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श्रंगार-विलास >> वयस्क किस्से

वयस्क किस्से

मस्तराम मस्त

प्रकाशक : श्रंगार पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 1990
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 774
आईएसबीएन :

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मस्तराम के मस्त कर देने वाले किस्से

उसने ध्यान तो दिया था, लेकिन जब से आई थी, तब से विमल और उसका शरीर माधवी के दिमाग में बुरी तरह छाये हुए थे। वह जैसे किसी नशे में थी। इसलिए अब दिन के उजाले में उसे गाड़ी चलाने में बहुत ध्यान देना पड़ रहा था। हाँ, एक बात की सुविधा थी, स्टेशन उसके घर से अधिक से अधिक एक किलोमीटर की दूरी पर था। साथ ही स्टेशन के लिए सड़क भी बिलकुल सीधी ही जाती थी, कहीं मुड़ने की कोई जरूरत नहीं पड़ती थी। लेकिन यहाँ सब कुछ बहुत बड़ा और फैला-फैला था। अपार्टमेंट के सामने पहुँच कर उसने गाड़ी पार्किग की लाइनों के बीच में पार्क कर दी। दरवाजे से बाहर निकली तो पाया कि गाड़ी एक तरफ की पार्किंग लाइन के ऊपर चढ़ गई थी। इस समय वहाँ अधिक कारें नहीं थी। उसने सोचा दिन में फिर किसी समय वापस आकर कार को ठीक कर देगी। कार से निकल कर वह अपनी बिल्डिंग में पहुँची और बाहर की चाबी से दरवाजा खोलने लगी तो पाया कि चाबी घूम ही नहीं रही थी। एक क्षण के लिए तो वह घबराई, पर फिर दूसरी चाबी से वह खुल गया। इसका मतलब वह गलत चाबी लगा रही थी, असल में वह अपार्टमेंट की चाबी से बाहर बिल्डिंग के दरवाजे को खोलने की कोशिश कर रही थी। दूसरी मंजिल में बने अपने फ्लैट में पहुँच कर उसने दरवाजा अंदर से बंद किया और कुछ देर तक दीवार से टिक कर लंबी साँस ली। अब वह सुरक्षित थी।

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