विविध >> हैलो जिंदगी हैलो जिंदगीराजीव अग्रवाल
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साहस, संकल्प, उत्साह, धैर्य, विश्वास, क्षमा, संस्कार, सुख, सहयोग, सम्मान, तन्मयता आदि जीवन-मूल्यों को आत्मसात् कर जीवन सफल बनायें...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अपनी बात
परमात्मा की कृपा से प्रत्येक व्यक्ति को जीवन का उद्देश्य केवल
सांसारिकता में लिप्त रहना ही नहीं हैं, बल्कि जीवन वह है जिसमें निरन्तर
परिष्कार एवं विकास हो, वही जीवन धन्य है जिसमें दिव्य गुणों का समावेश हो
और जो दूसरों के जीवन को अनुप्राणित कर सकें।
आज व्यक्ति जीवन की आपाधापी में जीवन-मूल्यों को ही भूल रहा है, येन-केन-प्रकारेण करना जीवन की सच्ची उपलब्धि नहीं है बल्कि जीवन मूल्यों को अपनाकर ही हम जीवन को सफल बना सकते हैं।
साहस, संकल्प, उत्साह, धैर्य, विश्वास, क्षमा, संस्कार, सुख, सहयोग, सम्मान, तन्मयता आदि की किसे आवश्यकता नहीं?
‘हैलो जिंदगी’ की रचना इसी उद्देश्य से की गई है ताकि हम अपने जीवन-मूल्यों को जिन्हें हम भूल रहे हैं, जान सकें और उन्हें आत्मसात् कर अपना जीवन सफल बना सकें।
इसी पुस्तक के लिखने में मेरे अपनो ने जो सहयोग मुझे दिया है, सराहनीय है। विशेष रूप से मेरे बच्चों राघव, तान्या, राशि ने भी यह कह-कह कर प्रेरित किया है कि ‘‘पापा, आप तो हमसे ज्यादा स्टड़ी कर रहे हैं।’’
मैं आभारी हूँ भाई समान राजदीपक मिश्रा का जो मुझे हमेशा प्रोत्साहित करते रहे हैं।
मैं पाठकों का भी आभारी हूँ, जिन्होंने मेरी पूर्व-प्रकाशित पुस्तकों को बेहद पसन्द किया। मुझे पूर्ण विश्वास है कि पूर्व की भाँति ही वे इस इस पुस्तक को भी अपनायेंगे।
पुस्तक के संबंध में आपके विचार एवं सुझाव का हमेशा की तरह इंतजार रहेगा।
आज व्यक्ति जीवन की आपाधापी में जीवन-मूल्यों को ही भूल रहा है, येन-केन-प्रकारेण करना जीवन की सच्ची उपलब्धि नहीं है बल्कि जीवन मूल्यों को अपनाकर ही हम जीवन को सफल बना सकते हैं।
साहस, संकल्प, उत्साह, धैर्य, विश्वास, क्षमा, संस्कार, सुख, सहयोग, सम्मान, तन्मयता आदि की किसे आवश्यकता नहीं?
‘हैलो जिंदगी’ की रचना इसी उद्देश्य से की गई है ताकि हम अपने जीवन-मूल्यों को जिन्हें हम भूल रहे हैं, जान सकें और उन्हें आत्मसात् कर अपना जीवन सफल बना सकें।
इसी पुस्तक के लिखने में मेरे अपनो ने जो सहयोग मुझे दिया है, सराहनीय है। विशेष रूप से मेरे बच्चों राघव, तान्या, राशि ने भी यह कह-कह कर प्रेरित किया है कि ‘‘पापा, आप तो हमसे ज्यादा स्टड़ी कर रहे हैं।’’
मैं आभारी हूँ भाई समान राजदीपक मिश्रा का जो मुझे हमेशा प्रोत्साहित करते रहे हैं।
मैं पाठकों का भी आभारी हूँ, जिन्होंने मेरी पूर्व-प्रकाशित पुस्तकों को बेहद पसन्द किया। मुझे पूर्ण विश्वास है कि पूर्व की भाँति ही वे इस इस पुस्तक को भी अपनायेंगे।
पुस्तक के संबंध में आपके विचार एवं सुझाव का हमेशा की तरह इंतजार रहेगा।
सधन्यवाद
राजीव
राजीव
आद्याशक्ति
संसार में बहुत ही जातियाँ हैं, धर्म हैं, सम्पदा हैं, हर किसी ने दैहिक
एवं भौतिक कष्टों से मुक्ति के लिए देवी-देवताओं की परिकल्पना की है और
उनकी पूजा साधना, प्रार्थना का प्रावधान किया है। इस अदृश्य शक्ति को कोई
ईश्वर कहता है, कोई अल्लाह कहता है, कोई गॉड कहता है। संसार में ऐसे भी
लोग हैं जो उन्हें नहीं स्वीकारते हैं कि कोई ऐसी शक्ति है जो इस संपूर्ण
सृष्टि का संचालन करती है। यह शक्ति ही चर-अचर, जड़ एवं जीव की उत्पत्ति
करती है, पोषण एवं पालन करती है और उसका विनाश भी करती है।
आज संसार भर में धार्मिक गुरुओं, दार्शनिकों के साथ वैज्ञानिक भी यह स्वीकार करते हैं कि ऐसी
शक्ति है जो समस्त प्राणियों एवं पदार्थों में व्याप्त है और उसकी इच्छा से ही सब कुछ संचालित होता है हालाँकि यह सुपर पावर आद्यशक्ति दिखाई नहीं देती तो भी धार्मिक एवं वैज्ञानिक इसके अस्तित्व को स्वीकार करते हैं यानि उन्हें इस सुपर पावर की अदृश्य सत्ता का ज्ञान है।
ये आद्याशक्ति है क्या ? शास्त्रों में लिखा है, जिसका स्वरूप कोई नहीं जानता इसलिए उसको अज्ञेया कहते हैं। जिसका अन्त नहीं मिलता, इसलिए उसको अनन्ता कहते हैं, जिसका लक्ष्य दिखाई नहीं पड़ता इसलिए अलक्षा कहते हैं, जिसका जन्म समझ में नहीं आता इसलिए अजन्मा कहते हैं, जो अकेली ही सर्वत्र व्याप्त है इसलिए उसे एकमात्र सर्वशक्तिमान कहते हैं, जो अकले ही सर्वत्र विश्वरूप में विराजमान है इसलिए जिसके समान कोई नहीं है, इन्हीं समस्त व्यक्त एवं अव्यक्त शक्ति सरूपा को ही आद्याशक्ति कहते हैं। इसी आद्याशक्ति से मनुष्य को ब्रह्म विद्या की प्राप्ति होती है और जो अविद्यामय अन्धकार को स्वत: नष्ट कर देती है। ऐसी परमश्रेष्ठा एवं वन्दनीय आद्याशक्ति हम पर कृपा करें यही हमारी कामना है।
आज संसार भर में धार्मिक गुरुओं, दार्शनिकों के साथ वैज्ञानिक भी यह स्वीकार करते हैं कि ऐसी
शक्ति है जो समस्त प्राणियों एवं पदार्थों में व्याप्त है और उसकी इच्छा से ही सब कुछ संचालित होता है हालाँकि यह सुपर पावर आद्यशक्ति दिखाई नहीं देती तो भी धार्मिक एवं वैज्ञानिक इसके अस्तित्व को स्वीकार करते हैं यानि उन्हें इस सुपर पावर की अदृश्य सत्ता का ज्ञान है।
ये आद्याशक्ति है क्या ? शास्त्रों में लिखा है, जिसका स्वरूप कोई नहीं जानता इसलिए उसको अज्ञेया कहते हैं। जिसका अन्त नहीं मिलता, इसलिए उसको अनन्ता कहते हैं, जिसका लक्ष्य दिखाई नहीं पड़ता इसलिए अलक्षा कहते हैं, जिसका जन्म समझ में नहीं आता इसलिए अजन्मा कहते हैं, जो अकेली ही सर्वत्र व्याप्त है इसलिए उसे एकमात्र सर्वशक्तिमान कहते हैं, जो अकले ही सर्वत्र विश्वरूप में विराजमान है इसलिए जिसके समान कोई नहीं है, इन्हीं समस्त व्यक्त एवं अव्यक्त शक्ति सरूपा को ही आद्याशक्ति कहते हैं। इसी आद्याशक्ति से मनुष्य को ब्रह्म विद्या की प्राप्ति होती है और जो अविद्यामय अन्धकार को स्वत: नष्ट कर देती है। ऐसी परमश्रेष्ठा एवं वन्दनीय आद्याशक्ति हम पर कृपा करें यही हमारी कामना है।
हम स्वीकार कर लें कि हम भगवान के हैं और भगवान हमारे हैं।
आभामण्डल
हम अक्सर देखते हैं कि किसी अच्छे व्यक्ति के पास बैठकर हमारे उठने की
इच्छा नहीं होती और किसी के पास बैठने की ही इच्छा नहीं होती। यह सब
आभामण्डल की वजह से होता है। हर व्यक्ति का एक आभामण्डल होता है।
जैसे-जैसे व्यक्ति का शब्द ज्ञान बढ़ाता है, दया, करुणा और स्नेह आदि
भावों को अकस्मात् करता है, किसी का अहित नहीं सोचता है और न ही स्वार्थ
को अपनाता है, उसके चेहरे पर एक विशेष ओज दिखाई देने लगता है और यही ओज का
दायरा आभामण्डल कहलाता है। जब कोई अन्य व्यक्ति इस दायरे में प्रवेश करता
है तो आकर्षित हो जाता है।
हर व्यक्ति का एक अलग आभामण्डल होता है। दृष्टि चरित्र के आभामण्डल का निर्माण उसकी प्रकृति के अनुसार ही होता है। वह किसी को आकर्षित नहीं करता है बल्कि मनुष्य की कान्ति इसी से बढ़ती है।
जिस प्रकार शुद्ध कर्म-क्षेत्र व्यक्ति को ओजस्वी बनाता है उसी प्रकार भावों की शुद्धता, व्यापकता उसे कान्ति में बदल देती है।
आभामण्डल व्यक्ति के मन के भावों की तो सूचना देता रहता है। यही व्यक्ति के मन की खुराक है, यही मन का पोषण करता है। और यही मन को पुष्ट करता है। आज विज्ञान ने इसे सिद्ध कर दिया है।
आज समाज में जितनी तेजी से दुर्विचार एवं विसंगतियाँ बढ़ती जा रही हैं, मनुष्य उनका अभ्यस्त होता जा रहा है जिसके फलस्वरूप वह शारीरिक एवं मानसिक रूप से अशक्त होता जा रहा है। यदि हम अपनी आत्मा एवं मन को स्वस्थ रखेंगे तो निश्चय ही हमारा आभामण्डल ओजस्वी होगा और हम समाज में सभी के प्रति सम्मानित बने रहेंगे।
हर व्यक्ति का एक अलग आभामण्डल होता है। दृष्टि चरित्र के आभामण्डल का निर्माण उसकी प्रकृति के अनुसार ही होता है। वह किसी को आकर्षित नहीं करता है बल्कि मनुष्य की कान्ति इसी से बढ़ती है।
जिस प्रकार शुद्ध कर्म-क्षेत्र व्यक्ति को ओजस्वी बनाता है उसी प्रकार भावों की शुद्धता, व्यापकता उसे कान्ति में बदल देती है।
आभामण्डल व्यक्ति के मन के भावों की तो सूचना देता रहता है। यही व्यक्ति के मन की खुराक है, यही मन का पोषण करता है। और यही मन को पुष्ट करता है। आज विज्ञान ने इसे सिद्ध कर दिया है।
आज समाज में जितनी तेजी से दुर्विचार एवं विसंगतियाँ बढ़ती जा रही हैं, मनुष्य उनका अभ्यस्त होता जा रहा है जिसके फलस्वरूप वह शारीरिक एवं मानसिक रूप से अशक्त होता जा रहा है। यदि हम अपनी आत्मा एवं मन को स्वस्थ रखेंगे तो निश्चय ही हमारा आभामण्डल ओजस्वी होगा और हम समाज में सभी के प्रति सम्मानित बने रहेंगे।
आभामण्डल श्रेष्ठ व्यक्ति का दर्पण है।
सत्य
सत्य के बराबर कोई दूसरी तपस्या नहीं है। सत्य का स्वरूप अत्यन्त विस्तृत
एवं महान है। यह अटल होता है। इसका प्रारूप भूत, वर्तमान तथा भविष्य तीनों
ही कालों में एक समान रहता है। सत्य की महिमा सर्वोपरि है।
हम सभी मानते हैं कि सभी मनुष्यों को सत्य बोलना चाहिए। बचपन से ही हमें यह शिक्षा दी जाती है कि झूठ बोलना पाप है। विडम्बना यह है कि हम सभी कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में, प्रत्यक्ष या परोक्ष झूठ का सहारा लेते ही हैं। अब यह प्रश्न उठता है कि यह जानते हुए कि हमें झूठ नहीं बोलना चाहिए फिर भी हम सत्य पर अटल नहीं रह पाते हैं।
सत्य क्या है ? इसका उत्तर स्वयं अत्यन्त विस्तृत एवं महान है। परन्तु साधारण शब्दों में, जो एक रूप हो वही सत्य है। साधारण मनुष्य के लिए सत्य का मार्ग अत्यन्त कठिन होता है। आधुनिक युग में मनुष्य में असंतोष एवं स्वार्थ लोलुपता चरम पर हैं, इन परिस्थितियों में उपर्युक्त कथन की सत्यता को और भी अधिक बल मिलता है।
सच के पथ पर चलने वाले व्यक्ति के मार्ग में अनेकों मुश्किलें आती हैं। सत्य का आचरण करने वाले व्यक्ति को जीवन में अनेक कटु अनुभवों का सामना करना पड़ता है।
इस मार्ग पर वही व्यक्ति अडिग रह सकता है जिसमें दृढ़ इच्छाशक्ति हो और जो सत्य को ही जीवन का परम उद्देश्य मानता हो। उसकी दृष्टि में असत्य अथवा झूठ से बढ़कर तीनों लोकों में कोई दूसरा पाप नहीं हो। सत्य से ही उसे ईश्वर प्राप्ति की सुखद अनुभूति होती हो।
आज सत्य के मार्ग पर चलना तलवार पर चलने के समान है, फिर भी हमें सत्य का साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए, इस मार्ग पर चलने से जो हमें आत्मिक शान्ति मिलती है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता है।
हम सभी मानते हैं कि सभी मनुष्यों को सत्य बोलना चाहिए। बचपन से ही हमें यह शिक्षा दी जाती है कि झूठ बोलना पाप है। विडम्बना यह है कि हम सभी कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में, प्रत्यक्ष या परोक्ष झूठ का सहारा लेते ही हैं। अब यह प्रश्न उठता है कि यह जानते हुए कि हमें झूठ नहीं बोलना चाहिए फिर भी हम सत्य पर अटल नहीं रह पाते हैं।
सत्य क्या है ? इसका उत्तर स्वयं अत्यन्त विस्तृत एवं महान है। परन्तु साधारण शब्दों में, जो एक रूप हो वही सत्य है। साधारण मनुष्य के लिए सत्य का मार्ग अत्यन्त कठिन होता है। आधुनिक युग में मनुष्य में असंतोष एवं स्वार्थ लोलुपता चरम पर हैं, इन परिस्थितियों में उपर्युक्त कथन की सत्यता को और भी अधिक बल मिलता है।
सच के पथ पर चलने वाले व्यक्ति के मार्ग में अनेकों मुश्किलें आती हैं। सत्य का आचरण करने वाले व्यक्ति को जीवन में अनेक कटु अनुभवों का सामना करना पड़ता है।
इस मार्ग पर वही व्यक्ति अडिग रह सकता है जिसमें दृढ़ इच्छाशक्ति हो और जो सत्य को ही जीवन का परम उद्देश्य मानता हो। उसकी दृष्टि में असत्य अथवा झूठ से बढ़कर तीनों लोकों में कोई दूसरा पाप नहीं हो। सत्य से ही उसे ईश्वर प्राप्ति की सुखद अनुभूति होती हो।
आज सत्य के मार्ग पर चलना तलवार पर चलने के समान है, फिर भी हमें सत्य का साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए, इस मार्ग पर चलने से जो हमें आत्मिक शान्ति मिलती है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता है।
सत्य की सत्ता कभी मिटती नहीं।
मन
मनुष्य के जीवन का आधार मन है। यदि मनुष्य के पास मन है तो इच्छा है,
इच्छा है तो कर्म है और लक्ष्य है, यही जीवन है। मन को चंचल कहा गया है।
हमारी इन्द्रियाँ अलग-अलग विषयों से हर पल जुड़ती रहती हैं, जिसके
फलस्वरूप हमारा मन कभी भी स्थिर नहीं रह पाता है।
इच्छाएँ मन में ही उत्पन्न होती हैं, कैसे उत्पन्न होती हैं यह कोई नहीं जानता, मनुष्य इन्हें पूरी करने का प्रयत्न करता है या फिर दबाता है, दबाने की हमारे यहाँ मनाही है, उन्हें अन्य भावों में परिवर्तित करने की सलाह दी जाती है। क्योंकि दबी हुई इच्छा कब, किस रूप में जाग्रत हो जाये, कहना बड़ा मुश्किल है। हमारा वातावरण, स्वजन, मित्र हमारे मन का पोषण करते हैं और मन की उपासना, चिन्तन आदि को समझने में सहायक होते हैं। मन को समझना और उसमें सकारात्मक भाव बनाये रखना ही उन्नति का मार्ग है।
इच्छाएँ मन में ही उत्पन्न होती हैं, कैसे उत्पन्न होती हैं यह कोई नहीं जानता, मनुष्य इन्हें पूरी करने का प्रयत्न करता है या फिर दबाता है, दबाने की हमारे यहाँ मनाही है, उन्हें अन्य भावों में परिवर्तित करने की सलाह दी जाती है। क्योंकि दबी हुई इच्छा कब, किस रूप में जाग्रत हो जाये, कहना बड़ा मुश्किल है। हमारा वातावरण, स्वजन, मित्र हमारे मन का पोषण करते हैं और मन की उपासना, चिन्तन आदि को समझने में सहायक होते हैं। मन को समझना और उसमें सकारात्मक भाव बनाये रखना ही उन्नति का मार्ग है।
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लोगों की राय
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