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वयस्क किस्से

मस्तराम मस्त

प्रकाशक : श्रंगार पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 1990
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 774
आईएसबीएन :

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मस्तराम के मस्त कर देने वाले किस्से


बस अब मैं क्या बताऊँ, जो देखा, मेरा तो पैन्ट में ही गिरने को हो गया। उसका गोरा बदन, सुडौल वक्ष और छोटे-छोटे बालों के बीच छुपे गुलाबी तिकोन देखते ही दिमाग पूरी तरह झनझना गया! लगता था कि उसने अपने गदराये तिकोन के बाल कुछ दिनों पहले ही क्रीम से साफ किये थे। एक मिनट के लिए तो हम दोनों हक्के-बक्के रह गये। उस वक्त तो मैं वहां से चुपचाप निकल कर चला गया क्यूंकि इस समय घर में और भी लोग थे और इस तरह गुसलखाने में मामी से बात करते देखकर सभी को अच्छा न लगता।

मामा अक्सर रात को घर देर से आते थे, इसलिए कभी-कभी मामी से उसके कमरे में बैठ कर मैं बातचीत कर लिया करता था।

उस रात मैंने शरारत से चमकती आँखों से देखते हुए मामी से पूछा-आज तो बड़ा गड़बड़ हो गया।
मामी ने पूछा–क्या?
मैं बोला वही, सुबह आपको साबुन देते समय!
तो उन्होंने कहा–नहीं! जो हुआ सो हुआ!
मैं बोला–लेकिन मुझे सब कुछ दिख गया!
मामी की आँखें बाहर निकल आईं-सब कुछ!!!
मैंने कहा-हाँ, सुबह से आग लगी हुई है!

इस पर वह एक दम शरमा गई और उसका चेहरा लाल हो गया। अब मुझे लगने लगा कि शायद कुछ जुगाड़ बन सकती थी।
कुछ दिन बाद मामा को किसी काम से बाहर जाना था और उन्हें वापस आने में कम से कम तीन दिन लग जाते।
उस रात मैंने मामी से कहा–मामा तो चले गये, अब आपके आगे के दो-तीन कैसे कटेंगे?
वह बोली–हां बात तो ठीक है, पर क्या करें।

मैंने उनको कैरम बोर्ड खेलने के लिए मना लिया। खेलते-खेलते एक गोटी उनकी साड़ी के अन्दर जा घुसी। मैंने गोटी ढूँढने के इरादे से झट से साड़ी में हाथ डालना चाहा तो वो शरमा गई और गोटी खुद निकाल दी।

उन्होनें जब गोटी साड़ी के अन्दर से निकाली तो मुझे उनकी पैन्टी दिख गई थी। उनकी पैन्टी देख कर मैं फिर से गनगना गया था।
खेलने के बाद में मुझे बिस्तर पर बैठे हुए बातें करते समय मेरी हथेली तकिया के नीचे गई तो मेरे उँगलियों में किसी कड़ी चीज का स्पर्श हुआ मेरा हाथ तकिया के नीचे गया और जो कुछ निकला वह एक कंडोम का पैकेट था।

इस पर मैंने जानबूझ कर पृछा–मामी, यह क्या कोई पान मसाला है? आप मसाला खाती हो?
मामी बोली–कुछ नहीं है, वहीं रख दो।
मैंने कहा–मामी मैंने टीवी में अक्सर इसका एड भी देखा है, बताओ ना यह क्या है...?
मामी ने कहा–“तुम तो ऐसे पूछ रहे हो जैसे कुछ पता ही नहीं।”
मैंने कहा–अगर पता होता तो क्यों पूछता?
पर मामी ने कह दिया–रहने दो, यह बड़ों के काम की चीज है।

मेरे इस बारे में बार-बार सवाल करने पर मामी ने टीवी में एक चैनल ढूढ़ा, जिस पर एक सेक्सी सीन चल रहा था और उसकी तरफ इशारा कर दिया।
मैं बोला–इसमें यह चीज तो कहीं दिख ही नहीं रहीं...?
मामी चुप हो गई।

मैं मामी के पास दूसरी बार रात के लगभग 11 बजे फिर पहुँच गया। आज मेरा इरादा अपने पत्ते खोल देने का था। अब इस लुका-छिपी से काम नहीं चलना था।

मैने पूछा-"आपसे एक सवाल पूछना था।"
मामी बोली-"क्या?"
मैं अचानक अपनी पैंट सामने से थोड़ी नीचे की ओर खिसकाने लगा। मामी बोली–यह क्या कर रहे हो?
मैंने कहा- "आजकल पता नहीं क्या होता है, आपके बारे में सोचता हूँ तो यह अचानक इस तरह कड़ा होने लगाता है।"
इस बीच मेरा कामांग धीरे-धीरे अपना आकार बदल कर अब बाहर आने लगा था।
इस चक्कर में मेरी पेंट टाइट हो जाती है।
मैंने पूछा–मुझे लगता था कि लड़कियों का कामांग भी ऐसा ही होता है? उस दिन जबसे मेरी नजर बाथरूम में आप पर पड़ी थी तभी से मेरी उत्सुकता बढ़ गई है। जल्दी-जल्दी में जो कुछ देखा उसको लेकर कुछ सवाल हैं मेरे मन में।

उन्होंने होंठ दबा कर इन्कार में सर हिलाते हुए कहा–नहीं...।
मैं बोला–तो आप दिखाओ ना कि कैसा होता है? और यह खड़ा क्यों हो जाता है?
उन्होंने साफ मना कर दिया।

मैं बोला–आपने ना मुझे पहले यह बताया कि तकिए के नीचे रखा पान मसाले जैसा पैकेट किस काम आता है, ना अब अपना कामांग दिखाती हो। यह अलग बात है कि मैं उसकी एक झलक पहले भी देख चुका हूँ।

इस पर कुछ वो जरा खुली आवाज में बोली–लड़कियों के बाहर कुछ नहीं अकड़ता या खड़ा होता है। हमारा तो सब काम अंदर-ही-अंदर चलता है।
अच्छा! इसका मतलब लड़कियाँ अंदर ही अंदर मजे लेती रहती हैं, और किसी को पता भी नहीं चलता!

मैं अपने कामांग को पैंट के ऊपर से सहलाते हुए बोला–लड़कियों की कामांग होती कैसी है?
यह सब सुन कर और मुझे कामांग सहलाते देख कर मामी बोली–देखो यह सबको नहीं दिखाया जाता है।
मैं बोला–पर मैं तो आपका कामांग देख चुका हूँ, बस केवल एक बार दोबारा ठीक से देखना चाहता हूँ।
वह बोली–हाँ, वह तो है, लेकिन एक शर्त पर दिखा सकती हूँ।
मैंने पूछा–क्या शर्त?
पहले तुम अपनी पेंट ठीक से खोलो और अपना कामांग मुझे दिखाओ, उसे देखने के बाद मैं फैसला करूँगी कि मैं तुम्हें दिखा सकती हूँ कि नहीं। बोलो–मंजूर?

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