सूत्रधार क्या ? डोराक्टर कहाँ के ?
हवलदार : सर, सूतधार नहीं, सूत्रधार, डोराक्टर नहीं, तमाशे का डायरेक्टर। सर, मैंने एम.ए. हिंदी किया है...
बिल्ला : ठीक है, ठीक, है (चीखते हुए) डोरक्टर !
सूत्रधार : सर !
बिल्ला : सर के बच्चे, बंद कर यह खेल-तमाशा...
हवलदार : खेल ख़त्म, पैसा हज़म। (जैसे अपने से) क्यों करें बंद, फालतू में बौखला रहा....
बिल्ला : क्या कहा ?
हवलदार : सूत्रधार की हिमाक़त देखो, सर, आप के रिंकू-टिंकू को पास नहीं दिये–आप की नाक कट गयी न ?
(नटी हँसती है)
बिल्ला : हो, हो, हो, हो हवलदार ! किस की नाक ?
हवलदार : सर, जिस की कटी...
बिल्ला : कटी नहीं, फटी–हवलदार के बच्चे, बड़ी बात है पब्लिक–क्या कहते हैं उसे–
हवलदार : पब्लिक मॉरैलिटी, सर ( अपने से) साला दोगला...
बिल्ला : हां, हाँ, पब्लिक मारलटी...
नटी : मारलटी नहीं, मॉरैलिटी, इंस्पेक्टर बिल्ला ! (हँसती है)
बिल्ला : निकालता हूँ तेरी हँसी...
नटी : इंस्पेक्टर बिल्ला, ग़ज़ब का तमाशा हुआ और अज़ब हैं आप कि हँसे नहीं ?
बिल्ला : मैं तेरा वो तमाशा बनाऊँगा कि तू रोएगी। (सूत्रधार से) तूने राजा को फाँसी दी ?
सूत्रधार : नहीं, सर, मैं कौन होता हूँ राजा को फाँसी देने वाला ?
हवलदार : सर, आपने देखा नहीं राजा ने ख़ुद कहा मुझे फाँसी चढ़ाओ !
बिल्ला : चुप्प ! मुझे साजिश की बू आ रही है...
हवलदार : (सूंघता हुआ) न, न, न इधर न उधर, कहीं बू-बा नहीं
बिल्ला : (सूत्रधार के कंधे पर बंदूक का कुंदा दबाता हुआ) सीधे-सीधे बोल, नहीं तो...
नटी : बंदूक हटा तो बोले
बिल्ला : चोप्प ! हरामजादी...
नटी : (गाली बुदबुदाती है)
बिल्ला : क्या कहा ?
सूत्रधार : बिल्ला !
बिल्ला : (नटी को ललचाई नज़रों से देखता हुआ) बिल्ला ! (अट्टहास करता है) भयानक बिल्ला ! (कहते कहते अट्टहास की जगह कठोरता ले लेती है) तू बिल्ले को नहीं जानती ! मुझे चिढ़ाएगी ?
(जंगली बिल्ले की-सी हरकतें करता हुआ) फाड़ डालूँगा
हवलदार : सर, बहुत बड़ी एकट्रेस है
बिल्ला : (खा जाने वाली निगाह से नटी को देखता हुआ) लगता तो है... (पलट कर) तू क्यों कर जाणै ?
हवलदार : कहाँ देखा था ? हाँ, याद आया, द्रौपदी नाटक था। मेरी ड्यूटी हॉल में थी... आप ने वो नाटक देखा, सर ?
बिल्ला : (चीख़ता हुआ) नहीं...
हवलदार : ज़रूर देखो, सर, छा गयी थी। धृतराष्ट्र सर न उठा सका। हाँ, कृष्ण की बात अलग है, मगर उस सीन में वह भी इस के सामने टिक न सका।
बिल्ला : तोप है ?
हवलदार : हाँ, सर, तोप है।
बिल्ला : (दाँत पीसता हुआ) मैं उसे तिनके-सा मसल दूँगा।
हवलदार : सर !
बिल्ला : हट, (सूत्रधार से) तैने राजा को फांसी दी...
सूत्रधार : नाटक में होता ही है
हवलदार : उस दिन मैंने देखी अभिनय यानी सर, एक्टिंग की ऊँचाई...
बिल्ला : (नटी की तरफ देख कर हँसता हुआ) मैं भी देखूँगा एक दिन ! (सूत्रधार से) क्या होता है नाटक में, बोल ?
सुत्रधार : (उसी मुद्रा में) सर, यह लोककथा है।
बिल्ला : होगी, मगर तैने उसे दिखाया क्यों ?
हवलदार : सर छोड़िए, ‘अंधेर नगरी’ पुराना नाटक है। मैंने पढ़ा है। मैंने एम.ए. हिन्दी...
बिल्ला : चोप्प, अगर अब तैने एम.ए. हिंदी का नाम लिया...
हवलदार : सर, सैकड़ों बार खेला जा चुका है।
बिल्ला : चोप्प गधे, एक बार हो या सैकड़ों बार, कानून कायदा कोई चीज़ है कि नहीं ?
सूत्रधार : है, लेकिन खेल में कानून का क्या काम ? खेल खेल है, सर...
बिल्ला : और कानून कानून है– (भौंडे ढंग से दाँतों में पीस-पीस कर बोलता है)
(सूत्रधार से) हालात पहले से बिगड़े हुए हैं, ऊपर से तूने राजा को फाँसी पर चढ़ता दिखाया...तूने पूरे सिस्टुम की ऐसी-तैसी कर दी।
हवलदार : सर, सिस्टुम नहीं, सिस्टम...
नटी : सिस्टुम ! (एक-एक अक्षर को तोड़ती हुई हँसती है)
बिल्ला : तू क्यों हँसी ?
(और खुल कर हँसती है)
बिल्ला : चुप्प !
सूत्रधार : हँसना मना है क्या ?
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