आधुनिक >> पपलू संस्कृति पपलू संस्कृतिसुधीश पचौरी
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नए मध्यवर्ग के पपलू सपनों और उपभोग-सुखों के वृत्तांतों को उनके चंचल, जटिल पलों में पकड़ने, विखंडित करने की कोशिश
‘पपलू संस्कृति’ न तो पॉपुलर कल्चर की
अवधारणाओं का अनुवाद है और न ही हिन्दी में समझी जानेवाली लोकप्रिय
संस्कृति का पर्याय रूप। इन दोनों से अलग यह उन संदर्भों और उनके
विश्लेषण-पद्धति की खोज है जहां आइस-उद्योग (इंफ़ॉर्मेशन, कंज़्यूमरिज़्म
और एंटरटेनमेंट) द्वारा बताए गए तरीक़ों को अपनाकर, अलग-अलग हैसियत और समझ का शहरी, ग्रामीण, मेट्रो और क़स्बाई समाज धीरे-धीरे मध्य वर्ग की ओर
खिसकता चला जा रहा है। इस अर्थ में यह किताब पॉपुलर कल्चर को महज़
जीवनशैली और संस्कृति का एक रूप मानने के बजाय उस जटिल आर्थिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया का हिस्सा मानती है, जिसके भीतर आज़ादी, प्रेम, प्लेज़र,
स्त्री-मुक्ति और नागरिकता के नए मायने पैदा हो रहे हैं।
हिंदी की दुनिया में, विमर्श के नाम पर एकतरफ़ी बौद्धिकता लादने और जनता की बात करते हुए भी एलीट हो जाने की आदत से अलग यह किताब अपने विमर्श में नागरिक, उपभोक्ता और ऑडिएंस के पक्षों और गतिविधियों को भी डीटेल रूप में शामिल करती है। संभवतः यही वजह है कि यह किताब मीडिया और बाज़ार की ताक़तों से होनेवाले बदलावों की वाज़िब आलोचना करते हुए भी संभावनाओं के चिह्न की तलाश करती है।
पाठ के लिरिकल अंदाज़ और संदर्भों के सच्चेपन की वजह से यह किताब शुरू से अंत तक हमारे ऊपर मौजूदा संस्कृति और बदलावों का संदर्भ-कोश जैसा असर छोड़ती है।
Paploo Sanskriti, Sudhish Pachauri
आवरण डिज़ाइन: मुग्धा साधवानी
हिंदी की दुनिया में, विमर्श के नाम पर एकतरफ़ी बौद्धिकता लादने और जनता की बात करते हुए भी एलीट हो जाने की आदत से अलग यह किताब अपने विमर्श में नागरिक, उपभोक्ता और ऑडिएंस के पक्षों और गतिविधियों को भी डीटेल रूप में शामिल करती है। संभवतः यही वजह है कि यह किताब मीडिया और बाज़ार की ताक़तों से होनेवाले बदलावों की वाज़िब आलोचना करते हुए भी संभावनाओं के चिह्न की तलाश करती है।
पाठ के लिरिकल अंदाज़ और संदर्भों के सच्चेपन की वजह से यह किताब शुरू से अंत तक हमारे ऊपर मौजूदा संस्कृति और बदलावों का संदर्भ-कोश जैसा असर छोड़ती है।
Paploo Sanskriti, Sudhish Pachauri
आवरण डिज़ाइन: मुग्धा साधवानी
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