हास्य-व्यंग्य >> फंडा मैनेजमेंट का फंडा मैनेजमेंट काप्रेमपाल शर्मा
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‘‘लकड़ी का तो सुना है, चूहे काट सकते हैं, पर लोहा ! स्टील ! मान गए भाई, चूहों को भी। आजादी के जितने पुराने दस्तावेज थे, सबका चूरन बना दिया दुष्टों ने।’’
हिंदी में हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और श्रीलाल शुक्ल ने पिछली सदी में ही
व्यंग्य को एक मजबूत आधार पर प्रतिष्ठित कर दिया था। परसाई जी की वैचारिक
प्रतिबद्धता, शरद जोशी की विदग्ध व्यंजना और श्रीलाल शुक्ल की कथारस में
डूबी वक्रोक्ति की मारक क्षमताएँ जिस बिंदु पर आकर मिलती हैं, वहीं
प्रस्थान बिंदु बनता है परवर्ती काल के प्रेमपाल शर्मा जैसे युवा
व्यंग्यकारों का। उनके अनुभव का क्षेत्र मुख्यतः सरकारी दफ्तर के कदाचार
मध्यवर्गीय जीवन के पाखंड और साहित्यिक-सांस्कृतिक छद्म हैं।
प्रेमपाल की गहरी सामाजिक संपृक्ति ने व्यंग्य को सामाजिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक चेतना का माध्यम बनाने की पहल की है। एक सच्चा व्यंग्यकार महज हास्य तक ही खुद को सीमित नहीं रखता। इससे आगे बढ़कर वह अंतर्विरोधों और ढकोसलों पर धारदार प्रहार करता है।
प्रेमपाल शर्मा के व्यंग्य चुभते भी हैं, गुदगुदाते भी हैं, आईना भी दिखाते हैं, आईने में आए बाल को भी..‘उत्तर भारत का आदमी’ जैसे वेधक व्यंग्य में व्यंग्यकार की क्षमता देखते ही बनती है। इस प्रक्रिया में व्यंग्यकार न खुद को बख्शता है, न खुदी को...प्रेमपाल शर्मा का व्यंग्य अक्सर निथरा, सुथरा और सहज आकर्षण से भरा होता है।
प्रेमपाल का यही वैशिष्टिय उन्हें एक अलग पहचान देगा। यह संग्रह हमें अपनी ऐसी ही कुछ बानगियों से आश्वस्त करता है।
प्रेमपाल की गहरी सामाजिक संपृक्ति ने व्यंग्य को सामाजिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक चेतना का माध्यम बनाने की पहल की है। एक सच्चा व्यंग्यकार महज हास्य तक ही खुद को सीमित नहीं रखता। इससे आगे बढ़कर वह अंतर्विरोधों और ढकोसलों पर धारदार प्रहार करता है।
प्रेमपाल शर्मा के व्यंग्य चुभते भी हैं, गुदगुदाते भी हैं, आईना भी दिखाते हैं, आईने में आए बाल को भी..‘उत्तर भारत का आदमी’ जैसे वेधक व्यंग्य में व्यंग्यकार की क्षमता देखते ही बनती है। इस प्रक्रिया में व्यंग्यकार न खुद को बख्शता है, न खुदी को...प्रेमपाल शर्मा का व्यंग्य अक्सर निथरा, सुथरा और सहज आकर्षण से भरा होता है।
प्रेमपाल का यही वैशिष्टिय उन्हें एक अलग पहचान देगा। यह संग्रह हमें अपनी ऐसी ही कुछ बानगियों से आश्वस्त करता है।
संजीव
(सुप्रसिद्ध कथाकार)
(सुप्रसिद्ध कथाकार)
प्रेमपाल शर्मा
बुलंदशहर (उ. प्र.) के गांव दीघी में 15 अक्तूबर, 1956, को जन्मे
कवि-कथाकार-व्यंग्यकार प्रेमपाल शर्मा अपने समय के ऐसे रचनाकार हैं जो
पहले ही कहानी-संग्रह से चर्चित हो गए थे।
‘तीसरी चिट्ठी’, ‘पिज्जा और छेदीलाल’, ‘अजगर करे न चाकरी’ सरीखे कहानी संग्रहों, ‘चौराहे’ जैसे उपन्यास और ‘आदमी को तलाशते हुए’ सरीखे कविता-संग्रह तक ही स्वयं को सीमित न रख, प्रेमपालजी ने ‘हिंदी पट्टी : पतन की पड़ताल’ और ‘समय, समाज और संस्कृति जैसे विचारोत्तेजक लेख-संग्रह भी दिए हैं।
व्यंग्य यूं तो उनके लेखकीय मिजाज का ही आधार-तत्त्व है, लेकिन ‘फंडा मैनेजमेंट का’ में इनका व्यंग्यकार बाकायदा मुखरित हुआ है।
चर्चित कहानी संग्रह ‘अजगर करे न चाकरी’ पर हिंदी अकादमी, दिल्ली साहित्यिक कृति सम्मान से सम्मानित।
संप्रति : रेल मंत्रालय (रेलवे बोर्ड) में संयुक्त सचिव
संपर्क : 96, कला विहार अपार्टमेंट, मयूर विहार, फेज-1, दिल्ली-110091
‘तीसरी चिट्ठी’, ‘पिज्जा और छेदीलाल’, ‘अजगर करे न चाकरी’ सरीखे कहानी संग्रहों, ‘चौराहे’ जैसे उपन्यास और ‘आदमी को तलाशते हुए’ सरीखे कविता-संग्रह तक ही स्वयं को सीमित न रख, प्रेमपालजी ने ‘हिंदी पट्टी : पतन की पड़ताल’ और ‘समय, समाज और संस्कृति जैसे विचारोत्तेजक लेख-संग्रह भी दिए हैं।
व्यंग्य यूं तो उनके लेखकीय मिजाज का ही आधार-तत्त्व है, लेकिन ‘फंडा मैनेजमेंट का’ में इनका व्यंग्यकार बाकायदा मुखरित हुआ है।
चर्चित कहानी संग्रह ‘अजगर करे न चाकरी’ पर हिंदी अकादमी, दिल्ली साहित्यिक कृति सम्मान से सम्मानित।
संप्रति : रेल मंत्रालय (रेलवे बोर्ड) में संयुक्त सचिव
संपर्क : 96, कला विहार अपार्टमेंट, मयूर विहार, फेज-1, दिल्ली-110091
चूहे और सरकार
दोपहर तक यह बात एक समस्या के रूप में सचिवालय के सारे कॉरीडोरों में
घूमने लगी कि दफ्तर में चूहे काफी हो गए हैं, क्या किया जाए ?
‘‘मेरी तो आधी रैक ही खा डाली।’’
‘‘अरे तुम्हारी फाइलें तो चलो बाहर थीं। बेचारे दावत का माल समझकर कुतर गए होंगे। मेरी तो आलमारी में बंद थी। लोहे की आलमारी में...गोदरेज, समझे !’’
‘‘अच्छा ! कमाल हो गया। गोदरेज की अलमारी में से खा गए !’’ आश्चर्य ने गुप्ताजी का चश्मा हटवा दिया।
‘‘ये बात मेरी समझ से भी बाहर है कि आखिर उसमें घुसे कैसे ? सूत भर भी तो रास्ता नहीं है उसमें जाने का।’’
‘‘अजी घुसने की जरूरत ही क्या है, अंदर ही घर होगा उनका। घुसे तो आप हैं उनके घर में।’’ किसी ने वर्माजी को छेड़ा।
‘‘लकड़ी का तो सुना है, चूहे काट सकते हैं, पर लोहा ! स्टील ! मान गए भाई, चूहों को भी। आजादी के जितने पुराने दस्तावेज थे, सबका चूरन बना दिया दुष्टों ने।’’
‘‘सर ! जिधर मैं बैठती हूँ, वहां भी बहुत हैं। इसीलिए तो मैं अपने पास कोई फाइल नहीं रखती।’’
‘‘और इसलिए, मैं आपसे फिर कह रहा हूं कि आप अपनी सीट मेरे कमरे में ही लगवा लें। दिल में जगह होनी चाहिए...मुझे तो कोई तकलीफ नहीं होगी।’’
तो फिर क्या करना चाहिए ?
‘‘सर ! हमें तुरंत प्रशासन को इत्तिला करनी चाहिए। ये उनका काम है–ड्यूटी लिस्ट के अनुसार।’’
‘‘और क्या ? आखिर प्रशासन करता क्या है जो उनसे चूहे भी नहीं मारे जाते।’’
‘‘अजी क्या पता इन्होंने खुद चूहे मंगवाकर छोड़ दिए हों। ऑडिट वालों को कह तो भी देंगे कि सारे रिकार्ड चूहे खा गए, अब कहां से लाएं ?’’
‘‘मामला गंभीर है सर ! हमें तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए।’’ बड़े बाबू ने सबको जिम्मेदारी का पाठ पढ़ाया।
‘‘हां सर ! इससे गंभीर बात क्या हो सकती है ! जिन रिकार्डों को द्वितीय विश्व-युद्घ में जापान नहीं छीन पाया उसे आजाद भारत के ये चूहे इतने मजे-मजे में हजम कर गए और कानों-कान पता भी नहीं चला !’’
‘‘सर, आपको कब पता चला ?’’
‘‘आज ही, मैंने तो ये आलमारी दो साल से खोली ही नहीं थी। आज जरा ये डायरी रखने के लिए जैसे ही ये अलमारी खोली तो ये माजरा...’’
‘‘अच्छा हुआ सर ! वरना ये नई डायरियां भी खा जाते।’’
‘‘नहीं, वो मैं कभी नहीं करता। नई डायरियां तो मैं सीधे घर ही ले जाता हूं।’’
‘‘सर ठीक कहते हैं, चूहों की जाति का क्या भरोसा। इनके लिए नई-पुरानी, गोरी-काली सब बराबर हैं।’’
तो फिर क्या किया जाए ? प्रश्न गंभीर से भी बड़ा होता जा रहा था।
‘‘सर, मैं एक डिटेल नोट तैयार करता हूं। चूहे कब आए ? ये बिल्डिंग कब बनी ? शुरू में कितने थे और आज कितने ? हर पंचवर्षीय योजना में उनका प्रतिशत कितना बढ़ा है ? किस कमरे में सबसे ज्यादा हैं और किसमें सबसे कम ? कितनी जातियां हैं इनकी, और हर जाति कितनी उम्र तक जिंदा रहती है। इन्होंने प्रतिवर्ष कितनी फाइलें कुतरी हैं और किस विभाग की सबसे ज्यादा ? आसपास के किन-किन मंत्रालयों में उनका आना-जाना है।’’
‘‘सर, आप मानें या न मानें, इसमें विदेशी हाथ भी हो सकता है। जब जम्मू, पंजाब और आसाम में गुपचुप आतंकवादी उतारे जा सकते हैं तो ये तो चूहे हैं। सोचा होगा, हम दुश्मनों को बरबाद करेंगे और चूहे उनके रिकार्डों को। हमारी तो सारी मेहनत पर ही पानी फिर गया।’’
‘‘कब तक तैयार हो जाएगा ये नोट ?’’
‘‘सर ! ज़्यादा टाइम नहीं लगेगा। अभी तो मैं मच्छरों वाली रिपोर्ट बना रहा हूं। आप हुक्म दें तो मैं उसे बीच में छोड़कर पहले इसे शुरू कर दूं।’’
‘‘सर ! मच्छरों वाली रिपोर्ट तो बरसात के बाद भी बन सकती है। और फिर मच्छर-मलेरिया तो आजादी से भी पहले से चल रहा है। महीने-दो-महीने में ही क्या बिगड़ जाएगा। कहिए तो सर, मैं अभी टूर प्रोग्राम बनाकर लाता हूं। पटना, लखनऊ, भोपाल, कलकत्ता के सचिवालयों की स्थिति पर भी हमारी रिपोर्ट में कुछ होना चाहिए, आखिर हम केंद्र सरकार के नुमाइंदे हैं।’’
‘‘सर, मेरा मानना है कि इसमें रूस का अनुभव बहुत महत्त्वपूर्ण हो सकता है। जारशाही के समय कहते हैं कि ऐसे-ऐसे चूहे हो गए थे जो आदमियों पर भी हमला करने लगे थे।’’
‘‘अरे ! ये तो बहुत खतरनाक बात है। यहां किसी पर हमला हो गया तो डिपार्टमेंटल एक्सन हो जाएगा।’’ मातहतों की गंभीरता से सर घबराए जा रहे थे।
‘‘सर ! हमें तो अपनी सीट पर बैठने में भी डर लगता है। कम से कम कैंटीन में चूहे तो नहीं हैं।’’ स्टेनो बोली।
बूढ़ा गरीबदास एक कोने में अपने काम में व्यस्त था। इतनी लंबी-लंबी बहसें तो उसने अंग्रेजों के जमाने में भी नहीं सुनी थी और वह भी चूहों पर। आखिर जैसे ही उसके कान इस चक-चक से पकने को हुए, उसने सुझाव देना ही उचित समझा। ‘‘रुपये दो रुपये की दवा आएगी। आटे की गोलियों में मिलाकर रख देते हैं, चूहे खत्म। घर पर भी तो हम यही करते हैं।’’
‘‘गरीबदास, ये तुम्हारा घर नहीं है, सरकारी दफ्तर है। परमिशन ले ली है दवा लाने की ? जहर होता है जहर–असली। उठाकर किसी बाबू ने खा ली तो ? बंधे-बंधे फिरोगे। नौकरी तो जाएगी ही, पेंशन भी बंद हो जाएगी प्यारे !’’
गरीबदास सिकुड़कर पीछे बैठ गया।
‘‘ये तो वही रहेगा जिसे कहते हैं...’’
‘‘सर, मैं एक बात और कहना चाहता था ?’’
‘‘कहो मिस्टर गुप्ता ! जल्दी कहो। मेरे पास इतना वक्त नहीं है कि उसे बेकार की बहस में गवाऊं। मुझे तीन बजे एक सेमिनार में जाना है।’’
गुप्ताजी सर के कानों तक गरदन लंबी करके फुसफुसाने लगे, ‘‘सर मिस्टर सिंह को अमेरिका भिजवा दो। यह इस बीच वहां की रिपोर्ट ले जाएगा। एक तो हमें कम्युनिस्ट देश के साथ-साथ कैपिटलिस्ट देश की जानकारी भी होनी चाहिए, वरना वित्त मंत्रालय हमारे प्लान को स्वीकृत नहीं करेगा और दूसरे सिंह साहिबान भी चुप बने रहेंगे, वरना कहेंगे अपने अपनों को (सवर्णों) तो विदेश भेज दिया और हमें यहां चूहों से कटवाने के लिए छोड़ दिया। सामाजिक न्याय का भी तो ध्यान रखना है।
मिस्टर गुप्ता की गरदन जब लौटकर पीछे हुई तो सर उसे गर्वित नजरों से देख रहे थे।
‘‘तो ठीक है इस टॉप प्रायरटी दी जाए।’’
‘‘मेरी तो आधी रैक ही खा डाली।’’
‘‘अरे तुम्हारी फाइलें तो चलो बाहर थीं। बेचारे दावत का माल समझकर कुतर गए होंगे। मेरी तो आलमारी में बंद थी। लोहे की आलमारी में...गोदरेज, समझे !’’
‘‘अच्छा ! कमाल हो गया। गोदरेज की अलमारी में से खा गए !’’ आश्चर्य ने गुप्ताजी का चश्मा हटवा दिया।
‘‘ये बात मेरी समझ से भी बाहर है कि आखिर उसमें घुसे कैसे ? सूत भर भी तो रास्ता नहीं है उसमें जाने का।’’
‘‘अजी घुसने की जरूरत ही क्या है, अंदर ही घर होगा उनका। घुसे तो आप हैं उनके घर में।’’ किसी ने वर्माजी को छेड़ा।
‘‘लकड़ी का तो सुना है, चूहे काट सकते हैं, पर लोहा ! स्टील ! मान गए भाई, चूहों को भी। आजादी के जितने पुराने दस्तावेज थे, सबका चूरन बना दिया दुष्टों ने।’’
‘‘सर ! जिधर मैं बैठती हूँ, वहां भी बहुत हैं। इसीलिए तो मैं अपने पास कोई फाइल नहीं रखती।’’
‘‘और इसलिए, मैं आपसे फिर कह रहा हूं कि आप अपनी सीट मेरे कमरे में ही लगवा लें। दिल में जगह होनी चाहिए...मुझे तो कोई तकलीफ नहीं होगी।’’
तो फिर क्या करना चाहिए ?
‘‘सर ! हमें तुरंत प्रशासन को इत्तिला करनी चाहिए। ये उनका काम है–ड्यूटी लिस्ट के अनुसार।’’
‘‘और क्या ? आखिर प्रशासन करता क्या है जो उनसे चूहे भी नहीं मारे जाते।’’
‘‘अजी क्या पता इन्होंने खुद चूहे मंगवाकर छोड़ दिए हों। ऑडिट वालों को कह तो भी देंगे कि सारे रिकार्ड चूहे खा गए, अब कहां से लाएं ?’’
‘‘मामला गंभीर है सर ! हमें तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए।’’ बड़े बाबू ने सबको जिम्मेदारी का पाठ पढ़ाया।
‘‘हां सर ! इससे गंभीर बात क्या हो सकती है ! जिन रिकार्डों को द्वितीय विश्व-युद्घ में जापान नहीं छीन पाया उसे आजाद भारत के ये चूहे इतने मजे-मजे में हजम कर गए और कानों-कान पता भी नहीं चला !’’
‘‘सर, आपको कब पता चला ?’’
‘‘आज ही, मैंने तो ये आलमारी दो साल से खोली ही नहीं थी। आज जरा ये डायरी रखने के लिए जैसे ही ये अलमारी खोली तो ये माजरा...’’
‘‘अच्छा हुआ सर ! वरना ये नई डायरियां भी खा जाते।’’
‘‘नहीं, वो मैं कभी नहीं करता। नई डायरियां तो मैं सीधे घर ही ले जाता हूं।’’
‘‘सर ठीक कहते हैं, चूहों की जाति का क्या भरोसा। इनके लिए नई-पुरानी, गोरी-काली सब बराबर हैं।’’
तो फिर क्या किया जाए ? प्रश्न गंभीर से भी बड़ा होता जा रहा था।
‘‘सर, मैं एक डिटेल नोट तैयार करता हूं। चूहे कब आए ? ये बिल्डिंग कब बनी ? शुरू में कितने थे और आज कितने ? हर पंचवर्षीय योजना में उनका प्रतिशत कितना बढ़ा है ? किस कमरे में सबसे ज्यादा हैं और किसमें सबसे कम ? कितनी जातियां हैं इनकी, और हर जाति कितनी उम्र तक जिंदा रहती है। इन्होंने प्रतिवर्ष कितनी फाइलें कुतरी हैं और किस विभाग की सबसे ज्यादा ? आसपास के किन-किन मंत्रालयों में उनका आना-जाना है।’’
‘‘सर, आप मानें या न मानें, इसमें विदेशी हाथ भी हो सकता है। जब जम्मू, पंजाब और आसाम में गुपचुप आतंकवादी उतारे जा सकते हैं तो ये तो चूहे हैं। सोचा होगा, हम दुश्मनों को बरबाद करेंगे और चूहे उनके रिकार्डों को। हमारी तो सारी मेहनत पर ही पानी फिर गया।’’
‘‘कब तक तैयार हो जाएगा ये नोट ?’’
‘‘सर ! ज़्यादा टाइम नहीं लगेगा। अभी तो मैं मच्छरों वाली रिपोर्ट बना रहा हूं। आप हुक्म दें तो मैं उसे बीच में छोड़कर पहले इसे शुरू कर दूं।’’
‘‘सर ! मच्छरों वाली रिपोर्ट तो बरसात के बाद भी बन सकती है। और फिर मच्छर-मलेरिया तो आजादी से भी पहले से चल रहा है। महीने-दो-महीने में ही क्या बिगड़ जाएगा। कहिए तो सर, मैं अभी टूर प्रोग्राम बनाकर लाता हूं। पटना, लखनऊ, भोपाल, कलकत्ता के सचिवालयों की स्थिति पर भी हमारी रिपोर्ट में कुछ होना चाहिए, आखिर हम केंद्र सरकार के नुमाइंदे हैं।’’
‘‘सर, मेरा मानना है कि इसमें रूस का अनुभव बहुत महत्त्वपूर्ण हो सकता है। जारशाही के समय कहते हैं कि ऐसे-ऐसे चूहे हो गए थे जो आदमियों पर भी हमला करने लगे थे।’’
‘‘अरे ! ये तो बहुत खतरनाक बात है। यहां किसी पर हमला हो गया तो डिपार्टमेंटल एक्सन हो जाएगा।’’ मातहतों की गंभीरता से सर घबराए जा रहे थे।
‘‘सर ! हमें तो अपनी सीट पर बैठने में भी डर लगता है। कम से कम कैंटीन में चूहे तो नहीं हैं।’’ स्टेनो बोली।
बूढ़ा गरीबदास एक कोने में अपने काम में व्यस्त था। इतनी लंबी-लंबी बहसें तो उसने अंग्रेजों के जमाने में भी नहीं सुनी थी और वह भी चूहों पर। आखिर जैसे ही उसके कान इस चक-चक से पकने को हुए, उसने सुझाव देना ही उचित समझा। ‘‘रुपये दो रुपये की दवा आएगी। आटे की गोलियों में मिलाकर रख देते हैं, चूहे खत्म। घर पर भी तो हम यही करते हैं।’’
‘‘गरीबदास, ये तुम्हारा घर नहीं है, सरकारी दफ्तर है। परमिशन ले ली है दवा लाने की ? जहर होता है जहर–असली। उठाकर किसी बाबू ने खा ली तो ? बंधे-बंधे फिरोगे। नौकरी तो जाएगी ही, पेंशन भी बंद हो जाएगी प्यारे !’’
गरीबदास सिकुड़कर पीछे बैठ गया।
‘‘ये तो वही रहेगा जिसे कहते हैं...’’
‘‘सर, मैं एक बात और कहना चाहता था ?’’
‘‘कहो मिस्टर गुप्ता ! जल्दी कहो। मेरे पास इतना वक्त नहीं है कि उसे बेकार की बहस में गवाऊं। मुझे तीन बजे एक सेमिनार में जाना है।’’
गुप्ताजी सर के कानों तक गरदन लंबी करके फुसफुसाने लगे, ‘‘सर मिस्टर सिंह को अमेरिका भिजवा दो। यह इस बीच वहां की रिपोर्ट ले जाएगा। एक तो हमें कम्युनिस्ट देश के साथ-साथ कैपिटलिस्ट देश की जानकारी भी होनी चाहिए, वरना वित्त मंत्रालय हमारे प्लान को स्वीकृत नहीं करेगा और दूसरे सिंह साहिबान भी चुप बने रहेंगे, वरना कहेंगे अपने अपनों को (सवर्णों) तो विदेश भेज दिया और हमें यहां चूहों से कटवाने के लिए छोड़ दिया। सामाजिक न्याय का भी तो ध्यान रखना है।
मिस्टर गुप्ता की गरदन जब लौटकर पीछे हुई तो सर उसे गर्वित नजरों से देख रहे थे।
‘‘तो ठीक है इस टॉप प्रायरटी दी जाए।’’
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