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उपन्यास >> मुन्ना बैंडवाले उस्ताद

मुन्ना बैंडवाले उस्ताद

शिवदयाल

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7741
आईएसबीएन :9788126316663

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शिवदयाल न तो गल्प गढ़ते हैं और न ही वृत्तान्त को रबड़ की तरह खींचते हैं वरन् जीवन-प्रवाह में गल्प के विवर्त उठ खड़े होते हैं

Munna Bandvale Ustad - A Hindi Book - by Shivdayal

उत्तर उपनिवेशवादी भारतीय जीवन के कथाकार हैं शिवदयाल। वह चाहे दाम्पत्य जीवन का प्रतिरोध हो या बाज़ारवाद का प्रतिरोध, परजीविता का प्रतिरोध हो या फिर बिन्दास जीवनशैली का प्रतिरोध–सब मिलाकर उत्तरआधुनिक सभ्यता का प्रतिरोध हैं शिवदयाल की कहानियाँ। शिवदयाल न तो समय से त्रस्त हैं और न आशंकित। नये समाज के रचने के क्रम में वे समय भी रच देते हैं। भूमंडलीकरण के नये अर्थतन्त्र की उलझन से अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष करते चन्दन और खुशबू जैसे उनकी कहानियों के पात्र सहज ही नायकत्व पा जाते हैं। चूँकि हर कहानी किसी एक सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति है, इसलिए सभी कहानियों से एक ही कहानी अनस्यूत है। यथार्थ की भाषा रचने में कथाकार की कला की सहजता दिखाई पड़ती है।

शिवदयाल न तो गल्प गढ़ते हैं और न ही वृत्तान्त को रबड़ की तरह खींचते हैं वरन् जीवन-प्रवाह में गल्प के विवर्त उठ खड़े होते हैं। उनके नायक और नायिका उत्तर आधुनिक जीवन के बिन्दास पात्र नहीं हैं। वर्ग चरित्र में वे पेंचकश की तरह प्रवेश करते हैं और उनके शील का उन्मोचन करते हुए वर्ग की पहचान रेखांकित कर देते हैं।

शिल्प की जिस सहजता का दर्शन इन कहानियों में होता है वह आम आदमी की आमफहम भाषा से ही सम्भव है। कथ्य और शिल्प की इस अन्तरंगता के कारण ही ‘मुन्ना बैंडवाले उस्ताद’ के लेखक शिवदयाल हमारे समय के प्रतिनिधि कहानीकार बन गये हैं।
–विजेन्द्र नारायण सिंह


अनुक्रम

  • आलोक
  • ख़बर
  • खटराग
  • तुम वह मत होना
  • समझौता
  • मुन्ना बैंडवाले उस्ताद
  • दान
  • एक सफर का साथ
  • एक सलोनी सी लड़की
  • नॉस्टौल्जिया
  • चन्दन खुशबू की दुकान

  • आलोक

    अवस्था मेरी बहुत हो गयी है। देह की एक-एक मांसपेशी झूल गयी है। अपना काम खुद करने में असमर्थप्राय हो गया हूँ। अब और जिया नहीं जाता लेकिन अब भी अगर जिन्दा हूँ तो सजा काटने के लिए ही न ! मन पर गुनाहों का बोझ है जिसे मैं तुम्हारे साथ बाँट नहीं सकता क्योंकि तुमने ऐन मौके पर साथ छोड़ दिया मेरा, नहीं तो क्यों यह सब अकेले वहन करता, कुछ हलका तो होता। पर नहीं विमल की माँ, तुम इसे बर्दाश्त नहीं कर सकती थीं। तुम्हारी आँखों का तारा तुम्हारे सामने टूटकर बिखर जाए और तुन देख पातीं? यह सब तो मुझे ही झेलना था न!...


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